वरिष्ठ कवि।कविता संग्रह ‘जो राख होने से बचे हैं अभी तक’ प्रकाशित।
नाच
एक बैलगाड़ी में
समा जाती थी उसकी गृहस्थी
और इसी से पार हुई थीं
उसके कुनबे की अनगिनत पीढ़ियां
गर्म लोहे को पीट कर
बनाती थी वह
हंसिया, चाकू और चिमटे
बेतहाशा भागती
हमारी दुनिया से अलग
सबकुछ था वहां
आदिम, थिर और ठहरा हुआ
शाम के सुनहरे उजास में उस दिन
जब डूबने को था सूरज
वह बैलगाड़ी की ओट से निकली
एकटक देखा उसने
आकाश का वितान
देखी उसने पंछियों की
अद्भुत उड़ान
पच्छिम की हवा ने उसे छुआ
तो पता नहीं क्या हुआ
थिरकते हुए लहराई उसने देह
फैलाया अपना घाघरा
कि जैसे मोर ने बनाया इंद्रधनुष
वह नाची कि जैसे हो जल प्रपात
वह नाची कि जैसे हो उफनती नदी
वह नाची कि जैसे हो समुद्री तूफान
वह नाची कि जैसे
पुकारता हो उसे कोई अनंत से
उस शाम नाची वहां धरती
नाचे वहां वृक्ष
और जाता हुआ सूरज
रुका रहा मंत्रमुग्ध!
लड़की
बड़ी होती हुई लड़की ने चाहा
अपने कमरे में एक आदमकद आईना
मगर पिता ने नहीं दिया
लड़की ने चाहे
कुछ नए चलन के कपड़े
पिता ने खूब डांटा
फिर मना किया
लड़की ने चाहा
कि घर के किसी बर्तन पर हो
उसका भी नाम
मगर पिता ने खुदवाया सभी पर
सिर्फ लड़के का नाम
आज बहुत उदास है
बड़ी होती हुई लड़की
अंधेरी रात की बांह पकड़
अचानक बोल उठे पक्षी की तरह
पूछती है लड़की
कि मैं क्यों हूँ लड़की?
आज अच्छा लगा
सुबह-सबेरे घूमकर लौटते हुए
वह लाई मेरे लिए कुछ फूल
तो मुझे अच्छा लगा
आज बरसों बाद देखा मैंने
सड़क पर रुक कर
मदारी का पूरा खेल
और मुझे अच्छा लगा
आज मंदिर के ठीक बाहर
ईश्वर से बेखबर
चबूतरे पर मिले कुछ बेफिक्र बूढ़े
अपनी उम्र को ताश के पत्तों के साथ
फेंटते और हँसते हुए
तो मुझे अच्छा लगा
आज बिलकुल भी नहीं हुई बारिश
मगर मैं भीगता रहा सारा दिन :
मुझे अच्छा लगा!
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