युवा कवि, शिक्षा निदेशालय, दिल्ली के अधीन शिक्षक।

मुझे टुकड़ा-टुकड़ा बांट देना

किसी दिन पानी-सा बहूं
जमूं पिघलूं और भाप बन बादल में रहूं

किसी दिन बदल जाऊं आग में
भभकूं सुलगूं और बदल जाऊं राख में

किसी दिन हवा हो जाऊं
उड़ू उड़ाऊं और वायुमंडल में खो जाऊं

किसी दिन धरती-सा बिछ जाऊं
भार सहूं वार सहूं और नई कोंपलों में उग आऊं

किसी दिन आकाश बन जाऊं
फैलूं फैलाऊं और सबके ऊपर तन जाऊं

मेरे पंचमहाभूतों
किसी दिन मुझे अपनी तासीर दे देना
तमाम ज़रूरतों में मुझे टुकड़ा टुकड़ा बांट देना

किसी की प्यास बुझा देना
किसी की रोटी सेंक देना
किसी को सांस दे देना
किसी का घर बना देना
किसी का सर छुपा देना।

नींद की तलाश में हूं

तुम्हारे कपासी स्पर्श से
जो शरीर पर उग आते थे
वही कांटे
तुम्हारी स्मृति में
तकिए पर उभर आए हैं
मैं नींद की तलाश में हूं।

बचाए रखना सुगंध

फूलों का खिलना जितना जरूरी है
उतना ही जरूरी है उनमें मकरंद का बने रहना
मधुमक्खियों के चुंबन
भंवरों की आवाजाही
तितलियों का वास
मैं अपनी बची हुई सांस
जीवन की सारी मिठास
इन फूलों को सौंप देना चाहता हूं
ताकि बेचैन भ्रमर को ठिकाना मिल सके
कि जतन से बनाए गए मधुमक्खियों के छत्ते
नीरस न होने पाएं
आदमी के घर की तरह
उनमें घुली रहे मधुरता और सुगंध
और बचे रहें तितलियों के पंख

आग

तुम्हारी आंखों में चुभती थी
हमारे घर की रोशनी
इसलिए जब भी हमने दीपक जलाया
तुमने फूंक मारकर बुझा दिया
और हमने अंधेरे को अपनी नियति मान लिया

हमें भूख लगी
पेट की आग बुझाने के लिए
चूल्हे में आग जलाई
तुमने फिर से फूंक लगाई
अंगारों ने लाल आंख दिखाई
चूल्हे के मुंह से बाहर निकलती लपट
तुम्हारे अहम पर चोट थी
इसे खामोश करने के लिए
तुमने आंधी चलाई
फिर वही हुआ जो सदियों से होता आया है
आग और हवा की जुगलबंदी
हमारी झोपड़ी पर नाचती हुई
अब तुम्हारे महल तक पहुंच चुकी है

अब चूल्हा है न झोपड़ी
न तुम्हारे आलीशान मकान
बस हम हैं तुम हो
और हमारे तुम्हारे बीच पसरी हुई
वही पीली आग।

अंधेरे

सबके हिस्से में अपने-अपने अंधेरे हैं
और अपने-अपने उजाले
जिंदगी के जिस स्याह पहलू से
आंख चुराते हो न
कभी उतरना फुरसत से उस अंधेरे में
कोई छूटी हुई चमक जरूर मिलेगी
और तुम देखोगे कि तुम्हारा डर
अतीत की नदी में बह गया है।

मुहावरे

वो जिनका जीवन खेतों में खट गया
वो जिनकी जवानी गेंहू के साथ पिस गई
वो जिनकी आत्मा चक्की में दल गई
वो जो चनों के साथ भाड़ में भुनते रहे

वो अब समय की नब्ज को पहचान चुके हैं
आपसी व्यवहार अभिधा में निभाने वाले
वाकिफ हैं शब्दों के लाक्षणिक और व्यंजक रूप से
उन्होंने सीख लिया मुहावरों का मुनासिब इस्तेमाल

अब वह सिर्फ चक्की पर दाल नहीं दलते
पीठ लहूलुहान करने वालों की
छाती पर मूंग भी दलते हैं
बल्ले से गेंद आसमान में भेजकर
मसूर भी बनाते हैं
और उनके चने भाड़ भी फोड़ते हैं

उन्हें गेहूं के पानी पर आश्रित
बथुआ समझने की भूल मत करना
उनके कुदालों ने विचारों की धार से
नहरों का रुख अपनी तरफ कर लिया है
अपने हिस्से का पानी ले लिया है
कभी आईने को ध्यान से देखना आर्यपुत्र
तुमने जितनी अंगुलियां उनके चरित्र पर उठाई थीं
वो सारी उंगलियां तुम्हारे गालों पर छपी मिलेंगी।

बांसुरी का शोक

कहते हैं एक जमाने में
जलते हुए शहर को
प्रेम राग सुना रही थी
किसी बदनाम बादशाह की बांसुरी
जबकि बांसुरी जानती है
कि उसके छलनी शरीर में फूंकने से
उत्पन्न हुए स्वर
दरअसल रोम का पीड़ा गान था
जिसे आत्ममुग्ध नीरो ने
संगीत मान लिया था ।

नाखूनों का वक्त

गरदनें अपनी हिफाजत खुद करें
यह नाखूनों के बाहर निकलने का वक्त है
चीखों को हुक्म दिया जाता है
कि हलक की चौखट पार न करें
शहर कोतवाल के सोने का वक्त है
सड़क पर सड़ती लाश की दुर्गंध भीतर न आने पाए
यह मसनद पर फूल बिछाने का वक्त है
तुम्हारी आत्मा के घाव नहीं देख सकेंगे
यह संसद के मुबाहिसे का वक्त है
फिर कभी कर लेंगे तुम पर भी चर्चा
अभी दांव पर मगध का तख्त है।

देह

तुम खींच सकते थे दर्द
पा सकते थे आंसुओं की नमी
खोज सकते थे खिलखिलाहट में झरते फूल
महसूस कर सकते थे संबंधों की गरमाहट
पा सकते थे प्रेम की शीतलता
मगर तुमने आत्मा में समा जाने के बजाय
देह में धंस जाने को चुना
और अपने अस्तित्व की तमाम संभावनाओं को
स्खलन की एक बूंद में बदल दिया।

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