वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

क्या हुआ जो पटाखा ॠतु राजबाड़ी की जगह शिवठाकुरगली के उस जन संकुल मकान में आ गई थी, पर उसके स्वभाव का चटपटा और करारापन तो ढलने की जगह और भी ज़्यादा ‘सान’ पर चढ़ गया था। यहाँ आकर उसकी दोस्ती मात्र मकान के लड़के-लड़कियों तक ही सीमित नहीं रही थी, बल्कि ड्योढ़ीवाले धोबी की दुकान में टंकी में तैरती मछली और उसका मालिक, या कि रबड़ीवाले चौबेजी और उनका मोटा बेटा भोजू,  ब़र्फ की चुस्कीवाले घीसाराम जी, लाल ओंठ रंगते पान बनाने वाले नत्थू पनवाड़ी; सबके सब उसके मुरीद थे और वह हर दिल अजीज़ थी। जब वह स्कूल बस से गली की नुक्कड़ पर उतरती तो वहां बसन्त की बयार सी एक ख़ुशनुमा ध्वनि गूंजने लगती, यथा: ‘आ गई बिटिया’, ‘आ गई ॠतु दीदी’, ‘आप आ गए तो हम बरफ़ घसें बिटिया रानी’, ‘अरे बिटिया आज रबड़ी खइबे कि ताज़ा रस कदम’, साथ ही पुचके वाले रामफल बाबा एक दोने में चार पुचके सजाकर यह पूछते नज़र आते  कि बिटिया, ‘अबही खइबे, या ठहर के खइबे’, गोया वह छुटकी सी ॠतु एक बच्ची न होकर विलायत की महारानी विक्टोरिया हो।

उसके ये सारे ठाठ-बाट देखकर एक दिन ॠतु से बड़ी पुष्पा ने कांता देवी से पूछा भी था ‘माँ यह सारी दुनिया इस ॠतु को क्यों इतना सिर चढ़ाती है?’ इस पर कांता देवी ने अपने साधारण उत्तर से उसे ॠतु के जीवन जीने का मूल मंत्र दे दिया था, उन्होंने कहा, ‘पुष्पा बेटा, ॠतु का मन बहुत ही सीधा और साफ़ है। वह सबको सच्चे मन से प्यार करती है। यदि ध्यान से देखो, तो वह सड़क साफ़ करनेवाली जमादारिन से भी उसी अपनेपन से बतियाती है जैसे अपने दोस्तों से। उसका यह अद्भुत गुण सहज ही सबका मन जीत लेता है, और सारी दुनिया उसके लिए पलक पॉवड़े बिछा देती है। अब अपनी पड़ोसन ताई को ही लो, वे एक नम्बर की कंजूस हैं और पूरे मकान में किसी से भी सीधे मुँह बात नहीं करतीं, पर वे भी ॠतु पर जान छिड़कती हैं। वे उसे न केवल रोज़ अपने साथ गंगाजी नहाने ले जाती हैं, बल्कि लौटते समय उसके पूरे चेहरे पर छापे छपवाने का पूरा एक आना भी अपने-पॉकेट से ही देती हैं।’ कांता देवी ॠतु के व्यवहार की मीमांसा करते समय इस तथ्य को रेखांकित करना भूल गईं कि चूँकि ॠतु के सौंदर्य के सामने कालिदास की नायिकाएं भी पानी भरती थीं इसलिए इन संबंधों का एक कारक-तत्व ॠतु की मनमोहिनी अप्रतिम सुंदरता भी थी।

अजब क़िस्म का बेपरवाह अंदाज़, जिसमें न तो इस बात का कोई भान था कि वह लड़की है, न ही अपने सुंदर होने का कोई अतापता, वह तो बस पहाड़ी झरने सी कूंदतीफाँदती रहती और उसी रौ की विवेकानंदी रफ़्तार से ढेरों रिसाले पढ़ डालती थी या बेसिरपैर का कुछ लिख लेती थी। इस लिखने के चक्कर के कारण ही उम्र के सातआठ बसंतों के समय ही उसके दो तीन बचकाना प्रेम प्रकरण भी हो चुके थे, जो उसके पत्र लिखने के शौक़ के कारण हुए थे।

उम्र में उससे पाँच-छह वर्ष बड़े  लड़के उससे सचमुच में प्रेम कर, बाजारु किताबों से नक़ल कर उसे प्रेम-पत्र लिखने लगे थे। एक बार उसके बस्ते से सारे पत्र स्कूल की बड़ी लड़कियों के  हाथ लग गए फिर क्या था, उन्होंने उसकी मोटी-मोटी चोटियाँ खींच कर और गालों को चटका कर कई दिनों तक उसका ऐसा माख़ौल उड़ाया कि उसने फिर कभी भी चिट्ठी न लिखने की कसम खा ली। इस घटना के बाद ॠतु ने अपने प्रेम पत्र लिखने वाले दोस्तों को भी अपनी लिस्ट से काट दिया।

इन्हीं दिनों ॠतु जी अपने बचपने के कारण एक कबाड़े में फंस गई। बेपरवाह, बिंदास ॠतु को न तो यह अंदाज़ था कि उसका शरीर उसकी उम्र के अनुपात में दूनी तेज़ी से बढ़ रहा था, न ही उसे यह अंदाज था कि उसका दोस्त कन्हैया लड़का है और वह लड़की। हालाँकि उस मकान की संस्कृति एवं तौर-तरीक़ा लड़के-लड़की के भौगोलिक बँटवारे का हामीदार था, पर ॠतु की मानसिकता में ऐसी कोई लकीर थी ही नहीं, उसके लिए जैसी तरबीणी और सरला, वैसा ही उनका भाई चन्द्रू, तीनों एक बराबर। इसलिए वह लड़कों से भी उतनी ही सटी रहती थी जितनी लड़कियों से। यह बात इतर है कि सौ आदमियों से गमगमाते उस मकान की महिलाओं वाली सौ प्रतिशत आबादी ॠतु की इस हरक़त से सख़्त नाराज़ रहती थी, पर मुँह पर कोई कहे तो क्या कहे और उसे क्या कह कर समझाए, यह बात वे समझ नहीं पाती थीं।

ॠतु ने जब एक दिन गली के नुक्कड़ वाले ‘चापाकल’ के पास रहती और चौबीसो घंटे वहीं खाती-पीती, सोती, एक गूँगी पगली की ‘चाँद’ सी नवज़ात बेटी को अपनी छाती से कसकर चिपका लिया, तो पूरी गली में कोहराम मच गया। उसके ही नहीं, बल्कि उस गली के और भी तीन-चार मकानों के बाशिंदों ने मिनटों में उस बच्ची को ऐसे घेर लिया मानो बिना जन्माष्टमी के ही वहाँ कृष्ण भगवान का आगमन हो गया हो। उस बच्ची का अपरूप रूप देखकर वहाँ उपस्थित पूरी भीड़ यही सरगोशियाँ कर रही थी कि आखिर ‘वह किसकी बेटी हो सकती है?’, पर वहाँ के हालात ऐसे थे कि वह ‘पगली’ ॠतु को छोड़कर यदि कोई उस बच्ची को छूता भी तो वह ‘गों गों’ कर ऐसा शोर मचाती कि वह व्यक्ति सहम कर भाग जाता।

इन सारी गहगहमी के बीच एक दिन दोपहर के सन्नाटे में ॠतु जी वहाँ आकर अपने ‘चाँद’ के टुकड़े को मन भर के उछाल-उछाल कर खिला रही थीं कि तीन तल्ले वाली भौजाई जी वहाँ आ धमकीं और ॠतु को बोलीं ‘‘ॠतु इको मुंडो (चेहरा) जरा बाईं तरफ़ घूमा’’ उसके चेहरे को आड़े-तिरछे विभिन्न कोणों से निरख-परख कर उन्होंने ़फुस़फुसा कर अपने साथ आई अपनी ख़ास सहेली से कहा : ‘‘सुमित्तरा मुझे तो इसका ‘हुँणियारा’ (नाक-नक़्श) चार तल्ले वाले भाई जी से मिलता लगता है’’ उनके इस अनुसंधान का नतीजा सुनते ही ॠतु ने उछल कर उनकी बांह पकड़ कर कहा: ‘‘ताईजी मुझे भी यह बात बताइए ना’’ भौजाई जी उसका यह प्रश्न सुनते ही तेज़ी से वहाँ से जाने लगीं पर जाते-जाते वे ॠतु को डपकर बोलीं, ‘‘ऐ रित्तु, ख़बरदार जो या बात मुँह से निकाली तो’’ इसके साथ ही उन्होंने अपने माथे पर दोहत्थड़ मार कर अपनी साथिन से कहा : ‘‘मेरी तो मति ही मारी गई थी, जो मैंने इस मूर्खा के सामने यह बात कह दी, देखना यह जण-जण के सामने इसका बखान करती फिरेगी।’’ लेकिन यह उनका भ्रम था, ॠतु ठहरी हिदायतों की परम रक्षक इसलिए उसने यह बात किसी को भी नहीं बताई, हाँ! उसने उस मकान के सारे पुरुषों के चेहरे के पास ले जा, ले जाकर अपनी ‘चाँद’, के चेहरे को मिलाना शुरू कर दिया। अब क्या था? शाम तक पूरे मकान में हड़कम्प मच गया और ॠतु जी की पेशी माँ के इजलास में हुई; ‘‘ॠतु बेटा, तुम यह क्या कर रही हो, क्यों उस पगली की बेटी को छाती से चिपकाए, सबसे उसका चेहरा मिला रही हो।’’ अपनी चित्रोपम विलक्षण स्मरणशक्ति के कारण ॠतु ने भौजाई जी वाली पूरी घटना मय ‘प्राप्स’ के माँ के सामने बयाँ कर दी। माता जी ने आव देखा न ताव लगी भौजाई जी को डाँटने? और देखते ही देखते तीन तल्ले से कांता देवी के और चार तल्ले से भौजाई जी के, सवाल जवाबों ने वहाँ अच्छे-ख़ासे महाभारत की सृष्टि कर दी जिसका अंतिम सार यह था कि इस वाक्युद्ध की रचयिता यह ॠतु ही है। बेचारी ॠतु अपनी बड़ी-बड़ी आँखें फाड़े इस अबूझ पहेली को समझने का प्रयास कर ही रही थी कि उसके गाल पर माँ का करारा तमाचा इन शब्दों के साथ पड़ा, ‘‘हुँह, तो या ॠतु ही है ‘काचरी को बीज’ (विघ्न की जड़)।’’

केदारनाथ जी के ऑफिस से घर आते ही कान्ता देवी ॠतु का हाथ खींचती हुई उसे केदारनाथ जी के पास लाई और बोलीं, ‘‘अब भोगिए सुबह से शाम तक बेटी को कहानी उपन्यास पढ़ाने का नतीजा, बित्ते भर की छोकरी और तरी़के बड़ीबूढ़ियों के। इसके साथ ही उन्होंने ॠतु की चेहरा मिलानेवाली कारस्तानी भी उन्हें सुना दी।

आश्चर्यजनक बात यह थी कि केदारनाथ जी ने पूरी नालिश के बाद  भी ॠतु को डाँटना तो दूर उसे खींचकर ख़ुद से चिपका लिया और उसे प्यार करते हुए बोले : ‘‘कांता जी इसमें ॠतु की क्या गलती है? सौभाग्य की बात है कि यह इतनी जिज्ञासु है। आप मानकर चलिए कि जो बच्चे जिज्ञासु नहीं होते हैं, वे आगे जाकर महा भोथरे सिद्ध होते हैं।’’

केदारनाथ जी का यह वक्तव्य सुनकर कांता देवी का मुँह और भी फूल गया और वे कंधे उचका कर वहां से चली गईं, लेकिन उन्हें क्या पता था कि केदारनाथ जी की आज की वाणी सच सिद्ध होगी और ॠतु अपनी मेधा और बुद्धिमता के ऐसे-ऐसे प्रतिमान स्थापित करेगी कि सारी दुनिया उसे सराहेगी।

एक साथ बीस सीढ़ियों को कूदकर लांघती बेपरवाह ॠतु बड़ी होती जा रही थी, पर न तो उसके मन को और न ही उसके तन को इसकी कोई सुध थी, वह तो बस उड़ते परिंदे सी इस शाख से उस शाख पर पहुँच जाती और पक्षियों के कलरव की तरह ही नाना प्रकार की बोलियाँ सीखकर उन्हीं की बोली में उनसे बातचीत करती, अर्थात ‘‘थे कोंकर हो, भौजाई सा’’, (‘‘आप कैसी हैं भाभी जी?’’) ओसवाल भौजाई जी से  बीकानेरी में पूछना या कि शेखावटी की मारवाड़ी में त्रिवेणी से बात करना कि  ‘‘ऐ तरबीणी तू कठै जाकर आई है’’ (‘‘तुम कहाँ जाकर आई हो?’’) इतना ही सामनेवाले मकान की बंगालन पूर्णिमा से खाँटी बांग्ला में, चौबे जी से ब्रज भाषा में और नत्थू पनवाड़ी एवं घीसाराम से भोजपुरी में बेधड़क बात करके वह सबका मन जीत लेती। सीमित बुद्धि की मालकिन कांता देवी समेत उस मकान के सारे लोग-बाग उसकी ग्रहण क्षमता की सराहना तो दूर, अकसर यह कहते नज़र आते कि ‘‘अरे, छोड़ो उस ॠतु की बातें और रंग-ढंग। वह तो लड़कों की तरह केवल पतंग के पेंच ही नहीं लड़ाती है, बल्कि मांझे की ‘लटाई’ हाथ में पकड़े-पकड़े पाँच तल्ले से छह तल्ले की छोटी छत पर चढ़ जाती है और वहाँ से पेंच लड़ाती हुई ‘बाय-काटा’, ‘बाय-काटा’ चिल्लाती है।

वैसे उनका इस तरह का ‘जिकरा’ कोई अतिशयोक्ति नहीं था और इसका सबूत भी ॠतु जी प्रतिदिन देती ही रहती थीं। एकबार  ॠतु देवी छह तल्ले वाली छोटी छत से उल्टे पैर से चलकर ‘बाय-काटा’, ‘बाय काटा’ करती हुई अपनी सारी इन्द्रियों को आँखों में समेट कर उन्हें एकटक पतंग पर गड़ाए वहाँ से पाँच तल्ले की बड़ी छत पर सिर के बल जा पड़ी थी, और उसे पहली बार पता चला था कि दिन में तारे दिखना क्या होता है? पर दो-चार बाल्टी पानी पड़ने से होश में आते ही उसका पहला प्रश्न था, ‘‘माँ को किसने ख़बर की?’’ गोया उसका गिरना ‘ना कुछ’ था और माँ के सामने शर्मिंदा होना ‘बहुत कुछ।’

पड़ोसियों के ही नहीं उनके परिचितों तक के विवाहों में जाकर वहाँ गीत गाना और नाच में भाग लेना उसकी प्रकृति का अहम हिस्सा थे।

माँ जब भी उसे इस विषय में समझातीं उसका यह उत्तर उन्हें निरुत्तर कर देता ‘‘माँ, बेचारे मेरी कितनी बड़ाई कर रहे थे। वे सब बार-बार मेरा नाम पूछ कर कह रहे थे, ‘भई, मानना पड़ेगा नरमदा की भायली  ने (सहेली) अपने नाचने-गाने से क्या ही रौनक ला दी!’’। माँ लाख समझाती ‘बेटा ये सारे लटके-झटके तुमको मूर्ख बनाने के हैं, वरना ये लोग ही पीठ पीछे तुम्हारी बुराई करते हैं।’’

ॠतु कहती ‘‘माँ, पीठ पीछे करते हैं ना, सामने तो कुछ कहते नहीं, इसलिए उनको करने दो।’’

ॠतु की ये लम्बी-चौड़ी बातें सुनते वक़्त कांता देवी को लगता जैसे ये बातें ॠतु नहीं साक्षात केदारनाथ जी ही बोल रहे हैं और उनका पारा केदारनाथ जी के लिए और भी चढ़ जाता। वैसे इसमें केदारनाथ जी का योगदान भी कम नहीं था यथा,  ‘‘कांता जी, जब ॠतु को गणगौर की पूजा करातीं तो वे ‘गणगौर’ को ‘ईस्सर’ समेत उठाकर गंगा जी भिजवा देते और कहते ‘‘अभी इसे पढ़ने दीजिए।’’

यदि कांता जी कहतीं ‘‘ॠतु अब तुम बड़ी हो गई हो अपने कपड़ों में बटन ख़ुद लगाओ  तो केदारनाथ जी ॠतु से कहते ‘‘बेटा सब कपड़े इकट्ठे कर लिया करो और जब भी नुरुद्दीन मास्टर जी (दर्जी) आएँ उन्हें यह कह कर सारे कपड़े दे देना कि ‘‘बाबू जी ने कहा है कि आप इन्हें अच्छी तरह ठीक कर दीजिए, बाबू जी आपको आपका इसका पूरा मेहनताना दे देंगे।’’ देने वाला और लेने वाला यह काम इतनी सावधानी से करते कि कांता जी को इसकी भनक भी नहीं पड़ती।

शिवठाकुर गली के इस कमरे में एक और तनातनी शाश्वत थी, उसकी वहज थी- बच्चों का ‘बंगाली -प्रेम’, विशेषकर ॠतु का और कान्ता देवी का उन पर क्षोभ। बंगालियों के बच्चे गायन और साहित्य प्रेम के दीवाने थे, पर वे मानती थीं कि चाहे जो कहो, पर यह कौम महा आलसी है। यहाँ तक कि एक दिन तो बच्चों और माँ के बीच वाक्युद्ध के बाद छीना झपटी भी हो गई।

हुआ यह था कि प्रत्येक रविवार की तरह ‘बांगाली शरणार्थी’ उस दिन भी हाथ में चादर की झोली बनाए मार्मिक गीत गाते हुए गली में आए और हमलोगों ने ऊपर के बरामदों से पुराने कपड़े, पैसे आदि उनकी झोली में डालने शुरू कर दिए। ॠतु की ‘बंगाली सहानुभूति’ और वह भी लुटे-पिटे बंगालियों की, किसी से छिपी न थी, इसलिए कांता देवी उसे यथाशक्ति पुराने कपड़े दे दिया करती थीं। ऊपर से ॠतु पड़ोसियों से माँग कर भी कपड़े ले आती थी, पर उस देवी को इतने में कैसे संतोष होता! वह तो बरामदे में तार पर सूखते नए कपड़ों की चिटकनी भी धीरे से खोलकर वे कपड़े भी नीचे टपका देती। एक दिन ॠतु की पकड़ाई होने पर कांता देवी को ॠतु पर तो ख़ूब क्रोध आया, पर साथ ही उनके हृदय में जो पंजाबियों के पुरुषार्थ की और बंगालियों के आलस्य की गहरी छवि थी वह भी ॠतु के इस कृत्य से उबाल खा गई। बंगालियों का दल गीत गाता हुआ मस्ती में आगे बढ़ रहा था कि अचानक सबने देखा कि कांता देवी आश्चर्यजनक ढंग से अपनी स्थूल काया को लिए-दिए मिनटों में गली के मुहाने पर उस टोली के मुखिया का कॉलर पकड़े खड़ी थीं और कह रही थीं कि ‘‘दादा, क्या आपलोग ताजन्म शरणार्थी ही बने रहेंगे। हमारे पंजाब में चलिए और देखिए वहाँ के लोगों ने एक दिन भी किसी से दया की गुजारिश नहीं की, बल्कि देने पर सादर लौटा दिया। लेकिन यहाँ तो सालों-साल बीत गए, पर आपका ‘आमरा शरणार्थी’ ख़त्म ही नहीं हो रहा।’’

बेचारा मुखिया तो यह सोच कर कि संभ्रान्त घर की महिला आ रही हैं, ज़रूर कोई बड़ा दान देगी आह्लादित हो रहा था, जबकि इसके उलट उस पर तो खारे पानी की पूरी झील ही उलट गई थी। वह भौंचक एकाध मिनट तो पत्थरसा वहाँ खड़ा रहा फिर उसने अपनी टोली को न जाने क्या इशारा किया कि वे सब पलक झपकते ही वहाँ से ऱफूचक्कर हो गए और फिर कभी उस गली में नज़र नहीं आए।

माँ की इस हरक़त से ॠतु इतनी आहत हो गई कि सारा दिन सुबक-सुबक कर रोती रही। यहाँ तक कि रात को केदारनाथ जी के लौटने पर उसने उनके सामने भी माँ की कसकर शिकायत की, केदारनाथ जी की गंभीरता और परिपक्वता का तो कोई ओर-छोर था नहीं। उन्होंने पहले तो ॠतु को अपने से चिपकाया और फिर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसे यह समझाया कि यह सही है कि कांता देवी को उनलोगों से ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था, बल्कि किसी भी आदमी से हमें यह व्यवहार नहीं करना चाहिए, पर ॠतु बेटा ध्यान से सोचो तो कांता जी की इन बातों में सत्यता भी है। बेटा, कांता जी ठहरी ठेठ हरियाणा की, उनका तरीक़ा शब्दों को सजाकर बोलने का नहीं है। तुम विचार मत करो, जब वे लोग अगले रविवार को आएँगे तो हम दोनों जाकर उनसे मिलेंगे और उन्हें ख़ूब दान देंगे’’। यह बात और है कि वे लोग उस रविवार के बाद कभी आए ही नहीं।

आज की बड़ी ॠतु साक्षीचेता की तरह केदारनाथ जी की इस सूझ-बूझ को याद कर अवाक थी, और सोच रही थी कि इस तरह की सोच तो उस समय से सत्तर वर्ष बाद आज भी विकसित नहीं हुई है जबकि लड़कियों को इतनी आज़ादी मिल चुकी है फिर केदारनाथ जी इसका अपवाद कैसे थे?…(जारी)