सुधीर विद्यार्थी
क्रांतिकारी आंदोलन पर अब तक दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। जनपदीय इतिहास और संस्कृति पर भी कई किताबें।
दोपहर ढले बुंदेलखंड के इलाके में हमने बेतवा का पुल पार कर लिया। शीतल हवा में इस नदी की मंद धार को देखना सुखद है। बीस वर्ष पहले इधर आया तब के दृश्य अब तक जीवंत हैं भीतर। तट पर उगी वनस्पतियां मानो समय केसाथ ठहर गई हों दूर तक। यह हरियाली इस पहाड़ी इलाके को अजब रंगत देती है।
राठ पहले भी एक बार आया था। बीस वर्ष पहले इस कस्बे से होते हुए बेलाताल और अजनर के पास खोही गांव में क्रांतिकारी राधामोहन गोकुल की समाधि को खोजने की वह रोमांचक यात्रा अविस्मरणीय थी। काला पानी गए प्रसिद्ध क्रांतिकारी पं. परमानंद इसी राठ के रहने वाले थे। यहां बाजार में एक तिराहे पर उनकी अनगढ़-सी प्रतिमा लगी है जिसके चारो तरफ अतिक्रमण के चलते पहुंचना कठिन कवायद है। 13अक्तूबर1998 को स्थापित किए गए इस स्मारक की ओर अब किसी का ध्यान नहीं जाता। पंडित जी नेदेश की आजादी के लिए अंदमान में रहते हुए खूंखार जेलर बारी को पीटा था। बाद के दिनों में दिल्लीउनकी रिहायश बनी, जहां 13 अप्रैल 1982 को 90 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। मुझे याद है कि अंतिम दिनों में उनके दोनों हाथ कांपने लगे थे। राठ की पिछली यात्रा में मैंने यहां के स्वामी ब्रह्मानंद डिग्री कालेज में प्रधानाचार्य और अध्यापकों से कहा था कि उन्हें अपने इस शिक्षा संस्थान में राधामोहन गोकुल और पं. परमानंद के बड़े चित्र लगवाने चाहिए। स्वामी ब्रह्मानंद हमीरपुर जिले से दो बार सांसद रहे। राठ में उनकी समाधि है जहां राजनेता जाते रहते हैं। इस कालेज में स्वामी जी की प्रतिमा का अनावरण प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 25 मार्च 1991 को किया था।
राठ मुझे एक उदास कस्बा लगता है। अपने में खोया-डूबा। बाजार खूब भीड़ भरा है। उस दिन करीब सौ किमी से अधिक का रास्ता तय करके हम खोही जा पहुंचे। बेलाताल और अजनर होते हुए पहाड़ की तलहटी में बसे इस गांव में मैं दूसरी बार आया हूं। बीस वर्षों में दृश्य बदल गए हैं। गोंड बाबा के चबूतरे के पीछे एक बड़े मंदिर का निर्माण हो रहा है। यहां से पश्चिम की ओर जाने वाला कच्चा चकरोड अब डामर की सड़क में तब्दील हो चुका है। गांव के कुछ लोग हमारे पास आ गए हैं। हम उन्हें आजादी की लड़ाई में राधामोहन गोकुल की हिस्सेदारी के बारे में बताते हैं।
1925 में कानपुर में आयोजित पहली कम्युनिस्ट कांफ्रेन्स में सत्यभक्त जी को राधामोहन जी और हसरत मोहानी ने बहुत सहयोग किया था। वैचारिक चेतना से संपन्न इस क्रांतिकारी ने चंद्रशेखर आजाद और भगतसिंह पर अपनी छाप छोड़ी थी।
1931 के बाद उन्होंनेइस इलाके में आकर एक विद्यालय का संचालन करते हुए अपनी गुप्त गतिविधियों को जारी रखा और यहीं 70 वर्ष की उम्र में 3 सितंबर 1934 को उनका निधन हो गया। निराला भी उनसे प्रभावित थे। प्रेमचंद ने उन्हें ‘आधुनिक चार्वाक’ कहा था। डॉ. रामविलास शर्मा ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘भारत में अंग्रेजी राज्य और मार्क्सवाद’ में राधामोहन जी को पर्याप्त जगह दी है। सत्यभक्त जब तक जीवित रहे वे उनकी स्मृति-रक्षा का कार्य निरंतर करते रहे। फिर कर्मेन्दु शिशिर ने भी लिखा। यहां खोही गांव की पश्चिम दिशा में नाले से थोड़ा ऊपर दाईं तरफ उनकी समाधि है। हम कुछ गांव वालों के साथ राधामोहन गोकुल के उस स्मृति-स्थल के निकट पहुंचे,लेकिन दूर तक कोई निशान दिखाई नहीं दे रहा था।
‘यहीं कहींउनकी समाधि थी जिस पर एक पेड़ उग आया था। उसकी जड़ों ने ईंटों को तोड़ दिया था,लेकिन अब तो यहां कुछ भी नहीं है। वह जगह भी अब हमें पहचान में नहीं आ रही है।’ मैं गांव वालों से कहता हूँ। खोही के लोग इन सबसे अनजान हैं। हम निराश हो चुके हैं। लौटकर गांव में गोंड बाबा के चबूतरे के पास आकर मैं फिर लोगों को बताता हूं कि समाधि को मैंने देखा था। वह कनकुआ वालों के खेत में थी।
यह सुनते ही एक महिला और वहां खड़े सब चौकन्ने हो गए-‘आप यह पहले बताते कि समाधि कनकुआ वालों के खेतों में है तो दिक्कत नहीं होती। आओ, फिर चलते हैं।’
हम उन सबके साथ लौटकर फिर उसी जगह आ गए हैं। वे सब एक साथ बोले, ‘यह रहा कनकुआ वालों का खेत।’
वहां एक बड़ा वृक्ष जड़ से उखड़ा पड़ा दिखाई दिया। खेत में खड़ी मूंगफली की फसल में सिंचाई हो चुकी थी। सब ओर तार और कांटेदार बाड़। गांव वालों की मदद से हम किसी तरह भीतर घुसे तो हमारे जूते गीली मिट्टी में धंस गए। भीतर जाकर देखा कि पेड़ के तने के नीचे समाधि के अवशेष हैं। केशव और मैंने उसके चित्र उतारे।
हमें संतोष हुआ कि अंतत: हमने गोकुल जी की समाधि खोज ली।
खोही में कुछ देर ठहर कर हम अजनर की मुख्य सड़क पर आ गए, जहां हमने आलोक कुमार नगरिया और उनके मित्रों के साथ बैठकर गोकुल जी की स्मृति में एक शिलापट्ट लगवाने की चर्चा की। सभी का मत था कि उसे अजनर में खोही जाने वाले रास्ते के मोड़ पर लगवाया जाए। यहां अधिक लोग देख सकेंगे। स्थान आलोक ने ही तय किया। केके राजपूत, पत्रकार शिवनायक सिंह परिहार तथा बाबू अवस्थी ने भी इसमें सहयोग करने का वादा किया। हम देर तक गांव वालों के बीच राधामोहन जी के क्रांतिकर्म की चर्चा करते रहे।
दिन ढलने से पहले हमने बांदा की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में महोबा में रुक कर क्रांतिकारी पंडित परमानंद की आदमकद प्रतिमा को प्रणाम किया जिसे साहित्य परिषद महोबा ने स्थापित कियाहै।
मैंने बांदा के मित्रों को बताया कि शहीद चंद्रशेखर आजाद के विश्वस्त साथी क्रांतिकारी विश्वनाथ वैशम्पायन का जन्म 28 नवंबर 1910 को इसी शहर में हुआ था। उनके पिता गंगाधर महादेव वैशम्पायन यहां स्वास्थ्य विभाग में थे। ऐसे में वैशम्पायन जी की प्रारंभिक शिक्षा इसी जगह हुई, लेकिन पिता के झांसी स्थानांतरित हो जाने के बाद परिवार वहां चला गया। क्रांतिकारी दल के सेनापति आजाद से वैशम्पायन जी की मुलाकात झांसी में ही हुई, जहां वे पार्टी के सदस्य बन गए। उनका यह सफर लंबा चला। उनकी गतिविधियों के केंद्र मुख्यत: झांसी, कानपुर, इलाहाबाद, ग्वालियर और दिल्ली रहे। जेल गए, छूटे और फिर स्वतंत्र भारत में पत्रकारिता भी की।
उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृतित्व तीन खंडों में आजाद की बड़ी जीवनी लिखना था जिसमें ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ’ के प्रारंभ से अंतिम दिनों का दुर्लभ खाका है।
20 अक्तूबर 1967 को हृदयगति रुक जाने से धमतरी में वैशम्पायन जी का देहांत हुआ तब से किसी ने उन्हें याद नहीं किया। वैशम्पायन जी की स्मृति में एक शिलापट्ट इस शहर के किसी पार्क में लगवाया जा सकता है। वैशम्पायन परिवार मूलत: कर्वी (बांदा की तहसील) का रहने वाला था जहां उनके पूर्वज कलिजंर युद्ध के समय पेशवाओं के साथ महाराष्ट्र से आ गए थे। कर्वी में इस समय श्रीमती जोग ही हैं जो वैशम्पायन जी के परिवार को जानती हैं। बताती हैं कि एक बार वैशम्पायन जी के घर से कुछ सदस्य कर्वी आए थे जिसकी उन्हें याद है। बड़ौदा में रह रही वैशम्पायन जी की बड़ी बेटी डॉ. नंदिनी रैडे वैशम्पायन इधर कभी नहीं आईं पर उन्हें स्मरण है कि कर्वी में उनका पुश्तैनी घर रहा था जिसमें अब किसकी रिहायश है यह पता नहीं।
बांदा मैं पहले भी एक बार आया था। तब कवि केदारनाथ अग्रवाल का निधन हो चुका था। उनका घर-द्वार देखा था। इस बार पता लगा कि केदार जी का वह मकान बिकने के बाद एक रात को गरजती जेसीबी मशीन ने उसे पूरी तरह जमींदोज कर दिया। किताबें और सामान सब कहीं फेंक दिए गए। अब वहां ऊंची दीवार का एक घेरा है जिसमें लोहे का फाटक लगा है। भीतर खड़ा नीम का पुराना पेड़ ही हिंदी कविता को मनुष्यकामी चिंतनदृष्टि से लैस करने वाले उस कवि की याद दिलाता है जिसने कभी कहा था-‘तेज धार का कर्मठ पानी/चट्टानों के ऊपर चढ़कर/मार रहा है घूंसे कस कर/तोड़ रहा है तट चट्टानी।’ शाम के धुंधलके में मित्रों के साथकेदार जी के घर के उजड़े दृश्य को देखना हमारे लिए पीड़ादायक है। यह शहर केदार जी की विरासत को बचा नहीं पाया, जबकि यहां ‘केदार नाथ अग्रवाल शोध संस्थान’ है। बताया गया कि जिस रात केदार जी का घर-द्वार ढहाया गया तब उनकी एक कुर्सी और स्वेटर बाहर पड़ा था जिसे पहचान कर एक मित्र उठा लाए जो स्मृति के रूप में उनके पास अभी भी सुरक्षित है।
कवि केदार की केन भी अब उदास है। उसकी धार मंद पड़ गई है। वह पहाड़ी चट्टानों से पहले की भांति टकराती नहीं। वेगहीन धारा में मछुआरों की दो नावें तैर रही हैं जिन पर बैठे बच्चे जाल फेंक कर मछली पकड़ने का ककहरा सीख रहे हैं। नदी का जल गंदा है। कुछ भक्तगण पन्नियों में भरी बची हुई पूजा और हवन सामग्री केन में फेंक कर उसकी बची हुई सांसों को अवरुद्ध करने का पुण्य-कार्य करने में संलग्नहैं। किनारे पर एक बड़ी पथरीली शिला को सीमेंट से समतल करके उस पर बड़े अक्षरों में ‘केन जल आरती स्थल’ लिख दिया गया है। यह नदियों की नैसर्गिकता को खत्म करना भी है। रह-रह कर मेरे भीतर इस पल केदार जी की एक कविता घुमड़ रही है-
‘आज नदी बिलकुल उदास थी/सोई थी अपने पानी में/उसके दर्पण पर/बादल का वस्त्र पड़ा था/मैंने उसको नहीं जगाया/दबे पांव घर वापस आया।’
केन पर केदार की अनेक कविताएं हैं जिसमें उनके समय की केन बहती है-‘सोने का रवि डूब गया है केन किनारे/नीले जल में खोज रहे हैं नन्हें तारे/चट्टानों ने देखा लेकिन एक न बोली/ज्यों की त्यों निस्पंद रहीं वे एक न बोलीं/वायु तैरती रही केन का नीला पानी/अनबुझ ही रह गई अजानी मर्म कहानी।’
केन के तट पर खड़े होकर बार-बार केदार की याद आती है। उनकी कविताओं में उनके मन की नदी सदी के बृहत सूर्य की तरह चमकती है जिसमें उसके पौरुष का पानी दृढ़ चट्टानों से टकराता है।
मैं फिर बांदा की सड़कों पर आ गया हूं जिन्हें पार करना आसान नहीं है। यहां की सड़कों पर छुट्टा पशुओं की भरमार है जिन्हें ‘अन्ना’ कहा जाता है। दीवारों पर जगह-जगह लिखा है ‘स्वच्छ बांदा, सुंदर बांदा। अन्ना प्रथा से मुक्त बांदा।’ प्रशासनिक विज्ञापन की इस इबारत में ‘अन्ना’ शब्द पढ़कर मुझे हँसी आ जाती है। मैं इसका एक चित्र उतार लेता हूं।यहां की सड़कों पर अब गधेड़े कम दिखाई देते हैं। केन नदी के रेत का बोझढोते इन पशुओं के झुंडों की यह दृश्यावली कभी इस शहर की पहचान थी।
केदारनाथ अग्रवाल बांदा कचहरी में वकील थे। वे यहां जिला बार संध के अध्यक्ष भी रहे।अदालतों के परिसर की छवियां हर कहीं एक जैसी होती हैं। वकीलों के बैठने की बेतरतीब जगहें। वादकारी जनता से घिरे वकुला साहिबान और उनके मुंशी और इन्हीं सबके मध्य केदारनाथ अग्रवाल की सफेद आवक्ष लेकिन उपेक्षित प्रतिमा।उनके निधन के 19 वर्षों बाद 2 फरवरी 2019 को संगमरमर की यह प्रतिमा पूर्व जिला जज शक्तिकान्त के सौजन्य से यहां लग सकी। मूर्तिकार ने केदार जी के चेहरे की रेखाओं को उकेर कर सचमुचउन्हें जीवंत कर दिया है, लेकिन साज-संवार के अभाव में यह स्मृति अब बदरंग हो चुकी है। वकील इस सबसे बेखबर हैं।
राठ लौटने के लिए केन के पुल से गुजरते हुए हमने फिर एक बार नदी के जल को देखा। एक ओर भूरागढ़ का किला और टुनटुनिया पहाड़, जिसका जिक्र केदार जी की एक कविता में है-‘दूर खड़ा टुनटुनिया पत्थर पास बुलाता/केन नदी की बांह पकड़ने को ललचाता/चौमासे में चढ़ी जवानी में मदमाती/केन नदी इठलाती गाती मिलने आती।’
साथी केशव तिवारी बताते हैं कि यहां पास में ही आशिकों का मेला लगता है। उनके अनुसार बामदेव से ही बांदा का नामकरण हुआ। सप्ताह भर में हमने राधामोहन गोकुल के नाम का पत्थर अजनर में लगवा दिया। ऐसा करते हुए लगा कि हमें सत्यभक्त जी की बहुत याद आई जिन्होंने उनकी स्मृति के लिए सर्वाधिक कार्य किया।
बांदा और राठ की सड़कों पर बेतहाशा धूल है। बुंदेलखंड के इस पहाड़ी इलाके में पहाड़ों को तोड़ने और काटने के क्रेशर हैं जिनसे प्रदूषण की अधिकता है।पहाड़ भी अब अतिक्रमण का शिकार हैं। कानूनी निगरानी के बाद भी केन और बेतवा से अवैध खनन का धंधाजोरों पर है। भेड़ी गांव में मां माहेश्वरी देवी के मंदिर में नवरात्र में खूब भीड़ जुट रही है। बेतवा में स्नान कर लोग यहां मत्था टेकते हैं। खबर है कि राठ में कारोना से जंग के लिए हवन करने वाले भी हैं।घर के बाहर दीवारों और दरवाजे पर शुभ विवाह की तारीख और लड़की-वर का नाम लिखने का चलन यहां की बस्ती में खूब प्रचलित है।
इन दिनों दशहरा की हलचल है, लेकिन निकट के मुस्करा क्षेत्र के गांव बिहुनी में इस दिनरावण नहीं मरता। उसकी पूजा की जाती है। यहां रामलीला मैदान के ठीक सामने रावण की 10 फीट ऊंची प्रतिमा लगी है जिसमें 9 सिर और 20 भुजाएं हैं। सिर के ऊपर मुकुट और घोड़े की आकृति है। सीमेंट और चूने से बनी रावण की यह प्रतिमा बैठने की मुद्रा में है।इस प्रतिमा का रंग लाल है।किसी को पता नहीं कि यह कितनी पुरानी कलाकृति है। स्थानीय ग्राम पंचायत इसकी देखभाल करती है। प्रतिमा पर प्रतिवर्ष नया रंग-रोगन किया जाता है। गांव में आज तक कभी रावण-दहन नहीं हुआ, जबकि रामलीला का आयोजन और लीला का मंचन होता है। गांववासी कहते हैं कि वेद के ज्ञानी रावण का वध करके हम अपने धर्मशास्त्रों का अपमान नहीं कर सकते। यहां दशहरा पर रावण का पूरा शृंगार किया जाता है। ग्रामीण इस पर श्रद्धा से नारियल चढ़ाते हैं। विजयदशमी मनाई जाती है लेकिन रावण नहीं जलता। जिस क्षेत्र में यह प्रतिमा स्थापित है उसे रावण पटी कहा जाता है। परंपरा है कि विवाह के बाद नवविवाहित जोड़े यहां आकर सिर नवाते और आशीर्वाद लेते हैं। यह प्रतिमा इस इलाके के लिए आस्था और आकर्षण का केंद्र है।आल्हा-ऊदल के महोबा में तो लोग पान खिलाकर भी दशहरा की मुबारकबाद देते हैं।
राठ में जवारा का धार्मिक जुलूस निकल रहा है।कई पुरुष कतार में चलते हुए कंधों पर लोहे की लंबी सरिया लेकर धीमे चल रहे हैं। आगे चलने वाले शख्स के गालों में सरिया का सिरा घुसा है।इसके पीछे स्त्रियों का हुजूम है जिनके सिरों पर मिट्टी के बर्तन(खप्पर) में गेहूं के उगे हुए नन्हें पौधे हैं। यह देवी की पूजा का दृश्य है। इसे सांग कहते हैं। हर तरफ दुर्गा प्रतिमाओं के साथ छोटे-छोटे जुलूसों में अबीर उड़ाते नई उम्र के लड़के-लड़कियोंका तेज गानों की धुनों पर नाचना किसी के मन में श्रद्धा नहीं उपजाता। इन प्रतिमाओं के विसर्जन की कुप्रथा भी जल प्रदूषण का एक बड़ा संकट है। अन्ना पशुओं से वाहनों की दुर्घटनाओं की खबरों के बीच इसके समाधान का कोई रास्ता प्रशासन के पास नहीं है। अन्ना फसल नष्ट कर देते हैं। किसान इससे दुखी हैं। जालौन के पड़नी गांव में दो बीघा खेत के जोतिहर की बाजरे की पूरी फसल अन्ना मवेशी खा गए। किसान जब सुबह खेत काटने पहुंचा तो बर्बाद फसल देखकर इस कदर सदमे में आया कि उसने अपनी जान दे दी।इन दिनों इस इलाके में डकैत गौरी की खोज-बीन में कांबिंग चल रही है। मध्य प्रदेश और इधर की पुलिस की मिली-जुली कोशिशों से इस गिरोह का एक सदस्य हाथ आ चुका है।
महोबा को सात साल पहले डार्क जोन घोषित किया गया था। इस जिले में एक भी सरकारी ट्यूबवेल नहीं है। ऐसे में पंजाब में ‘विविधीकृत किसान सम्मान’ प्राप्त खेती के विशेषज्ञ किसान मोहम्मद लाल खां मशविरा देते हैं कि बुंदेलखंड में सिर्फ कुदरती बारिश के सहारे अच्छी खेती नहीं की जा सकती।
इस स्थिति में खेत तालाब योजना बेहतर है। टपका तकनीक से भी फसलों कीसिंचाई पर विचार हो रहा है।यहां बरसात के पानी को संरक्षित किए जाने की बड़ी जरूरत है। इस जमीन पर बेर-बेल की बागवानी और चने की खेती फायदेमंद है। पता लगा कि पिछले दिनों यहां 115 मिमी कम बारिश के साथ मानसूनी मौसम विदा हो गया।पशुओं के नस्ल सुधार कार्यक्रम के अंतर्गत यहां कृत्रिम गर्भाधान के अनेक केंद्र चलाए जा रहे हैं।
इस विस्तृत क्षेत्र में चंदेलकालीन कीरत सागर, विजय सागर, कल्याण सागर और मदन सागर जैसे विशाल ऐतिहासिक तालाब हैं जिनके संरक्षण, रख-रखाव और सौंदर्यीकरण की व्यवस्था है। बावजूद इसके भू-माफियाओं और अवैध कब्जा करने वालों से यह पर्यटन जगहें भी अछूती नहीं हैं। विजय सागर पक्षी विहार में इस समय पानी कम है। इसमें विदेशी पक्षी खूब आते हैं। देसी पक्षियों में पनकौआ, टिटेर और जलमुर्गियों का भी यहां बसेरा रहता है। इसकी जलीय वनस्पतियों और गंदगी को इन दिनों लोहे के जाल से साफ करने की मुहिम चलाई जा रही है।
उस दिन हम पनबाड़ी के रास्तेमहोबा की कुलपहाड़ तहसील के बैंदो गांव भी पहुंचे जहां प्रेमचंद कुछ दिन रहे थे। एक बड़ा-सा पुख्तामकान जो अब गिरताऊ है।पुरानी ईंटों का दुछत्ता जोकुछ-कुछ हवेलीनुमा लगता है, जिसकाअंतिम सांसें गिनता लकड़ी का भारी-भरकम दरवाजा बहुत बड़ा नहीं है। इस पर ताला जड़ा है। थोड़ी ही देर में उसे खुलवाकर भीतर सेहम उसका दरो-दीवार देखते हैं। आंगन में कुछ पौधे हैं। ऊपर के कमरे में ब्लैक बोर्ड बने हैं जहां प्रेमचंद बच्चों को पढ़ाया करते थे। ‘आत्माराम’ कहानी उन्होंने यहीं रहकर लिखी। केशव बताते हैं कि यह सच्ची घटना पर आधारित है। बैंदो गांव का महादेव सोनार और उनके तोते के साथ उस पिंजड़े को याद करते ही यहां का परिवेश जैसे आज मुखरित होकर उस अमर कथा को बांचने लगा है-‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता, राम के चरण में चित्त लागा।’गांव के रास्ते पर किसानों की आवाजाही, तोते का अचानक उड़ जाना और फिर लौटकर एक पेड़ की फुनगी पर आ बैठना, कभी पिंजड़े के ऊपर या उसके द्वार पर उस तोते का आना जैसे मूर्तिमान मोह बन चुका था महादेव का और तोता मूर्तिमयी माया। तोते की खोज में ही अचानक महादेव के दिन फिर जाते हैं जब उन्हे अशर्फियों से भरा हुआ कलश चोरों से मिल जाता है। महादेव इस कथा में अद्भुत चरित्र है। इस इमारत के बाहर बड़ा-सा खुला परिसर है जिसमें अब सीमेंट के टायल्स लगवाकर पानी का एक बड़ा नल लगा दिया गया है। इसके सामने एक विशाल तालाब है, जो खूब स्वच्छ है। इसी जगह तोता यानी आत्माराम की समाधि है। तो फिर महादेव का क्या हुआ? उसके बारे में कई कथन प्रचलित हैं। एक तो यही कि आत्माराम के समाधिस्थ होने के बाद कई संन्यासियों के साथ महादेव हिमालय की ओर चला गया और वहां से नहीं लौटा और उसका नाम आत्माराम प्रसिद्ध हो गया।
6, फेज-5 विस्तार, पवन विहार पो. रुहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली-243006 मो.9760875491