गजल लेखन में सक्रिय। गजल, उपन्यास, कहानी, आलोचना आदि की तीस पुस्तकें प्रकाशित। अद्यतन गजल संग्रह ‘घाट हजारों इस दरिया के’।
1.
बदन की खोलकर पुस्तक बिखर जाने को जी चाहे
बहुत जिंदा रहे, थोड़ा-सा मर जाने को जी चाहे
मुसाफिर हूँ मैं ऐसा सरफिरा मेरी न पूछो तुम!
कि चलती रेलगाड़ी से उतर जाने को जी चाहे
मैं यूँ तो काफिले के साथ शामिल हूँ मगर यारो
किसी पीपल की छांव में ठहर जाने को जी चाहे
ऐ दरिया, तेरे पानी की लहर बनता रहा बरसों
मगर अब बुलबुला बनकर उभर जाने को जी चाहे
किया है जोग धारण मैंने इक मुद्दत हुई लेकिन
अचानक क्या हुआ मुझको कि घर जाने को जी चाहे।
2.
कभी जहाज कभी कश्तियाँ बनाते हैं
नदी से इस तरह नज़दीकियां बनाते हैं
ये वो शहर है जहाँ बारिशें नहीं होतीं
शहर के लोग मगर छतरियाँ बनाते हैं
हुजूर! आपने बनवाए हाईवे लेकिन
गरीब लोग तो पगडंडियाँ बनाते हैं
हमारे पास जरा-सी जमीन है यारो!
कि इसके वास्ते हम खुर्पियाँ बनाते हैं
हमारी शहर के बच्चों में है बहुत इज्जत
कि उनके वास्ते हम वर्दियां बनाते हैं।
3.
निर्धन हूँ डर रहा हूँ मुझे छोड़ दीजिए
मैं थक के गिर पड़ा हूँ मुझे छोड़ दीजिए
मुझको पता न था ये इलाका है आपका
गलती से आ गया हूँ मुझे छोड़ दीजिए
तुम पर हुजूर फिकराकशी क्या करूँगा मैं
गूंगा हूँ बेजबाँ हूँ मुझे छोड़ दीजिए
मुजरिम हूँ मैंने ख्वाब चुराए हैं आपके
बेशक बहुत बुरा हूँ मुझे छोड़ दीजिए
बेबस हूँ, बेशऊर हूँ बेघर हूँ साहेबो!
मैं क्या बताऊँ, क्या हूँ मुझे छोड़ दीजिए
अपनी हथेलियों पे उठाओगे क्या मुझे
पानी का बुलबुला हूँ मुझे छोड़ दीजिए।
4.
यहां कितना सन्नाटा बिखरा हुआ है मुझे सब पता है
यकीनन यहां कोई कर्फ्यू लगा है मुझे सब पता है
मैं आकाश का एक आवारा बादल हूँ सब देखता हूँ
तू छतरी उठाकर कहां जा रहा है मुझे सब पता है
मुझे इल्म है जो यहां तितलियों को बनाता है बंदी
यहां पक्षियों के जो पर काटता है मुझे सब पता है
मैं अपनी अलामत तुझे क्या बताऊं कि बेघर हूँ मैं
अमीरे-शहर! पर तुझे क्या हुआ है मुझे सब पता है
यहां हादसे की मैं तस्वीर किसकी बनाऊं भला,
यहां तो हरेक आदमी हादसा है मुझे सब पता है।
5.
मैं जो भी देखता हूँ बेकार देखता हूँ
गुजरे हुए दिनों के अखबार देखता हूँ
ये मेरी जिंदगी भी जैसे हो बंद कमरा
जिस ओर देखता हूँ दीवार देखता हूँ
मुझको पुरानी छतरी आती है याद अकसर
बारिश के जब शहर में आसार देखता हूँ
तुम बार-बार मेरी इज्जत उछालते हो
मैं बार-बार अपनी दस्तार देखता हूँ
ये मेरा बौनापन भी इक रोग हो गया है
दिन भर मैं सामने की मीनार देखता हूँ
तुम लोग देखते हो पैरों के नीचे मखमल
पैरों के नीचे बिजली के तार देखता हूँ।
6.
दो-चार दोस्तों को वो साथ ले के आया
घोड़ी न बैंड बाजा बारात ले के आया
सौगात उसकी क्यूं न मैं आंख से लगा लूं
सहरा से जो मुसाफिर जर्रात ले के आया
होती जो धूप उसको कंबल-सा ओढ़ लेता
ये क्या किया इलाही, तू रात ले के आया
पतलून फट गई है जूते लगे हैं घिसने
ये दौर कैसे मुश्किल हालात ले के आया
कच्चे घरों की बस्ती कब जाने बैठ जाए
मौसम भी अबके इतनी बरसात ले के आया।
7.
दुनिया किसी चलती हुई गाड़ी की तरह है
लटका हुआ हर शख्स सवारी की तरह है
मैं इसको उतारूं तो भला कैसे उतारूं
ये दर्द मेरे जिस्म पे वर्दी की तरह है
जख्मों की भी तुरपाई तू कर लेता है अच्छी
ऐ दोस्त! तू सचमुच किसी दर्जी की तरह है
हर वक्त किसी घात में रहता है शिकारी
पोशाक से बिलकुल जो पुजारी की तरह है
इक भूख के मारे हुए बच्चे को तो देखो
कहता है कि ये चांद तो रोटी की तरह है
इस बंद से कमरे में तेरी याद का आना
दीवार के अंदर किसी खिड़की की तरह है
यूं तेरा अचानक मुझे मिल जाना सड़क पर
लगता है मुझे एक कहानी की तरह है।
8.
मैं कल के वास्ते पैसे बचा के आया हूँ
कि दिन मैं फाकाकशी पर बिता के आया हूँ
सुराही ढूंढता रहता तो शाम हो जाती
मैं अपनी ओक में पानी उठा के आया हूँ
कुछ इस तरह से गुजारा है आज दिन मैंने
फटी पतंग को जैसे उड़ा के आया हूँ
ठिठुर रहे थे गली में गरीब के बच्चे
जो मेरे पास था ईंधन जला के आया हूँ
ये मैं जो हांफ रहा हूँ ये कोई बात नहीं
पुरानी एटलस साइकिल चला के आया हूँ
कि तुम बुझी हुई चिंगारियों से डरते हो
मैं अपने हाथ लपटें उठा के आया हूँ
शहर को छोड़ने की ये है आख़री घटना
मैं खुद भी रोया उसे भी रुला के आया हूँ।
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