“बुद्धिवाद के विकास में, अधिक सुख की खोज में, दुःख मिलना स्वाभाविक है. यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया है. इसलिए मनु, श्रद्धा और इड़ा इत्यादि अपना ऐतिहासिक महत्व रखते हुए, सांकेतिक अर्थ की अभिव्यक्ति करें, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं. मनु अर्थात मन के दोनों पक्ष हृदय और मस्तिष्क का संबंध श्रद्धा और इड़ा से भी सरलता से लग जाता है. ‘श्रद्धां हृदय्य याकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु!’ इन्हीं सबके आधार पर ‘कामायनी’ कथा-सृष्टि हुई है. हां कामायनी की कथा मिलाने के लिए कहीं-कहीं थोड़ी बहुत कल्पना को भी काम में ले आने का अधिकार मैं नहीं छोड़ सका.” जयशंकर प्रसाद

रचना : जयशंकर प्रसाद, रचना पाठ : अनुपम श्रीवास्तव

रचना पर विचार दृष्टियां : विनोद शाही, ओमप्रकाश सिंह, आनंदशंकर प्रसाद

संकल्पना, संयोजन एवं संपादन : उपमा ऋचा प्रस्तुति : वागर्थ, भारतीय भाषा परिषद कोलकाता.