भारत यायावर, हजारीबाग : लंबे समय तक कोरोना काल में बंद ‘वागर्थ’ अब मुक्त होकर शीतल समीर-सा आया और इंडिया में किसान के बहाने भारत माता के जार-जार रोने की चर्चा कर गया। रेणु से बड़ा किसान लेखक भला और कौन है? पीड़ित दशा में जी रहे किसान को वाणी देने वाले रेणु स्वयं किसान थे। मैं इसी किसान लेखक की जीवनी लिखने में लंबे समय से लगा हुआ था। इस अंक में तमाल जी के ‘पिता’, उन्मेष जी के ‘झब्बू’ दिल को छू गए। पंकज सुबीर बेहतरीन कथाकार हैं। उनका ऊंचा मान है। शेखर जोशी की कविता उनकी कहानियों की तरह ही आत्मीयता से भरी है। लेकिन ‘शैलेंद्र के गीत और तीसरी कसम’ नामक संस्मरण में प्रयाग शुक्ल का सहज व्यक्तित्व भी उभरकर सामने आता है जो बेहद भाता है।

‘फणीश्वरनाथ रेणु का महत्व’ पर परिचर्चा सबसे जीवंत और हृदयग्राही है। इसमें मेरे अलावा शामिल विष्णु नागर, रवि भूषण, अवधेश प्रधान, भगवान दास मोरवाल के विचारों को सही महत्व दिया गया है। इसके लिए आभार प्रकट करता हूँ। इसमें ओम प्रकाश पांडेय जी ने अपने लेख का पहला अंश मेरे तीस वर्ष पूर्व छपे लेख से दुहरा दिया है। ‘वागर्थ’ साहित्य की एक श्रेष्ठ और रचनात्मक भूमि तैयार कर रही है।

भोला प्रसाद सिंह, कांचरापाड़ा : ‘वागर्थ’ के जनवरी-फरवरी 2021 के अंक में तमाल बंद्योपाध्याय की बांग्ला कहानी ‘पिता’ का हिंदी अनुवाद। आमतौर पर अनुवाद बोझिल, ऊबाऊ और कभी-कभी अर्थहीन होते हैं। ऐसे अनुवाद पाठक के धैर्य की परीक्षा लेते हैं। संजय राय ने पाठकों की शिकायतों को दूर करने का प्रयास किया है। वे दोनों भाषाओं की प्रकृति को समझते हैं। एक सतर्क अनुवादक दोनों भाषाओं के मर्म को हृदयंगम करने के साथ-साथ शब्दों के सटीक प्रयोग की सूझ-बूझ रखता है। एक ही शब्द कभी-कभी अलग-अलग अर्थ-ध्वनियों को प्रकट करता है। संजय राय ऐसी बातों के प्रति सतर्कता का परिचय देते हैं।

हिंदी में ‘पिता’ को केंद्र में रखकर कई कहानियां लिखी गई हैं। कथाकार-संपादक ज्ञानरंजन की ‘पिता’ कहानी के ‘पिता’ तमाल बंद्योपाध्याय के पिता की तरह निरीह और उपेक्षित नहीं हैं। इसी तरह उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ के गजाधर बाबू रिटायरमेंट के बाद अपने घर में उपेक्षित जरूर हैं, लेकिन अपनी उपेक्षा का प्रतिकार करने की क्षमता उनमें हैं।

तमाल बाबू के ‘पिता’ में प्रतिकार की क्षमता नहीं है। कहानी के अंत में उनकी दृढ़ता तब प्रकट होती है जब वे इलाज के लिए जीभ नहीं कटवाने के लिए अड़ जाते हैं और प्रतिरोध करते हैं। पिता की ऐसी ही करुण-कातर स्थिति मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे’ में पिता महेंद्रनाथ की है।

अनुवादक ने हिंदी के तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ बोलचाल के शब्दों का भी सार्थक और सटीक प्रयोग किया है। बांग्ला परिवेश में डॉमिनेंट करनेवाली मां का होना स्वाभाविक है, लेकिन हिंदी परिवेश में शायद नहीं। यह एक जमीनी सचाई है। ‘पिता’ कहानी का पिता सबसे अधिक त्रस्त अपनी पत्नी से है। वह बेटे को पिता की छाया से भी दूर रखना चाहती है। वह नहीं चाहती कि उसका बेटा अपने पिता की तरह व्यक्तित्वहीन बने। ‘पिता’ कहानी एक ऐसे पिता की अंतर्वेदना की कहानी है जो हमेशा डरा और सहमा हुआ रहता है। उसकी यह निरीहता और कातरता बरबस पाठकों के हृदय में एक विशेष जगह बना लेती है।

सत्येंद्र कुमार रघुवंशी, लखनऊ : ‘वागर्थ’ जनवरी-फरवरी। रेणु शताब्दी के अवसर पर प्रकाशित अंक प्रासंगिक और विचारोत्तेजक है। रेणु ने चालू फैशन, नुस्खों तथा फार्मूलों से बाहर आकर अपनी एक विशिष्ट कथाभूमि तैयार की थी। उन्होंने अपने लेखन का आधार सामाजिक संघर्ष और जनसामान्य की लोकचेतना को बनाया था। उनके बारे में भारत यायावर, विष्णु नागर, रवि भूषण, अवधेश प्रधान, भगवान दास मोरवाल, अजय तिवारी और आमेप्रकाश पांडेय के विचार संजय जायसवाल द्वारा आयोजित परिचर्चा में प्रखरता से व्यक्त हुए हैं।

शोखर जोशी जिन्हें मैं मूलतः एक कथाकार के रूप में जानता आया हूँ, की कविता ‘नन्हीं परी के लिए स्वागत गान’ मार्मिक है। उमा शंकर चौधरी की कविताओं में एक अलग तेवर नजर आता है। महेश आलोक की दो कविताएं ‘धन्यवाद’ और ‘प्रेमियों के लिए गीत लिखना कठिन है’ भी अच्छी बन पड़ी हैं। रमाशंकर सिंह की कविता ‘किसी के मर जाने पर’ भी मथती है। युवा कविता विराग विनोद अपनी कविता ‘पिता के जूते’ में अपनी शेष कविताओं की अपेक्षा असरदार नजर आते हैं।

यह अच्छी बात है कि कुछ पत्रिकाएं इधर पानू खोलिया को शिद्दत से याद कर रही हैं। उनका उपन्यास अंश ‘कालू कलबंसिया’ चार पृष्ठों में सिमटा होने के बावजूद उनकी कलम की ताकत और भाषा की त्वरा को दर्शाता है। उन्मेष कुमार सिन्हा, पंकज सुबीर और आयशा आरफीन की कहानियां कथ्य और कहन में असर छोड़ती हैं।

अंक के अंतिक कवर पेज पर छपी आपकी अपील को देखते हुए मैं इस वर्ष लखनऊ से आपको पांच वार्षिक ग्राहक देने का प्रयास करूंगा।