वरिष्ठ लेखिका
‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।
आज स्कूल से आते वक्त बहादुर ने उसे बताया था कि बगल वाली राजशाही कोठी के मालिक बड़े बाबू ने अपनी ‘बागान-बाड़ी’ में परी सी सुंदर फूलबाई को बुला कर रख रखा है और एकाध दिन में उसका ‘खड़ा मुजरा’ अपने यार दोस्तों के बीच इस राजबाड़ी के रंगघर में करवाएंगे। यह पूछने पर कि खड़ा मुजरा क्या होता है, उसने राजबाड़ी के अपने दोस्त से पूछ कर बताया कि इसमें गाना गाने वाली महिला, खड़ी होकर कुछ कुछ लटके झटके के साथ नाचती भी है।
बहादुर तेज़-तर्रार ॠतु के बाकी के ढेर सारे प्रश्नों को खा गया, और बोला ‘‘बच्चा! तुम हमसे इतना बात मत पूछो, और अभी जो मेरा मुँह से निकल गया है, वह भी तुम माँ-बाबू जी को मत कहना।’’ ॠतु ने हामी में गर्दन तो हिला दी पर आठ वर्ष की उस ‘पटाखा-नानी’ के सिर में फूलबाई का नाम फिरकी वाले लट्टू की तरह घूमता रहा।
माँ-बाबूजी की रात वाली बात से उसकी उत्कंठा चरम सीमा पर जा पहुँची थी। दूसरे दिन स्कूल जाते वक्त उसने बहादुर को गलबहियाँ करते हुए ख़ूब दुलराया। उसकी इस प्रेम पगी अदायगी पर सीधा-सादा नेपाली निछावर होकर बोला : ‘‘बेबी! मालूम होता है, तुमको हमसे कुछ चाहिए।’’ गर्दन को जोरों से ‘हाँ’ में हिलाकर ॠतु बोली, ‘‘बहादुर भाई! सच बोलें तो आपको छोड़ कर मुझे कोई प्यार नहीं करता। माँ-बाबूजी कब्भी भी नहीं पूछते कि हमको क्या चाहिए? कहते हुए उसने अपनी बड़ी-बड़ी शंखनुमा आँखों में मगरमच्छी आँसू भर लिए। उसकी जल-भरी टलटल आँखें देखकर नेपाल के उस भोले पंछी ने उसे पुचकारते हुए अपने से चिपका कर कहा : ‘‘बेबी, क्या हम तुम्हारा चाचा नहीं है? हमको बोलो ना? तुमको क्या चाहिए?’’ इस पर सीधे-सादे बहादुर को अपनी तेज आँखों से जाँच परख कर वह बोली : ‘‘बहादुर भाई! भाई, आपको अपने दोस्तों से राजबाड़ी का सब हालचाल तो मालूम चल ही जाता है, इसलिए आप किसी भी तरह एक बार मुझे फूलबाई को दिखा दीजिए ना, प्लीज़? कह कर वह नाटकीया ॠतु बहादुर की पीठ से जोंक की तरह ज़ोरों से चिपक कर ऐसी झूठी-सच्ची सुबकियाँ भरने का नाटक करने लगी कि कोई मँजा हुआ अभिनेता भी क्या करेगा? शरीर से मोटा और अक़्ल में भोथा बेचारा गुरखा बहादुर! उस नौटंकी की फंकियों में ऐसा आया कि वह ख़ुद भी ‘रोंदला-सा’ हो गया। वह बेचारा जितना उस ‘बजराक’ की पतली बाहों को ख़ुद की पीठ से अलग करने का प्रयास करता, वह महारानी उतनी ही ज़ोरों से उसे जकड़ लेती। वह बेचारा ठहरा एक संवेदनशील प्राणी, कोई राक्षस तो था नहीं कि उसकी बाहें तोड़ देता, इसलिए उसने अपना माथा पीट कर कहा : ‘‘अच्छा बाबा, हमको पशुपति भगवान का क़सम कि हम तुमरा कहे मुजब ई सब करेगा। हे मेरी माँ! अब तो तू मेरी पीठ से उतरजा, नहीं तो मैं स्कूल के भीतर जाकर, पढ़ाने वाली दीदी को शिकायत लगा दूँगा।’’ धम्म से ज़मीन पर कूद कर बहादुर को ठेंगा दिखाती वह देवी स्कूल में घुसते हुए फिर से बोली, ‘‘बहादुर भाई, पशुपतिनाथ की क़सम याद है ना।’’
दूसरे दिन स्कूल जाते वक़्त उस ॠतु देवी ने असल राजबाड़ी के बड़े दरवाज़े पर काफी लोगों का जमावड़ा सा देखा। कोई छोटे विलयती लट्टुओं की माला से दरवाज़े को सजा रहा था तो कोई दरवाज़ों पर लगी हुई बड़े–बड़े राजशाही मुकुटों की पीतल की फोटुओं को दवाई लगा कर चमका रहा था, तो कोई अपने कंधे के गमछों से फ़िटनों और बग्घियों की गद्दियाँ रगड़ रहा था।
यह गहमागहमी देखकर उस ‘जबरजंग’ का तेज़ दिमाग ‘आठ सौ हॉर्स पावर’ की रफ़्तार से चलने लगा। उसने धीमे से बहादुर से हाथ छुड़ाया और एक ओर जाकर खड़ी हो गई। साफ़ा बाँधे ऊँचे कद के हट्टे-कट्टे बड़ी मूंछों वाले राजपूत जवान की बगल में गुलाब-सी नाज़ुक और अप्सराओं सी सुंदर चपल भंगिमा वाली उस बच्ची और उस दरवान ने अनायास ही वहाँ विश्वविख्यात चित्र ‘ब्यूटी एण्ड द बीस्ट’ की प्रतिकृति प्रस्तुत कर दी थी। भोले चेहरे वाली ॠतु ने कुछ देर तो दरवान की ओर एकटक देखा पर जब उन्होंने कोई नोटिस नहीं लिया तो अपनी नर्म कोमल उंगलियों से दरवानजी के हाथ को हल्के से हिलाकर धीमे स्वर में पूछा : ‘‘ठाकरा जी! आज राजबाड़ी को इतना क्यों सजाया जा रहा है?’’ उस लम्बी-चौड़ी मूर्ति ने पूरी तरह झुक कर एकदम क़ायदे से उत्तर दिया ‘‘बेबी साहिबा! आज ज़मींदार साहब का जन्मदिन है इसलिए पूरी रात जलसा होगा।’’ ‘‘जलसा?’’ ठाकरा जी! यह ज़लसा क्या होता है? ‘‘अरे मेरी फूलकुँवर! तू अब्बी इन सबका मतलब ना समझेगी।’’ अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को और भी फाड़ कर वह महामाया बोली : ‘‘ठाकरा जी! आप बड़े लेगों की ये बात ठीक ना है, जदि आप बड़े लोग हमें कुछ समझाओगे ई नहीं, तो हम बच्चे तो मूरख ही रह जावेंगे ना?’’
अब क्या था? मारवाड़ी-राजबाड़ी की उस छोरी ने अपनी बातों में हरियाणवी मिश्रित मारवाड़ी भाषा की लचक और लहज़े का जो ‘छौंक’ लगाया था उसे सुनते ही वह साढ़े छ: फीटिया साफ़ाधारी इतना ख़ुश हुआ कि उसने हुमक कर उस गुलाबी-परी को अपनी गोद में उठा कर कहा ‘‘हे मेरी लाडो! जलसे का मतलब होवै है, कई तरियाँ के नाच गाणे, जिसमैं जमींदार साहब के ख़ास मेहमान आवेंगे।’’ ‘‘नाच भी होवेगा ठाकरा जी।’’ ‘‘हाँ बेबी साहिबा, वो तो होणा ही है।’’ यह सुनते ही वह महारानी ठाकराजी की गोद से ऐसी तेज़ी से फ़िसली जैसे बच्चे फिसलने से फिसलते हैं। उसकी इस हरकत से बेचारे ठाकरा जी तो ऊक-चूक हो गए, और ओय! ओय! करते हुए उसे संभालने के लिए तेज़ी से आगे बढ़े ही थे कि बहादुर ने उनकी पीठ को दिलासा में थपथपाकर कहा : ‘‘साबजी उसको कुछ नहीं होगा। आप उसको जानता नहीं है, ऊपर आकाश में जब भगवान बदमाशी बाँटता था तब इसने उसे अपना सिर में सबसे जादा भर लिया था।’’
कहते हुए बहादुर ने दौड़कर आगे जाती उस ‘रंगबाज’ को गोद में उठाया और तेज़ी से स्कूल की ओर जाने लगा।’’
‘‘बहादुर चाचा! एक मिनट तो रुको इतना दौड़ते क्यों हों? अभी बहुत टाईम है।’’
‘‘देखो बच्चा! तुम अब चुपचाप स्कूल चलो और ख़बरदार अब तुम हमसे राजबाड़ी के लिए कुछ भी नहीं बोलेगा।’’
‘‘अरे बुद्धू चाचा! तुम इतना डरते क्यों हो? हमलोग वहाँ कोई चोरी तो करेंगे नहीं, मुझे तो ये सबलोग बूढ़े बाबाजी के साथ ‘गणेश टाकीज’ में देखे हुए ‘राम राज्य’ सिनेमा के राजा राम और रानी सीता जैसे लगते हैं इसीलिए मैं इन्हें पास से देखना चाहती हूँ।’’
‘‘ओरे मेरी माँ हे देवी, तुम कभी उछल कर इनको छू मत लेना कि ये लोग असली है या नकली। बच्चा यदि ऐसा हो गया तो सोच लेना कि तुम्हारा बहादुर चाचा का माथा गरदन से अलग हो जाएगा।’’
अपनी बड़ी आँखों को कनपटियों तक खींच कर वह घर की बड़ी–बड़ेरियों की तरह बोली ‘‘चाचा, क्या मैं कोई बुद्धू लड़की हूँ, जो यह सब करके अपने प्यारे चाचा को डाँट–पिटवाऊँ?’’ कहकर वह अपने दोनों हाथों को बहादुर के गले में डालकर लाड़ से इधर से उधर झूलने लगी। बेचारा बहादुर हिचकोले खाता पशुपति नाथ का नाम जपता उसे स्कूल के गेट पर पटककर भागा ही था कि पीछे से उस पटाख़ा की आवाज़ आई ‘‘चाचा, शाम को जल्दी घर जाएँगे, आज खेलेंगे नहीं, तुम टाइम से आ जाना।’’
आज यह महारानी जल्दी घर जाकर क्या तूफ़ान उठाना चाहती है? के रेशों को मन ही मन खोलता हुआ वह नेपाली पंछी, जब उस चंचल तितली को लेकर लौटा तो एक झपाटे में वह महामाया असल राजबाड़ी के लम्बे-चौड़े राजपूत ठाकराजी के कान में कुछ ़फुस़फुसाती नज़र आई और ठाकरा जी भी बाअदब-बामुलाहिज़ा के अंदाज़ में पूरे मनोयोग से उसकी बात सुनते दिखे, ख़ुर्दबीनी करने पर पता चला कि इसका कारण था वह उनके गाँव की थी, इसलिए ठाकरा जी उसे इतनी तवज्जुह देते थे।
यह दृश्य देखकर बहादुर ने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा : ‘हे मेरी नौटंकी तुम बांगाली के सामने बांगाली बन जाता है, माँ-बाबूजी के सामने हिन्दुस्तानी, बाबू का अंग्रेज अफ़सर के सामने क्रिस्तान बनकर गिटिर-पिटिर करने लगता है और इस ठकराजी के सामने कैसा-कैसा तरह का मारवाड़ी बोलता है, तुम आख़िर…? बहादुर के वाक्य को बीच में ही रोक कर वह ‘‘दशभुजाधारी देवी’’ बोल पड़ी, ‘‘बहादुर रामरो छोरा ‘ऐ माँ’ बेबी साब्बास तुम तो नेपाली भी जानता है’’ उसके भ्रम को जस का तस छोड़ वह अजूबा तेज़ी से आगे बढ़ी और दोनों राजबाड़ियों को विभाजित करती प्राचीर के अंत में जाकर खड़ी हो गई। दरअसल, यह मारवाड़ी राजबाड़ी इस असल राजबाड़ी के पुराने मालिकों द्वारा ही अपनी तवायफ़ प्रेयसी को उपहार स्वरूप भेंट की गई थी। यह विभाजन प्राचीर वर्तमान मालिकों द्वारा बनाई गई थी जिनके मुसाहिबों ने प्राचीर के अंत में एक ‘खोंप’ सी बना ली थी जिससे वे असल राजबाड़ी के क़ीमती सामानात आराम से पार कर लेते थे और यह सिलसिला अभी भी ज़ारी था।
बहादुर ने जब कमर पर दोनों हाथ धरे, चेहरे पर मुस्कान का पहाड़ लिए, उस वीरबालिका को उस ‘खोंप’ के पास खड़ा देखा तो उसे साँप ही सूंघ गया और उसका सिर चक्कर घिन्नी-सा घूमने लगा। वह ‘हे काली कलकत्ते वाली’ वाक्य को मंत्र की तरह उचारते हुए झट से उस ‘भवानी’ के पास पहुँच कर शब्दों को चाशनी में डुबो-डुबो कर अत्यधिक मीठे स्वर में कहने लगा : ‘प्यारा बेबी! आज तुम इस कोना में क्यों खड़ा है, आओ जल्दी से घर चलें, माँ तुम्हारा चिंता कर रहा होगा, आओ बेबी चलें।’’
‘‘बहादुर भैया, तुम मुझे ज़्यादा उल्लू मत बनाओ। सच कहो, मुझे इस छेद के पास खड़े देखकर तुम्हारी जान निकल गई है ना? सारे दिन कहते रहते हो कि बेबी हम तुमको सारा दुनिया से ज़्यादा प्यार करता है, झूठे कहीं के?’’ कहकर टेढ़ा-बाँका मुँह बनाकर बहादुर की नकल उतारती उसकी मुख-मुद्रा देखने के क़ाबिल थी। यदि भरत मुनि इसे देख लेते तो शायद उन्हें अपने नाट्य शास्त्र में एक अध्याय इस छुटकी-सी विशिष्ट नायिका की भंगिमाओं पर अवश्य ही जोड़ना पड़ता।
भोला भंडारी बहादुर मन ही मन यह सोचता हुआ कि इस पटाखाबम को इस रास्ते का पता कैसे चला, और यह देवी इस रास्ते की खोज़ कर क्या गुल खिलाने वाली है? उसने एकाध बार उसे टटोलने की कोशिश में उनकी चिरौरी कर पूछा भी, पर उस बंदी ने उसका हाथ झटक दिया और यह राज़ उसे किसी भी तरह नहीं बताया। मन-मसोस कर उसके साथ घसिटता सा बहादुर और ॠतु जब घर के सामने पहुँचे तो उन्हें दरवाज़े पर बग्घी खड़ी दिखी। बग्घी देखते ही ॠतु के पर निकल आए और वह उड़ कर माँ-बाबूजी के दरबार में जा पहुँची।
‘‘माँ, क्या आपलोग बाहर जा रहे हैं? दरवाज़े पर बग्घी खड़ी है, और बाबूजी भी झकाझक कुर्त्ता-धोती पहन कर तैयार हैं।’’ माँ ने अपनी कुहनियों तक के झालरदार ब्लाऊज वाली तर्जनी से कान के पीछे तक हल्का सा इत्र लगाया और बोलीं : ‘‘हाँ, बेटा, हमलोग ‘नटी-विनोदिनी’ नाटक देखने जा रहे हैं। सुना है, इसे अनेक बड़े लोगों की प्रशंसा हुई है और यहाँ तक कि ठाकुर रामकृष्ण परमहंस ने भी इसे दिया है अपना आशीर्वाद।’’
सारी दुनिया की सादगी और भलाई चेहरे पर समेट कर वह महामना बोली : ‘‘माँ क्या आपलोगों को आने में देर होगी?’’
‘‘बेटा, कुछ देर तो हो ही जाएगी इसलिए मैं चम्पा को कह दूँगी कि तुम्हारे पास ही रहे।’’
इस पर वह छप्पन छुरी बोली : ‘‘माँ, तुम मेरी चिन्ता मत करो। मुझे बहुत पढ़ाई करनी है, और रामू भैया, बहादुर भैया, महाराज जी ये सब भी तो घर पर ही हैं।’’
बेटी के मुँह से ऐसी समझदारी भरी बातें सुन कर, माँ पुलकित हो गईं और लाड में उसे अपने से चिपका कर बोली, ‘‘मेरी बेटी, दुनियाँ की सबसे अच्छी बेटी है।’’ इस दृश्य को देखकर आदमज़ाद की तो हैसियत ही क्या! वह ऊपर बैठा नट तक चकरा गया था, क्योंकि वह जानता था कि भविष्य के गर्भ में तो कुछ और ही छिपा है।’’
इधर माँ-बाबूजी नाटक के लिए निकले और उधर वह तूफ़ान मेल घेरदार फ़ार्क पहने हाथ में एक छोटा सा कागज़ लिए बहादुर की पीठ पर हल्का सा धौल मार कर यह बोलती नज़र आई, ‘‘बहादुर भैया, झट से उठिए, चलना है।’’
‘‘कहाँ? इतना रात को कहाँ जाना है बेबी। उसके प्रश्न को अनसुना कर उसे हाथ से खींच कर उठाते हुए ठुनकती-सी ॠतु जी बोलीं : भैया, आज जलसा है न? याद है, आपने पशुपतिनाथ की कसम खाई थी, कि मुझे फूलदेवी के दर्शन कराएँगे, तो चलिए?’’
‘‘हे मेरा अम्मा! हम तुमको बड़ा कोठी में ले जाने का वादा तो किया नहीं था। बेबी हम तुम्हारे सामने हाथ जोड़ता है, मुझको मराने का काम मत करो’’ कह कर वह जूड़ी बुखार के मरीज़ सा काँपने लगा और वह देवी? वह! तीन-चार वर्ष की उम्र में बड़े मामा के साथ दिल्ली में देखी हुई राष्ट्रपति की झाँकी के चारों ओर अकड़ कर खड़े सेनाध्यक्षों की तरह तन कर खड़ी रही। बहादुर ने उसे बहुत ‘बहलाने-फुसलाने’ की कोशिश की, पर वह देवी तो अंगद के पैर सी वैसी की वैसी अड़ी रही। झख मारकर बहादुर ने अंतिम शस्त्र चलाते हुए कहा : ‘‘बेबी राजबाड़ी का गेट पर तो बड़ा-बड़ा दरवान खड़ा है, हमलोग अंदर घुसेगा कैसे? वे लोग तो हमको बंदूक से मार ही डालेगा?’’ सुनकर उस मूर्ति में हरक़त हुई और वह लेफ्ट राइट की मुद्रा में बहादुर को हाथ से पीछे आने का इशारा करते हुए पैरो को दबाकर रखती हुई आगे बढ़ चली। वशीकरण मंत्र मारे हुए जीव की तरह भौंचक्का सा बहादुर उस देवी के चरण चिन्हों पर संकरी गलियों से होते हुए पिछवाड़े की ओर चल पड़ा और आश्चर्यजनक ढंग से वे लोग रंग-दरबार के पिछले दरवाज़े पर जा खड़े हुए।
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