वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

इस चटपटी ॠतु की बदमाशियों का कोई ओर-छोर नहीं था। वह पतंग ही नहीं, कबड्डी और ‘पिट्ठू’ भी इतने जोर-शोर से खेलती कि उसकी आवाज़ पांच तल्ले पार कर उस गली के ही नहीं आसपास के दूसरे मकानों में भी गूंजने लगती। राम जाने उसमें ऐसा क्या आकर्षण था कि झुंड के झुंड बच्चे ‘ॠतु छाँत(छत) पर आ गई’ की म्हारनी रटते मिनटों में ही अपने मकानों के तल्ले और बाद में इस मकान के तल्ले पार कर ॠतु की छत पर आ जुटते। ऋतु आगे बढ़ कर एक-एक को गले लगाती और पलक झपकते ही हुड़दंग मचाना शुरू कर देती।

स्वाभाविक सी बात है कि वे ढेरों दक़ियानूसी माँएँ, भला ॠतु को कैसे नहीं कोसतीं, जो अपनी बेटियों को अपने आँचल में छिपाए रखती थीं। एक दिन तो हद ही हो गई, जब मकान की वे ‘खूसट माँएँ’ कांता देवी को घेर कर छत पर लाईं और जोरों से घूमते ‘हरा समुंदर गोपी चंदर, बोल मेरी मछली कितना पानी? हाँ मियाँ जी, इतना पानी और ल्यों धड़ाम…’ को दिखाकर ही नहीं उस घेरे के बीच में खड़ी होकर ज़ोरों से बोलने लगीं, ‘‘देख लो थारी बेटी का धंधा, छोरा-छोरी, एक-दूसरे पर पड़या जा रह्या है और ‘मियाँजी नै बुलावो दे रहा है।’’

सच पूछा जाए तो पुराने विचारों की कांतादेवी तक को इसमें कोई गड़बड़ नहीं लग रह थी पर वे करती तो क्या करतीं? यदि ॠतु को डाँटती तो केदारनाथ जी के उलाहने सुनने पड़ते और मकानवालियों का साथ नहीं देतीं तो वे उन्हें जाति-बाहर कर देतीं। उन्होंने मध्यम मार्ग निकालकर जवाब दिया, “रात नै इन्नै डाँट पिलाऊँगी।’’ सारे बच्चे मुँह पर हाथ रखे फुसफुस कर हँस रहे थे और वे बेचारियाँ ॠतु पर अपने क्रोध को उबाल खिलातीं अपने-अपने कमरों में घुस गई थीं।

आश्‍चर्यजनक ढंग से यह कूँदती-फाँदती खिलंदड़ी मस्त जीव जिसका गंभीरता और सोच जैसी बातों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था कैसे सीढ़ियों की तरह की क्लासें लांघती हुई एक पर एक डबल प्रमोशन लेकर साढ़े बारह वर्ष की उम्र में ही कॉलेज में जा धमकी थी।

साक्षीचेता बड़ी ॠतु स्वयं यह अजूबा घटते देख हैरान थी कि जिस शैतान ॠतु को कूदकड़े मारने से ही फुर्सत नहीं थी फिर उसने यह घटाया कैसे? यादों के झरोखों से झाँकने पर एक दृश्य अपनी पूरी शिद्दत से ॠतु की आँखों के सामने उभरा। हमारे पढ़े लिखे‘गोल्ड मेडलिस्ट’ भाईजान हाथ में किताब लिए ॠतु से प्रश्‍न पूछने को सन्नद्ध हैं, क्योंकि यह ज़िम्मेदारी पूजनीया माताजी ने उन्हें यह कहते हुए दी है,‘‘बेटा, इस बदमाशड़ी के इम्तिहान सिर पर हैं, ज़रा देख लो।” भाईजान जो भी प्रश्‍न ॠतु से पूछते वह उन्हें यों देखने लगती गोया ये प्रश्‍न उत्तरी या दक्षिणी-ध्रुव से आए हों। इसका यह हश्र होता कि भैया वह किताब ॠतु के मुँह पर फेंक कर यह कहते नज़र आते कि देख लीजिएगा यह बुरी तरह फेल न हो जाए तो मेरा नाम बदल दीजिएगा।

पर… करम उस ऊपरवाले का कि वह ॠतु को हर बार ऐसे अच्छे नम्बरों से पास करवा देता कि पूरा घर रिपोर्ट कार्ड पकड़े उसे और ॠतु को घूरता नज़र आता। वर्षों तक इस पहेली का किसी को कोई उत्तर नहीं मिला। अंत में परिवार के एक वैज्ञानिक मित्र के हवाले यह हल खोजा गया कि एक बार सुनते ही सब याद हो जाना, बच्चों की पिक्चर मेमोरी की तरह प्रत्येक दृश्य, वाक्य, अपने सारे प्रॉप्स के साथ आँखों के रास्ते दिमाग़ में फ़िट हो जाना आदि आदि वजहें हो सकती हैं। घर वाले वजहें खोज रहे थे और बेफिक्र ॠतु किसी और ही भावजगत में विचरण करती हुई बड़ी होती जा रही थी।