वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

बहादुर आँखे फाड़े भारी मखमली पर्दों पर तीन-चार तलिया ‘झूमरों’ से जगमगाते उस परी लोक को देख कर सिसकारी भरने वाला ही था कि उसे रास्ते भर दी हुईं ॠतु की हिदायतें याद आ गईं, जिसमें अंत की यह चेतावनी भी शामिल थी कि यदि बहादुर कोई भी भूल करेगा तो वह वीरबालिका वहाँ से रफू-चक्कर हो जाएगी और यदि फिर भी वे लोग पकड़े गए तो वह इजलास में बहादुर को पहचानने से भी मुकर जाएगी।

साठ वर्ष पहले घटी इस घटना का एक ऐसा पूर्ण-चित्र ॠतु की आँखों के सामने आ खड़ा हुआ था कि वह स्वयं अपनी पूर्वदीप्ति में उभरे इस सरस, सजीव, छायाचित्र को देखकर स्तंभित थी। उसे अपनी चित्रोमय पूर्ण स्मृति का ज्ञान तो था, और उसने अपनी इस विलक्षण प्रतिभा से बचपन से ही औरों को एवं स्वयं को भी चौंकाया था, पर एक साधारण सी घटना उसे इतनी गहराई से सही नुक़्तों सहित याद होगी, यह उसकी भी सोच से परे था।’’

तभी एक आवाज़ ने उसके स्मृतियों के रेले को वापस पटरी पर ला दिया। फूलबाई कत्थक के परण में चक्कर पर चक्कर लगा रही थीं कि पर्दे के नीचे रखा पीतल का एक बड़ा सा नक्काशीदार गमला लुढक गया। महफिल तारसप्तक पर अपने पूर्ण यौवन में सुर, सुरा और सौन्दर्य को साथ लिए मय ताल-छंदों के गमगमा रही थी कि इस विवादी स्वर ने वहाँ तहलका मचा दिया। जमींदार बाबू के मुसाहिब बिजली की गति से उस कोने की ओर दौड़े। इकहरे बदन की दुबली-पतली ॠतु ने अपनी साँस रोक ली और मखमली मोटे पर्दे से एकाकार होकर अस्तित्वहीन हो गई। मुसाहिबों ने जब इधर-उधर काफ़ी खोज़बीन की तो अचानक उन्हें कोने में दुबकी ज़मींदार बाबू की लाडली सियामी बिल्ली दिखाई पड़ी, फिर क्या था एक मुसाहिब ने उसे लपक कर उठाया और अपने दुप्पटे में उसे लपेट कर यों ले चला गोया वह बिल्ली न हो, इस राजबाड़ी का नवज़ात वारिस हो। इसके साथ ही जमींदार साहब ने आँख के इशारे से नृत्य को वहीं से उठाने का आदेश दिया, जिस ताल पर वो थम गया था।

सारी महफ़िल उस समय ‘अश् अश्’, ‘वाह-वाह’ कर झूम उठी जब फूलबाई ने ताल के पौने हिस्से से उसे ज्यों का त्यों का उठा लिया और उसी गति से वापस चक्कर लगाने लगी। उनके इस अभूतपूर्व तालमेल पर न केवल धरती के मानुष बल्कि आकाश के देवता एवं अप्सराएँ तक चकित रह गए थे। ज़मींदार साहब ने उनकी इस कारीग़री पर अशर्फियों से भरी एक थैली उन पर न्यौछावर कर दी। सिर को ज़मीन तक लाकर फूलबाई ने बिना ताल भंग किए खास अदायगी से उस थैली को चूमते हुए उसे अपने सिर से छुआया और फिर उसे आहिस्ता से अपनी परिचारिका के बढ़े हुए हाथ में थमा दिया।

फूलबाई का झुकझुक कर किए हुए लखनवी तहज़ीब के जलवे और सली़के से ॠतु स्तंभित थी, और उसे पक्का विश्वास हो गया था कि हो न हो बड़े ज़मींदार बाबू ने इन्हें परीलोक से चुराया है। वह अपनी बड़ी आँखों को बिना पलक झपकाए एकटक उस परी को देखे जा रही थी कि उसे बहादुर द्वारा हल्के से खींचा गया हाथ भी वज्र सा कठोर लगा और वह आकाश में उड़ना भूल सीधी धरती पर आ गिरी।

बहादुर उसे खींचता हुआ ले जा रहा था और वह अपनी खुली आँखों से भी कुछ न देखती हुई खिंची हुई चली जा रही थी। मारवाड़ी राजबाड़ी पहुँचकर बहादुर ने चम्पा आया को इशारे से बुलाया और दोनों ने मिल कर किसी और ही लोक में विचरण करती उस महामाया की काया को बिस्तर पर लेटा दिया। आश्चर्यजनक है यह तथ्य कि  ॠतु एक भी शब्द बोले बिना एक मूर्त्ति की तरह सीधी सो गई।

आज की ॠतु साक्षी-चेता की तरह इस दृश्य की मीमांसा कर इस नतीजे पर पहुँची कि एकदम अनोखी अनजान दुनियाँ से प्रथम साक्षात्कार होने पर उस छोटी-सी बच्ची का यह हश्र होना एकदम स्वाभाविक था। आज साढ़े छ: दशक बाद भी जब एक उम्रदराज़ और परिपक्व महिला उसके स्मरण मात्र से इतनी प्रभावित हो रही है, तो उस बच्ची का उस सम्मोहन में अपनी सुधबुध खो बैठना तो एक साधारण-सी बात है।

लाड़-दुलार से पगे हँसते खिलखिलाते दिन पँख लगाकर उड़ रहे थे, और उनके साथ उड़ रही थी सबकी आँख का तारा ॠतु। बहादुर के साथ दौड़-दौड़ कर किलकारियाँ भरती ॠतु को उस दिन पाला मार गया, जब वह अपनी मस्ती में कूद-कूद कर सीढ़ियाँ उतरती हुई अचानक एक पत्थर-सी कठोर महिला से जा टकराई, जिसने उसे इतने ज़ारों से धक्का दिया कि वह ऊपर से नीचे तक डर से काँपती हुई, बहादुर और सरकार बाबू से जा चिपकी।

तभी उसके कानों में नुकीली लकड़ी जैसे हाथ-पैरों वाली, उस कृशकाय महिला का कर्कश और चीख़ता हुआ स्वर तपते सीसे सा आया ‘‘ऐ सरकार बाबू, लगता है यह बड़दा की वही बिगड़ैल बेटी है, जिसकी कीर्ति मैं मुर्शिदाबाद से सुनती आ रही हूँ। आप इसे और इसके माँ-बाप को साफ़-साफ़ समझा दीजिएगा कि अब इस घर की मालकिन मैं हूँ, ये लोग नहीं, इसलिए न तो यह इठलाए और न ही ज़रा भी हेकड़ी दिखाए क्योंकि आपको तो याद ही होगा कि सौतेले भाई गणपत के बेटे की कनपटी पर मेरे मारे तमाचे से न केवल उसका पूरा चेहरा तीन दिन तक सूज रहा था, बल्कि उसे तेज़ बुख़ार भी हो गया था। आप तो जानते ही हैं मेरे भाइयों के चोंचलों को! उसी वक़्त कलकत्ते का सबसे बड़ा डॉक्टर आनन-फानन में यहाँ आ गया था और उसने कहा था ‘‘ख़ुदा का शुक्र है कि कान का पर्दा ठीक है, फटा नहीं, वर्ना इतने छोटे बच्चे को इतने ज़ोरों का चाँटा पड़ने से कुछ भी हो सकता था, साथ ही आपको यह भी ज़रूर याद होगा कि इस पर भी गणपत और उसकी पत्नी ने मुझे एक शब्द तक नहीं कहा था, उलटे वे अपने बेटे को ही समझा रहे थे कि उसे बदमाशी नहीं करनी चाहिए थी।

इसके उलट जैसा आप सबने भी देखा है कि केदारनाथ ने अपनी इस बेटी को कितना अधिक सिर पर चढ़ा रखा है। उसकी ज़ुबान तो हर वक़्त एक ही रट लगाए रखती है, ‘‘मेरी ॠतु इतनी मेधावी, मेरी ॠतु पढ़ने में इतनी तेज़, मेरी ॠतु फलाँ, मेरी ॠतु ढिमकान, इतना ही नहीं उसने सबसे सौ बार कहा होगा, ‘‘याद है ॠतु ने प्रसिद्ध कवयित्री  सुभद्रा जी चौहान के सामने उनकी पूरी कविता इतने सुंदर ढंग से सुनाई थी कि वे इस पर मुग्ध हो गई थी और उन्होंने प्यार से इसका नाम अर्चना रख दिया था। इतना ही नहीं एक दिन वह मुझे भी सम्बोधित कर बोला था, ‘‘दीदी याद है ॠतु न, एण्ड्रयूल कम्पनी के स्टैरेक साहब और गैलवे साहब से कैसे शुद्ध अंग्रेज़ी में फटर-फटर बातें कीं थीं, कि वे लोग इस पर मुग्ध होकर कहने लगे थे कि इसे हमें गोद दे दीजिए।’’

हुँह, झूठे  परले सिरे के माना कि यह लड़की साफ रंग की है, पर इसे अंग्रेज़ साहब गोद लेना चाह रहे थे, यह बात केदार यदि गंगाजी में भी खड़ा होकर कहे, तो भी मैं ना मानूँ’’

अपनी ऐसी ही ढेरों कटुक्तियों की माला जपने के बाद, कृष्णा बुआ जब वहाँ से जाने लगी तो जाते वक्त ॠतु के सिर में ज़ोर से ‘ठोका’ मारना नहीं भूली। आख़िर वे अपने उसी बदमाश भाई की बहन जो ठहरी जिसने माँ का सात किलो सोना बेच खाया था और यह घर भी आधा गिरवी रख आधा बेच खाया था। रसूखवाले माँ के भाइयों ने कहा भी था, ‘‘जीजाजी, हमें अनुमति दीजिए हम इनको हथकड़ी लगवा देंगे’’ इस पर केदारनाथ जी ने साफ़ ना कर दिया था। उनका कहना था कि जिसे अपने बच्चे की तरह पाला है, उसे जेल कैसे भिजवा दें। हालाँकि इस बात पर उन्हें जीवन भर पत्नी के ताने सुनने पड़े थे।

आश्चर्यजनक ढंग से ऊपर से नीचे तक रईसी में पगे हुए मारवाड़ी राजबाड़ी के बाशिन्दों ने जिस ख़ूबसूरती से अपने रहन-सहन को उच्चवर्ग से मध्यवित्त में बदल लिया था, वह क़ाबिले तारीफ़ था। परिवार के किसी भी सदस्य के माथे पर वर्तमान के कष्टों की कोई शिकन नहीं थी, बल्कि वे कभी भूले से भी कोई फरमाईश करना तो दूर हर वक़्त केदारनाथ जी और कांता जी को सांत्वना देते नज़र आते थे।

केदारनाथजी ने मारवाड़ी राजबाड़ी तो छोड़ दी थी पर उन्होंने जीवन जीने के अपने ख़ास तौर-तरीकों को नहीं छोड़ा था। हालाँकि वे शिवठाकुर गली के चौक वाले मकान में किरायेदार बनकर आए थे, पर अपनी मेधा के कारण उन्होंने वहाँ भी अपनी पौबारह कर ली थी।

सबसे पहले तो उन्होंने बड़े कमरे के बरामदे में ऊपर अटारी पर एक टंकी रखवाकर वहाँ एक स्नानघर बना लिया, जिसमें चौबीसों घंटे पानी का इन्तज़ाम था और हाथ धोने का एक बेसिन भी लगवा लिया था। ऊपर से वे काम के लिए बहादुर को और खाना बनाने के लिए मिसरानी जी को भी लाना नहीं भूले थे। वे राजबाड़ी से छोटी वाली रेफ्रीजरेटर और छोटी वाली गाड़ी भी साथ ले आए थे।

जन सैलाब से उफ़नते उस मक़ान के सौ-सवा सौ बाशिन्दों में किसी के भी पास ये ठाठ क्या, ऐसा एक भी सरंजाम नहीं था। हालांकि केदारनाथजी ख़ाक़ती की हालत में वहां आए थे, पर उनके मन मिज़ाज, बातचीत का सलीक़ा, उठ-बैठ, सब पर आभिजात्य वर्ग की छाप उन्हें औरों से अलग ठहराती थी। ऊपर से वे परले सिरे के मिलनसार और ऊँचनीच का क़ान कायदा रखने वाले व्यक्ति थे।

केदारनाथ जी की अत्यंत ख़ासम ख़ास ख़ासियत यह थी कि वे कभी पीछे नहीं देखते थे न ही अतीत की परछाइयों में जीते थे। वे हमेशा उगते सूरज के साथ दौड़ने का हौसला रखते थे। उन्होंने अपने बूते पर एक  एकदम नया काम ‘स्टोर्स सप्लाई’ का शुरू कर दिया, और माँ के मोती और पन्ने के गहने बिकवाने बंद करवा कर, अपनी कमाई से घर खर्च चलाने लगे। कांता देवी भी केदारनाथजी की तरह ही कर्मठ थीं, और फ़ख़्र से कहा करती थीं,

‘‘बच्चों मेहनत से थकना मत, किसी से डरना मत, याद रखना तुमलोगों में हरियाणवी ख़ून है, जो राजस्थान और पंजाब के मिलन से बना है।’’

ॠतु ने रगड़-रगड़ कर आँखें मल कर देखा, उसे लगा शायद वह खड़ी-खड़ी ही सो गई थी, और यह सब एक सपना था या एक ऐसी हक़ीक़त थी, जो उसकी आँखों के सामने खुलती तेज़ रफ़्तार की रीलों में इधर-उधर बिला गई थीं और शायद इस हक़ीक़त को उसका दिल और दिमाग़ स्वीकार नहीं करना चाहते थे।

तभी पड़ोस की सरला ने ठेठ मारवाड़ी लहज़े में ॠतु को झकझोरते हिलाते हुए कहा, ‘‘ए रित्तु, तू हमेसा आँख्या फाड़ कर हर चीज नै अचरज से क्यूं देखती रहब।’’

सरला की इस उक्ति ने ॠतु को यथार्थ के ठोस धरातल पर ला खड़ा किया, और उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में शिवठाकुर गली के लोगों से बजबजाते उस पाँचतलिया बड़े से मकान को आत्मसात् कर लिया। परिणामस्वरूप कुछ ही दिनों में उस मकान की कम पढ़ी-लिखी लड़कियों की पाँत की पाँत इस तरह ॠतु के साथ चिपक कर रहने लगीं जैसी घर लौटते पक्षियों की पाँतें होती हैं।  (जारी)