युवा कवि, अनुवादक व चित्रकार। संप्रति : अनुगूँज अर्ध-वार्षिक साहित्यिक पत्रिका के संपादक।
शंख घोष
(5 फरवरी 1932 – 21 अप्रैल 2021) एक प्रमुख भारतीय बंगाली कवि और साहित्यिक आलोचक थे। वह एक प्रमुख रवींद्र विशेषज्ञ और शक्तिशाली लेखक थे। बंगला भाषा में लिखित “दिनगुली- रातगुली”,”निहित पाताल छाया”, “मुर्ख बोड़ो, सामाजिक नोय”, “बाबरेर प्रार्थना” आदि प्रमुख किताबें। पुरस्कार पद्मभूषण (2011), ज्ञानपीठ पुरस्कार (2018), साहित्य अकादमी पुरस्कार (1977)।
बादल जैसा मनुष्य
मेरे सामने से टहलते हुए जाता है
वह एक बादल जैसा मनुष्य
उसके शरीर के भीतर प्रवेश करने पर
लगता है
सारा पानी धरती पर बरस जाएगा
मेरे सामने से टहलते हुए जाता है
वह एक बादल जैसा मनुष्य
उसके पास जाकर बैठने पर
लगता है
पेड़ की छाया आ जाएगी मेरे पास
वह देगा कि लेगा?
वह क्या आश्रय चाहता है?
न कि आश्रय में है…?
मेरे सामने से टहलता हुआ जाता है
वह एक बादल जैसा मनुष्य
उसके सामने जाकर खड़े होने पर
मैं भी संभवतः
कभी किसी दिन हो सकता हूँ बादल…?
यौवन
दिन रात के मध्य
पक्षियों के उड़ने की छाया
बीच-बीच में याद आता है
हमारा अंतिम मिलना-जुलना।
प्रतिहिंसा
युवती कुछ नहीं जानती
सिर्फ प्रेम की बातें कहती है
शरीर मेरा सजाया भी तुमने
बीते समय में…
मैंने भी प्रत्युत्तर में रखी थीं सारी बातें
शरीर भरकर उड़ेल दी हैं
तुम्हारे ऊपर
अग्नि और प्रवणता।
बातों के भीतर बातें
सभी नहीं, फिर भी
कई बातों के भीतर हम बातें खोजते हैं
भूल गए हो तुम सहज भाषा
इस मूसलाधार बारिश में
आओ नहा लें
पानी के भीतर कितने मुक्तिपथ हैं…
कभी सोच कर देखो
अब निर्बाध बैठे रहकर
बहुत ज्यादा देर बैठे रहकर…
सिर्फ बैठे रहकर देखो
ह्रदय बहुत कुंठित हो चुका है
लगता है अब क्या…?
तुम्हारी कोई निजी गरिमामयी भाषा नहीं है
क्यों आजकल हर समय
अपने विरुद्ध इतना बोलते हो?
तुम
मैं उड़ता फिरूं
मैं घूमता फिरूं
मैं सभी सूर्यदीप्त रास्तों पर
जलता फिरूं…
लेकिन मुझे अच्छा नहीं लगता
जब घर लौटूं तो
न देख पाऊं तुम्हें –
‘कि तुम हो…?’
देह
आ रहा था
सनातन मैंदान से निकलकर
ह्रदय के ऊपर
बहुत ज्यादा दबाव
धीरे-धीरे सुलगती आग
जिसे सामने से ग्रहण कर रहा हूँ
मेरे सामने खड़े हैं नगरवासी
जो हड़बड़कर चिल्लाए जा रहे हैं
‘शरीर कहां है ?…. शरीर कहां है ?..’
अब मैं यह सबकुछ नहीं सुन सकता हूँ,
पॉकेट में हैं एक धुंधला आईना
टूटी कंघी, चादर, मूढ़ी और हवाई चप्पल
आ रहा था
मैं तुम्हारे लिए…!
अस्पताल
नर्स-1
सो नहीं पा रहा हूँ
प्रत्येक हड्डी के भीतर जमा हुआ हैं भूसा
पैरों से लेकर सिर तक
फैल रहे हैं अश्लील जीवाणु
भूसा कहने लगा-
कौन कहां? सिस्टर, सिस्टर…
‘हुआ क्या? चुप करके शांति से सो जाओ
इसके अलावा फल खा सकते हो।’
सफेद बाल, लाल बेल्ट पहने आ रही है नर्स…!
नर्स-2
रात दो बजे
चुपचाप दो लड़कियां पास के केबिन में ढुकती हैं
बेहोश युवक की आत्मा
कुछ और मरी या नहीं
यह पता करने
‘अभी भी उतना नहीं…।’
होंठ दबाकर एक लड़की दूसरे से बोलती है
‘तब क्या सो रहा है वह न कि बेहोश है या
डॉक्टर की जरूरत है’
‘रहने दो… बाबा!’
फिनफिनाकर वे दोनों लड़कियां जाती हैं
और कहती हैं :
‘हम लोग क्या कर सकते हैं
जब तक ईश्वर कुछ न करें?’
नर्स-3
दो एप्रन पहनी सुंदर महिलाएं
एप्रन के नीचे दबा रखी है अपनी हँसी
मुंह पर मरुभूमि लेकर नियमित
सुबह का बिछौना सजाती है बारहो महीना
यदि मैं कहता हूँ;
‘लाइए, मैं भी चादर का एक कोना पकड़ लूं’
तो वह मुझे फांसी पर लटका देगी…?
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* एप्रन : चिकित्सक का सफेद वस्त्र
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