वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

ॠतु जिस त्वरा से जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ रही थी, देखने वाले को उसे देखकर लगता था मानों उसे कोई रेल पकड़नी है।पर वह तो सीधी अपने कमरे के बरामदे के कोने में धरी मेज़ पर जाकर विराज गई थी और अपने विचाराधीन कागजों को सलटाने लगी थी।उसे देखकर यही लगता था मानों वह सदियों से यही काम करती रही है।ॠतु की देवरानी, जेठानियाँ, उसके मातहत कर्मचारी उसको आड़ से झाँक कर अविश्वास से देख रहे थे कि आख़िर यह हो क्या रहा है।वैसे यह बात थी भी अचरज करने लायक कि कोई बंदा इतनी सघन तपस्या के बाद बिना क्षण भर भी रुके, फिर से उसी तपस्या में लीन हो जाए।उम्र के इस पड़ाव से ॠतु जब मुड़कर देखती है तो वह स्वयं भी आश्चर्यचकित रह जाती है कि आख़िर इस ॠतु नामक जीव में ऐसी कौन-सी शक्ति थी कि न तो वह ऊबती थी, न ही थकती थी, और न ही किसी मोड़ पर मुड़ने का लालच ही उसके मन में आता था।वह तो बस काम और काम बस अहर्निश काम की ही माला जपती रहती थी और साथ ही उसे गुनती भी थी।

उसने सर्वप्रथम तो मदर टेरेसा से जुड़ी हुई जो संस्थाएं थीं, और उन जैसी ही दूसरी संस्थाएँ जैसे मारवाड़ी बालिका विद्यालय, पारिवारिकी, मुस्लिम पिछड़ा केंद्र करीमगंज, आदि  लगभग आठ-दस संस्थाओं में अपनी हाज़िरी दर्ज़ करवा दी।चूंकि सब उसकी निष्ठा के कायल थे, इसलिए सभी ने उसका तहे दिल से स्वागत किया।अब वह सुबह लगभग आठ-नौ बजे एक टिफिन में दो रोटियाँ और नींबू के अचार की फाँक लेकर निकल जाती और रात्रिभोजन के समय लौटती।उसके श्वसुर महोदय ने एकाध बार उसे प्यार से समझाया भी, पर ‘गुम्मा’ सी होकर उनकी सारी बातें गर्दन झुकाकर सुनने के बावजूद वह दिनों-दिन संस्थाओं के काम में और भी उलझती गई।इस चक्कर में उस पर दो-चार बार तो बड़े मलेरिया का प्रकोप भी हुआ, पर वह तो बचपन से ही बड़े लोगों की दीवानी थी।इसलिए मदर टेरेसा, महाश्वेता देवी आदि का घर पर आना और उनका उसे ॠतु-ॠतु कहकर पुकारना उसकी सारी थकान को हर लेता था।

ॠतु की व्यस्तताएँ तेज़ रफ़्तार से बढ़ती जा रही थीं कि अचानक फ़ोन की एक घंटी ने ॠतु की तेज़ चलती गाड़ी को एक झटके से रोका।उस फ़ोन की घंटी का असर इतना प्रभावशाली था कि ॠतु ने दाएँबाएँ देख कर पूछा, ‘‘सर, क्या आप सही कह रहे है?’’ ‘‘हाँ, जी, मैं हूँ तो ॠतु ही, पर सर क्या आपने ठीक से मेरा रोल नम्बर और नाम पढ़ा है?’’

जैसा ॠतु का तेज़ गति वाला बचपने से भरा मानस था, उसके अनुरूप होना तो यह चाहिए था कि रिज़ल्ट सनुते ही ॠतु की उछाल छत छू लेती, पर यह क्या? आज तो ॠतु किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी फ़ोन हाथ में ही लिए बैठी रही।कुछेक क्षणों के बाद उसके कानों में सास के ये शब्द पड़े, ‘‘अरे, बींदणी, तू भाट्ठ-सी (पत्थर-सी) क्यूँ बैठी है?’ तब उसे चेत हुआ और उसने खड़े होकर सास के पैर छूकर प्रणाम करते हुए अपना ‘फर्स्ट क्लास’ आना बता दिया।जब उन पर इस सूचना का कोई ख़ास असर नहीं दिखा, तो उसने अपनी सबसे छोटी ननद को जो कि इस पूरे घर में सबसे अधिक संवेदनशील और रस से भरा व्यक्तित्व थी को यह ख़बर सुनाई।यह ख़बर सुनते ही उसका अंग-अंग थिरकने लगा, और वह दोनों हाथ ऊपर उठाकर नारा लगाने लगी ‘‘ॠतु भाभी फर्स्ट आई है.. फर्स्ट आई है।’’ उसके उत्साह का ज्वार थामे नहीं थम रहा था जिसे देख कर ॠतु की देवरानी, जेठानियाँ, जली जा रही थीं, पर उनका ननदबाई पर कोई वश तो था नहीं जो उसे धमका देतीं, बल्कि उसके सामने ऊपर-ऊपर से झूठमूठ मुस्कुराना भी उनकी बाध्यता थी।

अभी रिज़ल्ट निकले देर नहीं हुई थी कि युनिवर्सिटी के कई-एक प्रोफेसर के फ़ोन आ गए कि वे ॠतु के गाइड बनने को तैयार हैं।यहाँ तक कि विभागाध्यक्ष महोदय जिन्होंने उसके युनिवर्सिटी में कक्षा में बैठने से लेकर उसके एडमिट कार्ड तक ढेरों -ढेर अड़ंगे लगाए थे, उन्होंने भी घुमा-फिरा कर ॠतु को ख़बर करवाई कि वे भी उसको अपने संरक्षण में रिसर्च करवाने को तैयार हैं।

अचानक विभागाध्यक्ष की इस सुख़बर ने किशोरावस्था के सोए हुए अनेकानेक क़िस्सों की अनेक रीलें ॠतु की आँखों के सामने खोल दीं।वह एक साक्षीचेता की तरह उन्हें देखती हुई, हल्के से हँसती हुई मुस्कुराने लगी, क्योंकि ॠतु के जीवन जीने की भंगिमा औेर तौर-तरी़के इतने विलक्षण थे कि उसका कोई जोड़ीदार आतशी शीशे से ढूंढने पर भी नहीं मिलता- मसलन उसने अपनी दक़ियानूसी ससुराल में अपनी सबसे बड़ी जेठानी को पढ़ाते वक़्त यहां तक कह दिया कि ‘‘ओह आपके दिमाग में तो भूसा भरा है यदि गोबर भी होता तो कुछ तो उपजता।’’ बेचारी बड़ी जिठानी जी विस्फ़ारित आँखों से उस बदतमीज़ लड़की को घूर रही थीं, पर यह उनका बड़प्पन था कि उन्होंने यह बात ॠतु के पतिदेव को छोड़ कर किसी से नहीं कही।ॠतु के पतिदेव ने न जाने क्या कह कर जिठानी जी को मनाया, जो उन्होंने यह बात अपने तक ही रख ली।

अपनी इस बेव़कूफ़ीपूर्ण बात के बाद ॠतु ने दृढ़ निश्चय किया कि भविष्य में वह ऐसी गलती मर कर भी नहीं करेगी।पर पानी और रेत पर कुछ भी लिखा कभी टिकता है क्या जो ॠतु का खुद से किया हुआ वादा टिकता? वह तो ठहरी ही वही घोड़े, वही मैदानवाली कहावत की मुरीद।

इसलिए दूसरे ही दिन ॠतु की बड़ी ननद ने उससे कहा कि ‘‘बड़े भैया जब तुम्हें देखने गए थे तो अंग्रेज़ी का अख़बार ले गए थे ताकि तुम्हारा अंग्रेज़ी का उच्चारण देख सकें।ॠतु के लिए यह बात एकदम अविश्वसनीय थी।इसलिए वह इसकी सत्यता परखने बड़े भैया के पास गई।बड़े भैया घर के सर्वेसर्वा थे और उनका दबदबा ऐसा था कि उनके घर में घुसते ही पूरा घर ‘अटेंशन मुद्रा’ में आ जाता था, और सुई-पटक सन्नाटा छा जाता था।ऐसे व्यक्तित्व के सामने ॠतु देवी निडर होकर उनसे पूछ रहीं, ‘‘भैया, सच कहिए कि अभी बड़ी ननद विमला बाई ने मुझसे कहा है कि आपलोग जब मुझे पसन्द करने आए थे तो हाथ में अंग्रेजी का अख़बार यह जाँचने के लिए ले गए थे कि ‘लड़की’ को अंग्रेज़ी ठीक से आती है कि नहीं? अंग्रेजी माध्यम में बी.ए.फायनल ईयर की लड़की को यह कहना कि तुम अख़बार पढ़कर दिखाओ, अपने आप में एक निहायत ही बेसिर-पैर की फ़रमाइश है।इस पर ॠतु ने आगे पूछा, तो पढ़वाया क्यों नहीं? उत्तर में बड़े भाईसाहब बोले, ‘‘साथ में बम्बईवाले मामाजी थे।उन्होंने बातचीत के बीच में जब तुम्हारा धड़ल्ले से अंग्रेज़ी बोलना देखा तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया।’’ इस पर जिस ॠतु ने थोड़ी देर पहले ही जो वादा ख़ुद से तमीज़ में रहने का किया था वह क्षणमात्र भी गँवाए बिना बोली, ‘‘अच्छा किया जो आपने मुझसे अख़बार पढ़ने को नहीं कहा वर्ना मैं वो अख़बार आपके मुँह पर दे मारती।’’ जिन बड़े भैया से पूरा परिवार और आसपास के लोग थर-थर काँपते थे, उनके सामने ऐसी कड़ी बात बिना घमंड और बदतमीजी के बेख़ौफ़ कह देना, उस घर के बाशिंदों के लिए कल्पनातीत था।पर पता नहीं ॠतु कैसी ‘करम साँड’ थी कि हर व्यक्ति उसकी सादगी और भोलेपन पर मर मिटता था।

आज भी यही घटा और बड़े भैया ने हँसकर कहा ‘‘भई, चलो सदा की तरह आज मैं तो ॠतु की मार से बच गया।’’ वैसे हक़ीक़त यह भी थी कि ॠतु का सौंदर्य और भोलापन बड़े भैया की भी विशेष कमज़ोरी थी।

ॠतु के बचपने की पटरियों पर दौड़ती तीव्रगतिवान रेल अचानक हिचकोला खाकर रुक गई, कारण था प्रो.सर श्रीवास्तवजी का फोन।उनसे ज़्यादा गंभीर व्यक्ति ॠतु के ईर्द-गिर्द तो कोई था नहीं, इसलिए वह थमक कर रुकी और फ़ोन पर ‘‘हाँ सर, हाँ सर,’’ करती नज़र आई।

श्रीवास्तव सर का सीधा सहज प्रश्न था कि ‘‘आपने अपनी थीसिस के लिए कौन सा विषय चुना?’’ इसका उत्तर देते वक़्त तेज़ तरार ॠतु भी संकोच से भर कर भूमिका बांधने के लिए शब्द ढूंढती हुई दाएँ-बाएँ बगलें झांकती दिखी।जब ॠतु ने यह कहा कि ‘‘सर, पहले तो महादेवी जी के कहे अनुसार ‘मीराँ’ पर काम करना तो शुरू किया था, जिसके लिए मैंने बीकानेर के नाहटा पुस्तकालय तक से किताबें मंगवा ली थी, पर थोड़ा सा काम करने के बाद मेरे हाथ मीराँ पर ‘पाठक जी’ का किया अत्यंत सुन्दर काम लगा तो मैंने ‘मीराँ’ पर काम करना छोड़ दिया।

‘‘ॠतु जी, ये सारे क़िस्से पुराने हैं।मेरी जिज्ञासा है कि आपने अब कौन सा विषय चुना और उस पर कितना काम कर लिया।’’

‘‘सर, मुझे पता है कि आपलोग अक्सर चर्चा किया करते थे कि हिंदी में तो नाटकों का ही अभाव है, तो उस पर काम करने में क्या आनंद आएगा।यहाँ तक कि एक दिग्गज साहित्यकार ने उस पर यह कह कर मुहर लगा दी कि ‘‘जब प्रभा ने मुझसे पूछा कि मैं तो सुबह से शाम तक नाटक खेलती रहती हूँ, तो नाटक पर ही रिसर्च क्यों न कर लूं तो मैंने उसे समझाया ‘‘देवी तुम तो तरह-तरह की भाषा, भाव और भंगिमा के नाटक खेलती हो, तो केवल हिन्दी नाटक पर रिसर्च कैसे करोगी?’’

ख़ैर साहब, ज़िद्दी ॠतु ने इधरउधर सिर फोड़ कर अंत में नाटक पर ही रिसर्च करने की ठान ली और अपने तारनहार श्रीवास्तव सर के दरवाज़े पर अलख जगाई और दीनबन्धु, करुणामय श्रीवास्तव सर उसका त्रास मेटने उसके यहाँ आ गए।

उनको देखते ही ॠतु भाव विगलित होकर उनसे ‘अंडर-बंडर’ प्रश्न करने लगी।वे ठहरे सागर से धीर-गंभीर उनके पल्ले उसकी उद्विग्नता का ‘क’ ‘ख’ ‘ग’ भी नहीं पड़ा।कुछेक देर बाद वे बोले ॠतुजी समझ में नहीं आ रहा कि आप सरीखा बहादुर और मेधावी व्यक्ति इतना विचलित क्यों हो रहा है।आप बेफ़िक्र रहिए मैंने थीसिस के लिए आपके विषय का चयन कर लिया है और हमें कैसे आगे बढ़ना है यह भी निश्चित कर लिया है।

‘थीसिस’ की किताबों के लिए मैंने आपकी मेज़ युनिवर्सिटी में और नेशनल लायब्रेरी में ‘बुक’ करवा दी है।अब आप ढेरों-ढेर किताबें लेकर उन पर रख सकती हैं जिन्हें और कोई नहीं ले सकता है।आप मनचाहे समय तक वहाँ पढ़ सकती हैं।’’

ये सारी बातें सुनकर ॠतु गद्गद् होती जा रही थी कि अचानक उसके ध्यान में आया कि ‘सर’ से विषय तो पूछा ही नहीं।जब उसने ‘सर’ से यह बात कही तो वे ज़ोरों से हँसकर बोले ‘‘चलिए आपको विषय पूछना याद तो आया, तो ॠतुजी आपका विषय है ‘स्वातंत्रोत्तर हिन्दी नाटक, विकास और संभावना’।’’

‘‘सर इतना लम्बा-चौड़ा और गहरा विषय?’’

ॠतु जी जब आप मेरे अन्तर्गत थीसिस कर रही हैं तो मैं आपको थोड़े में कैसे छोड़ सकता हूँ।’’ उस सारी रात ॠतु को सपने आते रहे और उसे लगता रहा, वह किताबों के बोझ तले दबी जा रही है।

दूसरे दिन ॠतु सुबह-सुबह ‘सर’ के घर जा धमकी और उन्हें साथ लेकर अपने दोनों ‘ठीए’ देख आई जहाँ उसे अपने भविष्य के कई साल ग़ुज़ारने थे।

(जारी)

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