कर्कि कृष्णमूर्ति

पेशे से इंजीनियर। कन्नड के हाल के कहानीकारों में नए तेवर के रचनाकार के रूप में पहचान। अब तक दो कहानी-संग्रह प्रकाशित।

डी.एन.श्रीनाथ

कन्नड-हिन्दी में परस्पर अनुवाद। अब तक 80 पुस्तकें प्रकाशित। साहित्य अकादमी का अनुवाद पुरस्कार.

शृंग की उम्र तीन साल की हुई, फिर भी वह चल नहीं सकता था। उसके हमउम्र लड़के पैर में ‘छींव-छींव’ आवाज करते बूटों को पहनकर प्लेहोम, मांटेस्सरी जाते थे, मगर शृंग तो घुटनों से ही चलता था। वैसे उसकी बुद्धि में कोई कमी नहीं थी। वह सिर्फ चल नहीं सकता था, बाकी बातों में तो वह अपने हमउम्र बच्चों से कुछ ज्यादा ही तेज था। दस-पंद्रह शिशुगीत, एबीसीडी, घोड़ा, गधा, कुत्तों की पहचान करता था। इसके अतिरिक्त टीवी के कई कार्टून कैरेक्टर उसे हस्तगत थे। उसके पैर भी मजबूत थे और वे लंबाई में भी ठीक ही थे। फिर भी हाथ पकड़कर खड़ा करने से भी और खड़ा होने के लिए कोई आधार देने पर भी, उठ खड़े होते ही घुटने टेक लेता था! उसके माता-पिता उसकी इस विकलांगता से डर गए और कई डॉक्टरों के यहाँ जाँच कराईं। वे जहाँ भी जाते, शृंग के पाँव, हाथ, सिर, आँख, नाक के स्कैनिंग किए जाते और डॉक्टर्स कहते थे कि कोई दोष नहीं है, उसे चलना सिखाइए। शृंग चल सके, इसके लिए प्रेरणात्मक कई कोशिशें माता-पिता करने लगे। वे गेंद को दूर फेंकते और कहते, ‘पकड़ो इसे…’ और गेंद के साथ खुद भी भागते। रीमोट कंट्रोल कार को उसके सामने ही ‘जुर्र’ दौड़ाते और कहते, ‘कमऑन…कमऑन…कैच इट’ और तालियाँ बजाते। गुब्बारे को ऊपर उड़ाते और उसे पकड़ने के लिए उकसाते हुए कूदते थे। मगर शृंग था कि बैठा ही रहता, हिलता नहीं था।

इसी तरह उसके माता-पिता एलोपैथी, होमियोपैथी इलाज, व्रत, मन्नतें करते, इंटरनेट आदि की शरण में जाते और शृंग की कमियों के समाधान के लिए कोशिश करते। तभी एक दिन शृंग बिना आधार के खड़ा हो गया। उसे एक के आगे एक कदम रखते हुए चलते देख कर सभी अचरज में पड़ गए…’अरे-अरे….यह तो अचानक चलना शुरू कर दिया…’ और एकाएक शृंग दौड़ने लगा। वह इस प्रकार दौड़ने लगा मानो इतने दिनों तक जो चल नहीं सका था, आज ही पूरा कर देगा। वह घर भर में दौड़ने लगा। कुर्सी, तिपाई पर से चढ़ता-उतरता रसोई घर, सोने का कमरा और चारों ओर दौड़ने लगा। उसका उत्साह देख कर माता-पिता की खुशी की सीमा नहीं थी।  मगर वह खुशी ज्यादा दिन तक नहीं रही। फिर से साबित हुआ कि शृंग को चलना नहीं आता। अब वह चलने के बजाय दौड़ता था!

शुरू-शुरू में शृंग को सभी ने समझाया, ‘देखो….तुम धीरे-धीरे चलो… तुम इस तरह क्यों दौड़ते हो…?’ मगर इन बातों का कोई असर उस पर नहीं पड़ रहा था। यों तो वह बाकी मामलों में सहज ही था। बैठने के वक्त, खड़े होने के वक्त या सोने के वक्त कोई बदलाव नहीं था। अक्लमंदी में, स्मरण शक्ति में, पढ़ने-लिखने में शृंग दूसरों से एक कदम आगे ही था। खाने-पीने में और नींद के बारे में भी कोई कसर नहीं थी। मगर जब उसे, ‘खाना खाने के लिए आओ’ कहकर पुकारा जाता तो वह घर के बीच के कमरे में जो सोफा था, उसे तड़पकर डाइनिंग टेबल के पास दौड़ कर ही आता था। स्नान करके  बाहर आते  वक्त, दुकान से समान लाते वक्त, सड़क के किनारे जाते वक्त या स्कूल जाते वक्त या खेल के मैदान में, जब कभी उसे चलने का मौका मिलता था, दौड़ता था। यह उसके माता-पिता के लिए और एक समस्या और परेशानी की बात हो गई। वे यह सोच कर डर गए कि यह एक मानसिक बीमारी होगी, डॉक्टर से जाँच करवाया। उन्होंने सोचा कि यह सिजोफ्रेनिया में से एक प्रकार का बायपोलर डिसऑर्डर होगा। मगर शृंग में उस बीमारी के बाकी के लक्षण नहीं थे। इसलिए उन्होंने प्रयोगार्थ कुछ दवाइयाँ दी और उसे भेज दिया। मगर उनसे कोई लाभ नहीं हुआ।

शृंग को यह देर से समझ आया कि वह चलता नहीं है, दौड़ता है। स्कूल के वार्षिक सम्मेलन में, पुरस्कार लेते वक्त लोग तालियाँ बजाते थे तो शृंग सोचता था कि मैं उठ कर दौड़ता गया, इसलिए तालियाँ बज रही हैं, और वह खुश हो जाता था। जब वह बड़ा होता गया, तो डिस्कवरी चैनल में जानवरों के कार्यक्रम देख कर बहुत खुश होता था।

जब चीता तेजी से एक हिरण पर हमला करता तो शृंग रोमांचित हो जाता था। सूर्य आसमान में जब उगता था, लगता था कि चीता के लिए और हिरण के लिए दौड़ना अनिवार्य है। जो दौड़ता है, जीता है यह बात जब उसकी समझ में आने लगी तब उसे अपनी दौड़ की सार्थकता का धीरे-धीरे अहसास होने लगा था। दौड़ उसके लिए विश्वसनीय होता गया। उस दिन से वह अधिकार के साथ दौड़ने लगा।

दिन बीतते-बीतते चलने के बदले में उसका दौड़ना होता था, उसे और उसके साथियों को भी बहुत सहज लगने लगा था। शृंग को जो पहले देखता, उसे अद्भुत लगता, मगर आगे उसके दोस्त, ऑफिस, बीवी, नए-नए रिश्तेदार सभी को सह्य हो गया था। इसके अलावा इससे उसे असुविधा के बदले सुविधा ही होने लगी थी। वह कहीं भी पीछे ही नहीं पड़ा। वह आसानी से बस पकड़ता, ऑफिस और मीटिंग्स में देर से नहीं पहुँचता। चाहे कहीं भी जाए, कुछ भी करे, हमेशा दौड़ता और आगे रहता, उसे ही आदर मिलता। इस दौरान उसकी उम्र बढ़ती गई और यद्यपि उसके ध्यान में यह बात आ गई थी कि सप्ताह में पंद्रह मील की दौड़ मात्र तंदुरुस्ती के लिए लाभदायक है, उससे ज्यादा दौड़ने पर हृदय से संबंधित बीमारियाँ आने की संभावना है, फिर भी उसे दौड़ने की आदत को बंद करने का मन नहीं था। इसके लिए उसके पास काफी पुष्टीकरण भी थे। वह हिसाब लगाता था कि एक व्यक्ति रोज कितने घंटे चलता है, चलन की उस अवधि को दौड़ के हिसाब से देखा जाए तो कितना समय बचता है और कुल मिलाकर एक साल में कितने दिनों की बचत होती है? यह बात दूसरों को अतर्कित लगता, मगर उसके लिए वह खुशी देती थी। आज के हालात में दिन के चौबीसों घंटे कम लगते हैं, इन बोनस दिनों से जो फायदा होता था, सोचकर वह रोमांचित हो जाता था।

इसी प्रकार जब दोपहर के बाद सूर्य सिर के ऊपर से ढल रहा था, एक बात उसके ध्यान में आई, जिसकी ओर उसने कभी लक्ष्य ही नहीं किया था। जब वह दौड़कर ऑफिस जाता, रोज सामने डेस्क की लड़की ‘गुड मॉर्निंग सर’ कहने के लिए इंतजार कर रही होती। पर कई बार उसका बॉस उससे भी पहले ऑफिस में पहुँच चुका होता था। ऑफिस की बात छोड़िए, वह जब दौड़ता हुआ, हाँफता हुआ बस स्टैंड जाता, वहाँ दस-पंद्रह लोग पहले से ही बस की प्रतीक्षा में खड़े पाए जाते थे।

चाहे सिनेमा थियेटर का टिकेट हो, बैंक का चेक हो, अस्पताल में जाँच कराने की बात हो, उसके जाने से पहले ही वहाँ पर लंबी क्यू लगी रहती थी। इसके बारे में सोचकर वह विस्मित हो जाता कि बिना दौड़नेवाले ये सभी उसके आने से पहले ही वहाँ कैसे पहुँच सके? क्या ये सब लोग पहले से ही यहाँ थे या ये भी मेरे जैसे दौड़नेवाले हैं और इन्हें मैं नहीं देख पा रहा हूँ? वह उलझन में पड़ जाता।

दौड़नेवाले के रहते दूसरे लोग पहले पहुँचे, इस बात से वह सहमत नहीं था। यह बात भी उसकी समझ में नहीं आई कि ये सब हाल ही की बात है या पहले भी होती थी। गाँव-शहर हर जगह लोगों से भरा हुआ है, इसलिए यह हलचल मचा हुआ है, उसने सोचा। गाँव से चाहे बाहर हो, चाहे कितने भी दूर हो, सबसे पहले उसे ही उस जगह पहुँचना है, यह उत्कट कामना उसे सताने लगी।

दूसरे दिन, जब रोशनी फैलने लगी, वह लगातार दौड़ने लगा। क्रॉस रोड, मेन रोड, रिंग रोड, ट्रेफिक सिगनल, फ्लाईओवर सभी को पार करता हुआ और लंबी-लंबी इमारतें, सड़क की बिजलियों को पीछे छोड़ता हुआ वह मैदान और पहाड़ों पर दौड़ने लगा। गर्मी, बारिश, पत्थर, काँटों की परवाह किए बिना दौड़ने लगा, इस बीच थक भी गया, उसे डर था कि अगर तेजी से न दौड़ूँ तो दूसरा कोई मुझसे आगे चला जाएगा, इसलिए दौड़ता ही था। न जाने कितने दिन और कितना दूर चला गया, फिर भी जिद छोड़े बिना दौड़ता ही चला, तभी उसे लगा कि नाक में कोई बुरी गंध आ रही है। आगे-आगे दौड़ता गया तो उसके साथ ही गंध बढ़ती गई। वह गंध को सह न सका, मगर दौड़ को रोक नहीं सकता था, इसलिए दौड़ता गया। उसे जब लगा कि गंध और ज्यादा हो गई है, तो उसे पता चला कि वह एक संकीर्ण पहाड़ी के शिखर पर है, वह तुरंत रुक गया। ओह! सामने देखा तो जमीन ही नहीं है। वह एक भयानक बड़ी तराई थी! झुक कर देखा तो अंधकार ही अंधकार दिखाई पड़ा। न जाने वह कितनी अथाह गुहा थी! अगर वह एक कदम आगे रखता तो प्रपात की गोद में जा पड़ता, यह सोच कर उसका शरीर कांप उठा। जो असह्य दुर्गंध आ रही थी, इसी गुहा से आ रही है, उसे यह स्पष्ट महसूस हुआ था। गुहा के ऊपर कुछ दूर पर गिद्ध उड़ रहे थे, इसे उसने देखा। वह गंध और प्रपात की भयानकता से डर गया और  वहाँ खड़ा नहीं रह सका, तुरंत वापस चल पड़ा। वह पूर्ण रूप से निर्वीर्य हो गया था। उसके पैर शव के वजन के बराबर हो गए थे, और वे कह रहे थे कि अब हमसे दौड़ा नहीं जा सकता। फिर भी उस गंध से अपने को बचा पाने के सिवा कोई और रास्ता न था। वह धीरे-धीरे पाँव घसीटता चलने लगा।

वह कुछ दूर आया। गंध धीरे-धीरे कम होती गई, ठंडी हवा बहने लगी, वह खुश हुआ। चारों ओर लहलहाते खेत, बीच-बीच में फूलों से लदे पेड़-पौधे, दूर कहीं बहती नदी की मधुर आवाज, पक्षी की सुरीली आवाज। अरे! मैं कहाँ आ गया हूँ, उसे आश्चर्य हुआ।

इस जगह को मैंने कभी भी नहीं देखा है और यह जगह मन को बहुत ही आनंद दे रही है, यह कौन-सी जगह है? क्या मैं यहीं से गुजरा था या लौटते वक्त राह भूलकर यहाँ आ गया या ये सब मेरे वहम हैं या जो पहले था, वही वहम था? वह छटपटाने लगा। तभी एक अपरिचित आदमी उसके पास चलता हुआ आया। उसका शांत चेहरा, उसकी मुस्कराहट, चमकीली आँखें देखते ही शृंग को लगा कि यह आदमी अपनी जिंदगी भर में एक कदम भी नहीं दौड़ा होगा।

उसने कुछ संभलकर पूछा, ‘जी, मैं रास्ता भूलकर यहाँ आ गया हूँ। यह मेरे लिए नई जगह है, आप बताएँगे कि मैं कहाँ हूँ?’

उस आदमी ने आश्चर्य से कहा, ‘ओह, आप कुछ समय पहले इसी रास्ते से दौड़ते गए थे, मैंने पुकारा भी, मगर आपने सुना नहीं।’

क्या जवाब दूँ, शृंग समझ नहीं पाया और सिर झुका लिया। इसके आगे वह और उसके आगे यह कहते हुए जो दो पैर दौड़े थे, साथ में और आसपास ऐसे खड़े थे मानो ‘कुछ भी पता नहीं है’।

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डी.एन.श्रीनाथ  ‘नवनीत’ दूसरा क्रॉस, अन्नाजी राव लेआउट, प्रथम स्टेज, विनोबानगर, शिवमोग्गा-577204 [कर्नाटक] मो. 09611873310