प्रस्तुति : मधु सिंह
विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में एम.फिल. की शोध छात्रा। कोलकाता के खुदीराम बोस कॉलेज में शिक्षण।
नई कविता में परंपरागत कविता से आगे नए भावबोध की अभिव्यक्ति के साथ ही नए मूल्यों और नए शिल्प विधानों का अन्वेषण किया गया है।भाव, विचार और भाषा के क्षेत्र में इस काव्यधारा ने जो विकास किया वह कविता का शुद्ध साहित्यिक विकास पथ है। ‘नई कविता’ पत्रिका के संपादक जगदीश गुप्त ने इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि नई कविता नई चेतना का प्रतिनिधित्व करने वाला काव्य आंदोलन है।
नरेश मेहता नई कविता के चर्चित कवियों में से एक हैं।उन्होंने नई कविता को सुंदरता, उदात्तता, विराटता, आधुनिकता तथा प्रधानता प्रदान की है।वे अपनी रचनाओं में मनुष्यता की नई परिभाषा गढ़ते हैं।वे कई अर्थों में अपने समकालीन कवियों से भिन्न हैं, क्योंकि उनके लिए काव्य एक पूरा जीवन दर्शन है।नरेश मेहता ने अपने काव्य लेखन से मानवीय मूल्यों को अर्थपूर्ण बनाया है।उनका काव्य संसार व्यापक होने के साथ वैविध्यपूर्ण भी है।उन्होंने अपनी कविताओं में भारतीय चिंतन, संस्कृति और आधुनिक मूल्यबोध के बीच संबंध स्थापित किया।वे अपनी परंपरा के कवियों से इस अर्थ में भी भिन्न हैं कि वे मिथकीय एवं पौराणिक कथाओं की तरफ ज्यादा आकृष्ट हुए।वे भारतीय उदात्तता और आस्था की ओर लौटते हुए आधुनिक मानव जीवन को सुंदर और उदात्त बनाने के स्रोत तलाशते हैं।इन स्रोतों को अक्सर प्राचीन और वैदिक कहकर आधुनिक कवियों ने छोड़ दिया था।
निःसंदेह नरेश मेहता के यहां आधुनिकता परंपरा से जुड़ी हुई है।वे परंपरा के प्रगतिशील एवं मानवीय मूल्यों के साथ आधुनिक चिंतन को गढ़ते हैं।वे अपनी परंपरा के प्रति आत्मविस्मृत आधुनिकों में नहीं, बल्कि उन आधुनिक कवियों में शामिल हैं, जो परंपराओं को खुले तौर पर स्वीकार करते हैं और उनमें जीवन का आधुनिक सत्य खोजते हैं।इतना ही नहीं, वे एक सतत आधुनिक भारतीय कवि के रूप में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।वे आयातित विचारों और विचारधाराओं के बीच भारतीय ज्ञान परंपरा के आधुनिक स्वरूप के साथ खड़े दिखते हैं।वे भारतीय मिथकीय चरित्रों के जरिए आधुनिक समय को व्याख्यायित करते हुए उनकी अर्थवत्ता स्पष्ट करते हैं।
नरेश मेहता एक सात्विक, शीलवान व्यक्तित्व के कवि हैं।उनका काव्य पशुता के खिलाफ मानवता का काव्य है।उनकी वैष्णवता का एक उदात्त अर्थ है।वे वैष्णवता के माध्यम से मानव जीवन को सुंदर बनाना चाहते हैं।उनकी कई रचनाओं को पढ़ते समय ऐसा लगता है कि उनकी दृष्टि कल्याणकारी होने के साथ भारतीय काव्य परंपरा के आधुनिक मूल्यों के साथ उपस्थित हुई है।नरेश मेहता विश्वत्व की ओर बढ़ने वाले वैष्णवी कवि हैं।उनकी दृष्टि भले वेदों, उपनिषदों या ऋचाओं में विचरण करती हो, उसकी पुरातनता हमें हमारे विराट से जोड़ती है, जो हमारा अपना है।
नरेश मेहता के मिथकीय काव्य बेहद महत्वपूर्ण हैं।वे मिथकीय चरित्रों को वर्तमानता, वैयक्तिकता और बौद्धिक स्वतंत्रता से जोड़कर आधुनिक मानव के रूप में प्रस्तुत करते हैं।उन्होंने अपने मिथकीय काव्यों ‘संशय की एक रात’, ‘शबरी’, ‘महाप्रस्थान’ और ‘प्रवाद पर्व’ के माध्यम से आधुनिक युग की समस्याओं का वर्णन किया है।वे व्यक्ति स्वतंत्रता को प्राथमिकता देते हैं।दरअसल वे मिथकीय आख्यानों के माध्यम से युगीन सत्य, समस्या तथा मूल्यों को व्यक्त करना चाहते हैं और अपने इस प्रयास में सफल भी हुए हैं।
नरेश मेहता का मानना है कि नई कविता में जो वास्तविक कविताएं मानी जाएंगी उनकी अनुभूतियां, संस्कार तथा मूल्य प्राचीन युग के हैं।जिन नए कवियों के पास ये संस्कार नहीं हैं वे भीषण प्रयोगवादी बनने के लिए बाध्य हो जाते हैं और धरती से विच्छिन्न हो जाते हैं।उनका यह भी मानना है कि संस्कार परंपरागत एवं स्वार्जित होते हैं।
उनको जांगलिकता से सांस्कृतिकता कहने का तात्पर्य है काव्य के माध्यम से मनुष्यता को बचाए रखना।नरेश मेहता के काव्य में हमें गहरी अनुभूति के साथ-साथ उदात्त अभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं और काव्यत्व का परिचय भी मिलता है।इस संदर्भ में उनका यह कथन उल्लेखनीय है, ‘काव्य मानवीय औदात्य की अभिव्यक्ति है।कैसा ही काव्य हो वह अनिवार्यतः मानव महिमा का बोध कराता है।’
ऐसा बिलकुल नहीं है कि उनके काव्य में राजनीति का स्वर नहीं सुनाई पड़ता।दरअसल उनके यहां राजनीति का अर्थ भिन्न है।नरेश मेहता ने अपने खंड काव्यों के माध्यम से राजनीति के विभिन्न पक्षों को समाज के समक्ष रखा है।वे वर्तमान समय की राजनीति के पक्ष में नहीं थे।उनका मानना है कि राजनीति, लोकशासन का एक बार दावा कर सकती है, किंतु लोगमंगल का उसका दावा मात्र प्रचार है, प्रपंच है।
यह परिचर्चा नई कविता और नरेश मेहता के विभिन्न पक्षों को जानने के लिए है। इसमें हमारे समय के महत्पपूर्ण लेखकों ने अपने विचार खुलकर रखे हैं।
सवाल
1-नरेश मेहता नई कविता के महत्वपूर्ण कवियों में हैं।उनकी रचनाएं उनके समकालीन कवियों से किन अर्थों में भिन्न हैं?
2-नरेश मेहता की कविताओं में व्यक्त आधुनिकताबोध और विशिष्ट प्रयोगों के बारे में आपकी क्या राय है ?
3-नरेश मेहता की आधुनिकता और वैष्णवता के बीच कैसा संबंध है?
4-नरेश मेहता के मिथकीय काव्य में आधुनिक सामाजिक समस्याएं किस तरह उपस्थित हैं?
5-नरेश मेहता अपनी परंपरा के प्रति आत्मविस्मृत भी नहीं हैं और आधुनिक भी हैं।इस बारे में आपका क्या कहना है?
6-नरेश मेहता काव्य को जांगलिकता से सांस्कृतिकता, देह से मन की ओर, जड़त्व से चेतनत्व की एक मानवीय यात्रा मानते हैं।इस पर आपकी टिप्पणी क्या है?
7-नरेश मेहता के काव्य में राजनीति के स्वर नहीं दिखाई पड़ते हैं, लेकिन उन पर अकसर यह आरोप लगता रहा है कि वे राजनीति से जुड़े हुए हैं।इस पर आपको क्या कहना है ?
आलोक श्रीवास्तवविश्व साहित्य तथा भारतीय भाषाओं की 400 से अधिक अनूदित क्लासिक पुस्तकों का संपादन तथा प्रकाशन।संवाद प्रकाशन से जुड़े। ‘धर्मयुग’ और ‘अहा ज़िंदगी’ पत्रिका के संपादन से भी जुड़े रहे।पहले काव्य संग्रह ‘वेरा, उन सपनों की कथा कहो!’ से कविता प्रेमियों के बीच चर्चित हुए। ‘जब भी वसंत के फूल खिलेंगे’, ‘यह धरती हमारा ही स्वप्न है’, ‘दिखना तुम सांझ तारे को’, आदि अन्य कविता संग्रह।मुंबई यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के संयुक्त सचिव रहे। |
(1) नरेश मेहता के समकालीन कवि हैं अज्ञेय, मुक्तिबोध, भवानीप्रसाद मिश्र, धर्मवीर भारती, कुंवर नारायण, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल आदि।सिर्फ नरेश मेहता ही नहीं, एक समय ये सभी समकालीन कवि थे।मौलिक कवि बाकी से भिन्न होता है, क्योंकि कविता निजत्व से जनमती है, उसकी व्याप्ति भले ही व्यापक हो।उल्लेखनीय है कि नरेश मेहता अपने लिए ‘अपांक्तेय’ शब्द का प्रयोग करते थे।
समकालीन शब्द पिछले चालीस वर्षों में कुछ ज्यादा प्रचलित हो गया है।यह शब्द काव्य परिद़ृश्य पर एक दबाव पैदा करता है।इस शब्द के इर्द-गिर्द कवियों के दल बने हैं।कोई भी मौलिक कवि इस तरह के दबाव के आगे समर्पित नहीं होता।नरेश मेहता भी नहीं हुए।यही उनका समकालीन कवियों से भिन्न होना है।वे अपने समकालीनों से किस अर्थ में भिन्न थे, तो यह बात दूसरा सप्तक की उनकी कविताओं से ही देखी जा सकती है कि वे आरंभ से एक अलग संवेदना के कवि थे।यह अत्यंत सूक्ष्म संवेदना थी।इस संवेदना का गठन समकाल से ही हुआ था, पर यह अपने स्वरूप में अत्यंत बारीक थी।वे प्रकृति, मानव मन और जीवन के गहन स्तरों के कवि थे।यदि हम गद्य और काव्य में भेद न करें, तो इस संवेदनात्मकता को समझने के लिए हम नरेश मेहता के संपूर्ण काव्य और गद्य की तुलना फ्रांसीसी उपन्यासकार मार्शल प्रूस्त की संवेदनशीलता से कर सकते हैं।
(2) आधुनिकता-बोध उस संपूर्ण पीढ़ी की मुख्य धुरी थी, जिसमें नरेश मेहता आते हैं।अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर आदि में आधुनिकता-बोध न होता तो शायद वे उस तरह कवि बन ही न पाते।हम जिन कवियों की बात कर रहे हैं, उन कवियों ने इस मूल्यगत आधुनिकता का संघर्ष अपनी रचना में व्यक्त किया है।प्रेम, स्त्री-पुरुष संबंध, मिलन और विरह से लेकर सामाजिक चित्र इसी मूल्यगत संघर्ष का परिणाम बनकर आधुनिक हिंदी कविता की उपलब्धि बने।अज्ञेय की कविता उसकी मुख्य वाहक थी।नरेश मेहता ने भारतीय मध्यवर्ग के आधुनिक मूल्यों की तलाश के लिए अलग दिशाओं में यात्राएं की हैं।
प्राथमिक स्तर पर यह संघर्ष मूल्य का ही संघर्ष था, जिसका एक आयाम वे समस्त भाषागत और शिल्पगत प्रयोग थे, जो उस दौर की कविता में दिखे थे।उसे प्रयोगवाद, नई कविता आदि नाम से पुकारा गया था।
(3) नरेश मेहता के साहित्य के बारे में वैष्णवता शब्द का प्रयोग जिस रूप में किया जाता है, उससे ऐसा लगता है कि मानो वे वैष्णव संप्रदाय का ही कोई आधुनिक रूप हों।वास्तव में ऐसा है नहीं।यह भ्रम उनकी पुस्तक ‘काव्य का वैष्णव व्यक्तित्व’ तथा कुछ साक्षात्कारों और कविताओं में ‘वैष्णवता’ शब्द के इस्तेमाल से और गहरा हुआ।नरेश जी जीवन के वैविध्य के कवि थे।वे कथाकार और उपन्यासकार भी थे।विभाजन पर लिखी उनकी कहानियां उस समय भले उपेक्षित रह गई हों, पर आज उनका पुनःपाठ, उस दौर की पूरी मार्मिकता को प्रकट करने में सक्षम है।
उनके उपन्यास बीसवीं सदी के रियासती भारत को जिस तरह विहंगम रूप में प्रस्तुत करते हैं, वह उन्हें समवेत रूप में विश्व साहित्य की निधि बनाता है।हां, वे जीवन के सकारात्मक भाव के साथ दीनता की शक्ति को जिस ढंग से अपने लेखन में रेखांकित करते रहे हैं, उसके लिए एक नाम वैष्णवता भी हो सकता है।यह मध्यकालीन वैष्णवता नहीं है।
उनके लिए खेत में श्रम करता किसान वैष्णव है, घर की खिड़की पर फुदक रही गौरैया वैष्णव है।वैष्णवता का उनका आशय बिलकुल वह नहीं है, जो मध्यकालीन संदर्भों से बनता है।पर साहित्य में प्राय: सतही निष्कर्ष और अनावश्यक सरलीकरण ही प्रचलित होकर मत-निर्माण करते हैं।यह नरेश मेहता के साहित्य के बारे में भी हुआ है।
(4) जहां तक मिथक का प्रश्न है तो नरेश मेहता ही नहीं, उनकी पीढ़ी के सभी कवि मिथकों तक गए।नरेश मेहता ने मिथकों पर चार खंडकाव्य लिखे।उनकी अपनी विशेषताएं हैं।दरअसल नई कविता के युग में कुंवर नारायण का ‘आत्मजयी’, धर्मवीर भारती की ‘कनुप्रिया’ और ‘अंधायुग’, अज्ञेय की परवर्ती कुछ कविताओं तथा मुक्तिबोध की कविताओं में बारंबार मिथक-चरित्रों की आवृत्ति की सबसे बड़ी शक्ति यह थी कि उनमें आधुनिक समस्याएं पिरो दी गई थीं।यही बात उनकी सीमा भी बनाती थी।
(5) नरेश मेहता के लिए परंपरा एक प्रवहमान समय है।परंपरा से विच्छिन्न न मनुष्य हो सकता है, न समाज, न लेखन हो सकता है, न भाषा।परंपरा का निरंतर परिमार्जन और संस्कार होता है।उसमें नए तत्व शामिल होते हैं, मृत तत्वों की काट-छांट होती है।परंपरा कोई ऐसी चीज नहीं है कि आप उसका स्वीकार या अस्वीकार करते हैं।वह आपमें है, आप उसे क्या रूप देते हैं, अपनी मौलिकता से उसे कितना जीवंत बना पाते हैं, यह आपकी गुणवत्ता है।नरेश जी ने अपने काव्य और गद्य की भाषा को परंपरा से द्वंद्वात्मक और सृजनात्मक संबंध के जरिए विकसित किया और उसे अत्यंत संस्पर्शी और विशिष्ट बनाया।
(6) नरेश मेहता काव्य को जांगलिकता से सांस्कृतिकता, देह से मन, जड़त्व से चेतनत्व की मानवीय यात्रा बताते हैं, तो उनका आशय मानवीय संवेदना के विकास में काव्य की भूमिका से है।यहां काव्य से उनका आशय बहुत व्यापक है।वह भाषा तक सीमित नहीं है, न खास विधा तक।उन्होंने अपनी पुस्तक ‘काव्यात्मकता का दिक्काल’ में आदिम मनुष्य का एक बहुत अच्छा बिंब रचते हुए काव्य के जन्म की कुछ संभावनाएं रखी हैं।लाखों साल पहले भी चांद रोज दिखता रहा होगा।पर किसी नारी के प्रति संवेदित मन से उस आदिम पुरुष ने अपनी अस्फुट भाषा में जब यह कहना चाहा होगा कि यह चांद तुम्हारी तरह है, तो शायद वह पहली कविता रही होगी।इस तरह वे उस कविता की बात कर रहे हैं, जिसे अभी भाषा और व्याकरण, छंद और तुक, अर्थ और अन्वय के उपकरण नहीं मिले हैं।
नरेश मेहता ने यही कहना चाहा है कि काव्य का अनिवार्य संबंध संस्कृति के विकास से है, संवेदना की सघनता से है।यानी मानव-समाज की प्रगति का एक आयाम काव्य है।
(7) नरेश मेहता के काव्य में राजनीति के स्वर नहीं दिखाई पड़ते, यह गलत धारणा है।उनके खंडकाव्य ‘संशय की एक रात’, ‘महाप्रस्थान’ और ‘प्रवाद पर्व’ अपने अंतिम रूप में राजनीति पर गंभीर विमर्श ही तो हैं।बात यह है कि वे किसी निर्धारित राजनीति के कवि नहीं हैं।बल्कि बाद में साम्यवादी राजनीतिक साहित्यिक धारा से उनका विरोध का संबंध ही रहा।तो निश्चित रूप से उनके राजनीतिक विचार जो उनके काव्य ही नहीं, दो उपन्यासों – ‘यह पथ बंधु था’ और ‘उत्तरकथा’ में तो बहुत विस्तार से हैं, उनके विचारों से भिन्न थे, जो भारत में आती हुई क्रांति देख रहे थे।यदि स्पष्ट कहा जाए तो नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध आदि की एक काव्यधारा थी, जो भारत में संभावित क्रांति व व्यवस्था-विरोध से प्रेरित थी।नरेश मेहता निश्चित रूप से इस धारा के कवि नहीं थे।
वह युग बीत गया, जब हिंदी साहित्य में राजनीति और साहित्य के संबंध को लेकर बहुत तरह के विमर्श हुए।सही-गलत का निर्धारण हुआ।अब उस पूरे युग के तटस्थ मूल्यांकन का समय है।नरेश मेहता के साहित्य में राजनीतिक विचार ही नहीं, राजनीतिक पूर्वग्रह भी भरपूर हैं।अंतर्विरोधों की भी कमी नहीं है।इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हिंदी में प्रतिरोध का जो मध्यवर्गीय साहित्य रचा गया, वह राजनीतिक पूर्वग्रहों और अंतर्विरोधों से मुक्त था।
वस्तुत: हिंदी साहित्य की पिछली पौन शताब्दी नव-शिक्षित वर्ग के साहित्यिक विकास की साक्षी है।इनमें से प्राय: सभी की जड़ें ग्रामीण और सामंती रही हैं।वे एक रूपांतरित हो रहे समाज के नागरिक थे।इसी व्यापक संदर्भ में उस पीढ़ी तथा उस दौर के संपूर्ण साहित्य के वस्तुनिष्ठ पुनर्मूल्यांकन की जरूरत है।शीतयुद्ध की भाषा अब काम नहीं देगी।
नरेश मेहता राजनीतिक रूप से एक अत्यंत सजग लेखक थे।वे एक समय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे, पर संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में मार्क्सवाद के नाम पर जिस तरह के लोग और प्रवृत्तियां बढ़ रही थीं, उनसे वे असहमत थे।इसी कारण उन्होंने पार्टी छोड़ी और एकांत सृजन का मार्ग चुन लिया।उनके विरोधियों ने उन्हें पुनरुत्थानवाद के खांचे में डाल कर मुख्यधारा से उन्हें खारिज कर दिया।प्राय: हिंदी-साहित्य जीने-ओढ़ने वालों को भी यह नहीं पता है कि उन्होेंने ७० से अधिक कहानियां, ८ बृहत उपन्यास, तथा गद्य विधा में दर्जन से अधिक महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं।नरेश मेहता को ‘दूसरा सप्तक’ तक सीमित करके देखा गया।उन्होंने ७८ वर्ष का लंबा जीवन जिया।वे अंतिम वर्षों तक लेखन करते रहे।उन्होंने जीवन के गहरे और विहंगम चित्र गद्य और पद्य दोनों में रचे हैं।उनका सारा लेखन राजनीतिक रूप से चेतस कृतिकार का लेखन है।उनकी राजनीति भारतीय नवजागरण से संबद्ध थी।इसलिए उनकी सीमाएं भी वैसी ही थीं, जैसी नवजागरण की राजनीति की थीं।नवजागरण की राजनीतिक चेतना को उन्नत धरातल पर ले जाना एक सामूहिक दायित्व था।आजादी के बाद इससे कतरा कर ही हिंदी साहित्य की मुख्यधारा चली।
इतिहास ने राष्ट्र के सम्मुख यह रेखांकित कर दिया है कि भारत को किसी भी जनवादी क्रांति के विचार के प्रसार से पहले सामाजिक जागरण का विराट उपक्रम करना होगा, अन्यथा वह फासिज्म में फंसता जाएगा।
नरेश मेहता मार्क्सवाद के विरोधी नहीं थे।पर वे मार्क्सवाद को हथियार बना कर की जा रही साहित्यिक वर्चस्व की राजनीति के विरोधी थे।वे साहित्य को जन के संदर्भ में देखते थे।सारी बातें उन्हें उन समूहों से अलग करती थीं, जिनके लिए साहित्य विचार और सृजन का क्षेत्र होने से पहले वर्चस्व और सत्ता का क्षेत्र था।देखा जा सकता है कि उनके उपन्यासों में भरपूर राजनीतिक टिप्पणियां हैं।ये राजनीतिक टिप्पणियां कई बार दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों की राजनीति से जुड़ती मालूम पड़ती हैं।हालांकि किसी लेखक पर पुनरुत्थानवाद का लेबल चिपकाने से पहले खुद अपनी राजनीति के अंतर्विरोधों का आकलन और आत्मविश्लेषण अधिक जरूरी कार्यभार है।
नरेश मेहता हिंदी के ही नहीं, भारत के महान लेखकों में थे।वे साहित्य और समाज की हर तरह की सत्ता-संरचना से अलग अपनी चुनी हुई गरीबी और एकांत में सृजन को समर्पित रहे, इस आशा में कि पृथ्वी विराट है और समय विपुल।
संपर्क सूत्र : एफ-3, प्लॉट-86, गली-3, ज्ञानखंड-2, इंदिरापुरम, गाजियाबाद-201014 मो.9610584000
राजेश जोशीसुप्रसिद्ध हिंदी कवि।प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित।अद्यतन कविता संग्रह ‘जिद’। |
(1) नरेश मेहता की कविता की एक पंक्ति है ‘(पर) पथ यहां से अलग होता है’।मुझे लगता है जैसे यह पंक्ति नरेश जी के पूरे काव्य व्यवहार का केंद्रीय पद है।उनकी कविता के कई दौर रहे हैं, इसलिए उनकी कविता पर कोई सामान्यीकृत वक्तव्य देना गलत होगा।लेकिन हर बार जैसे नरेश जी अपनी कविता में अपने लिए अलग रास्ता बनाते हुए दिखते हैं।सप्तक के कवियों में नरेश जी वास्तव में नए रास्तों के अन्वेषक रहे हैं। नई कविता में एक आउट साइडर कवि लगते हैं।नई कविता का तनाव, घिराव और अपराधबोध वहां नहीं है।मुक्तिबोध जैसी आत्मालोचना भी नहीं।
(2) आक्रमणों और अधीनताओं के चलते हमारी आधुनिकता का नैसर्गिक विकास बार-बार टूटा और बिखरा है।हमारी आधुनिकता बहुत हद तक विखंडित आधुनिकता है।वह बहुत हद तक आरोपित या बाहर से ले ली गई, आयातित आधुनिकता है।नरेश जी का पथ यहां फिर से अलग होता है।कहा जा सकता है कि वह एक प्रति-आधुनिक कवि हैं।उनकी यह प्रति-आधुनिकता, विखंडित और आरोपित आधुनिकता का प्रतिपक्ष है।वह एक देशज आधुनिकता की तलाश करते हैं।शायद इसी अर्थ में उन्होंने कहा, ‘हम अपने प्रति, अपनी परंपरा के प्रति आत्मविस्मृत आधुनिक हैं।’ यह तलाश उनमें कई तरह के प्रयोगों को जन्म देती है। ‘वनपाखी सुनो’ और ‘बोलने दो चीड़ को’ में जो प्रयोग हैं उनका कुछ संबंध नरेश जी के बंगाल में बिताए दिनों से अधिक है।यहां उन्होंने बांग्ला भाषा के शब्दों को हिंदी शब्दों की तरह प्रयोग किया है।जैसे ‘डाके’ यानी पुकारना जैसे शब्द का प्रयोग है।
इन कविताओं के शिल्प और इनकी प्रगीतात्मकता भी बांग्ला कविता के स्वभाव के अधिक निकट लगती है।बाद की कविताओं में उन्होंने वैष्णव संप्रदाय से जुड़ी दार्शनिक और धार्मिक शब्दावली के साहित्यिक प्रयोग किए।एक तरह से कहा जा सकता है कि वैष्णव शब्दावली और कर्मकांड की विधियों का साहित्यिक रूपांतरण उन्होंने किया।
(3) ‘काव्य का वैष्णव व्यक्तित्व’ में उन्होंने लिखा था- ‘भारतीय काव्यात्मकता आरण्यकता का ही पर्याय है।नागरिकता कभी भी भारतीय काव्यमुद्रा, मुहावरा या भाषा नहीं बन सकी।आज के आधुनिक काव्य की भी यही विषमता है।’ हालांकि यहां नरेश जी से थोड़ा असहमत हुआ जा सकता है।भारतीय समाज नागर और आरण्यक समाज रहा है।उसमें ग्राम बहुत बाद में आता है।लेकिन कालिदास या वाल्मीकि में भी नागर समाज तो है ही।कालिदास के संदर्भ में तो नरेश जी ने भी स्वीकार किया ही है कि कालिदास का काव्य धार्मिक आरण्यकता और साहित्यिक नागरिकता के बीच सेतु है।
यह विचार का विषय हो सकता है कि स्वयं नरेश मेहता का काव्य नागरता और आरण्यकता के बीच कैसा सेतु बनाता है।
(4) नरेश मेहता की कविता आर्ष मिथकों के बहुत जादुई और आकर्षक प्रयोग करती है।एक तरह से कहा जा सकता है कि वह आर्ष मिथकों और वानस्पतिक बिंबों का उत्सव रचती है, जो ऐंद्रिक भी है और बहुरंगी भी।नरेश जी की कविता में मिथक एक विकसित संस्कृति और सभ्यता के जातीय मिथक हैं।उनमें तात्कालिक किस्म के सामाजिक संदर्भ ढूंढ़ना मुश्किल है।
(5) नरेश जी यह बात तो अपने समय के रचनाकारों पर कह ही चुके हैं कि (और उसमें उन्होंने अपने आपको भी शामिल किया है) ‘हम अपने प्रति और अपनी परंपरा के प्रति आत्मविस्मृत आधुनिक हैं।’ यानी उन्होंने आधुनिकता की दो श्रेणियां तैयार की हैं- एक, वह जो परंपरा के प्रति आत्मविस्मृत है और दूसरा, जो इस परंपरा को जानकर देशज आधुनिकता को तलाश रहे हैं।नरेश जी की कविता का एक ही राग नहीं है।
‘समय देवता’ या ‘पिछले दिनों नंगे पैर’ वाली कविताओं में वैष्णव या वानस्पतिक उत्सव नहीं है।वहां नरेश जी नागर कवि हैं।बहुत हद तक अपने समकालीनों के अधिक निकट।
(6) नरेश जी अपने लिए एक नए काव्यशास्त्र और एक अलग पहचान वाली भारतीय कविता की तलाश कर रहे थे।इन सिद्धांतों पर उन्हीं से बातचीत हो पाती तो शायद अधिक अर्थ खुलते।मैं इस पर बहुत कुछ नहीं कह सकता।प्रसाद तो ‘एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन’ कह चुके हैं।
(7) ऐसी कोई कविता नहीं होती जो अपने समय की राजनीति से पूरी तरह असंपृक्त हो।तुलसी, कबीर या मीरा भी पूरी तरह राजनीतिक कवि हैं। ‘समय देवता’, ‘पिछले दिनों नंगे पैर’ ही नहीं, जिन कविताओं को ध्यान में रखते हुए कभी मुक्तिबोध ने उनसे कहा था (मुक्तिबोध एक अवधूत कविता के संदर्भ देखें) कि वास्तव में राजनीति आपकी काव्यभूमि नहीं है।जिस वैदिक धरातल पर आप खड़े होकर लिखना चाहते हैं वही आपकी वास्तविक काव्यभूमि है।मुझे लगता है, यह भी एक अधूरा कथन ही है।वैदिक धरातल भी राजनीति से मुक्त नहीं हो सकता।महिमा मेहता (श्रीमती नरेश मेहता) ने एक लेख में लिखा था कि नरेश मेहता सचमुच उत्सव पुरुष हैं। इस उत्सव में मृच्छकटिकम् का विद्रोह चाहे न हो पर राजनीति तो इसकी भी है ही।
संपर्क सूत्र : 11 निराला नगर, भदभदा रोड , भोपाल-462003 मो.9424579277
श्रीप्रकाश शुक्लसुपरिचित कवि आलोचक। ‘बोेली बात’ और ‘क्षीरसागर में नींद’ कविता संग्रह चर्चित।हिंदी कविता के प्रतिष्ठित शमशेर सम्मान से सम्मानित।अद्यतन आलोचना पुस्तक ‘महामारी और कविता’।बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर। |
(1) नरेश मेहता की कविताओं में अंतर्निहित वैष्णवता के तत्व उन्हें अपने समकालीन कवियों से अलग करते हैं और उनकी इस वैष्णवता का आधार कविता के भीतर उनकी उत्सवधर्मिता व उदात्त भावबोध को लेकर है।वे अपनी कविताओं में कभी तात्कालिक आग्रहों में शामिल नहीं होते।साथ ही वे किसी समस्या को तात्कालिक प्रसंगों में भी नहीं देखते।उनके यहां एक शाश्वत भाव स्वर सदैव ही भास्वर रहता है, जो पदार्थ को भी एक विराट के प्रवाह में देखता है।
काव्य उनके लिए विराट पुरुष और महत प्रकृति की युगल लीला है (‘अरण्या’ की भूमिका), वह मनुष्य को संस्कार देता है।काव्य हमेशा ही व्यक्तित्व को विस्तार देता है और यहीं कवि से वह समर्पण मांगता है जिसके बगैर उदात्त कविता बन ही नहीं सकती।इसे ही वे आहुति कहते हैं और कविता को शब्द-यज्ञ के माध्यम से संपन्न करने की बात करते हैं।
इस रूप में नरेश मेहता कविता को एक सनातन सत्ता मानते हैं और यही उनकी वह वैष्णवता है, जो विराट को संबोधित होती हुई कविता को सामान्य संघर्ष, भाव व रूप से आगे ले जाती है।यहीं पर वे नई कविता के अपने समकालीन कवियों से अलग भी होते हैं जो मनुष्य तथा प्रकृति की विराट चेतना को समर्पित न होकर केवल वर्तमान को ही अपनी कविता का आधार बनाते हैं।उनके अनुसार इस सृष्टि में कवि ही एकमात्र उत्सव-पुरुष होता है, क्योंकि वही सृजित काव्यात्मकता का सनातन मांगलिक उत्सव संपन्न कर सकता है।
स्पष्ट है कि नरेश मेहता नई कविता के भीतर होकर भी भक्ति की एक शानदार वैष्णव परंपरा से गहरे जुड़े कवि रहे हैं।वे कविता को न छायावादी की तरह सूक्ष्म व स्थूल की बायनरी में देखते हैं और न ही प्रगति तथा प्रयोग या व्यक्ति तथा समाज की बायनरी में।कविता उनके यहां मनुष्य के भीतर उस चेतन पुरुष की उपस्थिति है, जिसके बगैर सामाजिक प्रकाश संभव ही नहीं है।कविता उनके यहां विचार से आगे बढ़कर भाषा का आवरण ओढ़कर विराट करुणा में रूपांतरित हो जाती है, जहां मनुष्य का ‘कविता हो जाना ही उत्सव हो जाता है’ (‘अरण्यानी से वापसी’ -कविता)।स्पष्ट है, जिस कवि के यहां कविता उत्सव हो रही हो, वह एक तरफ प्रयोगवाद की वैयक्तिकता से तो दूसरी तरफ प्रगतिवाद की भौतिकता से स्वाभाविक रूप से मुक्त रहेगा।यहां मनुष्य का उदात्त पुरुष को समर्पित होते जाना ही कविता है।वे मनुष्य मात्र में कविता की उपस्थिति चाहते हैं।यहीं से उनकी वैष्णवता का पता चलता है।उनके अनुसार-
‘सृष्टि मात्र को/इतिहास और राजनीति नहीं/ एक कविता चाहिए’।
वे इसी दायरे में कविता को साधारण जन की रामायण बनाना चाहते हैं।एक कविता ‘अरण्यानी से वापसी’ में लिखते हैं-
‘मेरी वैष्णवता/एक कविता/एक कदंब सी उपस्थिति होओ/कविता जब प्रार्थना हो जाती है/कविता जब मनुष्य हो जाती है/तब वह पृथ्वी के साधारण जन की/रामायण हो जाती है।’
(2) नरेश मेहता का आधुनिकताबोध उनकी परंपरा के भीतर से प्रकट होता है।आधुनिकता उनके लिए कोई अचानक से प्राप्त भाव और विचार नहीं है, बल्कि सनातन के भीतर हो रहे मनुष्य तथा प्रकृति के तनाव से रचित है।उसमें मनुष्य के भीतर बैठा हुआ जाग्रत पुरुष निरंतन एक उदात्त की ओर बढ़ता रहता है।इसके लिए उन्होंने तमाम मिथकीय संदर्भों के सहारे वर्तमान को समझने की कोशिश की है।उन्होंने अपने खंड काव्य ‘संशय की एक रात’ में राम के जिस संशय की बात उन्होंने की है, वह आधुनिक मनुष्य का ही संशय है और संशय आधुनिकता की एक प्रमुख विशेषता रहा है।तुलसी में यह संशय है तो निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ में भी यह संशय है।नरेश मेहता भी इस आख्यान के भीतर से आधुनिक मनोभावों को पकड़ने की कोशिश करते हैं।इसलिए वे छिन्नमूल आधुनिकता के लेखक नहीं हैं, बल्कि परंपरा के भीतर आधुनिक होते जाने वाले कवि हैं।वे नई कविता के उन कवियों से अलग हैं जो पश्चिम की भाव संपदा को अपनाने में और वैयक्तिकता के प्रभाव में कविता लिखते जाने में ही आधुनिकता को समेट लेना चाहते हैं।
(3) असल में नरेश मेहता की आधुनिकता अगर एक रेखा की तरह है तो उनकी वैष्णवता एक आवर्त की तरह।जाहिर सी बात है, जैसे एक रेखा को उदात्त व श्रेष्ठ बनाने के किए आवर्तिता की जरूरत होती है, वैसे ही आधुनिकता को श्रेष्ठ मानव मूल्यों का संवाहक बनाने के लिए उत्सवधर्मी वैष्णवता की जरूरत होती है।इससे आधुनिकता अपनी शुष्कता तथा वैयक्तिकता से मुक्त होकर सरसता और सामूहिकता से जुड़ जाती है।मैं कुछ इसी तरह से इस प्रश्न को देखता हूँ और जब नरेश मेहता के मुक्तिबोध विषयक आलेख को पढ़ता हूँ तो अपनी इस समझ से आश्वस्त भी होता हूँ।
नरेश मेहता की कविताओं से गुजरते हुए हमेशा लगता है कि वहां एक अभिव्यक्तिमय उत्तेजना तो है, लेकिन यह समष्टिगत भाव से जुड़कर कुछ-कुछ नियंत्रित होती रहती है जो खुद उन्हें मुक्तिबोध से अलग करती है।
उनकी सर्जनात्मक व्याकुलता को उनका वैष्णव मन लगातार दिशा देता रहता है और नियंत्रित भी करता रहता है।उनकी इस आधुनिकता को उनकी वैष्णवता पटरी से उतरने नहीं देती और न ही क्षणिक आवेग में सीमित करती है।उनकी वैष्णवता प्रकृति तथा मानव विश्वास के आस्थामय स्वरूप को आधुनिकता के दबाव में खोने नहीं देती।इसी विशेषता के कारण नरेश मेहता तनाव से करुणा की ओर और भय से अभय की ओर बढ़ते हैं।उनमें कविता को लेकर जो नैसर्गिक आत्मविश्वास है, यह उनकी आधुनिक उपस्थिति के भीतर उनके वैष्णव मन की देन है।यह उनकी कमजोरी नहीं, बल्कि सर्जनात्मक समृद्धि का सूचक है।यह बात और है कि मार्क्सवादी समीक्षकों ने उनके इस पक्ष को बहुत महत्व नहीं दिया और हिंदी कविता में वे हाशिये पर ही रहे।
मुझे लगता है कि इसके पीछे मालवा का लालित्य तथा बनारस का पांडित्य कुछ हद तक जिम्मेदार था, क्योंकि बीएचयू में परास्नातक के छात्र के रूप में आचार्य केशव प्रसाद मिश्र के सान्निध्य में रहते हुए उनके भीतर वैष्णव तथा औपनिषदिक संस्कार विकसित हुए।यहां वर्तमान को एक प्रवाह में देखने की दृष्टि मिली।जो है, वह कहीं और से है और कहीं और के लिए है, यह बोध ही उन्हें आधुनिकता की संकीर्ण प्रवृत्ति से दूर रखता है।उन्होंने ‘मुक्तिबोध -एक अवधूत कविता’ नामक पुस्तक में उचित ही खुद को वैचारिक रूप से वैष्णव कहा है।
यह भी बताया है कि मुक्तिबोध ने एक बार उनकी ‘समय देवता’ कविता की व्याख्या करते हुए कहा था कि वैदिक धरातल पर खड़ा होकर लिखना ही असल में आपकी काव्यभूमि है। ‘समय देवता’ कविता को राजनीतिक कविता मानते हुए भी मुक्तिबोध इसे एक कमजोर कविता मानते थे और खुद नरेश मेहता इस बात से दूर तक सहमत थे।
(4) जैसा कि हम जानते हैं, नरेश मेहता वैदिक परंपरा की वैष्णव भावभूमि पर खड़े ऐसे रचनाकार हैं, जिसमें संघर्ष का तात्कालिक संदर्भ एक प्रकार से धूल के समान है।उनकी जातीयता इसी वैष्णव मन से बनती है, न कि उस आधुनिकता से जो अपनी संस्कृति और समाज से कटी हुई होती है।इसलिए नरेश मेहता आधुनिक समस्याओं को पकड़ने और व्यक्त करने के लिए अपनी कविताओं में मिथक का सहारा लेते हैं, क्योंकि मिथक उनके यहां समस्याओं की शाश्वत उपस्थिति हैं और समकालीनता को व्यक्त करने के अचूक साधन भी हैं।इससे वे समकालीन समस्याओं को प्रदीर्घ संदर्भ में देखते तथा समझते हैं।साथ ही किसी युगीन समस्या को वे परिवेश, प्रकृति और संस्कृति से कटा हुआ नहीं मानते।उन्हें हमेशा लगता है कि समस्याएं हमेशा से रही हैं।केवल उनका रूप बदलता रहा है।इस संदर्भ में ‘संशय की एक रात’ नामक खंडकाव्य एक बड़ा उदाहरण है।खुद ‘समय देवता’ कविता में भी वे मिथकों को प्रयोग में लाते हैं।
‘संशय की एक रात’ में वे राम के मिथकीय चरित्र के माध्यम से समकालीन युद्ध की समस्या को समझने की कोशिश करते हैं, क्योंकि यह पूरी कृति दूसरे महायुद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी गई है।यहां वे युद्ध व खड्ग से नहीं, मानव का मानव से सत्य चाहते हैं।यही राम के साथ आधुनिक व्यक्ति की भी समस्या है।इस कविता में छाया रूप में जब पिता की प्रेतात्मा आती है, तब राम से साफ कहती है-
राम, मोह असत्य है/किसी का हो/तुम्हें अपनी अनास्था से नहीं/संशयी व्यक्तित्व से भी नहीं/तुम्हें लड़ना है युद्ध से और असत्य से।
स्पष्ट है कि युद्ध यहां एक प्रक्रिया है।उनका वैष्णव मन इस बात को समझता है और मिथकों के सहारे पुष्ट करता है कि यहां कुछ भी समाप्त नहीं हुआ है, क्योंकि यहां कुछ भी शुरू नहीं हुआ है।शायद यही कारण है कि छाया राम से कहती है- ‘पुत्र मेरे/संशय या शंका नहीं/कर्म ही उत्तर है।’ इन्हीं स्थितियों में जब राम कहते हैं- ‘अब मैं निर्णय हूँ सबका’, तब वे इस धरती के आधुनिक मनुष्य की समस्या को संबोधित करते हैं।
(5) परंपरा के प्रति आत्मविस्मृत न होता हुआ व्यक्ति अगर आधुनिक है या होता है तो यह श्रेष्ठ सर्जनात्मकता का उदाहरण है।अच्छी बात है कि नई कविता के भीतर रहते हुए नरेश मेहता ने अपने को इसी रूप में प्रस्तुत किया है।मिथकों के प्रति उनका गहरा आकर्षण इसका कारण है और समकालीन समस्याओं के प्रति जागरूकता इसका प्रमाण है।वे समकालीन समस्याओं को जितनी ही गहराई से समझते हैं, उतनी ही जिम्मेदारी से परंपरा में प्रवेश करते हैं।उनकी रचनात्मकता में अविच्छिन्नता की भाव-संपदा लगातार उपस्थित रहती है।इसलिए समकालीनता को न वे ‘ओवर रेट’ करते हैं न ही परंपरा को ‘अंडर रेट’! वे दोनों के अंतःसूत्रों को समझते हुए किसी भी समस्या को एक विस्तृत संदर्भ में देखते हैं।वे लगातार धरती की ओर बढ़ते कवि हैं, लेकिन अपने आकाशीय विस्तार को नहीं भूलते।कविता उनके यहां अपने समय की सबसे बड़ी घटना बनकर आती है, लेकिन इस घटना में काल की शाश्वतता समाहित रहती है।वे विराट करुणा से जुड़कर अपनी वैष्णवता को संबोधित करते हैं।वे जानते हैं कि इस वैष्णवता के लिए भी संघर्ष अपेक्षित है, क्योंकि खुद कृष्ण की वैष्णवता महाभारत के संघर्ष के बाद ही इतिहास का वासुदेव बन सकी।उस कविता को वे बहुत महान मानते हैं जिसमें परंपरा तथा समकालीनता का सहमेल होता है।तभी वे ‘अरण्यानी से वापसी’ नामक कविता में कहते हैं- ‘मनुष्य मात्र को इतिहास व राजनीति नहीं/एक कविता चाहिए।’
(6) नरेश मेहता की कविता समग्रता में एक तरह से अहं का विसर्जन है।वे अपने नैसर्गिक वैष्णव स्वभाव के कारण वर्तमान से भविष्य की यात्रा करते हैं, जहां अतीत उनकी मदद करता है।अपनी सृजनात्मकता के लिए वे देह से मन की बात करते हैं जिससे एक सर्जनात्मक संकल्प बनकर वे काल को सौंप देते हैं।इस रूप में उनकी कविता एक तरह से शाब्दिक अध्यात्म की यात्रा करती है, जहां उनका व्यक्ति अपने को विराट को समर्पित करता चलता है।यही सृजनात्मक आस्था का आधार है जो उनकी संकल्प शक्ति का प्रमाण है।
अपनी इसी वैष्णवता से वे अपने कवि को तिरोहित करते हुए कविता में निरंतर उठते हुए दिखाई देते हैं, जिस पर बहुत कम ध्यान दिया गया है।उनकी काव्य यात्रा में उनका उदात्त वैष्णव मन लगातार सक्रिय रहा है जिस पर पर्याप्त कार्य करने की जरूरत है।
(7) हर कवि की अपनी राजनीति होती है और कवि की कविता में जाने-अनजाने यह लक्षित भी होती रहती है।नरेश मेहता के कवि की भी अपनी राजनीति रही है।वे आरंभिक दौर में मार्क्सवादियों के संपर्क में रहे तथा उनसे प्रभावित भी हुए।1955 तक वे वामपंथी राजनीति के संपर्क में रहे, लेकिन उनके पास एक सहजात वैष्णव मन था जो राजनीति के तात्कालिक आग्रहों से उन्हें मुक्त किए हुए था।वे विचार से वामपंथी जरूर रहे, लेकिन उनके मन की गति वैष्णवता के उदात्त में ही रमती रही।इसके फलस्वरूप वामपंथी का संघर्षधर्मी रंग उन्हें रास नहीं आया।
उन पर इसी वैष्णवता के रास्ते राजनीति से जुड़ने का आरोप लगता रहा है।यह रास्ता उदार हिंदुत्व की तरफ मुड़ता है।कविता में बेशक वे राजनीतिक आग्रहों से बचने की कोशिश करते हैं, लेकिन ‘समय देवता’ जैसी कविता में इसे छुपा नहीं पाते।उनकी निर्णायक पक्षधरता के कारण ही मुक्तिबोध ने इसे राजनीतिक कविता माना था, जबकि नरेश मेहता का उदार वैष्णव मन इसकी छूट नहीं देता।इस कविता में समय से बहुत टक्कर है, नवनिर्माण का जयघोष है।यहां वर्तमान उनकी बांह है, जिसके सहारे वे भावी को रखते हैं।इस कविता के अंत में आई ये पंक्तियां उनकी राजनीति को बताती हैं, लेकिन यह उनका मूल स्वभाव नहीं है- ‘मेरी धरती पुष्पवती है/और मनुज की पेशानी के चारागाह पर दौड़ रही है/तूफानों की नई हवाएं।’ उनके यहां सनातन और वर्तमान के टकराव में सनातन प्रभावी होता है।उनकी अंतर्निहित राजनीति का आधार भी यही सनातनता है।यह उनके विकल भाव को नियंत्रित करती हुई महाभाव की यात्रा करती है, जो कई बार बहुत दूर से आने के कारण वर्तमान गतिविधियों से वंचित हो जाती है।
संपर्क सूत्र : 909,काशीपुरम कालोनी, सीरगोवर्धन, डाफी, वाराणसी-221011, मो. 9415890513
गोपेश्वर सिंहचर्चित आलोचक और शिक्षाविद।अद्यतन आलोचना पुस्तक – ‘आलोचना के परिसर’। |
(1) नरेश मेहता ‘दूसरा सप्तक’ (1951) के कवि हैं। ‘तारसप्तक’ (1943) से प्रयोगवाद की चर्चा शुरू हुई।लेकिन ‘दूसरा सप्तक’ से प्रयोगवाद का पर्यवसान नई कविता में हो गया।प्रयोगवाद पद धीरे-धीरे कम हो गया।उसकी जगह नई कविता पद का प्रचलन हो गया।नए ढंग की कविताएं ‘दूसरा सप्तक’ में तो थीं ही, ‘प्रतीक’, ‘नई कविता’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं के जरिए भी नई कविता पद प्रचलन में आया। ‘दूसरा सप्तक’ में संकलित कविताएं पाठकों-आलोचकों के बीच नई कविता के नाम से ही रेखांकित की गईं।इसलिए इसमें संकलित सभी सात कवि- भवानी प्रसाद मिश्र, शकुंत माथुर, हरीनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश कुमार मेहता, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती नई कविता के ही कवि माने गए और वे सब नई कविता के कवि हैं भी।इस दृष्टि से नरेश मेहता नई कविता के कवि हैं।लेकिन नई कविता के अन्य कवियों से भाषा, भाव, शिल्प आदि कई दृष्टियों से वे अलग हैं।
इस कारण राजेश जोशी उन्हें ‘दूसरा सप्तक’ का कवि होते हुए भी नई कविता का ‘आउट साइडर’ कवि मानते हैं।क्या ऐसा कहना सही है? मुझे लगता है कि वे ऐसा जब कहते हैं तो नई कविता को एक सीमा में बांधते हैं।नई कविता का क्या कोई एक मानक रूप है? क्या उसकी कोई एक मान्य परिभाषा है? असल में छायावादी, उत्तर-छायावादी और प्रगतिशील कविता से भाषा, भाव और शिल्प में अलग तरह से लिखी गई कविताओं को नई कविता कहा गया।इस दृष्टि से नरेश मेहता नई कविता के कवि हैं।अपने नयेपन पर प्रकाश डालते हुए दूसरा सप्तक के अपने वक्तव्य में वे कहते हैं, ‘…पिछली अपनी छायावादी एवं रहस्यवादी कविताओं को मैं कविता नहीं मानता।… विगत, अनुकरणीय नहीं हो सकता।… नया तो मेरा युग है, मेरी प्रकृति है तथा सबसे नया मैं हूँ।’ ऐसे में सवाल है कि नरेश मेहता किन अर्थों में नए हैं? नरेश मेहता की नई कविताओं में आर्ष साहित्य की अनुगूंजें हैं।उनकी रुचि प्रारंभ से अंत तक आर्ष साहित्य में रही है।आर्ष साहित्य उनकी प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत है।उदाहरण के रूप में उनकी ‘जन-गरबा: चरैवेति’ कविता का एक अंश दृष्टव्य है:
मानव जिस ओर गया
नगर बने, तीर्थ बने
तुमसे है कौन बड़ा?
गगन-सिंधु मित्र बने
भूमि का भोगो सुख
नदियों का सोम पियो।
त्यागो सब जीर्ण वसन
नूतन के संग-संग चलते चलो!
चलते चलो, चलते चलो!
इसी तरह ‘उसस्’ श्रृंखला में लिखी गई उनकी कविताएं इस क्रम में देखी जा सकती हैं, जो उन्हें नई कविता में एक अलग मिजाज का कवि बनाती हैं। ‘उसस्-चार’ का एक अंश है:
किरनमयी! तुम स्वर्ण वेश में!
स्वर्ग देश में!
सिंचित है केसर के जल से
इंद्र-लोक की सीमा,
आने दो संधव घोड़ों का
रथ कुछ हल्के धीमा-
पूषा के नभ के मंदिर में
वरुण देव को नींद आ रही,
आज अलकनंदा, किरणों की
वंशी का संगीत गा रही,
अभी निशा का छंद शेष है,
अलसाए नभ के प्रदेश में!
इन काव्यांशों की शब्दावली और आर्ष भंगिमा पर ध्यान दें तो नरेश मेहता की अपनी मौलिकता नजर आएगी।
इस प्रसंग में एक घटना की चर्चा आवश्यक है।कुछ वर्षों के लिए नरेश मेहता नागपुर में थे।वे और मुक्तिबोध एक ही जगह काम करते थे। ‘दूसरा सप्तक’ का प्रकाशन हो चुका था और उसमें संकलित नरेश मेहता की ‘समय देवता’ कविता उन दिनों चर्चा में थी।उसे एक राजनीतिक कविता के रूप में पढ़ा जा रहा था।वह कविता मुक्तिबोध ने भी पढ़ी और एक दिन अपनी प्रतिक्रिया नरेश मेहता को बतलाई।उस प्रसंग की चर्चा नरेश मेहता ने स्वयं की है।मुक्तिबोध ने कहा : वास्तव में राजनीति आपकी काव्य-भूमि नहीं है।जिस वैदिक धरातल पर आप खड़े होकर लिखना चाहते हैं, वही वास्तविक आपकी काव्य-भूमि है।मुक्तिबोध के इस कथन से नरेश मेहता के काव्य-वैशिष्ट्य का पूरा तो नहीं, उसकी एक बड़ी विशेषता का पता चलता है।और वह विशेषता उन्हें नई कविता के कवियों से अलग करती है।आगे चलकर इस विशेषता का रंग नरेश मेहता के काव्य में और गाढ़ा होता गया।
नरेश मेहता के एक आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय उनकी कविता पुस्तक ‘उत्सवा’ में ‘महाभाव’ को उनकी विशेषता के रूप में रेखांकित करते हुए कहते हैं कि यह महाभाव ‘एक परिपूर्ण वैष्णवता है, जिसमें आर्ष कविता की विराट अनुगूंजों के साथ ही लौकिक वास्तविकता है।’ प्रभाकर श्रोत्रिय के ही शब्द लेकर कहें तो कह सकते हैं कि ‘मनुष्य के उदात्त, सृष्टि-स्वप्न के लिए कवि ने आर्ष शब्दावली की जैसी पुनर्सर्जना की है’, वह उन्हें नई कविता को नया विस्तार देने वाले कवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है।
(2) नरेश मेहता नई कविता के कवि हैं।जब वे अपने को, यानी अपने कवि को नया मानते हैं तो इसका अर्थ उनके आधुनिक होने से है।लेकिन उनका आधुनिकताबोध अपने समकालीनों से कुछ भिन्न है।उनकी कविता समकालीन भी है और संस्कृति का शोध भी है।संस्कृति को लेकर नरेश मेहता ने नए प्रयोग किए हैं।संस्कृति संबंधी उनके प्रयोग ‘उसस्’ जैसी प्रकृतिपरक कविताओं में दिखाई देते हैं।नरेश मेहता कहते हैं: ऋतु की इस नित्य-कौमार्य कन्या का मैं प्रतिदिन अपने क्षितिज पर आह्वान करता हूँ।वह हमारे खेतों में अपने पति सूर्य के साथ हमारे बीजों में अपनी गरम-गरम किरणें बो कर गेहूँ उपजाती है।ऐसी कविताओं में कवि प्रकृति का आधुनिक अर्थों में वैदिक ऋषियों-सा आह्वान करता है। ‘उसस्-3’ की पंक्तियां देखी जा सकती हैं:
तिमिर दैत्य के नील दुर्ग पर
फहराया तुमने केतन,
परिपंथी पर हमें विजय दो
स्वस्थ बने मानव जीवन
इंद्र हमारे रक्षक होंगे,
खेतों-खेतों औ’ खलिहान
थके गगन में उषा गान
दूसरी तरह का प्रयोग ‘समय देवता’ जैसी कविताओं में है जिनमें ‘जीवन के शस्त्र’ से वर्तमान के श्रृंगार का भाव मिलता है:
नव निर्माण तुझे करना है, नहीं चाहिए जीर्ण पुरातन,
बासी लहरों से सरिता का कभी नहीं श्रृंगार हुआ है।
जीर्ण पूज्य है,
वर्तमान मेरी बांहें हैं, मैं भावी की नींव धर रहा।
(3) ‘औपनिषदिकता’ और ‘वैष्णवता’ जैसे पद नरेश मेहता के काव्य प्रसंग में अकसर आते हैं।ये पुरानी अवधारणा के पद हैं।लेकिन इन्हें वे आधुनिक अभिप्राय से अपनी कविताओं में युक्त करते हैं।एक तरह से परंपरा से आए इन पदों में वे नया अर्थ भरते हैं।उनकी वैष्णवता न भक्त कवियों की है और न मैथिलीशरण गुप्त की।इन पदों को आधुनिक अर्थ में परिभाषित करते हुए नरेश मेहता स्वयं लिखते हैं: व्यक्ति-विस्तार के बहुस्याम हो जाने की निष्पत्ति औपनिषदिकता है, तो व्यक्ति-समर्पण की निष्णात प्रतिश्रुति वैष्णवता है।इस तरह इन पुराने पदों को नरेश मेहता नया अर्थ देते हैं और अपने समय को परंपरा की अनुगूंजों से ध्वनित करते हैं।औपनिषदिकता और वैष्णवता के जरिए वे जिस महाभाव को आधुनिक मनुष्य का संस्कार बनाना चाहते हैं उसका एक बड़ा उदाहरण उनकी कविता पुस्तक ‘उत्सवा’ है। ‘उत्सवा’ की कुछ पंक्तियां देखी जा सकती हैं:
आकाश में नहीं/मेघों को पृथ्वी पर गंगा की कृतार्थता मिलती है।/आकाश में नहीं/स्वत्व को पृथ्वी पर वास्तविक सार्थकता मिलती है।/होने दो अवतरित/अपने भीतर भी इस महाभाव को।
(4) ‘संशय की एक रात’, ‘प्रवाद पर्व’, ‘शबरी’ और ‘महाप्रस्थान’ नरेश मेहता के खंडकाव्य हैं।प्रथम तीन रामायण पर आधारित हैं; जबकि चौथा महाभारत पर।रामायण और महाभारत के कथा प्रसंगों की भारतीय साहित्य में नई-नई व्याख्याएं होती रही हैं।नरेश जी ने भी अपनी मिथकीय काव्य-कृतियों में आधुनिक मनुष्य और उसके भीतर के द्वंद्व को रचने की कोशिश की हैं। ‘संशय की एक रात’ में राम के भीतर युद्ध को लेकर भारी संशय है।संशयग्रस्त राम एक साधारण मनुष्य की तरह दिखते हैं।राम की इस साधारणता और युद्ध के प्रति उनके संशय के कारण यह कृति आधुनिक धरातल पर मजबूती से खड़ी दिखाई देती है। ‘शबरी’ शूद्र समाज की है, श्रमजीवी है। ‘शबरी’ में नरेश मेहता श्रम को प्रतिष्ठित करते हैं और वर्ण-व्यवस्था पर प्रहार करते हैं:
क्या धर्मतत्व से ऊंची
है वर्णाश्रम मर्यादा?
तब व्यर्थ तपस्या पूजन
यह गंगा भी है शूद्रा।
‘महाप्रस्थान’ में राज्य के अधिक ताकतवर और राष्ट्र प्रमुख के तानाशाह होते जाने के खतरे से सावधान किया गया है।
नरेश मेहता अपने जीवन के पूर्वार्ध में मार्क्सवादी थे और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे।बाद में जब वे पार्टी सदस्य नहीं रहे, तब भी उनके चिंतन के केंद्र में साधारण जनता बनी रही।उनके मिथकीय काव्य में इस कारण प्रसंग भले पुराने हों, समस्याएं आधुनिक जीवन और मनुष्य की हैं।
(5) आधुनिक साहित्य की सबसे बड़ी पहचान है उसके केंद्र में मनुष्य का होना।कविता, कथा साहित्य, नाटक, निबंध आदि विधाओं में तीन दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखने वाले नरेश मेहता के भीतर परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व अपने समकालीनों में सबसे अधिक है।उनकी औपनिषदिकता और वैष्णवता की जो अवधारणा है, उसे उन्होंने आधुनिकता की जमीन पर खड़े होकर अर्जित किया है।उनके साहित्य का मूल स्वर आधुनिक युग के लेखकों की तरह वैचारिकता नहीं है।उनका मूल स्वर करुणा है, जिसे वे अपने काव्य में महाकरुणा की ऊंचाई तक ले जाने का प्रयत्न करते दिखाई देते हैं।इसलिए उनके काव्य में सत्य, न्याय, निर्भयता, उदात्तता, वैष्णवता, औपनिषदिकता जैसे काव्य-मूल्य दिखाई पड़ते हैं, जो उन्हें 20 वीं शताब्दी के महामानव गांधी से जोड़ते हैं।एक समय के मार्क्सवादी नरेश मेहता का गांधीवादी अभिप्रायों में काव्य संस्कारित होना एक नए तरह के काव्य विवेक का परिचायक है।नरेश मेहता गांधी की तरह आधुनिकता के जो बिष-वृक्ष हैं, उनसे भारतीय जीवन को प्रदूषित होने से बचाना चाहते थे।और इस क्रम में साहित्य को वे सबसे बड़ा हथियार मानते थे।
(6) यह लगभग सर्वमान्य बात है कि कविता मनुष्य की सांस्कृतिक यात्रा का सबसे सूक्ष्म रूप है।कविता साहित्य की सबसे प्राथमिक विधा है।कविता को मनुष्यता का पर्याय भी कहा गया है और मनुष्यता की मातृभाषा भी।
(7) जिस युग का शुभाषित हो कि ‘एवरी थिंग इज पॉलिटिक्स’, उस युग के किसी कवि में राजनीति के स्वर सुनाई पड़ें या न पड़ें, उसे अपने समय, समाज और इसे संचालित करने वाली राजनीति से अलग नहीं रखा जा सकता।नरेश मेहता पर जब मार्क्सवाद का प्रभाव था और ‘समय देवता’ जैसी कविता उन्होंने लिखी थी, तब भी उनमें राजनीतिक शब्दावली की मुखरता नहीं थी।धीरे-धीरे औपनिषदिकता और वैष्णवता का उनमें आग्रह बढ़ा, तब वे मानव समाज पर राजनीति के बढ़ते प्रभाव को कम करने और उसे धर्म-शासित बनाने की बात करने लगे।यह धर्म कर्मकांड का प्रतिरूप न होकर मानवीय संस्कृति का उदात्त रूप है। ‘महाप्रस्थान’ में अर्जुन के पूछने पर युधिष्ठिर कहते हैं:
राज्य के नहीं
धर्म के नियमों पर समाज आधारित है।
राज्य पर अंकुश बने रहने के लिए
धर्म और विचार को
स्वतंत्र रहने दो पार्थ!
इसके आगे राज्य में किसी व्यक्ति के इतना शक्तिशाली हो जाने पर कि वह तानाशाह हो जाए, युधिष्ठिर कहते हैं:
किसी व्यक्ति को
इतना प्रतिष्ठापित मत करो कि
शेष सबके लिए
वह अलंघ्य विंध्याचल हो जाए।
आधुनिक जनतंत्र में किसी नेता का ‘अलंघ्य विंध्याचल’ हो जाना जनतंत्र के लिए खतरा है।इस खतरे से कवि नरेश मेहता जनता को सचेत कर रहे हैं।आज ये पंक्तियां कितनी प्रासंगिक हो उठी हैं, कहना न होगा।क्या इसके बाद भी कहा जा सकता है कि उनकी कविता में राजनीतिक स्वर नहीं सुनाई पड़ते हैं?
संपर्क सूत्र : सी-1203, अरुणिमा पैलेस, सेक्टर-4, वसुंधरा, गाजियाबाद-201012 (उ.प्र.), मो. 8826723389
राजेंद्र कुमारप्रतिष्ठित कवि–आलोचक।कविता संग्रह ‘हर कोशिश है एक बगावत’ तथा ‘लोहा–लक्कड़’।आलोचना पुस्तकें ‘यथार्थ और कथार्थ’ तथा ‘आलोचना–आसपास’। |
(1) ‘नई कविता’ के रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति-प्रणालियों में प्रयोगशीलता की दृष्टि से प्रयोगवादी कविता के रास्ते पर ही अग्रसर होते हुए भी प्रयोगवादियों के व्यक्तिपरक अहं को तिलांजलि देकर अपने ‘व्यक्ति’ को अपने समय के विघटित होते समाज के अनुभवों से विच्छिन्न करके रखने से बचाव करते हैं।बेशक, इस बचाव की रूढ़ियाँ भी बनीं।विडंबना यह रही कि अपनी स्वनिर्मित रूढ़ियों को भी रूढ़ि न मानकर तथाकथित ‘नई कविता’ के ज्यादातर कवियों ने अपनी काव्यानुभूति के ‘नयेपन’ की पहचान के रूप में स्वीकार्य मानने की जिद ठानी।नरेश मेहता इस तरह की जिद की जद में नहीं आते। ‘नई कविता’ के काल के कवि होकर भी ‘नई कविता’ के बारे में उनका स्पष्ट मत यह रहा-‘नवीन वह कई अर्थों में निश्चित है, किंतु नवीनता अपने में कोई साध्य नहीं है।इधर ‘नई कविता’ के सामूहिक संकलन निकले हैं, जिन्हें देखकर बोध हो जाना चाहिए कि प्रयोग एवं प्रचार में एक सीमा होती है।जीवन भर कोई प्रयोग तथा प्रचार की दुहाई नहीं दे सकता।’
नरेश मेहता को ‘नई कविता’ की सबसे बड़ी कमजोरी यह प्रतीत हुई कि ‘इसके कवि का व्यक्तित्व ही नहीं है’।और यह भी ‘आर्थिक संकट आदि बातों की आड़ में जिस गरिमाहीन और स्वत्वहीन ओछे व्यक्तित्व को हमने अपने में पैदा होने दिया, वह और कुछ भले ही कर सके, साहित्य की सृष्टि नहीं कर सकता है।’ ये केवल पर्यवेक्षण नहीं हैं नरेश मेहता के, बल्कि स्वत्वहीन-गरिमाहीन व्यक्तित्व के बरक्स अपने खुद के कवि व्यक्तित्व के वैशिष्ट्य को बचाकर रखने के पक्ष में दिए गए सबल तर्क भी हैं।
‘नई कविता’ के जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा, विजयदेव नारायण साही जैसे अनेक महत्वपूर्ण कवियों के बीच नरेश मेहता सर्वथा अलग दिखते हैं। ‘कृति’ पत्रिका के संपादन में वह श्रीकांत वर्मा के सहयोगी रहे।मुक्तिबोध से भी उनकी निकटता रही।लेकिन कविता में श्रीकांत और मुक्तिबोध से भी अपने कवि-व्यक्तित्व का मिलान वह संभव नहीं होने देना चाहते।अपने ‘स्व’ के अन्य से बचाकर देखे जाने के पक्ष में उनका तर्क यह है-
‘क्या इन कविताओं का कोई अन्य भी कवि हो सकता था? या
क्या मैं किसी अन्य की कविताओं का कवि हो सकता था? शायद नहीं।
एक साक्षात-विशेष के लिए एक व्यक्ति-विशेष ही हुआ करता है।’
नरेश मेहता के इस अतिवादी आग्रह के बावजूद मुझे लगता है कि ‘नई कविता’ के कवियों में नरेश मेहता का कवि-व्यक्तित्व यदि किसी ‘अन्य’ कवि के अधिक नजदीक है तो कुछ कुँवर नारायण के और कुछ शमशेर के।कुँवर नारायण दार्शनिक अनुभूतियों के कवि हैं और नरेश मेहता भी।लेकिन फिर कुँवर नारायण से भी जो अभिवृत्ति नरेश मेहता को अलग करती है वह यह कि कुँवरनारायण अपनी दार्शनिकता की खिड़की से बाहर के जीवन को सूक्ष्मतया देखते रहने में अपने कवि की कृतकार्यता मानते हैं, नरेश मेहता अपनी आंतरिक चेतना के साक्षात्कार की प्रक्रिया में जितना जो कुछ दिखता है, वही देखना और दिखाना अपना कवि धर्म मानते हैं।
इसी तरह शमशेर के पार्श्व में नरेश मेहता को रखकर देखें, तो दोनों, प्रकृति और मनुष्य के जीवन में सौंदर्यानुभूति के हर पल को अपनी कविता से अपने लिए ‘सनातन’ कर लेना चाहते हैं’।पर यहां भी एक अंतर है- शमशेर द्वारा साक्षात्कृत ‘सनातनता’ ऐंद्रियता से विशिष्ट होती है, नरेश मेहता द्वारा साक्षात्कृत ‘सनातनता’ एक प्रकार की ‘आध्यात्मिकता’ से विशिष्ट होती है।
1960 के दशक में, जब ‘नई कविता’ की सैद्धांतिक चर्चा में काफी उथल-पुथल हो चुकने के बाद कुछ घिराव आने लगा था, नरेश मेहता का दूसरा संग्रह ‘बोलने दो चीड़ को’ प्रकाशित हुआ।उसकी भूमिका में उन्होंने लिखा था- ‘इस समय भी वैदिक तथा अन्य फुटकर कविताएँ नहीं दी जा रही हैं।यद्यपि इस बीच अनेक बड़ी रचनाएँ लिखी गई हैं और आशा है उनके शीघ्र प्रकाशित होने पर मेरे रचनाकार का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट हो सकेगा।’ इस कथन से प्रमाणित है कि नरेश मेहता साठ के दशक में ही अपना मार्ग अलग तय कर चुके थे।भले ही उन्होंने उस मार्ग पर अपने पद-चिह्नों को सामने लाने का उत्साह फिलहाल अपने अगले संग्रहों के लिए स्थगित कर रखा था।
(2) हिंदी साहित्य में आधुनिकताबोध का स्रोत प्रायः पश्चिम की प्रेरणाएँ रहीं।प्रकृतवाद, अस्तित्ववाद और मनोविश्लेषणवाद आदि के क्षेत्र में पश्चिम में जो चिंतन हो चुका था, या हो रहा था, उसकी हवाएँ हिंदी में आने लगी थीं।हमारे कवियों-लेखकों का उनसे प्रभावित होना स्वाभाविक था।इधर विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में जो कुछ नया हो रहा था, उसने मानवानुभव में उतरकर हमारी सोच को ही नहीं बदला, संवेदनाओं में भी जटिलता पैदा की।अनुकूल और प्रतिकूल-दोनों ही स्तरों पर यह सब युगीन प्रवृत्तियों के रूप में व्यक्त होना ही था।इन प्रवृत्तियों का हमारे स्वभावानुभव का अंग भी बनना ही था।तो वो बनीं।अभिव्यक्ति-प्रणालियों में भी फर्क पड़ा।
नरेश मेहता ने अपने काव्यानुभव को, कालगत सोच की एकरूपता ओढ़ कर रह जाने देने के बजाय उसको अपनी देशगत सांस्कृतिक विशिष्टता में खुला रहकर आधुनिक होने की तमीज देना अधिक सार्थक समझा।आधुनिकता के पश्चिमवादी आग्रह अपनी सार्वभौमता पर इतना ज्यादा इतराते हुए आएँ कि हमारी स्वदैशिकता, स्थानीयता खुद पर शरमाने लग जाए- यह नरेश मेहता को गवारा नहीं था।1940 के दशक में जब वे काशी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी रहे होंगे, तभी उन्होंने अपनी रुचि के झुकाव का पता यह कहकर दिया था ‘गोधूलि के गीत, देव! मुझको तो भाते।’ यह ‘गोधूलि’ संक्रांतिकाल का प्रतीक भी है और वापसी का भी- वापसी अपने खुद के ‘घर’ की ओर, जिसमें हमें अपनी आत्मीयता से पोसने वाली संस्कृति-धात्री रहती है।महात्मा गांधी पर लिखी, उन्हीं दिनों की एक कविता में भी नरेश मेहता ने ‘गोधूलि वेला’ के इसी प्रतीकत्व की ओर इशारा किया था- ‘आज पश्चिम की दिशा ने पूर्व से रविग्रंथ पाया।’ जब अधिकांश कवि ‘पूर्व को पश्चिम मिले के प्रति’ अधिक समुत्सुक थे, नरेश मेहता अपनी कविता में यह उजागर करते मिलते हैं कि ‘पश्चिम को पूर्व से क्या मिल सकता है।’
नरेश मेहता की भाषा में संस्कृत की तत्समता है और उनके काव्य में अधिकांश प्रतीक या तो प्रकृति से लिए गए हैं या मिथक-व्यंजित हैं।कविता में अपने समय के वे भाषा के लगभग एकमात्र ॠषि हैं।उनका यह ॠषित्व उनकी ‘प्रार्थना-धेनुएँ’, ‘धूप-कृष्णा’ आदि कविताओं में विकसित होता हुआ, ‘अरण्या’ संग्रह तक पहुंचते-पहुंचते जिस ‘महाभाव’ में पर्यवसित होता है, वह उनकी काव्य-यात्रा की अन्यतम उपलब्धि है।उनकी कविता का गद्य भी छांदस है।इस ‘छांदसता’ का सशक्त उदाहरण ‘दूसरा सप्तक’ में संकलित उनकी ‘चाहता मन’ शीर्षक कविता से ही सामने आने लगा था, जब उन्होंने हिंदी के पूर्वप्रचलित ‘सवैया’ छंद में शमशेर जैसे चित्रांकन को साधने का प्रयोग किया था-
‘गोमती तट/दूर पेंसिल-रेख-सा वह बांस झुरमुट/शरद दुपहर के कपोलों पर उड़ी वह धूप की लट/जल के नग्न ठंडे बदन पर कुहरा झुका/लहर पीना चाहता है’।
‘समय देवता’ शीर्षक लंबी कविता में वैश्विक संकटों के लिए रचे गए बिंबों में प्रयोगों के मौलिक उदाहरण मिलते हैं।यहां सूरज ‘आदि श्रमिक’ है। ‘विज्ञान धुएँ के अजगर-सा है, लील रहा सबरंग रेशमी मनु श्रद्धा का’।
(3) नरेश मेहता भारतीय आस्था के कवि पहले हैं, बाद में आधुनिक या कुछ और।उनके कवि को अभीष्ट रहा कि उनकी आधुनिकता उनकी अपनी आस्था से परिभाषित हो, उस अनास्था से नहीं, जो तरह-तरह का भेस धरकर आधुनिकता का दम भर रही थी। ‘नई कविता’ पत्रिका में अपनी कविताओं के साथ दिए गए अपने वक्तव्य में यह दृढ़ मत उन्होंने व्यक्त किया था- ‘अनास्था और किसी वस्तु को भले ही जन्म दे सके, किंतु कला एवं साहित्य को नहीं।अस्वीकार सभी श्रेष्ठ पूर्व-स्वीकृतियों के अशुभ-अपंगत्व पर अट्टाहास करता हुआ गिद्ध है।’
नरेश मेहता के कवि की आस्था की आधारभूमि है वैष्णवता।तथाकथित आधुनिकता ने अपनी बोधगत अभिव्यक्ति के लिए कवियों के- ‘उद्विग्न व्यक्तित्व’ को माध्यम बनाया था।नरेश मेहता को उद्विग्न व्यक्तित्व नहीं, ‘समरस व्यक्तित्व’ की अभीप्सा रही।उनका मानना था कि ‘समरस व्यक्तित्व से ही समरस रचना संभव है।’
‘समरस रचना’ की संभावना उन्हें दिखी उपनिषदीय अद्वैतता और वैष्णवी समर्पण के तात्विक ऐक्य में।वे औपनिषदिकता और वैष्णवता को यों परिभाषित करते हैं- ‘व्यक्ति-विस्तार के बहुस्याम हो जाने की निष्पत्ति औपनिषदिकता है, तो व्यक्ति-समर्पण की निष्णात प्रतिश्रुति वैष्णवता है।’ वस्तुतः आधुनिकता के लक्षण ‘सनातनता’ और ‘शाश्वतता’ के प्रत्यय के प्रति विरोध-भाव रखते हुए ही आए थे, लेकिन नरेश मेहता आधुनिकता और सनातनता के संधिस्थल के कवि होना चाहते हैं।इस आकांक्षा का औचित्य स्थापन वे अपने अनेक संग्रहों की भूमिकाओं में बार-बार करते हैं।इस हद तक करते हैं कि भूमिकाएं प्रवचननुमा हो जाती हैं। ‘उत्सवा’ और ‘अरण्या’ की भूमिकाओं का कवि ‘साहित्य का ओशो’ (आचार्य रजनीश) प्रतीत होने लगता है।और कई कविताओं में वैसी ही पंक्तियां हैं।भूमिकाओं और कविताओं में एक प्रकार का ‘लक्षण-लक्ष्य’ संबंध बन जाता है।एक आधुनिक ‘रीतिवाद’, जिसे कवि का यह आश्वासन प्राप्त है- ‘विश्वास करो/तुम्हारे लिए कोई अहोरात्र प्रार्थना कर रहा है- वह वैष्णव है’ और आधुनिक चेतना को लगा यह शाप भी-
संपूर्ण वानस्पतिकता
पीतचंदन लेपित
उदात्त माधवी वैष्णवता लगती है।
मेरा यह कैसा अकेलापन
जो इस वैश्विकता से वंचित है
बहरहाल, नरेश मेहता की ‘वैष्णवता’ आधुनिकता के कोलाहल के बीच एक ऐसे ‘एकांत’ को स्पेस तो देती ही है जहाँ ‘पृथिवी एक भागवत कथा’-सी हो जाती है और ऐसा सम्मोहन रचती है, मानो ‘वैष्णवता- अहोरात्र समस्त …. में संपन्न हो रही ’ होती है।
(4) ‘समय देवता’ जैसी लंबी कविता, जो दूसरे सप्तक में प्रकाशित हुई थी, उसकी व्यंजकता की ओर मैं इशारा कर चुका हूँ।कवि के रूप में नरेश मेहता के कवि व्यक्तित्व (जो स्वयं नरेश मेहता को ‘चैत्यपुरुष’ के रूप में काम्य है) और उनके अपने समय के दूसरे रास्ते विश्व मानक व्यक्तित्व- दोनों के बीच एक सेतु बनता दिखता है ‘समय-देवता’ में।कई मिथकीय प्रयोगों के माध्यम से कवि इस रचना में अपने समय के समाज के वैश्विक संकटों के बीच से गुजरती-भटकती-बहकती-दहकती मानवता के लिए त्राण की दिशाओं की खोज के लिए समय-देवता का आवाहन करता है।मिथक और इतिहास के बीच की द्वंद्वात्मकता से समकालीनता को व्यक्त होने देने का मुहावरा पा लेने की सर्जनात्मकता-व्यग्रता इस कविता में देखी जा सकती है।हालांकि कवि नरेश मेहता अपनी यात्रा के अगले पड़ावों पर जिस शांत-रस से अपने को सराबोर पाते हैं, समग्रता में देखने पर ‘द्वंद्वात्मकता’ जैसा कोई पदबंध उनके व्यक्तित्व से जोड़ पाना अविश्वसनीय होने लगता है।अपने जीवन के अंतिम चरण में ‘आखिर समुद्र से तात्पर्य’ जैसी लंबी कविता नरेश जी लिखते हैं, तो उसमें इतिहास को भी मानो वे मिथकीय समय का शरणार्थी-सा बना लेते हैं।उसे सलाह देते हैं कि वह एक अपने भरोसे के लिए समतली नक्शा अपने पास रखे- ‘एक नक्शा/ और यह विश्व, ब्रह्म का/तथा एक से नौ तक की संख्या का विस्तार/शून्य के नक्शे’-सा हो, जिसे समतल रूप में सामने फैलाया जा सके।
नरेश मेहता के यहां मिथक ऐसी ही ‘समतलता’ स्थापित करने की भूमिका में ज्यादा रहते हैं।किसी ‘धीमान’ की इस उदात्त संभावना के साथ-
कौन है ऐसा धीमान?
जिसके पैर कृषक की भाँति मिट्टी में धंसे हों
जो कवि की भाँति
अपने विषपायी कंठ से सदाशिव हो
और ॠषि की भाँति नेत्रों से सूर्य पी रहा हो।
नरेश मेहता अपनी मिथकीय चिति (साइकी) से मानव-समाज को जो कुछ देना चाहते हैं उसे वे ‘मानवीय सुगंध’ कहते हैं- ‘इस मानवीय सुगंध से बड़ा उत्सव क्या है?’ समाज के लिए उनका संदेश है- ‘मनुष्यो! मानवीय स्वत्व ही कल्पतरु है।’ समाज को वे व्यक्ति के मानवीय स्वत्व से सुवासित देख पाएं, यही उनकी सामाजिक कामना है।और अपनी रचना की सार्थकता के संबंध में उनकी उत्कंठा यह है- ‘मेरी रचना के ये सुगंध-छंद/क्या किसी दिन शब्द-फूल नहीं बनेंगे?’
बेशक, नरेश मेहता ने अपने ‘सुगंध-छंद’ को ‘शब्द-फूल’ बनते तो अपने जीवन-काल में ही देखने का सौभाग्य प्राप्त कर लिया था, लेकिन आज हमारा समाज यथार्थ के जिन और अधिक जटिल एवं प्रदूषित संस्तरों पर अवस्थित है, वहां नरेश मेहता की रचना से प्राप्त शब्द-फूलों का पराग कितनी दूर तक समाज को सुवासित करने योग्य रह सकेगा- यह कह पाना मुश्किल है।
(5)हिंदी साहित्य में, आधुनिकता की जन्मकुंडली में परंपरा-विरोध की जिस ग्रह-दशा की बात अकसर कही जाती है, उससे मुक्ति की कामना करने वाले प्रमुख कवियों में नरेश मेहता अग्रगण्य हैं।वे आधुनिकता को परंपरा का सर्वथा अतिक्रमण नहीं मानते।बल्कि परंपरा की दार्शनिक और आध्यात्मिक जड़ों से रस ग्रहण करने के लिए अपनी आधुनिकता के थाले में उन जड़ों को रोपने का स्व-भाव उनका आद्यंत रहा।उन्होंने अपनी प्रेम-कविताओं के संग्रह ‘तुम मेरा मौन हो’ की भूमिका में ‘मध्यकालीन माधवता’ का जिक्र किया है।किंचित आश्चर्य से भी अपने को देखा है- ‘कविता ऐसी मध्यकालीन माधवता के साथ मेरे निकट आएगी, इसकी कभी कल्पना भी नहीं थी।’ लेकिन मेरे ख्याल से यह कोई आश्चर्य करने की बात ही नहीं थी।यह तो नरेश मेहता के कवि-स्वभाव में शुरू से ही परिलक्षित होता रहा।
सनातनता और आधुनिकता को एक-दूसरे के सर्वथा विरोध में रखना- नरेश मेहता के स्वभाव में ही नहीं था।उनकी कविता के कथ्य में ही नहीं, उनकी कविता की भाषा में भी यह तथ्य स्वतः लक्षित है।
शुरू में ही, आधुनिकता के देय की स्वीकृति ‘दूसरा सप्तक’ में संकलित कविता ‘जन गरबा-चरैवेति’ में यों है-
‘मानव जिस ओर गया/ नगर बने, तीर्थ बने
तुमसे है कौन बड़ा/गगन-सिंधु मित्र बने’
और इसी कविता में परंपरागत वैदिकता का यह आवाहन भी है- ‘भूमा का सुख भोगो, नदियों का सोम पियो’
(6) नरेश मेहता काव्य की सार्थकता ‘शब्द-यज्ञ’ होने में मानते हैं।परिभाषा ही करते हैं-‘समस्त जैविकता के लिए किए गए शब्द-यज्ञ का नाम ही काव्य है।’ (अरण्या की भूमिका) ‘उत्सवा’ संग्रह में पहले ही एक कविता का शीर्षक टाँक चुके थे- ‘यज्ञो यज्ञेन कल्पताम्’।सब यज्ञ कर रहे हैं- समय, पृथिवी, समुद्र, सूर्य, चंद्र, मनुष्य!- ‘ये सारे यज्ञ/एक अस्ति-यज्ञ सपन्न कर रहे हैं/ जिसमें नेति मात्र की हवि दी जा रही है।’ नरेश जी के जीवनकाल में ही उनकी कविताओं का जो समग्र आया था, उसका नाम ही था- ‘समिधा’।
कहने का आशय है कि नरेश मेहता का कवि मनुष्य की चेतना की ऊर्ध्वोन्मुखता में ही काव्य का श्रेय मानता है।मनुष्य अपूर्ण है, लेकिन पूर्णता का आकांक्षी है।पाना उसी की संभवता है।इस संभवता की पहचान कराने में ही उन्होंने अपने कवि को समर्पित रखा।1953-57 के बीच जब ‘नई कविता’ में नकारनामी की ध्वजवाहकता की प्रवृत्ति बढ़ रही थी, नरेश मेहता की चिंता का विषय था-
आज तो बीमार सभी/बेहोश सभी/सबके दिमागों में भरा/क्लोरोफार्म की महक की तरह तेज/यह अंधेरा, वो अंधेरा…
पर ये पंक्तियां जिस कविता की हैं (‘वनपाखी सुनो’ संग्रह में), उसके तुरंत बाद नरेश मेहता की एक कविता उसी संग्रह में है- ‘निजपथ’, जिसकी प्रारंभिक पंक्तियां हैं- ‘हम झुका कर माथ/ सब स्वीकर लेंगे/(पर) पथ यहां से अलग होता है।’ तो, ‘नेतिमात्र’ की हवि देकर मनुष्य में ‘अस्ति-भाव’ को बनाए रखने का संकल्प नरेश मेहता के ‘निजपथ’ की विशेषता है।वे ‘व्यक्तित्व की वृंदावनता’ को अपना ऐसा अधिवास बनाते मिलते हैं, जहां जड़ ‘चैतन्यता’ में, लघु ‘वैराट्य’ में, ससीम ‘असीम’ में अपने को मुक्त अनुभव कर सके।
(7)नरेश मेहता की कविताओं में अनुभवों के राजनीतिक आसंग बिलकुल नहीं हैं, ऐसा कहना उचित न होगा।हाँ, यह अवश्य है कि वे उस अर्थ में राजनीतिक चेतना के कवि नहीं हैं, जिस अर्थ में मुक्तिबोध हैं।यह अलग बात है कि नरेश मेहता जब मुक्तिबोध पर एक विवेचनात्मक पुस्तक लिखते हैं, तो मुक्तिबोध के भी राजनीतिक तेवर को ‘डाइल्यूट’ करके उन्हें अपने लिए ‘अवधूत कविता’ का कवि बना लेते हैं।
बहरहाल, श्रीकांत वर्मा के साथ जब वे ‘कृति’ पत्रिका के संपादन में थे, उन दिनों उनमें मार्क्सवादी चिंतन के प्रति भी किंचित झुकाव था। ‘समय देवता’ कविता में उनकी दृष्टि के राजनीतिक आयाम बहुत स्पष्ट हैं।
सोवियत क्रांति के स्वागत का भाव उस कविता कें इस तरह व्यक्त हुआ था- ‘यह यौवन की भूमि सोवियत/जहां मनुज, उसके श्रम की होती पूजा/पूंजी और साम्राज्यवाद की तोड़ बेड़ियां/हाथों में नवजीवन की उल्काएं लेकर मनुज खड़ा है कुतुब सरीखा’।और ऐसा नहीं है कि राजनीतिक चेतना से उन्होंने अपना नाता अंततः बिलकुल ही तोड़ लिया हो।उनके अंतिम चरण की कविताओं में भी कुछ राजनीतिक स्वर मिल ही जाते हैं। (द्रष्टव्य ‘आखिर समुद्र से तात्पर्य’ में संकलित ‘क्या होगा?’, ‘गंध है, सुगंध नहीं’ जैसी कविताएं।
पर नरेश जी अपनी पूरी काव्य-यात्रा में जिस वैष्णवता, औपनिषदिकता, वगैरह से अपने कवि-व्यक्तित्व की पहचान बनाते हैं, उसकी ‘वानस्पतिक पांडुलिपियाँ’ तो उनकी कविता में हैं, उसका कोई राजनीतिक पाठ अगर हो भी तो वह शायद आज के राजनीतिक संदर्भ में तथाकथित वर्चस्ववादी ताकतों को ही अधिक पुष्ट करने वाला सिद्ध होगा।प्रतिरोध की राजनीति उनके यहां अनुपस्थित है।हाँ, समर्पण की राजनीति कहें तो कह सकते हैं कि वहां हैं।और आखिर उनके इस कथन का क्या अर्थ लिया जाए- ‘राजनीति औरंगजेब है, साहित्य तो भवभूति है।’
संपर्क सूत्र : 2 बी/1, बंद रोड, एलनगंज, इलाहाबाद-211002, मो.9336493924
संजय जायसवालकवि, समीक्षक और सक्रिय संस्कृति कर्मी।विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में सहायक प्रोफेसर। |
(1) नरेश मेहता नई कविता के महत्वपूर्ण कवि हैं।वे ‘दूसरा सप्तक’ में अपने लेखन से मानवीय मूल्यों को अर्थपूर्ण बनाने के साथ इन मूल्यों के व्यापक सामाजिक जीवन का हिस्सा बनाना चाहते हैं।नई कविता के अधिकांश कवियों ने आधुनिक भावबोध की अभिव्यक्ति के साथ आधुनिक मूल्यों और शिल्प-विधानों का अन्वेषण किया है।अज्ञेय पहले ही इसे स्वीकार कर चुके थे ‘राहों के अन्वेषी’ कहकर।नरेश मेहता नई कविता की नवीनताओं के साथ आगे बढ़ते हुए भी कई बिंदुओं पर अलग दिखते हैं।वे नई कविता की विसंगतियों, कुंठा, संत्रास, जैसी चीजों की जगह जीवन में वैष्णवता और ‘सुंदरं’ की प्रतिष्ठा की ओर उन्मुख होते हैं।
नरेश मेहता ने आजादी के बाद के भारतीय यथार्थों में से उन यथार्थों को ज्यादा ‘स्पेस’ दिया, जिनमें नवीनता के आग्रह से ज्यादा जीवन-सत्य का आग्रह था।ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि नरेश मेहता के यहाँ नई कविता परंपरा से जुड़कर आती है।वे पौराणिक और मिथकीय कथाओं को प्राचीन कहकर विस्मृत नहीं करते, बल्कि उनमें जीवन के सार्वभौम सत्य को रूपायित करते हुए उसे अर्थवत्ता प्रदान करते हैं।वे परंपरा की विशिष्टता के साथ अनुभूति की विशिष्टता को जोड़ते हैं।उनके अधिकांश मिथकीय कविताएं नई कविता की थाती हैं।
नरेश मेहता नई कविता के काव्य-संस्कारों में बहते नहीं हैं, बल्कि मताधंता का निर्भीकतापूर्वक विरोध करते हैं।अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध और नागार्जुन जैसे नए कवियों को छोड़कर कई नए कवियों पर यह आरोप लगा है कि उनके यहां प्रगतिशीलताविहीन आधुनिकता और आधुनिकताविहीन प्रगतिशीलता है।ऐसे में नरेश मेहता की आधुनिकता नई कविता में एक नई मात्रा प्राप्त करती है।वे अपनी कविताओं में धार्मिक कूपमंडूकता, सांप्रदायिकता, जाति-भेद, अंध-राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक विपन्नता से तीखा संघर्ष करते हैं और मनुष्य की एक नई कल्पना करते हैं।उनके समग्र लेखन पर नजर डालने से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने कोई वर्चस्व या राजनीतिक दबाव स्वीकार नहीं किया।वे अपनी नई कविता की संवेदना और शिल्पगत नवीनता में अपने समय की मानवीय प्रतिध्वनियों को बचा लेते हैं।वे प्रगतिवादी लोक उन्मुखता को भी नई कविता में शामिल करते हैं।यानी नई कविता उनके यहां समावेशी है।वे ‘दूसरा सप्तक’ की अपनी रचना में कहते हैं –
धरती नीले तारों का परिवार बन सके
इसलिए खेतों में संध्या केसर बरसे
अपने शत उपहारों से मानव को लादो
नए मनुष्य के हाथों में श्रम की रेखाएं
समय देवता! आज विदा लो
किंतु तुम्हारे रेशम के इस चमक वस्त्र में मिट्टी का
विश्वास बांधकर भेज रहा हूँ
मेरी धरती पुष्पवती है
और मनुज की पेशानी के चरागाह पर
दौड़ रही है तूफानी की नई हवाएं।
यह सच है कि आधुनिक युग में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के साथ ही मनुष्य की महता को बल मिला।
(2) नरेश मेहता का काव्य-संसार कई प्राचीन आख्यानों के साथ उपस्थित हुआ है।यह भी मानना पड़ेगा कि वे इनमें अपने समय के बदलावों को शामिल करते हैं।अधिकांश आलोचक उन्हें मिथकीय कवि मानते हैं, हालांकि उनके काव्य के चरित्र भले मिथकाश्रित हो परंतु जो ‘वस्तु’ है वह नई दृष्टि से संपृक्त है और आधुनिक मूल्यों की पक्षधर है।इसमें हमारे समय की जटिलताओं की पड़ताल है।आधुनिक युग के पहले ‘मनुष्य’ की जगह ईश्वर या दैवीय सत्ता, राजसत्ता और सामंती-मूल्यों की प्रधानता थी।नरेश मेहता ‘मनुष्य’ की महत्ता और मानव-सत्य को स्थापित करते हैं।वे धर्म, दर्शन, राजनीति और इतिहास में मनुष्य के गौरव और स्वतंत्रता को स्थापित करते हैं।दूसरा सप्तक से ही ये पंक्तियां हैं :
कौन रोक सकता है मानव को चलने से
जिसके संग-संग आदिकाल से इंद्र चल रहा
मनुष्य चल सके
इसीलिए तो अंधकार में सूर्य चल रहा था
जहां गया मनुपुत्र नदी ने जल पहुंचाया
रत्नभरा धरा ने
मानव को शत-शत हीरों से लादा
मनुज चला तो सृष्टि चली-
अन्यथा पूर्व थी मात्र प्रकृति।
ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि मनुष्य को पहचानना, उसे श्रेष्ठ मानव के सच में प्रतिष्ठित करना उनका प्रथम सरोकार है।नरेश मेहता आगे चलकर ‘उत्सवा’ में मानव उत्कर्ष को ही प्राथमिकता देते हैं :
एक दिन मनुष्य सूर्य बनेगा
क्योंकि वह आकाश में पृथ्वी का
और पृथ्वी पर आकाश का प्रतिनिधि होगा।
नरेश मेहता विवेकपरता, सहृदयता और विज्ञान की त्रयी से मानव-सभ्यता पर आए संकट से बचने की बात कहते हैं।वे कहना चाहते हैं कि खुदगर्जी ने मानव इतिहास को विकृत किया है।मध्यकाल में धर्म ने जिस स्वर्ग के काल्पनिक सपने मानव को दिखाए थे, वे मिथ्या और कपोल-कल्पित थे।नए युग में तर्कवाद और आधुनिक चिंतन ने स्वर्ग का आश्वासन नहीं दिया।नरेश मेहता ने युद्ध, आत्म-निर्वासन, जातिभेद जैसी आधुनिक विकृतियों को राम, सीता और शबरी जैसे चरित्रों के जरिए उजागर किया।गांधी को केंद्रीय चरित्र बनाते हुए स्पष्ट कर देते हैं कि उनका काव्य-संसार परंपरा और आधुनिकता का मिश्रित आख्यान है।
(3) नरेश मेहता का वैष्णवता के संबंध में मानना है कि वैदिक युग के उदात्त मूल्यों से धरती को मानवीय बनाने के लिए भक्ति युग में देवताओं की प्रतिष्ठा की गई।
विष्णु के प्रति आस्था के कारण ही नरेश मेहता की रचना यात्रा वैष्णवता के संस्कार से समृद्ध है।वैष्णवता को वे सिर्फ भक्तियुगीन कथा नहीं मानते हैं बल्कि आधुनिकताबोध से जोड़ते हैं, ‘यहाँ केवल इतना कह देना आवश्यक है कि धार्मिक स्तर पर जिस उदात्त वैष्णवता को पुनर्स्थापित करने लिए गौरांग महाप्रभु जैसे महापुरुषों को आरात्रिक संकीर्तन की वैश्वानरिता को जगाना पड़ा, राजनीति के स्तर पर उन्नीसवीं तथा बीसवीं शती में विवेकानंद, गांधी और अरविंद को भी वही कार्य करना पड़ा।गांधी राजनीति के चैतन्य हैं।राजनीति के स्तर पर गांधी की वैष्णवता को समझने में मानवता को अभी एक शताब्दी का समय और लगेगा, क्योंकि गांधी राज-पुरुष नहीं विचार-पुरुष थे।’ (नरेश मेहता रचनावली खंड-9)।वैष्णवता उनके लिए जीवन-दर्शन है।वे काव्य को वैष्णव भाव का आधार बनाते हैं।
नरेश मेहता के लिए वैष्णवता जीवन में सामंजस्य है।वे यह भी मानते हैं कि भारतीय जीवन दृष्टि समरसता की है।इसलिए उनकी वैष्णवता में शैव और वैष्णव दोनों का उल्लेख है।वे विरोधों में सामंजस्य की बात कहते हैं।नरेश मेहता के यहां वैष्णवी व्यक्तित्व दो आयामी है- राम और कृष्ण।उनका कहना है, ‘राम और कृष्ण जीवन के प्रति वैष्णवता के दो ऐसे संबोधन हैं जो कर्तव्य और लालित्य पर बल देते हैं।मानवीय व्यक्ति में मर्यादा और उन्मुक्तता के दो परस्पर विरोधी पक्ष हैं जिन्हें राम और कृष्ण के माध्यम से वैष्णवता ने व्याख्यायित तथा विरचित भी किया।’ (वही)
उनका यह भी मानना है कि राम में समाज घटित होता है, जबकि समाज में कृष्ण घटित होते हैं।फलतः राम त्रासदियों के भोक्ता हैं और कृष्ण त्रासदियों के द्रष्टा हैं।वैष्णवता में राम व्यक्ति-दृष्टि हैं और कृष्ण सामाजिक दृष्टि हैं।नरेश मेहता का शबरी जैसी शूद्र स्त्री को महिमामंडित करना कहीं न कहीं सामान्य की ही लोक प्रतिष्ठा है।
(4) ‘संशय की एक रात’, में नरेश मेहता युद्ध की विभीषिका की ओर संकेत करते हैं।उन्होंने इसकी भूमिका में लिखा है, ‘प्रस्तुत कृति में राम, आधुनिक प्रज्ञा का प्रतिनिधित्व करते हैं।यह आज की प्रमुख समस्या है।संभवतः सभी युग की।इस विभीषिका को सामाजिक एवं वैयक्तिक धरातल पर सभी युगों में भोगा जाता रहा और इसलिए राम को भी ऐसा ही एकत्व देकर प्रश्न उठाए गए।जिस प्रकार कुछ प्रश्न सनातन होते हैं, उसी प्रकार कुछ प्रज्ञा-पुरुष भी सनातन प्रतीक होते हैं।राम, ऐसे ही प्रज्ञा-प्रतीक हैं।’।युद्ध को लेकर राम संशय में हैं।वे युद्ध की विभीषिका से मानव-जाति की होने वाली हानि की कल्पना कर चिंतित हो जाते हैं। ‘संशय की एक रात’ के आधुनिक राम युद्ध के मार्ग पर चलने के बजाय मानव जाति को बचाना चाहते हैं।इसलिए वे लक्ष्मण से कहते हैं- ‘मैं केवल युद्ध को बचाना चाहता रहा हूँ, बंधु/मानव में श्रेष्ठ जो विराजा है/उसको ही हाँ, उसको ही जगाना चाहता रहा हूँ, बंधु-’।
‘महाप्रस्थान’ में भी युद्ध और राज्य-व्यवस्था का अमानवीय चेहरा है।नरेश मेहता का मानना है कि राज्य की लालसाएं और शक्तियां बढ़ने से धर्म की स्थिति हिंसक और अमानवीय हो जाती है।आज सत्ता की भूख ने कितना कुछ अमानवीय बना दिया है, यह किसी से छिपा नहीं है।आज जिस तरह से व्यवस्था के खिलाफ बोलना राजद्रोह का मामला है, वैसा ही कुछ नरेश मेहता इस खंड काव्य में संकेत करते है :
प्रत्येक व्यवस्था के पास/अपने बघनत्व होते हैं अर्जुन/सुदूर भविष्य में/क्या यह नहीं संभव है कि राज्य-व्यवस्था/समाज से स्वतंत्रचेता व्यक्तियों को ही या तो समाप्त कर दे/या उन्हें इतना विवश, पंगु बना दे कि/उनका अग्नि-व्यक्तित्व राज्य-व्यवस्था की निरंकुशता को/कभी चुनौती ही न दे पाए?
‘प्रवाद-पर्व’ काव्य संग्रह में नरेश मेहता ने यह बताना चाहा है कि किस तरह से सत्ता-संपन्न शासक जनसाधारण की उपेक्षा करता है।आज की व्यवस्था जन साधारण को जिस तरह इतिहास विहीन बनाने में लगी है, वह चिंताजनक है।जनता की अवहेलना का प्रश्न इस कृति का केंद्रीय प्रश्न है।सत्ता पक्ष को निरंकुश होने के बजाय लोकतांत्रिक होने की जरूरत है।कवि ने अपनी ऐसी काव्य कृतियों में सत्ता के अलोकतांत्रिक एवं निरंकुश रूप को बेपर्दा करने का काम किया है।
नरेश मेहता ने ‘शबरी’ में वर्ण-व्यवस्था की जगह कर्म को प्राथमिकता देते हुए अपनी आधुनिक दृष्टि का परिचय दिया।कवि समाज में व्याप्त जातिभेद और सामाजिक संकीर्णता को अपने आधुनिकताबोध से चुनौती देता है।परंपरा से चली आ रही मान्यता को शबरी द्वारा तोड़ा जाना मुक्ति पर्व की तरह है।कवि शबरी को मतंग ॠषि के आश्रम में महत्व प्रदान करते हैं।जिस तरह से भक्त कवियों, गांधी, अंबेडकर और प्रेमचंद ने समतामूलक समाज का सपना देखा था, उसी तरह से नरेश मेहता ने शबरी जैसे मिथकीय चरित्र के जरिए आधुनिक समाज में व्याप्त जातिभेद पर प्रहार किया है।ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि नरेश मेहता ने अपने मिथकीय चरित्रों के जरिए आधुनिक समस्याओं को चिह्नित किया है।
(5) नरेश मेहता ‘आत्मविस्मृत आधुनिकों’ में नहीं हैं, बल्कि उन आधुनिक कवियों में हैं, जो पश्चिमी विचारों और प्रवृत्तियों के लिए खुले रहते हुए भी उनकी अधीनता स्वीकार नहीं करते।वे मौलिकता के आग्रही हैं।वे पश्चिमी प्रतीकों के बजाय भारतीय ज्ञान परंपरा की ओर उन्मुख होते हैं।वे तर्कपूर्ण ढंग से पश्चिमी धर्म-दर्शन की आयातित स्थापनाओं की जगह भारतीय धर्म-दृष्टि को अपनी काव्य दृष्टि का आधार बनाते हैं।उनका मानना है कि काव्यात्मक दृष्टि एक प्रकार से धर्मदृष्टि ही है।वे काव्य परंपरा को आधुनिक जीवन से जोड़ने वाले सेतु के रूप में देखते हैं।
इस संदर्भ में उनका यह कथन महत्वपूर्ण है,‘भारत और पश्चिम में एक मूलभूत अंतर है और वह यह कि भारत में समस्त चिंतन और व्यवहार धर्ममय हैं न कि धर्मबद्ध।पश्चिम में या अन्यत्र सभी जगह जीवन की सारी गतिविधियां समरस न होकर क्षेत्रित या विभाजित हैं।फलस्वरूप यदि धर्म कहीं केंद्रीय रूप में है भी तो वहाँ का जीवन धर्ममय न होकर धर्मबद्ध ही है, जैसे कि इस्लाम में है।इस्लाम के संपर्क के कारण भारतीय जीवन में धर्मबद्धता आई।’ (रचनावली खंड-९)।नरेश मेहता को धर्ममयता पसंद है, उन्हें धर्म की संस्थाबद्धता पसंद नहीं है।
नरेश मेहता परंपरा से प्रगतिशील और मानवोचित उदात्तता का वरण करते हुए सामाजिक जड़ता के विरुद्ध एक सशक्त प्रतिरोध निर्मित करते हैं।इतना ही नहीं, वे आधुनिक समाज के मानव-विरोधी तत्वों को चिह्नित करते हुए हमें आगाह करते हैं।
(6) नरेश मेहता का काव्य मानवीय उदात्तता की भूमि पर मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा के लिए एक संकल्प है।उनका रचना-संसार लघु से विराट की ओर उन्मुख है और राष्ट्रीय समावेशिकता से संबद्ध है।उनका मानना है कि काव्य प्रथमतः आत्माभिव्यक्ति है, लेकिन यह अनिवार्यतः संप्रेषण भी है।कविता हमें सभ्य, सुसंस्कृत एवं मानवीय बनाने की कोशिश है।यह हमारी पशुता का संहार करती है।नरेश मेहता की कविताएं कई अवसरों पर मानव-विरोधी घटनाओं पर मुखर हैं।उनका मानना है कि काव्य की उदात्तता और विराटता ही हमारे भीतर के जंगल का समूल नाश कर सकती है।
नरेश मेहता ने धर्म और काव्य को एक-दूसरे का विरोधी नहीं, बल्कि एक-दूसरे का पूरक माना है।भारतीय धर्मदृष्टि ने अपने प्रारंभिक काल में ईश्वर के अवतार कराकर उन्हें मानवीय कुल-गोत्र प्रदान कर प्रदान किया और ईश्वर से सहज मानवीय संबंध जोड़ा।नरेश मेहता का यह मानना सही है कि ‘जांगलिकता से सांस्कृतिकता की ओर, देह से मन की ओर, जड़त्व से चेतनत्व की ओर मानवीय यात्रा संपन्न हुई इसका एकमात्र प्रमाण काव्य है।… प्रकृति की रम्यता ने उसे उसकी द्विपदिक पशुता से ऊपर उठाकर मानवीय उदारता का बोध करवाया होगा।’ (वही)
(7)नरेश मेहता का लेखन किसी पूर्वनिर्धारित राजनीतिक विचारधारा में आबद्ध नहीं था।वे प्रारंभ से बहुलतावादी भारतीय जीवनदृष्टि के समर्थक थे।ऐसे में किसी एक विचारधारा में बंधकर जीवन को देखने के बजाय वे व्यापक और वैविध्यपूर्ण भारतीय परंपरा को देखते हैं।उनका लेखन विपरीतों का समन्वय रहा है।इसमें संतत्व है तो मिलिट्री का लेफ्टिनेंट भी है।यह सच है कि वे कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनते हैं।परंतु वे कम्युनिस्टों की नजर में संदिग्ध रहे।इस बारे में वे लिखते हैं-‘मैं कम्युनिस्ट लेखक अवश्य था, परंतु मेरी विश्वसनीयता उन लोगों की दृष्टि में संदिग्ध थी।त्रिलोचन जी, शिवमंगल सुमन, प्रकाशचंद्र गुप्त और अमृतराय आदि मुझे संदेह की दृष्टि से देखते थे।कम्युनिस्ट होते हुए भी मेरे मन में आर्ष साहित्य एवं वैश्विक मूल्यों के प्रति जो उन्मुखता थी, वह उन लोगों की समझ में नहीं आती थी।’ (कविता की ऊर्ध्वयात्रा)।नरेश मेहता का ऐसा कहना कम्युनिस्टों की तद्युगीन कठोरता की ओर संकेत करता है।
नरेश मेहता का व्यक्तित्व विरोधों के बीच जीवन-सौंदर्य की तलाश करने वाले रचनाकार का है।ऐसे में उनका किसी खास विचारधारा से मुक्त होकर मानवीय विराटता और भारतीयता के सुंदरतम रूप की चर्चा करना महत्वपूर्ण है।वे अपने लेखन और चिंतन को मानवीय प्रश्नों से जोड़ते हैं।
संपर्क सूत्र : 1, राम कमल रोड, पोस्ट–गरिफा, पिन-743166, उत्तर 24 परगना (प.बं.) मो.9331075884
संपर्क सूत्र प्रस्तुतकर्ता : 20/1, खगेंद्र चटर्जी रोड, काशीपुर, कोलकाता-700002 मो.8420627693
ज्ञानवर्धक रचना
‘नई कविता आन्दोलन और नरेश मेहता”पर गंभीरता पूर्वक विचार किए जाने के उद्देश्य से जो परिचर्चा”वागर्थ के सम्पादक महोदय के द्वारा आयोजित की गयी है,उसके माध्यम से नई कविता को ठीक तरह से हृदयंगम करने में तो सहायता मिलेगी ही साथ-साथ उसकी पृष्ठभूमि नरेश मेहता के काव्य-संसार के विविध पक्षों पर अलग – अलग ढंग की जानकारियों के द्वारा नया गवाक्ष पर्यन्त खुलेगा,ऐसा मुझे लगता है!
महत्त्वपूर्ण, साहित्य के प्रति जागरूक और समर्पित जनों की संगत हर उदीयमान बीज मैं प्राण फूँक देता है । सभी के प्रति आभार ! और शुभकामनाएं !