प्रस्तुति : मधु सिंह
विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में एम.फिल. की शोध छात्रा। कोलकाता के खुदीराम बोस कॉलेज में शिक्षण।
आधुनिक युग विमर्शों का युग है। इस काल में शिक्षा और विज्ञान की प्रगति ने लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत किया है। फलस्वरूप साहित्य में स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, किसान-विमर्श, आदिवासी-विमर्श पर पिछले कुछ दशकों में बहुत कुछ लिखा गया। दलित साहित्य की यात्रा सहानुभूति से स्वानुभूति की जमीन पर पहुंची। दलित साहित्य ने सदियों के मौन को स्वर देने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
भारत सहित दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में दलित साहित्य ने अपनी नई पैठ जमाई। दलित साहित्य में कई प्रश्नों को सिर्फ उठाया ही नहीं गया, बल्कि समाधान की भी पुरजोर कोशिश की गई। आज भी दलितों को समान अधिकार दिलाने की लड़ाई जारी है। हालांकि आज भी उन्हें उनकी जाति के कारण अपमानित और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है।
भूमंडलीकरण ने दलितों के जीवन में कई बदलाव लाए हैं। उनके भीतर आज अपनी जाति को लेकर हीनता नहीं दिखती, बल्कि एक आत्मविश्वास दिखता है। पहले वे अपनी जाति से भिन्न लोगों के समक्ष खुल नहीं पाते थे, लेकिन 21वीं सदी में उन्होंने अपनी अस्मिता को पहचानते हुए अपने अधिकारों के लिए खुलकर बोलना शुरू कर दिया है।
एक साक्षात्कार के दौरान मुझे यह पता चला कि दिल्ली सहित कई बड़े शहरों में किसी सोसाइटी का मेंबर बनने के लिए जाति का बहुत महत्व होता है। उन्हें ही मेंबर या किसी पद पर आसीन किया जाता है जो सवर्ण जाति के होते हैं। वर्तमान परिदृश्य में ऐसी घटनाएं भी घट रही हैं। इन दिनों दलित साहित्य में कहानियां, कविताएं, नाटक, उपन्यास, संस्मरण आदि लिखे जा रहे हैं। कई आत्मकथाओं के माध्यम से दलित लेखकों ने खुद के ऊपर हुए जुल्म पर कलम चलाई है। उन्होंने अपनी पीड़ा को शब्दों के माध्यम से पूरी दुनिया तक पहुंचाया है और अपनी स्थितियों से अवगत करवाया है। ज्योतिबा फुले और अंबेडकर ने जिस दलित आंदोलन की आग को सुलगाया था वह अब भी जल रही है। उस आग की चिंगारी को दलित साहित्यकारों ने बहुत ही संभाल कर रखा है और उसी की प्रेरणा से वे लगातार अपने विरोध को जाहिर करते रहते हैं। दलित लेखकों की एक नई पीढ़ी आ चुकी है और इसी तरह अब नई चुनौतियां भी सामने हैं जिन पर विचार करना है।
समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं, ठीक वैसे ही नई समस्याएं भी पैदा होती हैं। आज कई नई समस्याएं मौजूद हैं जिन पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है। जरूरत है कि दलित जातियों को उनका अधिकार, सम्मान और सारी सुविधाएं मिलें जिनसे अब तक उनको वंचित रखा गया है। इसके लिए नए-नए मुद्दों पर विचार करने की जरूरत है, कहीं सीमित हो जाने की जगह।
इस बार ‘वागर्थ’ में हम परिचर्चा के साथ कुछ साक्षात्कार भी दे रहे हैं ताकि दलित दृष्टिकोण की विविधता और विस्तार को उभारा जा सके। हिंदी लेखकों की टिप्पणियों के अलावा मराठी, तेलुगु और बांग्ला के दलित लेखकों के साक्षात्कार प्रस्तुत हैं।
सवाल :
(1) भूमंडलीकरण ने दलितों के जीवन में किस तरह के बदलाव लाए? इसने दलित चेतना का विस्तार किया या अवरोध उत्पन्न किए?
(2) वर्तमान भारतीय परिदृश्य में दलित क्या अनुभव कर रहे हैं? यह पहले से कितना भिन्न है?
(3) दलित साहित्य पर होमोजीनियस होने का आरोप लगता रहा है। इस पर रोशनी डालें कि इधर दलित चेतना में नवीनता और विकास क्या है?
(4) दलित चेतना में 20वीं सदी में जो उभार आया था, क्या वह अब बिखराव और अवरोधों का शिकार है? यदि नहीं है तो इधर दलित साहित्य में नया क्या है?
(5) ज्योतिबा फुले और अंबेडकर के जमाने से अबतक लगभग 175 सालों के संघर्ष की क्या उपलब्धियां हैं और वर्तमान समस्याएं क्या हैं?
(6) अब कई स्तरों पर जाति-चेतना मजबूत हो चुकी है। आज दलित भारतीय समाज में जाति समस्या के अलावा अन्य कौन-कौन सी समस्याएं देख पा रहे हैं? उनके ‘हम’ में नया क्या शामिल हो सकता है?
मोहनदास नैमिशराय
सुपरिचित दलित साहित्यकार और ‘बयान’ के संपादक। आत्मकथा ‘अपने अपने पिंजरे’ के लिए चर्चित। झलकारी बाई के जीवन पर ‘वीरांगना झलकारी बाई’ नामक पुस्तक सहित 35 से अधिक कृतियां।
हम दलित आकांक्षाओं का भारत बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं.
26 नवंबर 2020 को देश में ही नहीं, बल्कि विश्व भर में संविधान दिवस मनाया गया, जो इस बात का प्रतीक है कि अधिक से अधिक लोगों के भीतर संविधान के लिए सम्मान की भावना आने लगी है। विशेष रूप से दलितों, पिछड़ों तथा महिलाओं के मूलभूत अधिकारों के लिए बाबा साहेब डॉ.अंबेडकर ताउम्र संघर्ष करते रहे, उनका भी समावेश भारतीय संविधान में हुआ है, जो हाशिए से केंद्र में आए लोगों को उनके जीवन की सुरक्षा की गारंटी देता है। 26 नवंबर को संविधान दिवस के बारे में बताने या लिखने का उद्देश्य यही है कि राजनीतिक आजादी के साथ देश के दलितों, पिछड़ों और महिलाओं को सामाजिक, शैक्षिक तथा धार्मिक आजादी भी प्राप्त हुई। सिर्फ अपना मत देने का अधिकार ही नहीं मिला, चुनाव में प्रत्याशी बनने का अधिकार भी मिला। 26 नवंबर 1947 को संविधान का अंतिम मसौदा बाबा साहेब ने रचनाकार के रूप में संविधान समिति के अध्यक्ष डॉ.राजेंद्र प्रसाद को सौंपा था। 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हुआ। दलितों के लिए यह दिन ऐतिहासिक पर्व के रूप में मनाया जाता है। इसकी उपयोगिता उनके जीवन में सकारात्मक रूप से साबित हुई, क्योंकि यह उनके जीवन के सम्मान से जुड़ा था। पहले उनके जीवन की परिस्थितियां सम्मान रहित थीं। सिर्फ उनके कर्तव्य निश्चित थे, अधिकार नहीं।
जाहिर है 26 जनवरी 1950 का दिन दलितों को अच्छा लगा होगा। उनके जीवन से अंधेरा खत्म हुआ, उजाले ने दस्तक दी। उसी दिन से जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ने का उन्हें अवसर मिला। आजादी उनके हिस्से में कम आई या अधिक, यह विमर्श का विषय है। परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्ति मिली और स्वतंत्र नागरिक के रूप में उन्होंने बहुत कुछ महसूस किया। हालांकि सामंती मानसिकता से ग्रस्त लोगों को यह गवारा नहीं था। दलित दोहरी गुलामी से मुक्त हो, यह उन्हें रास नहीं आया। वे स्वयं राजनीतिक गुलामी से मुक्त हो गए, लेकिन दलितों को अंतिम कतार में रखना चाहते थे। दलित खुशहाल न हों, वे शिक्षा न लें, अच्छा कपड़ा न पहनें, साथ ही अमानवीय परंपराओं को ओढ़ते-बिछाते रहें, वे ऐसा ही देखते रहना चाहते थे। कहना न होगा कि न केवल हिंदू बल्कि मुस्लिम, सिख और ईसाई धर्म के विशेष लोगों के भीतर इसी तरह के द्वंद्व थे दलितों की आजादी को लेकर। जबकि दलितों में आगे बढ़ने की भावना जोर मार रही थी। वे बाबा साहेब डॉ.अंबेडकर के त्रयी सिद्धांत- ‘शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो’ से प्रेरित थे।
इस तरह खास और आम वर्ग के अपने-अपने द्वंद्वों के साथ उन सभी ने पुरानी शताब्दी से नई शताब्दी में प्रवेश किया। अगर यह कहा जाए कि दलितों की उपलब्धियों की शुरुआत नई शताब्दी में हुई तो गलत नहीं होगा। क्योंकि पुरानी शताब्दी में आजादी और संविधान के बावजूद दलितों की जीवन-स्थितियों पर सवर्णों का इतना अधिक दबाव था कि वे ऊपर नहीं उठ पा रहे थे। कहना न होगा कि नई शताब्दी में दलितों के भीतर पूरी तरह से आत्मविश्वास आया, जिसने उन्हें आगे बढ़ने में मदद की।
वर्तमान भारतीय परिवेश में दलित समाज के भीतर निर्माण की प्रक्रिया तेजी से काम कर रही है, इसलिए उनके जीवन और चेतना में सकारात्मक तत्व जुड़ रहे हैं। आजादी से पहले अपने ही देश में वे बेगाने थे। उनका अस्तित्व ही नहीं था। वे बिखरे हुए लोग थे। बाबा साहेब ने उन्हें ‘ब्रौकिन पीपुल’ कहा है। आज उन्हें अहसास हो रहा है कि उनकी सामाजिक और शैक्षिक स्थिति में सुधार हुआ है। भले ही उसका प्रतिशत संतोषजनक न हो, लेकिन स्थितियां बदली हैं। उन स्थितियों के बदलने के पीछे दलित समाज के महापुरुषों का संघर्ष है। उस संघर्ष में नई पीढ़ी के दलितों ने इजाफा किया है। सुखद बात यह है कि दलितों में संगठन के तत्वों का निर्माण पहले से अधिक हुआ है। दलितों को लगता है, सारा जहां उनका है। उनके संघर्ष क्षेत्रों के साथ कार्य (व्यवसाय) क्षेत्रों का भी विस्तार हुआ है। दलित प्रतिभाओं ने न केवल राष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई है। साहित्य, इतिहास और अस्मिता के साथ वे आगे बढ़े हैं।
जहां तक सवाल पहले से भिन्न होने का है, कुछ बातें ऊपर आ गई हैं। इनसे पाठकों को अहसास होगा कि दलितों की मानसिकता में किस तरह की नई पहल हुई है। फिर भी हम बताना चाहते हैं कि जैसे-जैसे दलित शिक्षित हुए और अपने-अपने व्यवसायों के साथ नौकरियों में उन्होंने प्रवेश किया, वैसे-वैसे उनके भीतर से सवर्णों के प्रति कटुता कम हुई है। दलितों तथा गैर-दलितों के बीच संवाद स्थापित हुआ है। अंतरजातीय विवाहों की शुरुआत हुई है। विभिन्न आंदोलनों में परस्पर सहभागिता बढ़ी है। एक-दूसरे के सुख-दुख में वे पहले से अधिक शामिल होने लगे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दलितों के भीतर आत्मविश्वास बढ़ा है।
हिंदू धर्म के संस्कारों तथा रूढ़ियों ने उन्हें जड़ बना दिया था। इसलिए डॉ. अंबेडकर ने कहा था, ‘असहायता, समर्पण और दासता का जीवन जीनेवाले आदमी को कोई लाभ नहीं होता।’ उनके द्वारा 31 जनवरी, 1920 को ‘मूकनायक’ की शुरुआत करना यही दर्शाता है।
आजाद भारत में सामाजिक परिवर्तन हुआ है। जो परिस्थितियां जटिल थीं, आज सहज हुई हैं। इन परिस्थितियों में बदलाव के लिए स्वयं दलितों की प्रभावपूर्ण भूमिका रही है। वे स्वयं सजग हुए हैं और समाज को सजग करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
जहां तक दलित साहित्य की बात है, दलित साहित्यकारों ने न केवल दलितों को जागृत किया है, बल्कि सवर्णों के एक बहुत बड़े वर्ग को भी, विशेष तौर पर महिलाओं को अमानवीय रूढ़ियों तथा बुरी परंपराओं से अपने-आपको बचाने के लिए ऊर्जा दी है।
कहा जा सकता है कि दलित साहित्य और आंदोलन मध्यकाल से लेकर आधुनिक काल तक और आजादी के बाद से आज तक के धरातल पर विकास के विभिन्न पड़ावों से गुजरा है। इन अनगिनत पड़ावों में उसे नए-नए अनुभव प्राप्त हुए हैं। कभी दलित समाज हाशिए पर जीने को विवश था, आज केंद्रीय धारा में शामिल ही नहीं है, बल्कि उसने अपने वजूद के होने का अहसास कराया है। भारत सरकार तथा विभिन्न राज्य सरकारों की अनगिनत योजनाओं में उसका दखल हुआ है। सच कहा जाए तो दलितों ने न केवल दलित वर्गों को, बल्कि समूची मानव जाति को समता, बराबरी के आधार पर जीने की इच्छा दी है। मानवीय आधार पर नए साहित्यिक तथा सांस्कृतिक मूल्य दिए हैं। आम आदमी से खास आदमी का संवाद स्थापित किया है।
आज वह दलित आकांक्षाओं का भारत बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। संस्कृतीकरण की कई शताब्दियों से गुजरने के बाद नए भारत की रचना उसके सामने है। हालांकि दलितों के सामने अनगिनत चुनौतियां हैं, फिर भी वह अपने अभियान में लगा है। उसका सपना है ऐसे समाज की रचना हो, जहां समता, स्वतंत्रता और बंधुता हो।
संपर्क सूत्र : बी.जी.5ए/30-बी, पश्चिम विहार, नई दिल्ली–110063 मो.8860074922
अजय नावरिया
जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में प्राध्यापक। दो कहानी संग्रह ‘पटकथा और अन्य कहानियां’ और ‘यस सर’ प्रकाशित।
भूमंडलीकरण ने दलितों के मध्यवर्गीकरण की प्रक्रिया को रोक दिया है.
(1) भूमंडलीकरण एक वैश्विक फिनोमिना है। इसलिए विश्व के साथ-साथ, भारत के विभिन्न पक्षों पर उसका प्रभाव पड़ा, वे चाहे आर्थिक पक्ष हों, सामाजिक पक्ष हों या अन्य पक्ष। जब आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन होते हैं, तब सामाजिक और साहित्यिक संरचनाओं में भी फेर-बदल होते हैं।
भारतीय समाज का यथार्थ जाति-आधारित है। धर्म के अभेद्य कवच को भी जाति के इस अमोघ अस्त्र ने भेद दिया है। भारत का कोई भी धर्म जाति की उपस्थिति और प्रभाव से अछूता नहीं रह सका, चाहे वह दूसरे देशों से आए इस्लाम और ईसाई धर्म जैसे संगठित धर्म हों या भारत में शुरू हुए बौद्ध, जैन, सिक्ख धर्म हों।
भूमंडलीकरण की परिघटना ने हिंदी पट्टी में, जाति की इन संरचनाओं में सुगबुगाहट को तीव्रतर कर दिया। अब तक जो दलित आंदोलन महाराष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं तक सीमित था, वह तेजी से पूरे उत्तर भारत में फैल गया। डॉ. आंबेडकर के विचार और दलित पैंथर के कार्यों का प्रचार-प्रसार हिंदी संसार में बहुत तेजी से हुआ। दलित चेतना का अखिल भारतीय ही नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर आविर्भाव हुआ।
बेशक, इस फिनोमिना ने चेतना के विस्तार के अनंत अवसर प्रदान किए, लेकिन भूमंडलीकरण के साथ आए निजीकरण ने दलित वर्ग की कमर तोड़ने का काम किया। इसने दलित वर्ग के उन्नयन के लिए आरक्षण की जो सकारात्मक व्यवस्था है, उसको बहुत सहज ढंग से और बिना शोर के समाप्त करने का काम किया। ठेकेदारी प्रथा ने दलितों के मध्यवर्गीकरण की प्रक्रिया को रोक दिया, उन्हें अपनी जातिगत पहचान छिपा कर इन प्राइवेट क्षेत्रों में काम करने के लिए विवश कर दिया। इस प्रक्रिया ने अस्मिता के नए संकट खड़े किए और संघर्ष के पथ को कंटकाकीर्ण कर दिया। विडंबना यह है कि इस वैश्विक परिघटना से लड़ना, सभी वंचित तबकों के लिए मुश्किल है।
अब जरूरत है इन नई परिस्थितियों के लिए नई रणनीतियों की। दलित चेतना का प्रसार और परिष्कार बेशक हुआ है, परंतु आर्थिक अवसरों की कमी निरंतर होती जा रही है।
(2) दलित वर्ग ही नहीं, लगभग सभी उत्पीड़ित अस्मिताएं इस दौर में किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में हैं। इन अस्मिताओं में पहली बार मध्यवर्ग का उदय तो जरूर हुआ है, परंतु उसके निर्माण के नैरंतर्य को रोक दिया गया है, अर्थात उसके मूल स्रोत को छिन्न-भिन्न करने के प्रयास लगातार चल रहे हैं। इस वक्त उन्हें जरूरत है कि वे यथाशक्ति निजीकरण की प्रक्रिया को रोकने का प्रयास करें अथवा निजी क्षेत्र में समुचित और सम्मानजनक प्रतिनिधित्व के लिए संघर्ष करें।
(3) मैं दलित साहित्य के विकास को रोकने को वर्चस्वशाली सामाजिक और सांस्कृतिक शक्तियों का एक सुचिंतित साहित्यिक षड्यंत्र समझता हूँ। वे भली-भांति जानते हैं कि साहित्य का प्रभाव बहुत गहरा और दीर्घकालिक होता है। इसलिए दलित साहित्य के बढ़ते प्रभाव को रोकने का एक अलग तरह का प्रयास है। पुनरावृत्ति किसी भी साहित्य में होती ही है। दलित साहित्य नए क्षेत्रों का अन्वेषण भी कर रहा है। जातिवाद के विभिन्न रूपों को पहली बार इतने बड़े पैमाने पर साहित्य में दर्ज किया जा रहा है। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। बेरोजगारी, गरीबी, प्रेम, सांप्रदायिकता, स्त्री-पुरुष संबंध आदि की पुनरावृत्ति ही हिंदी साहित्य में हो रही थी। दलित साहित्य ने भारत के वास्तविक सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत किया है और वह लगातार कर रहा है।
पहले ग्रामीण क्षेत्र का जातिवाद इस साहित्य में आया और अब महानगरीय क्षेत्रों के प्रच्छन्न जातिवाद का मुखौटा उतारा जा रहा है। यह प्रक्रिया अभी लंबी चलनेवाली है। दोहराव का अभी कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इस संबंध में, भ्रम और अफवाह फैलानेवालों को चिह्नित करने की सख्त जरूरत है। कुछ लोग इस दिशा में, दलित साहित्य की शुरुआत से ही नकारात्मक ढंग से सक्रिय हैं।
(4) बिखराव, अवरोध, दोहराव आदि शब्दों को, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक बराबरी के विरोधी समूह बहुत गहरे षड्यंत्र के तहत इस्तेमाल करते हैं। वे नहीं चाहते कि वंचित वर्ग उनकी ही तरह सम्मान और समता प्राप्त करे।
दलित साहित्य सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक बराबरी, न्याय, मानवाधिकार और स्वतंत्रता के मुद्दों को साहित्य में मुख्य मुद्दा बनाने के लिए लगातार प्रतिबद्ध है और इसी दिशा में लेखन अबाध गति से चल रहा है।
(5) भारत का वास्तविक सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और साहित्यिक नवजागरण महाराष्ट्र से ही शुरू हुआ। आज साहित्य के मूल्य पूरे विश्व के साहित्य का मूलाधार हैं।
आज जो न्याय, स्वतंत्रता, समता और मानवाधिकार के मुद्दे समाज में दिख रहे हैं, ये ज्योतिबा फुले और डॉ. अंबेडकर जैसे दूरद्रष्टा विचारकों की बदौलत ही हैं।
अगर सतयुग की किसी काल्पनिक परिकल्पना को, थोड़ी देर को सच मान लिया जाए तो कहना होगा कि दलित, स्त्री, आदिवासी, दिव्यांग और ट्रांसजेंडर वर्गों के लिए यही समय सतयुग माना जा सकता है। इस समय उन्हें सर्वाधिक सम्मान और अधिकार मिल रहे हैं। उन्हें मानवीय गरिमा महसूस हो रही है। मनुष्य होने और अपनी जैविक या सामाजिक पहचान पर वे शर्मिंदा नहीं हैं। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।
(6) इस समय पूरा भारत संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। पुराने बंधन शिथिल हो गए हैं, परंतु नई परिस्थितियों में नई योजनाएं बनाई जानी चाहिए ताकि नए समूह नई विसंगतियों से विषाक्त न हो जाएं। शिक्षा और स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। धर्म-निरपेक्षता के सही अर्थ को समझने और समझाने की जरूरत है। सर्वधर्म समभाव को धर्मनिरपेक्षता समझ लिया गया है। आदिवासी, घुमंतू जनजातियां, स्त्री, दिव्यांग, ट्रांसजेंडर आदि वर्गों को दलित साहित्य की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए, ताकि साझा संघर्ष और मंच बन सके। इन वर्गों को भी जाति के दुष्परिणामों के प्रति संवेदनशील होना होगा और करना भी होगा। अब समय आ गया है कि दलित साहित्य का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य यह भी हो। सुखद पक्ष यह है कि यह समाज और साहित्य में फलीभूत होते हुए दिखने भी लगा है। आशा है कि पूर्वग्रहों से मुक्ति की यह भावना उत्तरोत्तर और बढ़ेगी।
संपर्क सूत्र : एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया (केंद्रीय विश्वविद्यालय), नई दिल्ली–110025 मो. 9910827330
हितेंद्र पटेल
सुपरिचित लेखक और इतिहासकार। रवींद्र भारती विश्वविद्यालय में इतिहास के सहायक प्रोफेसर। संप्रति फेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला।
दलित आंदोलन का प्रभाव पहले से कम हुआ है.
(1) दलितों के जीवन में ग्लोबायन के कारण बड़े परिवर्तन हुए और कम से कम समाज के इस हिस्से को बहुत लाभ मिला, ऐसा मानने वाले बहुत से लोग थे। परोक्षतः यह सही भी था, क्योंकि बड़ी संख्या में दलित और पिछड़े समाज के लोग और स्त्रियों को बोलने का सुयोग पहले से बढ़ा और उनके प्रतिनिधित्व को बहुत बढ़ावा मिला। राष्ट्रीय आंदोलन, समाजवादी आंदोलन और वामपंथी आंदोलन के सम्मिलित प्रयास की भूमिका से इनकार करना अनुचित होगा, लेकिन फिर भी नब्बे के दशक में लगा था कि दलित और स्त्री स्वर और अधिक मजबूती से उभरेंगे। हालांकि कुछ शंकाएं विद्वानों ने उस समय भी व्यक्त की थीं।
तीनमूर्ति की एक गोष्ठी का स्मरण होता है। नब्बे के दशक में दिल्ली के बहुत सारे हिंदी बुद्धिजीवी और बड़े समाजशास्त्री उसमें जुटे थे। प्रभा खेतान उसमें वक्ता थीं। वे स्त्रियों के सामने आने की सकारात्मक पहल पर संतोष प्रकट करके कह रही थीं कि हाल के वर्षों में स्त्री चेतना का विकास हुआ है। पंकज बिष्ट ने, अगर मेरी स्मृति सही है, यह कहा था कि यह जो चेतना का विकास दिखता है यह मार्केट की शर्तों और सुविधाओं के हिसाब से ही है, उसका वास्तविक विकास नहीं हुआ है। लगभग यही बात दलितों के संदर्भ में भी कही जा सकती थी। 2021 में मुझे लगता है कि यह जो दलित चेतना का विकास दिखता था उसके पीछे बाजार की शक्ति थी और कुछ अन्य कारण थे। मैंने खुद नब्बे के दशक के बाद आए परिवर्तनों को सकारात्मक माना था, लेकिन अब लगता है कि इस विकास की सम्यक समीक्षा हमने नहीं की। इसने समाज में अंतर्विरोधों को उभारा, जो जरूरी था, लेकिन एक ऐसी आक्रामकता भी पैदा कर दी, जिसके दूरगामी परिणाम उतने अच्छे नहीं निकले, जैसा कि नब्बे के दशक में सोचा गया था।
(2) इस प्रश्न का उत्तर देना असंभव है कि दलित क्या सोच रहे हैं? दलित कोई एक होमोजीनियस केटेगरी नहीं है। दलित राष्ट्रवाद की विचारधारा की तमाम कोशिशों के बावजूद दलित एक तरह से नहीं सोचते हैं। जो लोग दलितों के लिए बोलते हुए दिखलाई पड़ते हैं उनमें अधिकतर शिक्षित और अकादमिक जगत के लोग हैं। इस वर्ग ने दलितों का प्रतिनिधित्व करते हुए कुछ जरूरी काम किए हैं। उसने दलित समाज के पिछड़ेपन, उसके प्रति तथाकथित उच्च वर्ण के लोगों के गलत व्यवहार, सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समाज के संवैधानिक अधिकारों के हनन जैसे प्रश्नों पर जोरदार तरीके से प्रतिवाद किया है और एक तरह से दलितों को एक किस्म का आत्मविश्वास दिया है। राजनीतिक रूप से भी दलितों के दल का महत्व बढ़ा है। लेकिन दलित आंदोलन अपने लिए कोई सकारात्मक सिद्धांत (थियरी) निर्मित नहीं कर सका। कुल मिलाकर दलित राष्ट्रवाद ब्राह्मणवाद के विरोध के रूप में ही अपने को प्रस्तुत कर सका। एक एलीट दलित का निर्माण भी शायद हो गया, लेकिन पूरे दलित समाज का प्रतिनिधित्व नहीं हो सका। जब हिंदू राजनीतिक दल उभरे और उन्होंने दलित और पिछड़ों के भीतर अपनी हिंदू अस्मिता की राजनीति की संभावनाओं की तलाश की तो उन्हें बहुत सारा स्पेस मिल गया। आज दलित राजनीति में चतुर्दिक बिखराव दिखलाई पड़ रहा है। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में भी दलित राजनीतिक शक्तियां संगठित और शक्तिशाली हस्तक्षेप करती हुई दिखलाई नहीं पर रहीं, ऐसा मुझे लगता है।
(3) जो कुछ मैंने पढ़ा समझा है उसके आधार पर यह कह सकता हूँ कि दलित को हिंदू समाज से अलग करके देखने की दृष्टि का विकास इस देश में संभव नहीं है। कम से कम अब तक के परिवर्तनों के आधार पर ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा। हिंदू समाज के एक अंग के रूप में ही इस समाज के लोग अपने को देखते हैं। बहुजन की धारणा के सहारे इसकी एक कोशिश की गई थी, जिसमें दलितों और पिछड़े वर्गों को एक साथ लाने की चेष्टा हुई थी। लेकिन इस धारणा को व्यवस्थित रूप देने का धैर्य दलित राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व में नहीं रहा। वे पिछड़े वर्ग को साथ रखने की जरूरत भी ठीक से समझते हैं, ऐसा मुझे नहीं लगता। जिस तेजी से दलित बुद्धिजीवी देश और विदेश में दिखलाई देने लगे उससे यह भ्रम हो गया कि दलित बौद्धिकता का बहुत विस्तार हो गया। लेकिन यह एक नकली विस्तार था। इस देश में दलित आंदोलन के पूर्व भी संकीर्णता के खिलाफ और धार्मिक और सामाजिक अन्याय के खिलाफ बहुत बड़े-बड़े प्रयास हुए हैं। उन सबके साथ ही दलित आंदोलन को अपने को जोड़कर देखना चाहिए था। यह नहीं हुआ। दलित आत्मकथाओं ने दलित जीवन की पीड़ा को उभारा, इसमें संदेह नहीं, लेकिन उससे एक शक्तिशाली बौद्धिक परंपरा का मुकाबला करना सिर्फ इसके सहारे संभव न था।
दलित साहित्य का स्वागत हुआ, इसको बहुत महत्व दिया गया और आज अकादमिक जगत में इसके लिए पर्याप्त स्थान है, लेकिन अभी इसको और अधिक समृद्ध करने की जरूरत है। दलित चेतना में विकास के बारे में संभावनाएं तो बहुत हैं लेकिन असली बात यह है कि इस चेतना को भारतीय समाज के अन्य हिस्सों के साथ जोड़कर कैसे देखा जाए। मेरी इस बात से बहुत सारे लोग चिढ़ जाते हैं, लेकिन मैं फिर भी कहता हूँ कि भारतीय बौद्धिक और लौकिक परंपराओं के निर्माता सिर्फ ब्राह्मण नहीं हैं। ब्राह्मण विरोध करते हुए बहुधा हिंदू विरोध शुरू हो जाता है और फिर प्राचीन भारतीय बौद्धिक संपदा को ब्राह्मणवादी करार दे दिया जाता है। कोई संवाद नहीं हो पाता। एक प्रकार के आक्रामक दलितवाद ने ग्लोबलाइजेशन के प्रारंभिक दौर में गांधी, प्रेमचंद और हजारीप्रसाद द्विवेदी की जिस तरह से आलोचना की उससे क्षति हुई। अब जरूरत है एक सम्यक दृष्टि के विकास की।
इसका मतलब यह नहीं है कि सारा दायित्व दलित बुद्धिजीवियों का ही है। भारतीय समाज के किसी भी हिस्से के लोग अगर जन्म के आधार पर अपने समूह को दूसरे समूह से श्रेष्ठ समझते हैं तो वे या तो मूर्ख हैं या बदमाश। जिसे सवर्ण कहा जाता है उसका दायित्व तो और भी ज्यादा है। बात दलित प्रसंग में कह रहा हूँ इसलिए उसी वर्ग की बात अधिक कह रहा हूँ।
(4), (5) और (6) का उत्तर एक साथ देना चाहूंगा। ज्योतिबा फुले से लेकर अंबेडकर तक के काल को ग्लोबलाइज़ेशन से थोड़ा अलगा कर देखने की जरूरत है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज में बहुत मंथन हुए। ईसाई मिशनरी के दबाव का केंद्रीय महत्व है। उस दौर में भारतीय समाज में लोकतंत्र आ सकता है, यह अकल्पनीय था। हिंदू समाज की कुरीतियों पर मिशनरी तंत्र का हमला हो रहा था। उस दौर में ज्योतिबा फुले जैसे लोगों ने विद्वतापूर्ण ढंग से कमजोर तबकों की आवाज को बुलंद किया था। उसका ऐतिहासिक महत्व है। 1917 के बाद दलितों का राजनीतिक महत्व बढ़ा और धीरे-धीरे उनकी संख्या के कारण उनकी अनदेखी संभव नहीं रही। राजनेताओं में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनके कारण पूरे देश में डिप्रेस्ड क्लास की समस्याओं पर विचार किया गया। देखा जाए तो अंबेडकर के अलावा कई नेता थे जो उस समय दलित जातियों और पिछड़ों को लेकर सोच रहे थे और उनकी तरक्की के लिए प्रयासरत थे। गैर दलित नेता भी प्रयास कर रहे थे।
आंबेडकर ही नहीं, गांधी, प्रेमचंद, जगजीवन राम, राममनोहर लोहिया जैसे लोगों ने दलित समाज की समस्याओं पर बहुत गंभीरता से सोचा। साहित्य में भी बहुत कुछ लिखा गया। लेकिन 1960 के बाद से जो दलित बुद्धिजीवियों ने लिखा वह गुणात्मक रूप से पहले से भिन्न था। इसी समय के दलित उभार के साथ दलित साहित्य का आंदोलन जुड़ा हुआ है। यह दलित नेताओं के पूर्ववर्ती आंदोलनकारियों में तत्वतः सिर्फ अंबेडकर को ही महत्व देता है। उन्हें लगता है कि सिर्फ अंबेडकर ही थे जिनके चिंतन में दलित विचारधारा की अभिव्यक्ति इस रूप में है कि इसके सहारे दलित राष्ट्रवाद को प्रतिष्ठित किया जा सकता है। ग्लोबलाइज़ेशन के शुरुआती दो दशकों में ऐसा लगता भी था कि दलित आंदोलन इतना शक्तिशाली हो सकता है कि साहित्य की दुनिया में भी इसका प्रभाव बहुत बढ़ जाएगा। उस समय अरुंधती राय जैसे लोग गांधी पर हमलावर हो रहे थे और अंबेडकर को सबसे बड़ा महापुरुष बनाने की कोशिश कर रहे थे। ऐसा बहुत दिनों तक चलना संभव नहीं हुआ।
हिंदू राष्ट्रवाद के बढ़ते प्रभाव के साथ ही दलित आंदोलन का प्रभाव पहले से कम हुआ है। ग्लोबलाइज़ेशन के वर्तमान दौर में हिंदू राष्ट्रवादी राजनीतिक अभियान इतना प्रभावी बना कि बहुत सारे दलित वर्ग के बुद्धिजीवी भी उसके साथ हो गए हैं। ऐसे में दलित राष्ट्रवाद का प्रोजेक्ट तो अब बिखर गया लगता है।
वर्तमान समय में भारत में सबसे बड़ी समस्या क्या है? सबसे बड़ी समस्या है जाति और धर्म के प्रभाव को कम करके उसके स्थान पर समाज में एक आदर्श का अभाव। ग्लोबलाइज़ेशन ने सभी श्रेणियों को आकांक्षा से भर दिया है और किसी के पास नए समाज का आदर्श नहीं है, जिसके साथ पूरा भारतीय समाज जुड़ सके। ग्लोबलाइज़ेशन के दबाव में भारत के परंपरागत समाज के भीतर ‘इनवोल्यूशन’ (भीतर ही भीतर इस तरह से चीजें टूटती जाती हैं जैसे सूखे में धरती फटती जाती है) जैसी प्रक्रिया चल रही है। ऐसे में समाज को जोड़ने वाली शक्तियों को मजबूत कैसे किया जाए यह पूरे समाज के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में दलित या स्त्री चेतना का विकास सामाजिक चेतना के विकास से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हो सकता है। जो लोग अपने अपने समूह की चेतना के विस्तार से आगे नहीं सोच पाते वे जाने अनजाने देश हित के विरुद्ध काम कर रहे हैं।
संपर्क सूत्र : फेलो, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, राष्ट्रपति निवास, शिमला–171005 मो.8953479828
मराठी की प्रसिद्ध दलित लेखिका, विचारक और आंदोलनकारी। दलित स्त्रीवादी आंदोलन की झंडाबरदार। अपनी कहानी ‘कवच’ के लिए विशेष चर्चित उर्मिला पवार की जीवनी ‘आयदान’ को दलित स्त्री आत्मकथा के रूप में देखा गया है।
महुआ भौमिक : भारतीय साहित्य की मुख्यधारा के लेखकों के समानांतर आप अपनी स्थिति को कैसे आंकती हैं?
उर्मिला पवार : साहित्य में स्थिति के लिए कोई स्थिति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि साहित्य के मुख्य किरदार मानवीय संवेदना और पवित्रता हैं। इनकी अवहेलना नहीं की जा सकती। लेखक अपनी रचनाओं में इन्हें अपनी तरह से बरतता है। सोच और संवेदना मनुष्य की परिस्थितियों से उपजते हैं। मुख्यधारा के लेखक उन परिस्थितियों का सामना नहीं करते, जो दलित लेखक के जीवन अनुभव से अभिन्न हैं। यही वजह है कि मुख्यधारा के लेखकों की विषयवस्तु दलित लेखकों से भिन्न होती है।
प्रश्न : आपके साहित्यिक जीवन में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ कौन–सा है?
उर्मिला पवार : हम दलित लेखकों को कमतर आंका जाता था। इसके पीछे यह अवधारणा सामान्य थी कि ईश्वर ने ही हमें निम्न बनाया है। सच यह भी है कि दलित स्वयं भी अपने को सामाजिक स्तर पर निम्न होने की स्थिति को भगवान की मर्जी मानते थे। बुद्ध की शरण में जाने के बाद स्थिति बदली। दलितों की स्वयं को कमतर मानने की सोच में तार्किक परिवर्तन आया। उनकी समझ में यह आया कि उनके साथ बरता जा रहा भेदभाव ईश्वर की मर्जी नहीं है, बल्कि मनुष्यजनित स्थिति है अपने लाभ के लिए।
बुद्ध की शरण में जाना ही मेरी जिंदगी में प्रस्थान-बिंदु है। यह भय जाता रहा कि अगर आप जाति-केंद्रित कायदे नहीं मानते हैं तो ईश्वर आपका विनाश करेगा। जाति-केंद्रित संहिताएं, जो समाज की उच्च जाति द्वारा रची गई थीं, क्रमशः शिथिल होती गईं। सामाजिक- सांस्कृतिक भेदभाव को बरतने के प्रति आशंकित रहने और डरने के बजाए हर पहल के पीछे के वैज्ञानिक कारणों को देखने लगी मैं। भेदभाव के उन कारकों को तलाशने लगी जिनसे शताब्दियों से दलित पीड़ित था। धीरे-धीरे मेरे अध्ययन की दिशा बदल गई। मैं बौद्ध और पालि साहित्य का अध्ययन करने लगी। मेरी रचनाओं में इनके संदर्भ मिलते हैं। इस तरह मेरे लेखन की दिशा बदल गई।
प्रश्न : आप अपनी रचनाओं में दलित स्त्रियों के वास्तविक जीवन संकट को कैसे उपस्थित करती हैं?
उर्मिला पवार : हर समाज में लैंगिक भेदभाव कायम है। यही रिवाज है कि घरेलू कामकाज और समय-खाऊ काम महिलाओं द्वारा किए जाएंगे। परिवार के पुरुष इससे बेखबर रहते हैं कि परिवार को सुचारु रूप से चलाने के लिए महिलाएं कितनी मेहनत करती हैं और कितना समय देती हैं। मां के प्रति पुरुषों के लगाव के कुछ स्वर दलितों की आत्मकथाओं और कविताओं में मिलते हैं। दुर्भाग्य से परिवार की अन्य महिलाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता।
वास्तविकता यह है कि हमारे समाज ने महिलाओं को हमेशा ठेंगे पर रखा है। यह मनुस्मृति जैसे हिंदू बीज ग्रंथ में वर्णित महिलाओं की भूमिका और उनकी पहचान से प्रेरित है। हमारा समाज ऐसे ही संकुचित और रोगग्रस्त विचार प्रणाली से ग्रस्त है जो बताती है कि महलाएं अधम हैं। मगर सच यह है कि स्त्री की बुद्धिमत्ता और पुरुष की बुद्धिमत्ता समान है। इसलिए हम महिलाओं को कभी भी कमतर नहीं आंका जाना चाहिए।
हम अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करेंगे और उन्हें हासिल करेंगे। अपमानों और इनके विरुद्ध हमारे संघर्ष की छाया हमारे साहित्य में मिलती है। समाज दलितों को मान नहीं देता।
स्थिति और बदतर हो जाती है जब मामला दलित महिलाओं का आता है। लैंगिक दुर्व्यवहार और शारीरिक उत्पीड़न को दलित महिलाओं के संदर्भ में सामान्य व्यवहार माना जाता है। कोई भी दलित महिलाओं के व्यक्तित्व और मान की परवाह नहीं करता। मैं दलित महिलाओं के बारे में निरंतर लिखती रहती हूँ। ‘आयदान’ इसका उदाहरण है।
समाज को अपनी सोच और अपने मिजाज में, खासकर पितृसत्तात्मक सोच में, बदलाव लाना ही होगा, हालांकि हाल निराशाजनक है। आज भी महाराष्ट्र के कई हिस्सों में महिलाओं को सजा दी जाती है, उन्हें प्रताड़ित किया जाता है। नागपुर और कोल्हापुर जैसी जगहों पर बलात्कार किया जाता है और उसे सही भी ठहराया जाता है।
प्रश्न : मुख्यधारा के साहित्य की विषयवस्तु के बारे में आपकी क्या राय है?
उर्मिला पवार : आदमी को उसकी जाति से जाना जाता है, यह सोच संकुचित और प्रतिगामी है। मुख्यधारा के लेखकों की भेदभाववादी प्रवृत्ति के समर्थन में वेद और भारतीय धर्मग्रंथों से संदर्भ दिए जाते हैं। प्रगतिशील विचार का महा अकाल है, मुख्यधारा का साहित्य इसका प्रमाण है।
प्रश्न : आपको लिखने की प्रेरणा के स्रोत क्या हैं?
उर्मिला पवार : मैंने बहुत पहले लिखना आरंभ किया था। पचहत्तर-छिहत्तर में। तब दिमाग में जो आता था, उसे कहानी बना कर लिखती थी। महिला होने के नाते मैं महिलाओं की समस्याओं से प्रभावित थी। मसलन महिलाओं पर होनेवाले अत्याचार और छोटी लड़कियों के साथ बदसलूकी। फिर नारीवाद की शुरुआत हुई थी भारत में। मुझे याद है, तब नारीवाद पर चर्चा होती थी। मैं सुनती थी और उसके विभिन्न पहलुओं पर बहस करती थी अपने स्कूल के हॉल में। नारीवादी आंदोलन तब पश्चिम में फैल रहा था। मेरा लिखना तभी शुरू हुआ था। एक बार अगर आप लिखने लगें तो वह फिर रुकता नहीं है। नशा की तरह हो जाता है। इन सबसे अलग बात यह है कि बहुत सारे लोग चाहते हैं कि मैं लिखूं, लिखती रहूं। क्योंकि बहुत कम दलित महिलाएं लिखती हैं।
प्रश्न : आप अपने लेखन कर्म और आंदोलन कर्मी होने को कैसे लेती हैं?
उर्मिला पवार : यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मैं जिस समाज से आती हूँ, वह घुटन और अपमान के लिए जाना जाता है। इसलिए मानसिक नासूर बना रहता है। ऐसी स्थिति में प्रतिरोध का साहित्य लिखना हो या सड़क पर उतरना, यह एक ही काम है। यह एक दूसरे पर निर्भर और एक दूसरे से जुड़ा हुआ है।
प्रश्न : आपकी पुस्तक ‘आयदान’ को काफी ख्याति मिली है। इस पुस्तक के लिए आपको पुरस्कार से नवाजा भी गया है। आप इसे कैसे लेती हैं?
उर्मिला पवार : इस तरह की स्वीकृति आनंद का एक अहसास अवश्य कराती है। मैंने उन स्त्रियों की ओर से लिखा है जिनमें लिखने की क्षमता नहीं है। मैंने अपनी मां की भावनाओं को शब्द दिया है। मेरी मां बुनाई-कढ़ाई में निपुण थीं। उन्हीं की तरह मैं शब्दों के माध्यम से बुनती हूँ। यह पुस्तक उन स्त्रियों को समर्पित है जो घुटन भरी जिंदगी जीती हैं। मेरा लेखन उस पिटारी की तरह है जो दुख और दर्द से बुनी गई है।
प्रश्न : क्या आप अपने अंतरराष्ट्रीय अनुभव साझा करना पसंद करेंगी? और उन अनुभवों से आपने क्या सीखा?
उर्मिला पवार : अंतरराष्ट्रीय अनुभव यह है कि दुनिया दलितों के जीवनानुभव को जानने के लिए व्यग्र है। मैंने छह देशों की यात्राएं की हैं। इन देशों में मुझसे जाति व्यवस्था पर सवाल किए गए। स्विटजरलैंड में मुझसे पूछा गया कि बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद आपने हिंदू देवी-देवताओं की प्रतिमा को क्यों भसा दिया। मैंने इसका जवाब दिया कि हमें हमारी संस्कृति और संविधान ने यह शिक्षा दी है कि दूसरे की सोच और भावनाओं को भी सम्मान दें। दूसरे धर्मों और उनकी आस्था का सम्मान देते हुए मैंने प्रतिमाओं को नदी में भसा दिया।
दूसरे देशों की यात्राओं और विचार विनिमय के दौरान मैंने ऑस्ट्रेलियाई आदिवासी महिलाओं की दुर्दशा के बारे में जाना। उन्हें अपने उन बच्चों के पालन-पोषण के अधिकार से भी वंचित किया जाता है जो गोरे के संसर्ग से पैदा होते हैं। मैंने यह जाना-समझा कि सारी दुनिया में औरतें हाशिए की जिंदगी जीने को विवश हैं।
प्रश्न : देश की दूसरी दलित स्त्री लेखकों से आप अपने को कैसे जोड़ती हैं?
उर्मिला पवार : जाति की डोर से सभी दलित स्त्रियां बंधी हुई हैं। जाति को काफी सख्त तरीके से गूंथा गया है। यह एकजुटता का प्रतीक भी है। जातिवाद का सख्त बंधन तभी ढीला हो सकता है, जब उच्च जाति के लोग यह समझेंगे कि जातिवादी व्यवस्था एक काल्पनिक व्यवस्था है। एक दूसरे से हमारा लगाव अपरिहार्य है।
प्रश्न : मुख्यधारा के नारीवादी आंदोलन पर आपकी क्या राय है?
उर्मिला पवार : मुख्यधारा का नारीवादी आंदोलन जातिवाद को बाधा के रूप में नहीं देखता है। वे लोग पश्चिमी नारीवादी आंदोलन की विचार पद्धतियों और उत्सवधर्मी लेखक मसलन केटे मिलेट के साथ भलीभांति बंधे हुए हैं। लेकिन वे भारतीय परिस्थितियों को सुधारने के लिए कुछ नहीं करते। वे भारत को एक समेकित इकाई के रूप में लेते हैं, जबकि भारत में भिन्न-भिन्न आर्थिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियां हैं। स्वाभाविक रूप से भारत की स्त्रियां अलग-अलग पृष्ठभूमि से आती हैं।
प्रश्न : दलित साहित्य विमर्श का अभिन्न हिस्सेदार होने की प्रेरणा आपको कहां से मिली?
उर्मिला पवार : मेरी मां और मेरे गांव की महिलाएं मेरी प्रेरणा बनीं। मैं अपने आसपास की स्त्रियों की वेदना, चिंता और उनके दर्द को बयान करने की सोचने लगी। बाबा साहब अंबेडकर और साबित्रीबाई फुले मेरे लिए प्रेरणा के बड़े स्रोत बने।
प्रश्न : क्या आपको लगता है कि दलित नारीवाद आज की जरूरत है?
उर्मिला पवार : दलित नारीवाद दलित स्त्रियों की वकालत करता है। दलित स्त्रियां समाज के सबसे निचले तबके से आती हैं। दलित स्त्रियों के अलावा और कोई स्त्री नहीं है जो इससे भी नीचे के स्तर का हो। अन्य पिछड़ी जातियां यह दावा करती हैं कि उनका नारीवादी आंदोलन दलित नारीवादी आंदोलन के समान है। मगर यह सच नहीं है। दलित स्त्रियां सबसे अधिक दमित हैं। वे सबसे अधिक यातना पाती हैं। वे हमेशा आशंका और डर से भरी रहती हैं। इस भय का सामना अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं को नहीं करना पड़ता है। इसलिए दलित नारीवादी आंदोलन आज की अनिवार्य जरूरत है।
प्रश्न : दलितों के उत्थान में सबसे बड़ी बाधा आपकी नजर में क्या है?
उर्मिला पवार : सदियों से दलितों को पीछे रखा गया है। नतीजा यह है कि वे आर्थिक दृष्टि से भी विपन्न हैं। उनका निम्न जाति का होना और उनकी विपन्नता एक-दूसरे से संबद्ध है। दोनों ही बड़ी बाधाएं हैं। मैं अपना अनुभव आपके साथ साझा करूंगी।
जब मैं नारीवादी बैठकों में जाया करती थी और देर होती थी तो हम भागते थे जल्दी जल्दी, क्योंकि घर जाकर रोटी बनानी होती थी। दूसरी ओर, उच्च जाति की महिलाएं होतीं थीं जिन्हें केवल अपनी बाई को हिदायत देनी होती थी। इस उदाहरण से यह साफ है कि हमारे जीवन व्यवहार में कितना बड़ा अंतर है।
एक दलित की आमदनी केवल उसके अपने विकास के लिए नहीं होती है। वह बांटी जाती है। दलित की आमदनी न केवल पूरे परिवार की होती है, बल्कि रिश्तेदारों के लिए भी होती है। उच्च जाति हमेशा दलितों के उत्थान का दायित्व पढ़े-लिखे दलितों के हवाले कर देते हैं। कुछ जिम्मेदारियां उच्च जाति को अपने हिस्से लेनी चाहिए। वजह यह है कि समाज की सभी सहूलियतों का भोग वे ही सबसे ज्यादा करते हैं।
प्रश्न : उच्च जातियां दलितों के सामाजिक उत्थान में क्या सकारात्मक भूमिका अदा कर सकती हैं?
उर्मिला पवार : दलित समुदाय के उत्थान के लिए ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना सेे हट कर सोचना होगा। मंदिरों में जो अकूत धन चढ़ावे का आता है, उस रकम से फैक्टरी बनाई जा सकती है। इससे रोजगार पैदा होगा। यह कठिन अवश्य है, मगर असंभव नहीं। दलित इस स्थिति में नहीं हैं कि वे इस तरह की पहल कर सकें। इस तरह के सामाजिक सुधार के लिए उच्च जाति की सकारात्मक सोच अनिवार्य है। ऐसा होने से ही समाज में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो सकेगा। सभी अपने सम्मान के साथ जी सकेंगे और अपनी पहचान भी कायम रख सकेंगे।
साभार (अंग्रेजी से अनुवाद : मृत्युंजय)
प्रसिद्ध दलित तेलुगु कथाकार और कवि जूपका सुभद्रा दलित आंदोलन में सक्रिय। आंध्रप्रदेश सचिवालय में कार्यरत। दलित स्त्री जीवन पर भी लेखन।
दलित कैमरा : बलात्कार की घटनाओं को आप कैसे देखती हैं?
जूपका सुभद्रा : बलात्कार या रेप हमला है, ऐसा नारीवादी बताते रहे हैं। लेकिन असल में बलात्कार दमन है- आधिपत्य बनाए रखने के लिए और हीनता का अहसास कराने के लिए। बलात्कार सांस्कृतिक रूप से, लैंगिक रूप से और जातिगत आधार पर ऊपर न उठने देने के लिए है। इसी मकसद से कोई किसी की पत्नी से बलात्कार कर सकता है। यह क्रूर उत्पीड़न है ताकि सांस्कृतिक, भौतिक और आर्थिक रूप से वे सामान्य लोगों की तरह सर उठा कर न जी सकें, कुछ समय के लिए ही सही।
वाकपल्ली जनजाति की स्त्रियों का बलात्कार हुआ। लेकिन उनके पुरुषों ने उन्हें स्वीकार कर लिया। क्योंकि उनके यहाँ शुद्धिकरण की व्यवस्था है। उन स्त्रियों ने पानी में डुबकी लगाई और कुछ दिनों तक उस जगह पर सोईं, जो शुद्धि स्थल घोषित है। फिर वे स्वीकार कर ली गईं। लेकिन मुख्यधारा के समाज में यह स्वीकार्यता नहीं है।
दूसरी बात यह कि अगर बलात्कारों की संख्या पर नजर डालें तो पाएंगे कि अधिकांशतः दलित और अनुसूचित जनजाति की स्त्रियों का हुआ है। जब मुख्यधारा की औरतों के साथ बलात्कार होता है, तो परिवार ऐसे तरीके अपनाता है कि बाहरी समाज को इसकी भनक तक न लगे। अगर समाज को यह बात पता चल जाती है तो वे अपराधी के परिवार को बड़ी क्रूरता से और चुपचाप नष्ट कर देते हैं और उनके अपने हाथ पाक-साफ बने रहते हैं।
लेकिन जब दलित और अनुसूचित जनजातियों की औरतों के साथ इस तरह की घटनाएं होती हैं, तब नारीवादी महिलाएं उसे मुद्दा बनाती हैं। आप मथुरा बलात्कार कांड को देखिए। मथुरा कांड पूरे देश में जाना गया नारीवादी महिलाओं की वजह से, क्योंकि नारीवादी महिलाओं की अपनी जरूरत थी। वे पूरे देश में दिखना चाहती थीं।
प्रश्न : तो अब वे ऐसा क्यों नहीं कर रही हैं?
जूपका सुभद्रा : वे अब स्थापित हो चुकी हैं, पूरी तरह। उस समय इन महिलाओं को पहचान चाहिए थी। उन्हें अपने को नारीवादी साबित करना था । अपने उत्पीड़न को समाज के सामने खोलना था। लोगों में चर्चा के लिए, अपनी मुक्ति के लिए और विकास की मुख्य धारा में छलांग लगाने के लिए।
इन सब के लिए उन्होंने आंदोलन चलाया। आज उन्हें इसकी जरूरत नहीं रह गई है। तो अब इसे कौन करे, किसे करना चाहिए? दलितों को। दलित स्त्रियों को करना चाहिए। दलित पुरुषों को करना चाहिए। हमें औरों के बारे में कुछ नहीं कहना। हमें अपने बारे में बात करनी चाहिए। हमें आपस में बात करनी चाहिए। हमें अपने आपको आगे बढ़ाना चाहिए। सभी नौकरशाहों को सचेत हो जाना चाहिए, सत्ता में आए सभी विधायकों, सांसदों को भी होश में आना चाहिए। सभी को एक संजाल बनाना चाहिए। लेकिन अभी ऐसा नहीं है।
सवाल है कि हम कितने जागरूक हैं? हम बिलकुल जागरूक नहीं हैं। पच्चीस साल बाद करामचेदु की घटना फिर घटी है। यह हमारी असफलता है। चेतना की कमी की असफलता है। यही वजह है कि लक्ष्मीपेटा कांड हुआ। हरियाणा में जब हमारी लड़कियां बलात्कार का शिकार हुईं, किसी को कोई परवाह नहीं थी। बलात्कार हमारे दुख, हमारे दर्द, हमारे स्वाभिमान के बारे में है। उस चीज के बारे में है जो हमें नेस्तनाबूद कर देना चाहती है। यह हमें आगे बढ़ने से रोकने के बारे में है।
कुछ लोग कहने लगते हैं कि स्त्रियां कसे हुए वस्त्र पहनती हैं, इसलिए बलात्कार होते हैं। लेकिन ऐसा कहाँ होता है? क्या जब हमारी स्त्रियां कसे हुए वस्त्र पहनती हैं, तभी बलात्कार होते हैं? इक्का-दुक्का घटनाएं ऐसी हो सकती हैं। जब विश्वविद्यालय या ऐसे ही किसी स्थान पर गलत होता है, तब वे कहने लगते हैं कि यह सब कपड़ों की वजह से होता है। तो फिर वे स्त्रियां कैसे बलात्कार की शिकार होती हैं जिनकी वेशभूषा वैसी नहीं है? इस पर कभी चर्चा नहीं की जाती।
प्रश्न : क्यों होता है ऐसा?
जूपका सुभद्रा : जाति की वजह से। सोच यह है कि क्या हुआ अगर दलितों के साथ ऐसा होता है। किसे चिंता है?
क्या पति बार-बार पुलिस स्टेशन जा पाएगा? कह पाएगा कि मेरी पत्नी के साथ बलात्कार हुआ है? मान लीजिए कुछ लोग आते हैं और कुछ आंबेडकर संस्थाएं आगे आती हैं समर्थन में। वे कुछ शोर मचाते हैं। लेकिन फिर? उसके बाद? लक्ष्मीपेटा में यही हुआ। सभी दलित संस्थाएं दिल्ली गईं। हैदराबाद गईं। खूब शोर मचाया। बस! उसके बाद क्या कोई था वहां? उसके बाद क्या हुआ? क्या जमीन का बंटवारा हुआ? पुनर्वास कराया गया?
हमें जागरूक रहना होगा – यही आंबेडकर का कहना था। अगर हम जागरूक नहीं रहेंगे तो जनसंहार की घटनाएं होती रहेंगी। फिर यह सिर्फ पुनर्वास के बारे में नहीं है। यह इस बारे में है कि हम इसे दुहराने न दें। यह सोच नहीं बन पाई, यह सबके लिए तकलीफदेह है। यह सबकी असफलता है। दलितों की असफलता है। दूसरा लक्ष्मीपेटा घट सकता है, क्योंकि दोषियों को जमानत मिल गई। यह कितनी बड़ी असफलता है। हमारा कैंप अब वहाँ नहीं है, लोगों को सावधान करते हुए, अपने लोगों को जागरूक बनाने के लिए, उन लोगों को अपनी हदों में रहने को बाध्य करते हुए। अब यह सब नहीं हो रहा है। न नौकरशाही यह कर रही है और न ही चेतनासंपन्न लोग। यह हमारे समुदाय के लिए असफलता है।
दूसरों पर दोष मढ़ने के पहले हम खुद से सवाल करें। हम जागरूक हों। अगर हम नहीं होंगे तो यह सिलसिला जारी रहेगा। जनसंहार होते रहेंगे। हम जिस व्यवस्था में जी रहे हैं, वह बहुत निर्दयी और अन्यायी है। यह हमें जागरूक नहीं होने देगी। लेकिन आपको उन व्यवस्थाओं को समझना होगा। व्यवस्था पर अपनी पकड़ बनानी होगी कि किन-किन तरीकों से वे हमारा दमन करते हैं। किस पद्धति से वे हमें एक जगह एक साथ होने से रोकते हैं। वे किन-किन तरीकों से और कैसी राजनीति खेलते हैं। हम उसपर अपना नियंत्रण कैसे हासिल करें? कैसे संगठित हों? हम अभी तक व्यवस्थित और संगठित नहीं हो सके हैं। वह करना होगा। तभी कुछ हो सकेगा।
सवाल है, हम सांस्कृतिक रूप से कहां हैं? कहां है हमारी संस्कृति? हम दशहरा, दीवाली मनाते हैं। त्योहारों में हम अच्छा खाना बनाते और खाते हैं। लेकिन वह दशहरा, दिवाली हमारे नहीं हैं। ये हैं, जिन्होंने हमें खत्म किया। अगर वे हमें मारकर उत्सव मनाते हैं, हम अपने बच्चों को यह कैसे जारी रखने दें? दशहरा ने हमारे रावण को और दिवाली ने हमारे नरकासुर को मारा। ये त्योहार हमारे कैसे हुए?
हम ग्रामीण हैं। हम दलित हैं। हम आदिवासी हैं। हम अल्पसंख्यक हैं, हम तेलंगाना के नेटिव हैं। हमें सामने होना चाहिए। निर्णय हमारे हाथ में होना चाहिए, उनके नहीं जो ऊंची जातियों के हैं। हमने तकलीफें झेली हैं। हमने नुकसान उठाए हैं। हमारी संस्कृति खो गई। हम और भी नीचे चले गए। आपका तो कुछ नहीं गया, कुछ नहीं बिगड़ा।
प्रश्न : क्या यह जाति के कारण नहीं है?
जूपका सुभद्रा : हमारे यहाँ वारंगल में मंदिर बहुत नहीं होते। तेलंगाना के हर गांव में मंदिर नहीं होता। कुछ जगहों पर हो सकता है मगर वारंगल, करीमनगर में नहीं है। इसलिए यह सवाल कि कौन मंदिर में जा सकता है कौन नहीं, पैदा ही नहीं होता। हां नालगोण्डा में मंदिर हैं। वे हमें अंदर नहीं जाने देते, अब भी ऐसा होता है।
ब्रिटिश शासन के कारण सीमंधारा में कुछ शिक्षा है। ब्राह्म समाज और ईसाई मिशनरियों के चलते उन्हें कुछ शिक्षा मिली, मगर हमें तो वह भी नहीं मिली। यहां कोई शिक्षा नहीं है। वह भी कम्युनिस्टों, क्रांतिकारियों और नक्सलवादियों के आने के बाद। उन्होंने लोगों से कहा कि पढ़ाई बंद करो, क्योंकि यह मैकाले शिक्षा प्रणाली है। उन्होंने कहा यह दासता की शिक्षा है। हमारे ज्यादातर युवाओं ने पढ़ना छोड़ दिया। उनके हिसाब से एक धोबी एक पढ़े-लिखे व्यक्ति से बेहतर है। यह भयानक था।
तेलंगाना में वे कहते हैं यह दास शिक्षा है। हमलोग इस तरह के वातावरण में पले-बढ़े। लेकिन जब उनके अपने बच्चों की बात आई तो सब भूल गए। वे पढ़ लिख कर जीवन में व्यवस्थित हो गए। उनसे सवाल करनेवाला कोई नहीं था। अगर कोई सवाल करता तो वह पुलिस इन्फॉर्मर था। ऐसी बहुत सी घटनाएं घटीं, जब हमारे लोग मारे गए। यदि वे गांव में आंबेडकरवादी थे, कम्युनिस्ट या नक्सली नहीं थे और अन्ना लोगों का आदर नहीं करते थे या दबकर नहीं रहते थे तो ऐसे कितने ही हमारे प्रतिभाशाली सुशिक्षित मैडिगा युवा करीमनगर, आदिलाबाद, वारंगल में कत्ल कर दिए गए।
प्रश्न : समाचारों में अक्सर बानमथी काला जादू के बारे में चर्चा है। वह क्या है?
जूपका सुभद्रा : बानमथी एक आरोप है राजनीतिक और सामाजिक। गांव में अगर कोई अपना काम अपनी मर्जी से करता है तो वे सोचते हैं कि किसी भी कीमत पर उसे कैसे दबाया जाए, कैसे बिरादरी से निकाल बाहर किया जाए। एक के बाद एक विभिन्न बातों, घटनाओं को वे जोड़ते चले जाएंगे और अफवाह फैलाएंगे। अगर आपकी जमीन को बगल में उनकी जमीन है तो वे उसे अपनी जमीन में मिलाकर अपना प्लाट बढ़ाने की कोशिश करेंगे। तो उस जमीन के मालिक से छुटकारा पाने के लिए उस आदमी के बारे में कुछ अफवाहें फैलाएंगे।
छोटी जाति का व्यक्ति कुछ कहे तो उसका कोई मूल्य नहीं है और वह अफवाह नहीं बन पाएगी। वही बात अगर कोई ऊंची जाति का व्यक्ति कहेगा तो उसकी बात का मूल्य होगा और अफवाह फैल जाएगी, क्योंकि उसके पास इसके लिए पूरा सिस्टम है। वह सिस्टम अफवाह फैलाने में मदद करेगा। खेत मजदूरों की मदद से गांव के चौराहे पर, वह व्यक्ति इसे योजनाबद्ध ढंग से अंजाम दे सकता है। यह औरत फांसी लगाकर मर गई, वह लड़की पढ़ नहीं रही, इस लड़के को बुखार था, उस आदमी को भी बुखार हो गया। उसे खांसी के दौरे पड़ने लगे। और फिर और कहानियां… कैसे किसी को एक नींबू या कुछ अंडे मिले!
इस तरह की घटनाएं हुई हैं कि आधी रात को लोगों ने योजना बनाकर एक नींबू और एक अंडा, जिसे शिकार बनाना था, उसके घर के सामने रख दिया। यदि आप जन विज्ञान के लोगों से पूछें, वे आपको बता देंगे। आप तर्कवादियों से पूछें, वे बता देंगे। कैसे एक नींबू एक अंडा रखकर किसी को काला जादू करने के आरोप में फँसाया जा सकता है। ये लोग अनपढ़ हैं, उन्हें तरह-तरह के डर और असुरक्षा ने घेर रखा है। एकमात्र शिक्षा से आप कुछ हद तक मुक्त हो सकते हैं।
हममें से जिनके पास अधिक बुद्धि, धन या भूमि होती है, उनको भी निशाने पर लिया जाता है ताकि हमें किसी तरह की आजादी न मिल सके। ऐसे लोगों को काला जादू के जाल में फँसाया जाता है और अंततः खत्म कर दिया जाता है।
तो कम्युनिस्टों और वामपंथियों ने जाति, धर्म, काले जादू जैसे अन्य तमाम मुद्दों पर कोई काम नहीं किया। क्यों नहीं किया? जब नई दुनिया के उन्होंने सपने दिखाए, हम दौड़े चले गए। उन्होंने बराबरी की बात की, हमने सोचा कि अब जातियां नहीं रहेंगी। उन्होंने समानता वाले समाज की बात की, परंतु जाति रहित समाज की बात नहीं की। सदियों से दबे-कुचले हमारे दिमाग सोचने लगे कि अब जातियां नहीं रहेंगी। हम साथ खाएंगे, हमारे बेटे उनकी बेटियों से और उनके बेटे हमारी बेटियों से शादियां करेंगे। साथ खेलेंगे, साथ गाएंगे। यह मानव स्वभाव है कि वह साथ चाहता है। एक नई दुनिया के लिए, समतावादी समाज के लिए बौद्ध काल से लेकर आज तक जब-जब किसी ने कोशिश की है, कदम बढ़ाए हैं, उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी है। लोगों को बलिदान देने पड़े हैं, मारे गए हैं, दफनाए गए हैं, वे अछूत ही थे। हो सकता है, यह इतिहास में दर्ज न किया गया हो, मगर पीढ़ियों से यही होता आया है।
भारत माता किस जाति की हैं? मुकुट और बढ़िया रेशमी साड़ी, सुकोमल और गोरी, क्या यह भारतमाता हैं? कौन स्त्री भारतमाता है? किसमें दिखती हैं भारतमाता? उन्होंने कहा तेलंगाना थल्ली (मां)। क्या आप जानते हैं कि तेलंगाना थल्ली कैसी होनी चाहिए? उनको चाकली ऐलम्मा जैसी दिखाया जाना चाहिए। भारतमाता में हमारी संस्कृति की झलक मिलनी चाहिए। कौन सी संस्कृति? यहाँ की महिलाओं की कार्य संस्कृति। लेकिन वह नहीं हो रहा है।
हम अगर भारतमाता को देखें तो सुनहरा मुकुट, हाथों में कोई हथियार, आभूषणों से लदी, रेशमी साड़ियां, सोने के कंगन और बांह में बाजूबंद भरे हुए। क्या कोई दलित स्त्री ऐसी दिखती है? क्या इतना सब पहनकर वह अपने रोजमर्रा के काम कर पाएगी? उन्होंने किस तरह की औरतों का प्रतीक भारतमाता के रूप में चुना? किसने इस प्रतीक को लेने का निर्णय लिया? ऊंची जाति के पुरुषों ने।
उनकी दृष्टि में एक स्त्री, एक भारतमाता को गोरे रंग की, आभूषणों से भरी, रेशमी साड़ी इत्यादि में होना चाहिए। इसी बात पर हमारी बहस थी, जब तेलंगाना थल्ली की तस्वीर जारी की गई।
अब तेलंगाना थल्ली भी आंध्रा थल्ली की बहन लगती है। ऐसा कैसे हो सकता है? उसको गोची में होना चाहिए (साड़ी का एक छोर दोनों टांगों के बीच से होकर पीछे जाएगा) साड़ी का पल्लू सीने पर न होकर कमर में लिपटा हुआ होना चाहिए। कानों में ठोस कर्णफूल। बाल जूड़े में कसे होंगे। गले में मोती की माला और हाथों में चांदी के कड़े। बिंदी-विंदी कुछ भी फालतू चीज नहीं। यह हुई तेलंगाना थल्ली। तो जब वे जमींदार जैसी छवि लाकर कहते हैं तेलंगाना थल्ली तो हम कैसे मान लें?
काली और शक्ति के बारे में सोचें, दलित स्त्रियां बहुत ताकतवर हैं। आप कह सकते हैं, ऐसा प्रकृति के संसर्ग या उनकी मेहनत के कारण हुआ। शक्ति का जिक्र होते ही मुझे हमेशा थाटकी की याद आती है। यह विश्वामित्र थे जो उनको मारने के लिए राम को दशरथ के घर से लेकर आए थे, क्योंकि वे औरतें इतनी शक्तिशाली थीं कि विश्वामित्र उनसे लड़ नहीं पा रहे थे। जिन्होंने उनको इतनी भुजाएं लगाईं, वे यही ब्राह्मण लोग थे। काली हमारी हैं, लेकिन ब्राह्मण उन्हें अपना-अपना कहते रहते हैं।
इतनी दूर क्यों जाना, हमारी आंखों के सामने कितनी पोचम्माएं कालिका माता में बदल गईं। यहाँ कालिका मंदिर है न, बांदलागुडा के पास गंडी मायसम्मा कालिका माता बन गई हैं, दुर्गा बन गई हैं!
कहीं न जाकर आंध्र सचिवालय की एक घटना लें। वहां औरतों ने एक छोटा पत्थर रख दिया था और कभी-कभी वहां जाती थीं अपने रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े तनाव/हताशाओं से मुक्ति पाने। वे एक नारियल फोड़तीं, एक छोटा सा दिया जलातीं। आहिस्ते से लोगों ने उसके चारों ओर ईंटें खड़ी कर दीं। धीरे-धीरे चारों ओर दीवारें बना दी गईं और देखते-देखते एक बड़ा मंदिर तैयार हो गया। अब उस पत्थर की जगह एक मानव मूर्ति खड़ी कर दी गई। इन औरतों को वहां से खदेड़ दिया गया। यह पोचम्मा मंदिर था। अब इसे वे दुर्गा मंदिर कहते हैं, दुर्गा माता। अब वे औरतें न वहां प्रार्थना करती हैं, न दिया जलाती हैं। अब उन्हें वहां आने भी नहीं दिया जाता। यह सचिवालय में हुआ। अब वहां रोज पूजा पाठ, यज्ञ सब होता है। ब्राह्मणों का प्रवेश हो गया है यहां। सारे कर्मकांड किए जा रहे हैं। उन्होंने गरीब चतुर्थ श्रेणी महिला कर्मचारियों से दूरी बना रखी है।
पोचम्मा गांव की रखवाली करती हैं। मायसम्मा गांव के तालाब के किनारे बैठकर उसकी रक्षा करती हैं। उनको देखकर कोई कह सकता है कि वे किसकी पत्नी हैं? आप बता सकते हैं क्या? वह दलित स्त्री है।
उन्होंने काली का ही नाम बदल दिया। उनके काले रंग को बदलने से नाराजगी होगी, इसलिए वह रहने दिया। उनके पास शक्ति है इसलिए वे उन्हें साथ चाहते हैं। दूसरी तरफ, उनकी स्त्रियों को देखें। आप ब्रह्मा को जानते हैं, अगर आप पूछें कि उनकी पत्नी कहां हैं- वह उनके चेहरे में हैं। विष्णु की उनके सीने में है। और शिव की उनके आधे शरीर में हैं। लेकिन हमारी स्त्रियां ऐसी नहीं हैं। हमारी पोचम्मा, इल्लम्मा, मायसम्मा, उप्पलम्मा के बारे में हम जानते ही नहीं कि उनके पति हैं या नहीं। उनके पतियों के नाम बताइए। यदि उनकी पत्नियां पतियों का एक भाग भर हैं, तो वे कैसे शक्तिशाली हो गईं?
हमारी स्त्रियां स्वतंत्र हैं। वे सिर्फ अपने परिवार के लिए नहीं, पूरे समुदाय के लिए लड़ीं। पूरे गांव के लिए उन्होंने संघर्ष किया। वे गौर वर्ण की नहीं हैं, वे एक काले पत्थर जैसी हैं। उनका कोई रूप नहीं है। इसलिए एक पत्थर, एक पेड़, एक बांध- यही उनका रूप है। उन लोगों की तरह नहीं हैं, जो किसी गोरी महिला की मूर्ति खड़ी कर देते हैं।
साभार, संक्षिप्त अंश अंग्रेजी से अनुवाद : मंजु श्रीवास्तव
नमोशूद्र परिवार में जन्मे बांग्ला के प्रमुख दलित लेखक से जयदीप सारंगी की बातचीत. जयदीप सारंगी एक कवि और अनुवादक हैं और कोलकाता के जोगेशचंद्र चौधुरी कॉलेज के अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक हैं।
जयदीप सारंगी : क्या दलित लेखन एक क्रांति है?
नकुल मल्लिक : क्रांति दलित साहित्य का आधारभूत तत्व है। दलित साहित्य केवल दलित समाज पर आधारित कुछ कहानियों और घटनाओं का विवरण-मात्र नहीं है। दलित साहित्य सामाजिक सुधार की जिम्मेदारी लेकर चलता है और उसका प्रमुख उद्देश्य साहित्य के माध्यम से सामाजिक सुधार से संबंधित विचारों को प्रमुखता देना है। दलित लेखकों को इस संबंध में सचेत रहना चाहिए। भारतीय समाज में व्याप्त असमानता, भेदभाव और शोषण के बारे में जन-चेतना जागृत करने में मदद करनेवाला साहित्य ही दलित साहित्य है। दलित लेखक केवल सैद्धांतिक विरोध करके अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं कर सकते।
दलित साहित्य को दलितों का, दलितों के द्वारा, दलितों के लिए लिखा गया साहित्य माना जाता है। इसका अर्थ है, दलित लेखक दलित समाज का हिस्सा होना चाहिए। अन्य जाति से संबंधित लेखकों में दलितों के प्रति सहानुभूति हो सकती है, उनके समान अनुभूति नहीं हो सकती।
प्रश्न : बंगाल में दलित साहित्यिक आंदोलन की शुरुआत कब हुई?
नकुल मल्लिक : बंगाल में दलित चेतना का जन्म मतुआ धर्म के समानांतर है। मतुआ साहित्य को दलित साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। चरित्र में थोड़ी भिन्नता के बावजूद वे दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
… यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दलित समाज का कोई अखबार या चैनल नहीं है। महाराष्ट्र के दलित साहित्य को बंगाल में पहुँचने में 22 वर्ष लग गए। 1972 में जब दलित पैंथर की स्थापना हुई, पहली बार हम साहित्य के साथ दलित शब्द के जुड़ाव को जान सके। उच्च जाति के लोग या सरकार महाराष्ट्र में दलित लेखकों का दमन नहीं कर सकती, जैसा पश्चिम बंगाल में होता है। हमारे राज्य के जातिवादी लेखक इस बात का विरोध करते हैं कि कोई दलित साहित्य भी हो सकता है। पश्चिम बंगाल में दलित की अवधारणा ही अस्वीकार्य है।
प्रश्न : दलित मुक्ति आंदोलन के प्रमुख हथियार क्या हैं?
नकुल मल्लिक : दलित मुक्ति आंदोलन का प्रमुख हथियार है पत्रिकाओं और पुस्तकों का प्रकाशन। इस आंदोलन की सारी खबरें विशाल जनसमूह तक कवि-गान के रूप में पहुंचती हैं। लोक-कवियों की संगीतमय मधुर आवाज, बातचीत करने की पद्धति, छंदबद्ध चर्चाएं लोगों को आकर्षित करती हैं।
प्रश्न : दलित मुक्ति आंदोलन में महिलाओं का क्या भूमिका है?
नकुल मल्लिक : दलित मुक्ति आंदोलन में महिला अभिन्न अंग के रूप में अपनी भूमिका निभाती हैं। संतोष कुमारी तालुकदार, डॉ. स्वर्णलता हाजरा, सुषमा मैत्रा, बीणा समाद्दार, प्रीतिलता हाल्दर कुछ उल्लेखनीय नाम हैं। देश की स्वतंत्रता के बाद अनेक निःस्वार्थी महिलाओं ने सामाजिक कार्यों से स्वयं को जोड़ा। अनेक महिलाओं ने अविवाहित रहकर अपने जीवन को समाज के लिए समर्पित कर दिया।
प्रश्न : बंगाल में दलित साहित्य आंदोलन उस रूप में संगठित और एकताबद्ध क्यों नहीं है, जैसा महाराष्ट्र में है?
नकुल मल्लिक : इसके कुछ विशेष कारण हैं। एक तो, जातिगत भेदभाव की जैसी विकराल स्थिति महाराष्ट्र में थी, वैसी बंगाल में नहीं थी। यहाँ गले में घंटी बांध कर नहीं चलना पड़ता था। महाराष्ट्र में दलितों के प्रति जो अत्याचार होते थे, उसकी कल्पना भी बंगाल के दलित समाज में नहीं की जाती थी। हालांकि बंगाल में मनुवाद और अन्य ब्राह्मणवादी धारणाओं ने दलितों के दैनिक जीवन में कई प्रतिबंधों को लागू किया था। दलितों को मंदिर में जाने की मनाही थी। धार्मिक अनुष्ठानों में अनेक नियमों का पालन करना पड़ता था। सभी जलस्रोतों से पानी नहीं लेने दिया जाता था। लेकिन बंगाल में ऊपरी तौर पर महाराष्ट्र की तरह घोर भेदभाव नहीं था। उच्च जाति के लोगों में हमारे प्रति घृणा प्रकट रूप में अभिव्यक्त नहीं होती थी।
दूसरी ओर, महाराष्ट्र के दलित इकट्ठे हैं, जबकि बंगाल के दलित बिखरे हुए हैं। महाराष्ट्र में अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने की क्षमता है। वे विशाल सामाजिक आंदोलन आयोजित कर सकते हैं। उनमें आत्मसम्मान की भावना प्रबल है। उनपर बहुत अत्याचार हुए, पर वे विशेषाधिकार-प्राप्त वर्गों के गुलाम नहीं बने। उनकी बुनियाद मजबूत है। सरकार उन्हें दबा और डरा नहीं सकती, बल्कि उन्हें गंभीरता से लेती है। अतः वे एक बैनर के अधीन सामाजिक आंदोलन कर सकते हैं।
इनकी तुलना में बंगाल में दलित दूसरों पर आश्रित हैं। अधिकांश स्वतंत्र चिंतन और संघर्ष की ताकत खो चुके हैं। वे अभी भी विशेष सुविधा-संपन्न लोगों के विचारों पर आश्रित हैं, जो न तो दलितों की राजनीतिक मुक्ति का समर्थन करते हैं और न ही उनके साहित्य के लिए स्पेस पैदा करते हैं। बंगाल के विशेष-सुविधा संपन्न बुद्धिजीवी जोरदार ढंग से दलित साहित्य आंदोलन का विरोध करते हैं। महाराष्ट्र में दलित लेखकों को सरकार से मान्यता मिली है, उन्हें सम्मान और पुरस्कार दिए गए हैं, बंगाल में बिलकुल इसके विपरीत स्थिति है। यही कारण है कि हम ऐक्यबद्ध नहीं हैं।
प्रश्न : बंगाल में दलित साहित्य आंदोलन का क्या भविष्य है?
नकुल मल्लिक : सांस्कृतिक क्रांति के बिना कोई व्यापक सामाजिक या राजनीतिक परिवर्तन नहीं हो सकता। जनता में जागृति पैदा करना और उनकी चेतना को जगाना जरूरी है। कविता, संगीत, नाटक, सेमिनार, परिचर्चा, पत्रिका और पुस्तक इसके महत्पपूर्ण माध्यम हैं।
महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में आंबेडकर के विचारों ने सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभाई है। दक्षिण भारत में भी पेरियार ई. वी. रामास्वामी के विचारों ने दलित समाज पर व्यापक प्रभाव डाला है। उनकी पत्रिकाओं, कहानियों, कविताओं और उपन्यासों ने लोगों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। यही बात पश्चिम बंगाल पर भी लागू होती है। यहाँ भी 1975 के बाद से इस दिशा में कार्य हुए हैं। नवयुग साहित्य तथा संस्कृति परिषद ने अनेक लेखकों और कलाकारों को पैदा किया है। उनकी प्रतिभा और उनकी सशक्त आवाज विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, कहानियों, कविताओं, निबंधों में अभिव्यक्त हुई है।
बांग्ला दलित साहित्य आंदोलन के विकास और संवर्धन में एक बड़ी बाधा यह है कि हम दूसरी भाषाओं में लिखे गए दलित साहित्य को नहीं पढ़ पाते, क्योंकि हम उस भाषा को नहीं जानते। ठीक यही स्थिति हमारी भाषा की भी है, वे हमारे साहित्य को नहीं पढ़ पाते। यदि सभी भाषाओं में लिखे गए दलित साहित्य को अनुवाद के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया जा सके, तभी पूरे भारत में दलित आंदोलन की सफलता सुनिश्चित की जा सकेगी।
संक्षिप्त रूप, साभार अनुवाद : अवधेश प्रसाद सिंह
प्रसिद्ध दलित मराठी लेखक शरणकुमार लिंबाले की चालीस से अधिक किताबें प्रकशित। अपनी जीवनी ‘अक्करमाशी’ को लेकर खासे चर्चा में रहे और इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। प्रस्तुत है शरणकुमार लिंबाले से टीकम शेखावत की बातचीत
टीकम शेखावत : जानना चाहता हूँ कि 70-80 के दशक में जब दलित साहित्य काफी मजबूती के साथ लिखा गया, उस दौर में और आज के समय में आप किस तरह का अंतर देखते हैं?
शरणकुमार लिंबाले : सर्वप्रथम मेरा नमस्कार। मेरे समय के वक्त और आज के वक्त में खासा अंतर है। आप यह कह सकते हैं कि हमारा आज काफी हद तक विकसित हुआ है। मतलब दलित चेतना के साहित्य लेखन में जो भी कार्यरत हैं उनका विजन आज के समय में बहुत ब्रॉडर हो गया है। जब मेरा वक्त था या मेरा शुरुआती दौर था, तब मैं व मेरे जैसे लोग और सभी साथी, जो भी इस दिशा में लिख रहे थे, का मकसद केवल यह होता था कि हमारे प्रश्न, हमारी व्यथाएं अपने देश और दुनिया तक पहुंचे। हम चाहते थे कि दुनिया वाले हमारे प्रश्नों को समझें, हमें समझें, हमारी तकलीफ, दर्द व हमारे प्रश्नों को जानें। हो सके तो हमारी पीड़ा को हमारे लेखन के माध्यम से अनुभव करें। चूंकि जमाने को हमारी पीड़ा का उचित संज्ञान नहीं था, हम अपनेे लेखन के जरिए अपनी बात अपने देश और दुनिया तक पहुंचाना चाह रहे थे। कुल मिलाकर लगभग दो दशकों तक हमारा स्टैंड यही रहा कि दुनिया हमारी बातों को समझे और व्यवस्था में सुधार हो। लोग आगे आएं।
प्रश्न : क्या यह माना जाए कि आपका फोकस उस समय अपनी पीड़ा और दर्द को समाज के सामने ले जाना था?
शरणकुमार लिंबाले : यह केवल पहले दौर के समय था। इन दो दशकों में लोग इस बात को समझने लगे थे। उसके बाद दूसरा दौर आया जब हमने लोगों को बताना चाहा कि यह केवल हमारी पीड़ा का विषय नहीं है, बल्कि हमारे मानवाधिकार की भी बात है। हम अपने मानवाधिकार के लिए लिख रहे हैं। हमारे लेखन के माध्यम से ही हम अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। हमने कई सारे फोरम पर अपने मानवतावादी प्रश्नों की बात रखी। हमने कहा कि हम भी इस देश के नागरिक हैं। हमारे भी मूलभूत अधिकार हैं। औरों की तरह हमें भी अपना वह हक मिलना चाहिए, जो इस देश के सभी नागरिकों को मिलता है। हमारे साथ दोयम दर्जे का व्यवहार नहीं होना चाहिए। लेकिन आज के भारत में, यह दौर बिलकुल बदल गया है, हर कोई देश को सुंदर बनाने में, बेहतर बनाने में लगा हुआ है। मैं यह कहना चाहता हूँ कि दलित लेखक भी अपनी लेखनी से देश को महान बनाता है। देश को महान बनाने की कड़ी में आप दबे कुचले लोगों को पीछे तो नहीं छोड़ सकते न! मत भूलिए कि हमारे देश के चेहरे पर आज भी जातिवाद के बड़े-बड़े धब्बे हैं। इन धब्बों को हमें नष्ट करना होगा तभी हम इस देश को एक महान मुल्क बना सकेंगे। उदाहरण के लिए, आप मुझसे बात करके हमारे लेखन पर लिख रहे हैं, यह भी एक तरह से राष्ट्र को महान बनाने का ही कार्य हो रहा है। हर व्यक्ति अपने-अपने तरीके से अपना काम कर रहा है और ये सभी कड़ियां मिलकर राष्ट्र निर्माण करती हैं। इसमें छोटा-बड़ा कैसा? सभी समान होने चाहिए। लोगों को समझना होगा, हमारा देश केवल गिनी चुनी जातियों की सत्ता भर नहीं है। यह हम सभी का है और हम सब मिलकर ही इसे और सुंदर बना सकेंगे।
प्रश्न : उस समय और आज में एक बड़ा अंतर यह भी है कि पिछले दो–ढाई दशकों से मोबाइल आ गया है। मोबाइल और इंटरनेट हर एक के मन को दूर दराज तक बिजली की रफ्तार से पहुंचा रहा है। तकनीक के इस सामूहिक प्रवाह से आपकी राय, आपकी सोच, आपका दर्द तुरंत दुनिया भर में पहुंच जाता है। ऐसे में दलित साहित्य की लेखनी में, कॉन्टेंट में आप किस तरीके का बदलाव देखते हैं? कैसा है यह भूमंडलीकरण वाला दौर? चीजें कितनी बदली हैं?
शरणकुमार लिंबाले : आप सही कह रहे हैं। लगभग सब कुछ बदल गया है। बल्कि यह कहूंगा कि सब कुछ आसान हो गया है। भूमंडलीकरण व इंटरनेट ने हमें अपना एक नया स्पेस दिया है। हम लोग हजारों सालों से जिस विकास से वंचित रहे उसके रास्ते इंटरनेट ने, सोशल मीडिया ने हमारे लिए खोल दिए हैं। अब अपनी बात पहुंचाने के लिए आपको किसी साहित्य सम्मेलन का इंतजार नहीं करना है। लोगों तक पहुंचने का जरिया केवल अपनी बात किताब के जरिए लिखना भर नहीं है। आप इंटनरेट और सोशल मीडिया के जरिए रोज अपनी बात दुनिया के सामने रख सकते हैं। मैं एक उदाहरण देता हूँ। कुछ दशक पहले मेरी किताब कैनेडा पहुंचने में 15 दिन लगते थे। फिर वे लोग किताब पढ़कर उस पर अपनी प्रतिक्रिया लिखते और उसे मेरे पास पहुंचने में और 15-20 दिन लगते थे। परंतु अब ऐसा नहीं है। मैं जो लिखता हूँ वह ऑनलाइन के जरिए कुछ-एक सेकेंड में कैनेडा तक पहुंच जाता है। दूर-दराज के लोग, जिनसे शायद हमारा सीधा संपर्क भी नहीं है, अब वे हमारा लिखा इंटरनेट के माध्यम से पढ़ते हैं, हमारी पीड़ा को महसूस कर सकते हैं। विश्व पटल पर हम सभी बहुत करीब आ गए हैं। भूमंडलीकरण से दलित साहित्य को लेकर एक बड़ा बदलाव यह भी आया है कि हमारा साहित्य छापने के लिए अब हमें प्रकाशकों के पीछे भागने की जरूरत नहीं पड़ती। अब भारत ही नहीं, विदेश के भी प्रकाशक हमारा साहित्य मुद्रित कर रहे हैं। भूमंडलीकरण और इंटरनेट के बलबूते आज हमारा लेखन तमाम भारतीय भाषाओं में जा रहा है, उस पर बात हो रही है और प्रतिक्रिया आ रही है। पिछले एक दशक में, दुनिया के कई सारे विश्वविद्यालयों में मुझे जाने का मौका मिला। कई जगह आज भी वेबिनार के माध्यम से जुड़ता हूँ। यह सब इंटरनेट व भूमंडलीकरण से ही संभव हो पाया। आजकल के संचार माध्यमों से हमारे मूलभूत विकास में आमूल परिवर्तन आया है। हम बाहर के साहित्य और संस्कृति को अब करीब से समझने लगे हैं। आप जितना दुनिया से जुड़ेंगे उतना ही आपका विकास, आपका उत्थान अधिक होगा। मिसाल के तौर पर, अंग्रेज हमारे यहां आए, इसलिए हमें सारे अवसर प्राप्त हुए। मतलब यह कि हमारे लोगों को शिक्षा का अवसर अंग्रेजों के यहां आने के बाद ही मिला। मैं यहां बाहर से आए हुए आक्रांताओं का समर्थन नहीं कर रहा, बस यह कह रहा हूँ कि हमारे लिए रास्ते अंग्रेजों के आने के बाद खुले। बाहर की संस्कृतियां आने से ही हमें संधि मिली। हमारी संस्कृति में दलितों को पढ़ने-लिखने का अधिकार कहां था?
प्रश्न : आपको एक लेखक के तौर पर देश और दुनिया में कई जगह बुलाया जाता है। लेखक के रूप में आप यूरोप, आस्ट्रेलिया, अमेरिका और लगभग हर महाद्वीप में जाते रहे हैं। मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप जब दलित चेतना के लेंस से दुनिया को देखते हैं तब वहां, बाहर के प्रश्नों में और हमारे यहाँ के दलित प्रश्नों में कैसी समानता देखते हैं? क्या आप इनको रिलेट कर पाते हैं?
शरणकुमार लिंबाले : हाँ, हाँ, बिलकुल। क्यों नहीं! पहले जब हम लोग लिख रहे थे तब ऐसा माना जाता था कि एक जाति यानी कि ‘महार’ जाति अपनी व्यथा लिख रही है। मतलब दलित लेखन या यह विषय एक जाति तक ही सीमित था। ऑस्ट्रेलिया का ही उदाहरण ले लीजिए। वहां श्वेत लोग पहुंचे तो उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों की जमीनों और संपत्ति पर कब्जा कर लिया और वहां कई जगह तो मूल निवासियों को अपनी जमीन छोड़कर भागना पड़ा। आज भी वहां सत्ता में श्वेत लोगों का दबदबा है। आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों की व्यथा हमारे प्रश्नों से मेल खाती है। ठीक उसी तरह आपने हाल ही में अमेरिका में अश्वेत समुदाय के द्वारा अपने हक के लिए किए गए आंदोलन के विषय में गौर किया होगा। इन सब बातों के मुद्दे भले ही अलग-अलग परंतु परिप्रेक्ष्य एक है। हमारे सवाल, हमारी व्यथा एक जैसी है। इस आंदोलन का अमेरिका के चुनाव पर भी असर पड़ा और अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष को चुनाव में मुंह की खानी पड़ी। हमें अश्वेत समुदाय से भी काफी प्रेरणा मिली है और हम उनके प्रश्नों से भी जुड़े हैं।
प्रश्न : क्या यह कहा जाए कि अमेरिका में रंगभेद है और यहां जातिभेद?
शरणकुमार लिंबाले : हां, देश अलग हैं, हमारी भाषाएं भिन्न हैं, हमारी संस्कृतियां अलग हैं और यहाँ तक कि हमारे रंग भी अलग हैं, लेकिन हमारी व्यथा एक, हमारे प्रश्न एक हैं। सब कुछ हमारे मानवाधिकार को लेकर है। हम लोगों के बीच में सॉलिडेरिटी (एकजुटता) का निर्माण हुआ है।
प्रश्न : आप और आपकी पीढ़ी शुरुआती दौर में जब दलित साहित्य पर लिख रही थी, तब आप लोगों से किस तरह जुड़ते थे? तब सोशल मीडिया नहीं था, तो आप जन मानस तक कैसे पहुंचते थे?
शरणकुमार लिंबाले : बहुत अच्छा सवाल पूछा आपने। यह वह दौर था जब हमें लेखक के तौर पर भी अछूत समझा गया। दलित चेतना के साहित्य के विकास में 1960 के बाद काफी प्रगति हुई। लेकिन यह ऐसा दौर था, जब हमारे साहित्य को प्रकाशक नहीं मिलते थे। लोग कहते थे, यह कोई साहित्य है? इसमें ओछे शब्द हैं, गालियां हैं! हमें प्रकाशक भगा दिया करते थे। कहते थे, यह बेकार साहित्य है। हम लोगों के पास अपना साहित्य खुद छपवाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। कुछ ने पत्नी का मंगलसूत्र बेचा, कुछ ने भविष्य निधि (पी.एफ़.) से पैसा निकाला तो किसी ने लोन लिया और उन्होंने अपना साहित्य खुद ही प्रकाशित कराया।
टीकम शेखावत : क्या आप खुद इस स्थिति से गुजरे?
शरणकुमार लिंबाले : हां, हां, बिलकुल। मामला केवल प्रकाशन का ही नहीं था। हमें बरसों साहित्य के आयोजनों से दूर रखा गया। सम्मेलनों से दूर रखा गया। आज भी कइयों को इसका सामना करना पड़ता है। कहा जाता है, आपकी वाक्य रचना ठीक नहीं है। आपका फालतू साहित्य है। तमाम दिक्कतें आती हैं। साहित्य की सत्ता ने इस बात को नहीं समझा कि हमने तो कभी उच्च भाषा देखी-सुनी नहीं। इसलिए हम जो बोलते हैं, उसी भाषा में लिखते थे।
आप ऐसा समझिए कि लगभग दो दशकों तक हमारे साहित्य का विरोध हुआ। उसके बाद जब हमारी किताबें चल गईं, तब लोग हमें बुलाने लगे। साहित्यकार समझने लगे। फिर हमारा साहित्य विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में आया। इस तरह लोगों को पता चला कि समाज में आज भी हमारी स्थति कितनी पीड़ादायक है। हम कितनी कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं। अगर हम लोग यह साहित्य नहीं लिखते तो हमारी परिस्थितियां किसी तक नहीं पहुंचतीं। हमारे लिखने से, पाठकों के पत्र हमें आने लगे। वे लोग हमारी पीड़ा समझने लगे। और तो और इससे ग्रामीण साहित्य और स्त्री चेतना के साहित्य में भी आमूल परिवर्तन आया। लोगों ने माना कि साहित्य मनोरंजन का सामान भर नहीं है। आप यह मानिए किदलित साहित्य के आने से समूचे साहित्य की भाषा बदली, नायक बदले, विषय बदले और तो और साहित्य भी बदलने लगा।
संपर्क सूत्र प्रस्तुतकर्ता : 20/1, खगेंद्र चटर्जी रोड, काशीपुर, कोलकाता-700002 मो.8420627693