विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। लखनऊ शहर में ‘सुख़न चौखट’ साहित्यिक संस्था का संचालन।
इमाम दस्ता
लोहे का था एक मेरे पास
नानी के ज़माने का
मां ने बड़े जतन से रखा था संभाल
कि एक रोज़ मुझे सौंप देंगी ब्रह्म बेला में
और हुआ यूं कि एक दिन सच में
सौंप दिया मां ने लोहे का इमाम दस्ता
कहती थी मां कि नानी की मां ने दिया था नानी को
और नानी की मां को उनकी मां ने
पीढ़ियां बदल गईं पर इमाम दस्ता न बदला
न ही बदली उसकी जगह
वह स्त्रियों के जीवन में सदियों से शामिल रहा
सदियों तलक
जंग न लगे तो लोहा लोहा ही बना रहता है हमेशा
कहती थी नानी देते हुए हिदायत कि देखो
जंग न लगने पाए कभी
बड़े ज़ोर देने पर देख पाती हूँ मां के घर में
उसका इस्तेमाल
लाल सूखी मिर्च की झांपी के पीछे
मां का मिर्च से जलता लाल चेहरा
पोछते हुए आंख का पानी वह कूटती जाती
एक के बाद एक मसाले
सूप में पछोर कर अलग करती जाती
मसालों की कनकियां
पर नहीं कर पाई अपने जीवन की कनकियों को
पछोर कर ख़ुद से अलग
वे मसालों में मिलावट की तरह शामिल रहे
उसके जीवन में
दिनों महीनों सालों की उसकी मेहनत ने
हमेशा ज़िंदा रखा हमारे स्वादों को और हम
कम नमक के आधार पर तय करते रहे होना उसका
और एक दिन
घर के सारे स्वादों को भर कर इमामदस्ते में
सौंप दिया उसने मुझे अपना हाथ
ये बताते हुए कि कितना भी कूट लो मसालों को
इमामदस्ते में
स्त्रियों के जीवन से लोहे का स्वाद नहीं जाता
नहीं ही जाता।