वरिष्ठ कथाकार। दो उपन्यासों ‘ नागफनी के जंगल में’ और‘ मुट्ठी में बादल’के अलावा छह कहानी संकलन‘बर्फ होती नदी’, ‘उधर भी सहरा’,‘अंतिम पड़ाव’, ‘वजूद के लिए’,‘ सुबह– सवेरे’ व ‘किस मुकाम तक’ प्रकाशित।
इस सर्द रात में पूरन ने रज़ाई से हाथ बाहर निकालकर अपने मोबाइल से टाइम देखा तो तीन बज चुके थे। खिड़की की ओर देखा तो वहां अँधेरा था। उस अँधेरे में गली के खंबे पर जल रही ट्यूब लाइट पर घना कोहरा दिखाई दिया। टयूब लाइट को वह अंदाज से पहचान सका,अलबत्ता कोहरा इतना घना था कि उसे अपने दस बाई दस के कमरे से बाहर सड़क पर कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। इससे पहले कि वह कुछ सोचता हंसराज की आवाज सुनाई दी,‘जल्दी उठ जा,देर हो गई तो मंडी में कुछ कोणों मिलेगो।’
एक कचोट-सी उठी उसके मन में इस आवाज से। इस सर्द रात में वह उठना नहीं चाहता था। रज़ाई में लेटे-लेटे एकाएक माँ का चेहरा उसकी आँखों के सामने आ गया। माँ होती तो उसे सर्द रात में कोई नहीं उठा सकता था। कोई कोशिश भी करता तो माँ ऐसा करने नहीं देती थी। कई बार जब उसके बाप ने अलसुबह खेत में पानी लगाने के लिए उठाने की कोशिश की तो माँ ने टोक दिया था ‘सोवा देओं रात ने जागये छे:’, बाप भुनभुनाता हुआ खेत की ओर चल देता। वह तब उठता जब सूरज की धूप पूरी तरह खिल जाती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है, अब तो उसे उठना ही है।हंसराज ने दुबारा आवाज दी ‘जल्दी उठ पुरनिया, देर हो गई तो मंडी में कुछ कोणों मिलेगो।’ नाम तो उसका पूरन था, लेकिन कोई उसे पुरनिया, पूरी, पूरो कहकर बुलाते थे। इस बार उसकी आवाज सुनते ही पूरन में बिजली-सी गति आ गई। पल भर में रज़ाई को अपने बदन से दूर फेंका और खड़ा हो गया।
खांड़सामंडी की ओर जाने वाले टैम्पो में कंबल में लिपटे-लिपटे पूरन को याद आता है अपना कच्ची मिट्टी और गोबर से लिपा घर। मजाल है उस घर में उसे कभी सर्दी लग जाए।माँ उसके साथ दिन-रात खेतों में काम करती। खेतों की गुड़ाई करती, सब्जियां बोती,पानी देती और वह रात-रात जागकर गाय भैंसों से खेतों की रखवाली करता और फिर थककर सो जाता। दिन-रात माँ काम करते- करते नहीं थकती थी। खेतों में मजदूरी करते-करते माँ की कमर भले ही न झुकी हो, लेकिन जिंदगी ने उसकी कमर को झुका दिया था। एक बार उसने माँ से कहा था ‘तू इतनो काम करे छैं: तुझे फल तो कौणी मिले।’ पर वह गहरी सांस भरते हुए कहती, ‘मेहनत करवाड़ा ने उपर भगवान देवे छे।’ पर पूरन सोचता है ऊपर मिलता है कि नहीं कौन देखने जाता है। उसे तो मेहनत का फल यहीं चाहिए था, इसी जमीन पर। ऊपर का कोई भरोसा नहीं।
ऐसे ही एक दिन सर्द रात में माँ का शरीर तपने लगा। रात भर बुखार से माँ तपती रही। गांव के डाक्टर की समझ में नहीं आया। उसने कहा शायद खेत में काम करते किसी कीड़े ने काट लिया है जिससे बुखार हो गया है। इसे जयपुर या दिल्ली ले जाओ। डाक्टर की बात सुनकर बाप विचार करने लगा कि दिल्ली या जयपुर कैसे ले जाऊं। पल्ले इतने पैसे कहां थे। इससे पहले बाप कुछ करता,माँ उसके सामने पहाड़-सी जिंदगी बिताने के लिए मेहनत की विरासत छोड़ कर चली गई। माँ की मौत के बाद घर एकदम सूना हो गया था। माँ के ऊपर जाने के बाद बाप ने दूसरी शादी कर ली और उसे शहर की ओर ठेल दिया। कहा, ‘जा अपने लिए कमा और खा।’ बाप की इस फटकार से आ गया वह इस शहर।
शहर आकर उसने सोचा कि कोई पंसारी की दुकान खोल ले, पर पल्ले में पैसे नहीं थे, कैसे खोलता दुकान। हंसराज से मुलाकात हुई। वह ठेले पर रखकर सब्जियां बेचता था। वह भी लग गया हंसराज के साथ और ठेले पर फेरी लगाकर सब्जियां बेचने लगा। सब्जियां लाने के लिए वह रोज सबेरे तीन बजे उठकर मंडी जाता। ढेर सारी सब्जियां खरीदता और अपने ठेले में सजाकर दिन भर बेचता।
यह रोज का सिलसिला था। दिन निकलने से पहले ही अपना ठेला लेकर इस कॉलोनी में आ पहुंचता। अपने ठेले में उसने एक घंटी लगा ली थी। जैसे ही वह गली के मुहाने में दाखिल होता इस घंटी को जोर-जोर से बजाता। यह उसके यहां आने का इशारा था। लोग घंटी की आवाज सुनते ही अपने घरों से बाहर आ जाते। कॉलोनी की गलियां ही उसका कर्म क्षेत्र थीं। इन्हीं गलियों में वह सुबह से शाम तक सब्जी बेचता। कॉलोनी में उसके परमानेंट ग्राहक थे जो उससे सब्जियां लेते थे। पर कुछ लोग ऐसे भी थे जो उसकी सब्जियों को लेकर तरह-तरह की बातें करते, कोई कहता तुम रोज बासी सब्जियां लाते हो, तो कोई कहता तुम हमेशा कम तौलते हो। वह सबकी बातों को अनसुना कर देता। यह उसे समय ने सिखा दिया था। अनसुना न करता तो यहां इस कॉलोनी में सब्जियां बेचना मुश्किल हो जाता। कुछ लोग पूरन को हिकारत से भी देखते थे। वे कहते थे,‘तुम सब्जी बेचते हो कि हमको लूटते हो।’ यह वाक्य उसके दिल को चीर कर रख देता था।
पूरन सोचता है ऊपर मिलता है कि नहीं कौन देखने जाता है। उसे तो मेहनत का फल यहीं चाहिए था, इसी जमीन पर। ऊपर का कोई भरोसा नहीं।
उसकी इच्छा होती वह उनसे कहे कि आपको लूट उस समय क्यों नहीं याद आती जब बड़े -बड़े मॉलों से दो रुपये किलो बिकने वाले आलू के चिप्स पचास रुपये में खरीद कर लाते हैं, जब टका सेर बिकने वाली मकई के दाने सिनेमा हॉल में सौ रुपये में खरीद कर खाते हैं, जब पांच रुपये की चाय कैफे में डेढ़ सौ रुपये की खरीदते हैं। तब आपको लूट का ध्यान क्यों नहीं आता, पर कह नहीं पाता। अगर एक बार किसी ने ऐसा कहा तो दुबारा वह उस घर के सामने नहीं रुकता था, भले ही लोग पीछे से उसे आवाज देते रहें। पूरन जानता था कि दूसरों को लुटेरा कहने की यह भावना पैसे की दमक के कारण ही उनके मन में समाई हुई है।
रफ्ता-रफ्ता उसकी जिंदगी यूं ही चलती जा रही थी। महीने-दर-महीने गुजर गए। फिर एक दिन हवाओं में डर फैल गया, बीमार होने का डर, मरने का डर और इस डर से पूरा देश बंद हो गया। सब कुछ बंद, काम बंद, मंडी बंद, आना बंद, जाना बंद, दुकान बंद, बाजार बंद, स्कूल और दफ्तर बंद। इस बंद से डर कर लोग शहर छोड़कर चले गए, कोई अपने गांव, कोई अपने शहर। शहर से लोग क्या गए पूरन का जीवन ही बदल गया। उसकी सब्जी खरीदने वाले लोग बचे ही नहीं, इक्का-दुक्का लोग ही थे। वह करे तो क्या करे।
डरते- डरते उसने सोचा, वह भी चला जाए अपने गांव। अलवर के पास था उसका गांव। पर जाए, तो जाए कैसे? बसें बंद थीं और यहां सब्जी का ठेला बंद था। पल्ले जितने पैसे थे वह खर्च हो गए। यहां खाली बैठा-बैठा क्या करे कुछ समझ में नहीं आया। उसका साथी हंसराज पहले ही चला गया था अपने गांव। उसके पास एक साइकिल थी। सोचा उसने, वह क्यों न साइकिल से चला जाए अपने गांव। तड़के सुबह निकलेगा तो रात तक पहुंच ही जाएगा अपने गांव। सुबह के वक्त डरते-डरते साइकिल से जा रहा था। ट्रकों की रेलमपेल वाली सड़क सुनसान और वीरान थी। ऊपर से तेज धूप सड़क पर आग उगल रही थी। इस तेज धूप और सुनसान सड़क पर दूर-दूर तक आदमी तो क्या परिंदा भी नहीं दिखाई दे रहा था। वह पूरी ताकत से साइकिल चला रहा था और सोच रहा था कि रात होने से पहले उसे अपने गांव पहुंचना ही है।
एक मोड़ पर कुछ पुलिस वाले खड़े थे। उन्हें देखकर सहम-सा गया। एक झटका-सा लगा उसके मन में। पुलिस की बर्बरता के कई किस्से उसने सुने थे। खुद उसके ठेले से पुलिस वाले रोज सब्जियां उठाकर ले जाते थे। रोक लिया पुलिस के एक सिपाही ने। खाकीपैंट और शर्ट पहने हुए था। शर्ट के बटन खुले हुए थे, चेहरे पर कांटों जैसी दाढ़ी उगी हुई थी। तोंद तरबूज़ की तरह बाहर निकली हुई थी।
‘कित जा रिया है?’ साइकिल का हैंडल पकड़ते हुए डपट कर पूछा उसने।
‘गांव जा रिया हूं साब जी।’ उसने दयनीयता से कहा।
‘कौन-सा गांव है तेरा?’ आवाज में ऐसा रोब पैदा कर रहा था गोया आर्मी का कमांडर हो।
‘भीकमपुरा…’
‘पता नहीं तुझे, देश बंद है, बाहर निकलना मना है।’कहकर उसने उसकी साइकिल का हैंडल कस कर पकड़ लिया था।
‘पता है साब जी।’
‘तो फिर क्यों निकला घर से बाहर।’
‘साब जी शहर में कोई नहीं बचा। सारे लोग चले गए। काम धंधा बंद हो गया तो मैं भी गांव जा रहा हूं।’
पुलिस वाले ने घूर कर देखा, ‘अच्छा यो बात छे, चल साइड में लगा अपनी साइकिल।’ कहकर पुलिस के सिपाही ने साइकिल का हैंडल छोड़ दिया।
पता नहीं उस क्षण क्या हुआ और पूरन में न जाने कैसे इतनी हिम्मत आ गई कि वह एकाएक साइकिल को लेकर दौड़ पड़ा और चीते की फुर्ती से साइकिल पर चढ़कर तेज-तेज पैडल मारने लगा। उसे भागते देख पुलिस वालेने ‘अरे भाग लिया ये तो’ कहकर अपना डंडा खींच कर पूरन पर फेंका। वह डंडा पूरन की गर्दन पर जा लगा। बहुत तेज दर्द हुआ पर वह दर्द की परवाह किए बिना तेज रफ्तार से साइकिल चलाता रहा। उसके बाद वह हाइवे पर जाने के बजाय गांव-गांव होकर चलने लगा।
किसी तरह जब अपने घर पहुंचा तो बाप भी उसे अजनबी-सा लगा। उसका बाप खुद इस बीमारी से इतना डरा हुआ था कि उसने अपने घर में रहने नहीं दिया। गांव पहुंचकर पूरन को महसूस हुआ कि बाप ही नहीं,गांव के परिचित लोग भी उसे गंदगी में रहने वाला सूअर समझ रहे थे। उसका बाप उसे एक खंडहर से पड़े मंदिर में ले गया और कहा, ‘अब तूने यहीं रहणों छे और यही खाणूं बी और पीणूं बी’।
समझ नहीं सका कि बाप क्या कह रहा है,उसने आश्चर्य से पूछा ‘यहां मंदिर माँ।’
‘हां, इसी मंदिर माँ।’
‘पर यहां तो कुछ बी कोणी।’ उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उसका अपना बाप उसे इस खंडहर में रहने के लिए क्यों कह रहा है। औरों की तरह वह भी क्यों इतना डर गया है। और डरें तो समझ में आता है, पर वह तो अपना बाप था।
‘सब पहुंच जाएगा यहां। यहीं खाणू, यहीं पीणू, अपणा आप ही बणा खा लीजो’
‘पण…’
‘पण गांव का लोग मानी कोणी, तेरे लैर रहकर ख़तरों मोल लेवो।’
बाप ने वहीं उसके लिए खाना बनाने का सारा सामान पहुंचा दिया। दो दिन तक उस सुनसान मंदिर में पड़ा रहा वह। अपने ही गांव के मंदिर में बेगानों की तरह रहते हुए शर्म और अपमान उसकी नस-नस में समा गयाथा। वह पड़ा रहा उस सुनसान मंदिर में। कुछ दिन वहां रहा फिर लौट आया इसी शहर वापस। अपने ठेले के पास, अपनी कॉलोनी के पास।
पूरन अपने ठेले को ठेलता हुआ बड़े आराम से चला आ रहा था। उसका ठेला सब्जियों से लदा हुआ था और ठेले के चारों ओर उसने कई छोटी–छोटी लकड़ियों पर हर रंग के कपड़े की छोटी–छोटी झंडियां लगा रखी थीं। ये झंडियां सर्द हवाओं में फहरा रही थीं।
कॉलोनी में जहां सड़क खतम होती थी, वहां एक मुहाने पर एक पुराने मकान के साथ वाली थोड़ी-सी जगह खाली थी। उस जगह थोड़ी मिट्टी और पत्थर डालकर समतल किया और फिर पांच-छह बांस को जमीन पर गड्ढा खोदकर उस पर तिरपाल लगाकर उसने अपनी छोटी-सी दुकान बना ली। दोपहर तक फेरी लगाने के बाद वह शाम को यहां आकर इस दुकान पर अपनी सब्जियां सज़ा लेता था, जहां आते जाते लोग सब्जियां ख़रीदते थे। उस समय दुकान पर सब्जियां खरीदने वालों में आसपास बन रहे मकानों में कमरतोड़ मेहनत करने वाले मजदूर, घरों में काम करने वाली बाइयां, घरों में सामान पहुंचाने वाले लड़के, रिक्शा चलाने वाले व गली में तरह-तरह के सामान बेचने वाले लोग होते थे।
एकाएक पूरन एक दिन गायब हो गया। कहां गया। किसी को पता नहीं चला। एक दिन,दो दिन, तीन दिन और जब चौथे दिन भी पूरन गली में नहीं आया तो सुनयना चौधरी की दिक्कतें बढ़ गईं। वे रोज ही उससे सब्जियां लेती थीं। माहौल ऐसा था कि बाहर निकलना उनके लिए मुश्किल-सा था। वह कोई भी खतरा मोल नहीं लेना चाहती थीं। सुनयना ने अंदाज लगाया कि वह भी बीमारी की जद में आ गया होगा, तभी वह नहीं आ रहा है। बाजार जाना जोखिम भरा था, पूरन का न आना उन्हें खल रहा था।
एक दिन उन्होंने अपनी बेटी नीलिमा से पूछा,‘रोज टीवी पर दिखाते हैं कि ऑनलाइन सब्जियां मिल रही हैं। कैसे खरीदते हैं ऑनलाइन सब्जियां?’
माँ ऑनलाइन सब्जियां खरीदना चाहती है, जानकर बेटी खुश हो गई। ‘बहुत आसान है ममा। आजकल ऑनलाइन सबकुछ मिल जाता है, सब्जियां भी एकदम ताजा। वहीं से ले लिया करो।’
‘पर ख़रीदते कैसे हैं?’
‘बहुत आसान है ममा, अभी सिखा देती हूँ।’
उस दिन सुनयना चौधरी ने अपनी बेटी से ऑनलाइन सब्जियां मंगाने की तरकीब सीख ली थी, लेकिन जब ऑनलाइन मंगवाईं, तो हैरान रह गईं। उन सब्जियों में वो बात नहीं थी जो पूरन के ठेले की सब्जियों में होती थी। ज्यादातर सब्जियां खराब और बासी थीं। सुनयना चौधरी मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना कर रही थीं कि पूरन को कुछ न हुआ हो और वह जल्द ठेले पर रोज ताजी सब्जियाँ लेकर आ जाए।
उस रोज छुट्टी का दिन था और सुबह-सुबह का वक्त था। अचानक बाहर पूरन के ठेले की घंटी की आवाज आई। टन… टन… टन… टन…। अपने ठेले में लगी घंटी बजाते वक्त उसके मन में एक नया उत्साह था। उसी के बल पर वह अपने ठेले को खींच रहा था। वह इस तरह घंटी बजा रहा था गोया जागते हुए लोगों को फिर जगा रहा हो।
घंटी की आवाज सुनकर चौंक गईं सुनयना चौधरी। अरे यह तो पूरन के ठेले की आवाज है। इसका मतलब वह वापस आ गया है। उसने तो न जाने उसके बारे में क्या-क्या सोच लिया था। मन ही मन पछतावा भी हुआ। सुनयना ने अपने घर की बालकनी से देखा, पूरन अपने ठेले को ठेलता हुआ बड़े आराम से चला आ रहा था। उसका ठेला सब्जियों से लदा हुआ था और ठेले के चारों ओर उसने कई छोटी-छोटी लकड़ियों पर हर रंग के कपड़े की छोटी-छोटी झंडियां लगा रखी थीं। ये झंडियां सर्द हवाओं में फहरा रही थीं।
सुनयना चौधरी के घर में उस समय कुछ मेहमान थे इसलिए वे चाहते हुए भी बाहर सब्जियां लेने नहीं जा सकती थीं। सोचा उन्होंने, कोई बात नहीं, शाम को गली के मुहाने पर जाकर सब्जियां ले लूंगी।
ठेला चलाते वक्त पूरन के मन में रह-रह कर ख्याल आ रहा था,यह जो सब्जियां आज मंडी से लाया हूं, वह किसानों ने उगाई हैं। उनकी मेहनत इनमें चमक रही है। आज मैं यह झंडियां उन्हीं लोगों को दूंगाजो किसानों की मेहनत को अपनी मेहनत मानते हों, जो किसानों के पसीने को अपना पसीना मानते हों। आखिर उनके पसीने की उपजही तो सब लोग खा रहे हैं। ये सब्जियां भी उन्हीं के पसीने की उपज हैं। वह सोच रहा था कि मैं फिर सिंघु बार्डर जाऊंगा, अपने भाई-बंदों के साथ बैठूंगा और जो भी पैसे मेरे पास बचेंगे, वह सब मैं उनको दे आऊंगा।
शाम का वक्त हो चला था।पूरन ठेला ठेलते-ठेलते अपने बनाएठिए पर आकर खड़ा हुआ। उस छोटी-सी जगह पर उसने अपना ठेला खड़ा कर दिया। ठेले पर लगी कुछ झंडियांउतार कर उसने अपनी दुकान के चारों तरफ लगे बांस परलटका दीं और कुछ झंडियां ठेले पर ही लगी रहने दीं।दिन भर भटकते-भटकते वह थकान से चूर हो गया था।
उसने अपने थैले से पानी की बोतल निकाल कर पानी पिया। उसने लोहे की एक पुरानी कुर्सी भी वहां लाकर रख दी थी।कुर्सी पर बैठते ही उसे राहत महसूस हुई।उस कुर्सी पर एक अखबार रखा हुआ था। शायद कोई छोड़ गया था।उसने अखबार उठा लिया और पढ़ने लगा। अखबार के दूसरे पन्ने पर एक बड़ा-सा विज्ञापन छपा हुआ था। विज्ञापन में एक मजबूत कद-काठी वाला किसान कंधे पर हल रखकर मुस्कराता हुआ खड़ा था। उसके साथ एक स्त्री के सर पर गेहूं की बालियों का गट्ठर था।उसके पीछे लहलहाती फ़सलों के बीच में नदी बह रही थी और विज्ञापन के ऊपर बड़े-बड़े हर्फों में लिखा था।‘देश की शान, खुशहाल किसान।’विज्ञापन को देखकर पूरन को उबकाई-सी आई। उसने अपने गांव भीकमपुरा में एक भी ऐसा खुशहाल किसान नहीं देखा था। उसके पिता दिन भर मजदूरी करते थे, तब भी शरीर ऐसा नहीं बना था जैसा विज्ञापन में दिखाया गया था। न ही उसकी माँ इस विज्ञापन में दिखाई जानेवाली औरत की तरह तंदुरुस्त थी।वह कुछ देर तक उस विज्ञापन को निहारता रहा, फिर एकाएकवह बुदबुदाने लगा-या समाचार फर्जी छे।एक दम फर्जी। फर्जी… कहकर उसअख़बार के विज्ञापन वाले पन्ने को फाड़ कर सड़क पर फेंक दिया। उसकी आवाज में क्रोध था और चेहरे पर आहत भाव ।
लोग उसकी दुकान पर सब्जियां खरीदने के लिए आ रहे थे। वे सब्जियां खरीदने के साथ-साथ झंडियों को देखते, पर कुछ पूछते नहीं। कई लोग सब्जी लेने के लिए उसकी दुकान के इर्द-गिर्द आ खड़े हुए। आते-जाते लोग भी उसके ठेले को देखकर रुक गए। उनमें औरतें थीं, मर्द थे, बच्चे थे,बूढ़े थे, जवान थे। वे सब के सब ठेले पर लगी झंडियों को देखकरमुग्ध हो रहे थे। इन झंडियों में एक सम्मोहन था। इसके कारण वे इसकी तरफ खिंचे चले आ रहे थे। कुछ लोग मोबाइल से हवा में लहराती हुई झंडियों का वीडियो बना रहे थे। सबके मन में एक उमंग-सी थी। सबका रोम-रोम खिल उठा था।
ठंडी तेज हवा में ये झंडियां लहरा रही थीं, गोया कह रही हों जीवन की खुशहाली हमको लगाए रखने में ही है। पूरन बार–बार मुड़– मुड़ कर उन घरों को देख रहा था जहां सिंघु बार्डर से लाई हुई झंडियां लगी हुई थीं।
‘कहां रहे तुम इतने दिन। ये झंडियां कहां से लाए?’ सुनयना चौधरी ने पूछा।
सुनते ही पूरन पुलकित हो गया कि किसी ने उसके न आने का कारण जानना चाहा।
‘मैं सिंघु बार्डर गया था किसानों के पास।’ उसकी आवाज में एक खुशी थी।
‘यह तो बहुत अच्छा किया तुमने। तो वापस क्यों आ गए?’
‘कुछ दिन बाद फिर जाऊंगा।’
‘फिर क्यों?
‘मैंने सोचा है मैडम जी,सब्जियां बेचने के बाद जितना पैसा बचेगा, वहां भंडारे में दे आऊंगा।वे किसान भी तो म्हारी लड़ाई लड़ रहे हैं।’
‘यह बहुत अच्छा करोगे। मैं भी जाऊंगी एक दिन ।’ सुनयना ने खुश होकर कहा।
सुनयना के इस वाक्य से पूरन को इस रूखे समय में भी कोमलता का अहसास हुआ। उसे महसूस हुआ कि उसके काम को किसी ने अच्छा कहा। खुशी भीतर तक समा गई। गोया बहुत बड़ा मैदान मार लिया हो।
‘जरूर जाओ मैडम जी। आप जैसे बहुत सारे लोग वहां आते हैं। सेवा करते हैं वहां। मुझे एक मैडम जी वहां मिली, मैंने उससे पूछा आप यहां क्यों आईं तो पता है उसने क्या कहा?’
‘क्या?’
‘कहा, यहां आकर ऐसा लगता है कि मैं अपनों के बीच आ गई हूँ। जीवन को बचाने के लिए ही तो हमारे बुजुर्ग यहां बैठे हैं। आप जरूर जाओ मैडम जी।’ कहते-कहते उसके चेहरा दमक रहा था।
‘और ये झंडियां?’ सुनयना ने झंडियों की तरफ इशारा करते हुए पूछा।
‘ये झंडियां भी वहीं की हैं, वहीं से लाया हूँ। वहां सब लोगों के हाथों में यही झंडियां थीं। मैं ढेर सारी ले आया । सब लोगों को बाटूंगा।’
सुनयना को यह जानने में दिलचस्पी थी कि सिंघु बार्डर पर इसने क्या देखा, क्या सुना। वह उन हरी-हरी झंडियों को छूकर देखना चाहती थी कि आखिर ये कैसे बनी हैं जो हवा न होने पर भी लहरा रही थीं।
‘रात को बहुत ठंड होगी?’
‘क्यां बताऊं,रात को सोते वक्त मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं सड़क से ही चिपक गया हूँ। मेरे पांव इतने ठंडे हो गए कि गर्म करने के लिए भट्टी के ऊपर रख दिया था।’ बताते- बताते पूरन की आंखें चमक-सी गईं। वह चमक तैर कर सुनयना की आंखों में भी पहुंच गई।
‘इतनी ठंड थी वहां?’
‘मैडम जी, बहुत ठंड थी वहां।’
‘क्या करते थे वहां?’
‘दिन में लंगर में रोटियां बनाते थे और खाते भी थे और लोगों को खिलाते भी थे। पुलिसवालों को भी खिलाते थे। हमारे ही भाई-बंद हैं।’ दोनों के बीच एक खुशी-सी फैल गई थी।
‘रात में?’
‘रात को लोग गीत गाते। भगत सिंह, हीर राँझाके गीत गाते।हरियाणवी में भोजपुरी में गीत सुनाते। हमारी राजस्थानी में भी सुनाते।’ उसके चेहरे पर एक आत्मविश्वास दिखाई दे रहा था।
‘तुझे समझ में आ जाते हैं इन बोलियों के गीत?’ सुनयना चौधरी ने पूछा।
‘समझ में आ जाता है मैडम जी, दर्द की कोई जुबां नहीं होती।’
ऐसे लग रहा था कि सुनयना चौधरी सब्जियां लेने नहीं आई हैं, उससे सिंघु बार्डर के किस्से सुनने आई हैं।
‘मैं ये झंडियां ले लूं?’जाते-जाते सुनयना ने पूछा।
‘ले लो जी, ले लो। आप की खातिर लाया हूँ।’ कहकर उसने चार झंडियां उनके हाथों में दे दीं।
वापस जाते वक्त सुनयना चौधरी के एक हाथ में सब्जियों का थैला था और दूसरे हाथ में पूरन के ठेले से उठाई चार झंडियां थीं। उन्हें अपने कॉलेज के दिन याद आ गए, जब इमरजेंसी के विरोध में उन्होंने यूनिवर्सिटी कैंपस से लेकर राजभवन तक जुलूस निकाला था। उस जुलूस में भी वह इसी तरह हाथ में झंडियां लेकर चली थी। उन दिनों को याद करके वे मन ही मन मुस्करा उठीं। चलते- चलते उनके दिमाग में ख्याल आ रहे थे कि इन झंडियों को वे अपने घर की बालकनी में एक बांस में बांधकर लगा देंगी जिससे ये दूर से भी दिखाई दें।
उस शाम पूरन के ठेले पर कॉलोनी के कई लोग आए सब्जी लेने। वे सब उन झंडियों के बारे में पूछते। पूरन खुश होकर सबको बताता, सिंघु बार्डर के क़िस्सों के बारे में बताता, इन झंडियों के बारे में बताता और जाते-जाते उनको दो- चार झंडियां जरूर दे देता। सब लोग खुशी से वेझंडियां ले रहे थे। उन झंडियों को लेते वक्त उन्हें एक रोमांच-सा अनुभव होता।
अगले दिन पूरन जब अपना ठेला लेकर कॉलोनी में आया तो उसने देखा कि कई घरों ने अपनी-अपनी बालकनी में या दरवाजों में या छत पर उसकी दी हुई हरी-हरी झंडियां लगा रखी थीं और ठंडी तेज हवा में ये झंडियां लहरा रही थीं, गोया कह रही हों जीवन की खुशहाली हमको लगाए रखने में ही है। पूरन बार-बार मुड़- मुड़ कर उन घरों को देख रहा था जहां सिंघु बार्डर से लाई हुई झंडियां लगी हुई थीं।
संपर्क : हरियश राय 73, मनोचा एपार्टमेंट,एफ ब्लाक, विकासपुरी, नई दिल्ली–110018 मो.9873225505 / ईमेल :hariyashrai@gmail.com