बैंक से सेवा निवृत्ति के बाद कविता लेखन में सक्रिय।

अफ्रीका की कविता
बहुत पहले
लाखों साल पहले
अफ्रीका के घने जंगलों में
पहली माँ ने गाया था एक गीत
अपने एक बेचैन शिशु के लिए
जो सो नहीं रहा था
रात की डरावनी और क्रूर आवाज़ों से घबरा कर
पर पता नहीं कैसे
माँ की पतली मीठी आवाज़ में
दब गई सारी हिंसक ध्वनियाँ
और बोझिल आंखों से बच्चे ने
माँ को देखा फिर सो गया
निश्चिंत हो कर उसके कंधे पर
फिर गुजरते गए साल, दशक,
शताब्दियाँ, सहस्त्राब्दियाँ
वह गीत तैरता रहा हवा में
गायब हुआ नहीं
गल्फ स्ट्रीम, चक्रवातों
और भाप भरी व्यापारी हवाओं से
फैलता रहा सब ओर
फिर सभी महाद्वीपों में
द्वीपों में
सागरों और पहाड़ों में
गाने लगीं लाखों लाखों माएँ
कविताएँ गढ़ गढ़ कर
अपने रोते हुए शिशुओं के लिए
भाषा के इज़ाद होने से बहुत पहले
कविता तो जन्मती ही ऐसे है
प्रेम से
भाषा से परे
बहते आंसुओं को पोंछने के लिए
सिर पर हाथ रख दुलराने के लिए
सीने से चिपका कर अभय करने के लिए
कविताएँ यूँ ही तो लिखी जाती हैं..।
आख़िरी पहाड़
पहाड़ों के पीछे पहाड़
पहाड़ों के पीछे पहाड़
चले जाते हैं क्षितिज तक
धीमे धीमे रंग बदलते
पहले हरे, फिर नीले
फिर हलके नीले
फिर गुम हो जाते हैं
बादलों में
आकाश में
कुछ पता नहीं चलता
कि ऐन आखिरी पहाड़
है कैसा
क्या उगता है उस पर
कौन सी चिड़िया आती है वहां सर्दियों में,
रात में कैसा दिखता है
उसका फूलों, झरनों और पत्तियों से सजा चेहरा
क्या कोई गाता है वहाँ
गिटार पर कैंप फायर के पास?
क्या होता है वहाँ बारिश में
जहाँ जाती नहीं नजर?
कैसे चमकते होंगे उसके पत्थर
मई की धूप में ?
उस आखिरी पहाड़ को सोचता हूँ
फिर तुम्हें सोचता हूँ।
90-91 सनसिटी, महालक्ष्मी नगर के पास, इंदौर (म प्र) 452010 मो. 975287878
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कविता का आशय और भावसौंदर्य बहुत लाजवाब है।