युवा आलोचक। और साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप से निरंतर सक्रिय।
नीलेश रघुवंशी का जन्म विदिसा के कस्बा‘गंज बासौदा’ में हुआ। बासौदा का इतिहास मालवा के पठारी भूगोल में बहुत गहरे धंसा हुआ है। नीलेश का आरंभिक भावबोध बासौदा के कस्बाई जीवन-अनुभवों में आकार लेता है। इसमें आठ बहनों, एक भाई और परिश्रमी मां-बाप का ग्यारह सदस्यों वाला, छोटे-से ढाबे पर निर्भर परिवार है। सुबह चूल्हा फूंकते पिता, स्कूल से लौटकर रोटी बेलती बहनें हैं। ढाबे पर पिता अकेले होंगे, सोचकर स्कूल में भी परेशान होती बेटियां हैं। यह ग्यारह सदस्यों में सिर्फ दो पुरुषों वाला निम्नवर्गीय परिवार है। इस परिवार से निकलकर एक लड़की पहले पचास कोस दूर विदिसा और फिर उसी रास्ते पर भोपाल में अध्ययन, नौकरी और अपने कवि व्यक्तित्व की खोज करती है। इस यात्रा में कस्बे से नगर तक का विकास है। इसमें गांव से महानगर के बीच का कोई कटऑफ, विस्थापन या छलांग नहीं है। निम्नवर्गीय अनुभूतियां और इस वर्ग के प्रति सहज करुणा तो है, लेकिन उच्चवर्ग के प्रति डाह, क्रोध या घृणा नहीं है। स्त्री होने की अनुभूतियां, इच्छाएं व दुख तो हैं, परंतु बाप-भाई और पुरुष मात्र को स्त्री-द्वेषी नहीं समझतीं। छोटे कस्बे से भोपाल तक का भूगोल तो है, लेकिन इसमें विस्थापन और तद्जन्य अतीतराग नहीं है। नीलेश का अनुभव संभार किसी बौद्धिक का वस्तुकृत, विच्छिन्न और संकल्पित संसार नहीं है, यह एक कवि की आत्मसंबद्ध, मुकम्मल और आत्मविश्वस्त दुनिया है।
पहली बार नीलेश रघुवंशी की दो कविताएं 1992 में ‘वर्तमान साहित्य’ के कविता विशेषांक में छपीं। इनमें से एक का शीर्षक था—पानदान। बेटी पहली पगार से पिता के लिए छोटा-सा पानदान खरीदना चाहती है। यह बेटी की आत्मनिर्भरता पारिवारिक सुफल है। आज दिलबाग़, पानपराग के जमाने में पानदान कोई अजूबा चीज लगेगा, लेकिन बाज़ारवादी चौंध से ठीक पहले तक पानदान लोकस्मृतियों में लज़्ज़त और खुशबू का खजाना था। वह अपनी कल्पना में मां को हर दिन उसमें सुपारी और पान भरते देखती है। वह उसमें प्यारे-प्यारे तारे और आसमान भर देना चाहती है। सुपारी और पान को तारों और आसमान के साथ पढ़ने पर अनायास ही कत्थे-चूने की तरह दोनों की अर्थ-छवियां आपस में घुलने लगती हैं। वह उस पानदान को पिता की बगल में खरगोश की तरह दुबका हुआ देखती है। जैसे पिता की स्मृतियों में दुबका हुआ उसका बचपन हो। पढ़ते हुए सहज ही यह जिज्ञासा पैदा होती है कि कैसे कोई वस्तु मनुष्य की स्मृतियों, चाहतों व फंतासी से जुड़कर अपनी इयत्ता से बड़ी बन जाती है! नीलेश की स्नेहिल कामना मामूली से पानदान को इतना सुंदर बना देती है कि कोई सामान्य पाठक भी अपने पिता को यह उपहार देने की कल्पना करने लगेगा। नीलेश की पहली ही कविता इस समझ को मजबूत करती है कि कविताएं नगण्यतम चीजों की वैभव-विभूति को मनुष्य के सामने खोल सकती हैं।
किसी विमर्शकार की रुचि पानदान के सौंदर्य से ज्यादा पिता में होगी। वह इस बात को रेखांकित करेगा कि जिस दौर के स्त्रीवादी मुहावरों में पिता जालिम तानाशाह से कम नहींहै, उसी दौर की एक कवयित्री पिता को इतनी आत्मीयता से क्यों याद कर रही है? टेलीफोन पर पिता की आवाज, पिता की पीठ, यात्रा करते पिता, पिता और कंप्यूटर, ढाबा आदि कई कविताओं में भी पिता स्त्रीवादी मुहावरों से अलग,बहुत प्रीतिकर है।
क्या स्त्रीवाद का पिता हमारे अनुभवों के पिता से अलग है? शायद ऐसा ही है। स्त्रीवाद का पिता सार्वभौमिक है;वह यूरोप जैसे विकसित समाजों से लेकर भारत के गांवों तक में भी एक-सा लगता है। परंतु हमारे अनुभवों का पिता एक-सा नहीं है। उच्चवर्ग का संपत्तिशाली पिता और निम्नवर्ग में परिवार के साथ मिलकर तुच्छ जरूरतों के लिए सघर्ष करता पिता एक-सा नहीं हो सकता। दोनों के अहंकार, व्यवहार और मूल्यबोध में बहुत अंतर होता है। नीलेश रघुवंशी की कविताओं का पिता स्त्रीवाद से नहीं आया है। वह आठ बेटियों को पालने के लिए संघर्ष करता नीलेश के अनुभवों का निम्नवर्गीय पिता है। नीलेश की अनुभूतियां सच्ची हैं, फिर भी कुछ प्रश्न अनुत्तरित छूट जाएंगे—क्या नीलेश के अनुभव संसार का पिता हिंदी समाज के सामान्य अनुभव का पिता है? क्या स्त्री की दुश्वारियों में परिवार और पिता की भूमिका इतनी अनालोच्य मानी जा सकती है? पिता ही क्यों, यही प्रश्न परिवार, विवाह, प्रेम जैसे संबंधों के बारे में भी पूछा जा सकता है, जो नीलेश के आलोचनात्मक विवेक को बाइपास करके रागसिक्त स्मृतिचित्रों में ढलने लगता है।
नीलेश रघुवंशी को ‘हंडा’ शीर्षक कविता के लिए वर्ष 1997 का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला। यह ‘घर-निकासी’ शीर्षक उनके पहले काव्य संकलन में संकलित है। हंडा लोक स्मृतियों में बसा पुरातन, गोप्य और किंचित रहस्यमय चीज है। वैसे ही जैसे स्त्री का जीवन प्रच्छन्न और गोप्य होने के कारण किंचित रहस्यमय लगता है। हंडा जब उस नवविवाहिता के साथ मायके से आया था तो इसमें उसकी कुंआरी आंखों के सपने भरे थे। अब कभी अनाज तो कभी पानी भरा जाता है। धीरे-धीरे उस हंडे के साथ आई युवती चली गई और स्मृतिशेष जीवन की तरह घर भर में डोलता हंडा रह गया। यह कविता हंडा व स्त्री दोनों की अर्थ-छवियों और मन:प्रभाओं को घोल देती है। इसके संकेतों को कुछ और पल्लवित करने पर इतिहास में स्त्री के दमन एवं आत्म-बहिष्कार कामुक इतिहास बोलने लगेगा। नीलेश इस तरह की कई कविताओं में लोक स्मृतियों में बसे किसी विषय के मनःप्रभावों का बहुत सजग रचनात्मक उपयोग करती हैं। ऐसी ही कविता है—भुजरिए।
मालवा के लोक जीवन में सावन सप्तमी को औरतें छोटी टोकरियों में मिट्टी डालकर गेहूं के दाने बोती हैं। रोज जल देती हैं और देखभाल करती हैं। फिर जब आठ-नौ दिनों में हरिताभ जरई टोकरियों को भर देती है तो नियत समय पर उसे किसी जलाशय या नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इस त्योहार को भुजरिया कहा जाता है। कहीं कहीं कजलिया भी कहते हैं। पहले बोना, जल देना, पालना और फिर नदी में सिरा देना; अनायास ही यह स्त्री जीवन का रूपक लगता है। स्त्री-जीवन का अनुभव और लोकगीतों का प्रभाव इसे धार्मिक अभिचार से ज्यादा गहन अर्थ देता है। इच्छाओं की तरह उगतीं, एक दूसरे पर बोझ डालतीं, झुकतीं अनगिनत भुजरिए, और उन पर चमकती बूंदों की स्मृतियां यादगार सौंदर्य चित्र में ढल गई हैं। अंतिम पंक्तियों में भुजरिए को विदा करते समय की रुलाई और ससुराल में बैठी बहनों की याद इसे स्त्री-जीवन का मार्मिक बिंबबना देती है। सिंदूर, चबूतरा, चौसर, घर-निकासी आदि अनेक कविताएं इन्हीं लोक स्मृतियों और दृश्यों का उपयोग करती हैं। अपडाउनर्स, गरम कपड़े, उदास, घर के बारे में, ढाबा, अभाव, बिना टिकट यात्रा करती लड़की आदि कविताएं कस्बों से छोटे शहरों तक के निम्नवर्गीय जीवन की नगण्य चाहतों, घर, पड़ोस, रोजमर्रा का जीवन, उसकी दुश्वारियां एक ऐसा ठोस संसार रचती हैं, जिसे पहचाना और छुआ जा सकता है। इसके केंद्र में भाई, बहनें, बुआओं, मां, पिता की घरेलू और पारिवारिक संवेदना है। जहां से रोजमर्रा की दिक्कतों में बचे और बने रहने की जिजीविषा आती है। अवांतर ही होगा, लेकिन कह दूं, नई कविता में शकुंत माथुर आदि की कविताओं में जो पारिवारिकता और घर का आत्मीय परिवेश दिखाई पड़ता था, वह आगे अनामिका और नीलेश रघुवंशी में ही दिखाई पड़ता है।
नीलेश रघुवंशी का दूसरा संग्रह 2004 में ‘पानी का स्वाद’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस संग्रह का काव्यबोध कस्बाई स्मृतियों, निम्नवर्गीय संघर्षों और चटक अनुभवों से खिंचकर शहरी मध्यवर्गी जीवन, प्रेम, दांपत्य और मातृत्व की सहज उज्ज्वल अनुभूतियों की तरफ बढ़ता हुआ दिखाई पड़ता है। इसी के साथ पहली बार दुख, उदासी, कटेपन का आभास काव्यबोध में प्रवेश करता है जो उनके तीसरे संग्रह (अंतिम पंक्ति में) की कविताओं में केंद्रीयता पा जाता है। काव्यबोध में यह बदलाव इस बात का प्रमाण है कि कवि के अनुभव की जमीन बदल रही है, उसके जीवन में वर्गीय संचरण हो रहा है और इस सबसे जीवन में नए अस्तित्वगत प्रश्न पैदा हो रहे हैं। इसका कारण यह भी है कि उनकी काव्य अनुभूतियां जीवन अनुभवों से जुड़ी हुई हैं। पहले संग्रह के बरक्स दूसरे, तीसरे संग्रह में प्रेम कविताओं की बहुलता है। नीलेश का यह प्रेम भी जीवन से छलांग नहीं है, बल्कि दैनंदिन प्रवाह के बीच का दुर्निवार मानवीय आकर्षण है। इसमें कोमलता है, कल्पनाशीलता है, ऐंद्रियता है, परंतु इसका दांपत्यबोध उनकी प्रेमिल अनुभूतियों को थिर व बेसन के घोल-सा गाढ़ा बना देता है।
‘केलों को फलते ही ढंक दिया जाता है पत्तियों से
नजर न खा जाएं कहीं केले
आड़ चाहिए फलने के लिए
अबकी खिलेंगे जब हमारे मन बनाएंगे आड़ हम भी
आड़ के नीचे केले कितने सटे हुए
फलने फलने को जैसे हम–तुम’
इसमें ऐंद्रियता, युग्मकता और सृजन का वह दृश्य है जिसे स्त्री से अच्छा कोई नहीं जानता। इसमें इंतजार है, साथ का सुख है, अनुभव-कामना है, शील और जिजीविषा है। इसी भावबोध का विकास उनकी मातृमुखी कविताओं में हुआ है। नीलेश की ‘पहली रुलाई तक की डायरी’ शृंखला की कविताएं मातृत्व पर लिखी गई कविताओं में अलग से उल्लेखनीय हैं। ये कविताएं उनके अपने भीतर के परोक्ष तथा पिगहन अनुभूतिमय जीवन से संवाद हैं। यह आत्म-संलाप होकर भी आत्म-संलाप नहीं है। इसका संबोधित बाहर नहीं है, भीतर है, लेकिन इसकी उपस्थिति जितनी सघन है, भला उससे ज्यादा अनुभवगम्य बाहर की कोई चीज हो सकती है? संबोधित की यह ठोस आत्मगत अवस्थिति कर्ता और कर्म के पूरे डायनामिक्स को बदल देती है। और ये कविताएं प्रणालीबद्ध अदायगी से बहुत गहरे उतरकर जिज्ञासा, कौतुक, दैहिक तरंगों और आदिम मानवीय राग को छूने लगती हैं।
अगर कोई नीलेश से पूछे कि आपका स्त्री होना आपकी कविता को कैसे प्रभावित करता है तो नीलेश कहेंगी कि उनका स्त्री होना उनकी कविता को कहीं से भी प्रभावित नहीं करता है। यह मैं अनुमान से नहीं कह रहा हूँ। ऐसा उन्होंने अपनी एक बातचीत में रेखा सेठी से कहा है। लेकिन क्या आश्चर्य है कि उनकी कविताएं स्वयं अपने कवि के खिलाफ गवाही देने लगती हैं। क्या कोई पुरुष मातृत्व को अनुभव कर सकता है? क्या पुरुष के जीवन में मम और ममेतर को घोलती हुई इतनी गहनतर अनुभूति है कोई? जाहिर है कि नहीं है। नीलेश की अनेक कविताएं हैं जिनमें अनगिनत उपमान स्त्री जीवन से आते हैं, जिनका प्रयोग पुरुष कवि कभी नहीं कर सकता। वह दुख को ओढ़ना नहीं, बिछाना चाहती हैं। कपड़ों की तरह पछीट-पछीट कर चमकाना चाहती हैं और दाल की तरह बघार देना चाहती हैं । उदासी को चायपत्ती की तरह उबालना चाहती हैं । ऐसी अनगिनत क्रियाएं उनकी भाषा में आती हैं जो स्त्री मात्र के जीवन से जुड़ी हुई हैं। लेकिन यह भी सही है कि उनकी दुनिया लैंगिक अनुभूतियों व रूढ़ विषयों से ज्यादा बड़ी है, इसलिए लैंगिक पहचानों से जुड़ी हुई कविताएं उनके नीचे से फुसफुसाती हुई लगती हैं।
हम शुरुआत में इस पर बहस कर आए हैं कि अनुभवों का अपना भूगोल और इतिहास होता है, जबकि धारणाएं इससे निरपेक्ष होती हैं। इसीलिए वाद और विमर्शों से आने वाली कविताएं अपने परिवेश का समाहार नहीं करतीं। इस बात की तफतीस स्त्री कविता में करें तो आपको संस्कृति, स्मृति, इतिहास सब मिलेगा, लेकिन उसका ठोस भूगोल नहीं मिलेगा। मसलन जैसे आप नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन, अष्टभुजा का भूगोल सहज ही पकड़ लेते हैं उसी तरह कात्यायनी, अनामिका, गगन गिल, सविता सिंह में अनुभवों का भूगोल नहीं पकड़ सकते। यह विस्मयकारी अंतर्विरोध है। क्योंकि विमर्शों की पूरी सैद्धांतिकी अनुभववाद पर टिकी है, लेकिन इसके प्रभाव से बनने वाली कविताएं अनुभव की जमीन का कोई अहसास ही नहीं जगातीं। बहुसंख्यक स्त्री कविताओं में पता ही नहीं चलता कि यह पृथ्वी के किस भूगोल की कविताएं हैं। अनुभव की स्थानिकता कविता की मूल्यवत्ता का पैमाना नहीं है, लेकिन विश्वसनीयता की कसौटी जरूर है। इसके बरक्स यह तर्क हो सकता है कि स्त्रीत्व का सार सार्वभौमिक रूप से दोयम है, इसलिए उसकी अस्मिता प्रथमतः सार्वभौमिक है। यह तर्क बड़ा सीधा है, इसलिए यक़ीनी लगता है। प्रश्न अब भी जहां का तहां है। क्या स्त्री की दोयम अवस्थिति संस्कृति, भाषा और परिवेश से निरपेक्ष है? क्या स्त्री अस्मिता का बाकी अस्मिताओं से कोई संबंध नहीं है? इसे सुलझाते हुए पाएंगे कि स्त्री अस्मिता की दुश्वारियां जितनी सार्वभौमिक और वैश्विक हैं उतनी ही विशिष्ट और स्थानिक भी हैं । अतः इसका संघर्ष भी दुधारी है।
ध्यान देने पर पता चलता है कि हिंदी स्त्री कविता का भूगोल सबसे पहले नीलेश रघुवंशी ने रचा और उसके बाद यदि किसी का नाम लिया जाएगा तो वह होंगी निर्मला पुतुल।
नीलेश रघुवंशी का अनुभव-संसार बहुत उदार और विस्तीर्ण है। यह वैश्वीकरण से पूर्व के सामुदायिक-पारिवारिक जीवन, स्मृतियों, लोकाचारों से लेकर बाद के टूटन, अनाचार, अपार उपभोग, अपरंपार तनाव, इन सबको न्यायोचित सिद्ध करने के सम्मोहक तर्क व उक्तियों के प्रति उनका विवेक इस अनुभव संसार को बहुत सामयिक बनाता है। नीलेश के पास स्पष्ट द्वंद्ववादी विचार हैं। इसके बावजूद उनका अनुभव संसार दरका हुआ तो लगता है, लेकिन टकराता हुआ-सा नहीं लगता। इसमें आध्यात्मिक सामरस्य नहीं है, लेकिन ‘हम’ और ‘वे’ का अलंघ्य विरुद्ध भी नहीं है। इस अनुभव जगत में न्याय चेतना वर्ग, जाति, जेंडर, धर्म में टूटा हुआ नहीं है; इंद्रधनुष की तरह बहुरंगी है। वह इसे थ्योरी से हल ही नहीं करतीं, अपने अनुभवों को तर्क बनाती हैं। शायद इसीलिए इसमें युगसुलभ आक्रामक मुखरता नहीं है।
नीलेश स्वानुभव-विश्वासी हैं। उनकी आत्मविश्वस्त अभिव्यंजना में सहजता और स्पष्टता है जो पाठक को अपनी विश्वसनीयता से प्रभावित करता है। परंतु यह स्वानुभव हमेशा ही सौंदर्यात्मक अनुभूतियों तक नहीं पहुंच पाता। और किस कवि का हमेशा पहुंच पाता है? उनकी काव्य अनुभूतियों में स्त्री की विशिष्ट अनुभूतियां, कामनाएं, दुश्वारियां घुली हुई रहती हैं। वैसे ही जैसे उसमें वर्गीय अनुभूतियां घुली हुई हैं। वह उतना ही कहती हैं जो उनकी अनुभूति का हिस्सा है। उसी में जितना झलक सके, झलके। इसी कारण स्त्री विमर्श की रणनीतियों से उनकी बौद्धिक संगति नहीं बैठती। कोई कह सकता है कि नीलेश में स्त्री-अनुभूतियां तो हैं, परंतु स्त्रीवादी चेतना नहीं है। लेकिन उनके कविकर्म से गुजरते हुए लगता है कि स्त्री विमर्श को लेकर उनमें एक सजग संशय है। उनकी समझ में विमर्श ने स्त्री के भावजगत को बाकी दुनिया से खींचकर शीशमहल में कैद कर दिया। स्त्री की आत्मग्रस्तता का यह शीशमहल मध्यवर्गी और उच्चवर्गी स्त्रियों की आकांक्षा का संसार है। झाड़ू पोछा करतीं, सर पर तगाड़ी ढोती स्त्रियां अपने प्रश्नों के साथ इस शीशमहल से आज भीबाहर हैं। अतः नीलेश उच्चवर्गी स्त्रियों की नजर से स्त्री विमर्श को नहीं देखतीं, बल्कि निम्नवर्गी स्त्रियों की नजर से स्त्री विमर्श को देखती हैं।
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