वरिष्ठ लेखिका
‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।
इम्तहान जितने पास आ रहे थे, उतनी ही मस्त और जिंदादिल होती जा रही थी। इन्हीं दिनों ॠतु के पतिदेव के एक मित्र जो ॠतु के भी बहुत नज़दीक थे, चिंताग्रस्त चेहरे से ॠतु को बोले, ‘‘ॠतु तुम मुझे छूकर कहो, तुम पास तो हो जाओगी ना?’’ ॠतु ने उन्हें छूकर पूर्ण गंभीरता से कहा, ‘‘भैया पक्का नहीं है, फेल होने की गुंजाइश ज्यादा है।’’ सुनकर उन बेचारों का मुँह एकदम उतर गया और ॠतु का रिजल्ट आने तक उतरा ही रहा।
देखते-देखते परीक्षा की वह घड़ी आ गई, जिसके डर से सब सूखे जा रहे थे। सर, शास्त्री जी की तो क्या कही जाए? सर ने इम्तहान के पाँच-छह दिन पहले कक्षा में घुसते ही कहा ‘‘बच्चो, आज तक मैं तुम लोगों से कहता था परीक्षा की मत सोचो, ख़ूब मन लगाकर सबकुछ आत्मसात करते हुए पढ़ते जाओ। पर आज मैं तुम्हें बताऊँगा परीक्षा कैसे देनी है? उन्होंने हमें बाक़ायदा फुलस्केप कॉपियों को हाथ में लेकर बताना शुरू किया।
बच्चो, सबसे पहले कॉपी को तीन तरफ से मार्जिन की तरह मोड़ लो, ताकि यदि कोई पंक्ति तुम्हें बाद में, याद आए तो उसे लिख सको। पूरे प्रश्न पत्र को अच्छी तरह दो-तीन बार पढ़ लो। जो उत्तर तुम्हें सबसे अच्छी तरह आता है उसे सबसे पहले लिखो, पर एक बात का ध्यान रखना कि उसमें इतने मत खो जाना कि बाकी के प्रश्नों का समय कम पड़ जाए। प्रत्येक प्रश्न के सामने उसके नंबरों के अनुसार उसके समय लिख लेना और ध्यान रखना, तुम्हें पूरा पर्चा दोहराने के लिए कम से कम आधा घंटा हाथ में रखना है।
ॠतु ने अपनी जिदों को ताक़ पर रखकर ‘सर’ की एक–एक बात को अच्छी तरह समझ कर याद कर लिया। सच! दाद देनी चाहिए ‘सर’ की बच्चों को समझाने की पद्धति को, ये सारे नुस्खे ॠतु के बहुत काम आए। सर के निर्देशानुसार ॠतु परीक्षा के प्रथम दिन आधा घंटा पहले जाकर परीक्षा हॉल में प्रथम पंक्ति में बैठ गई, जबकि उसकी क्लास की सारी लड़कियाँ गुट बनाकर सबसे पीछे की सीटों पर जमी हुई थीं।
प्रश्न पत्र मिलते ही ॠतु ने उसे ऊपर से नीचे तक दो-तीन बार पढ़ा और उसमें क्रमवार नंबर डाल लिए। यह सारा ‘जस्था’ जँचाने के बाद उसने कलम उठाई और वह कलम पेपर ख़त्म करने के बाद ही वापस रखी। घड़ी के अनुसार उसके हाथ में अभी भी पचास मिनट समय था। उसने आव देखा न ताव पहले तो एक हाथ में प्रश्न पत्र और एक में उत्तर पुस्तिका लेकर यह दिलजमई की कि प्रश्नों के उत्तर लिखे हुए हैं ना।
फिर उसने एक-एक कर सारे उत्तर पढ़े। उसने अचरज से देखा कि सारे उत्तर उसकी क्षमतानुसार ठीक लिखे हुए थे और नंबरों के अनुसार ही उनका विस्तार भी था। पाँच-छह पर्चे आराम से लिखे गए थे और परीक्षा को लेकर जो डर ॠतु को लग रहा था वह भी ख़त्म हो चला था। छठे दिन विनय पत्रिका आदि से संदर्भ और व्याख्या का पर्चा था। चूँकि यह विषय विष्णुकांत सर पढ़ाते थे इसलिए ॠतु को उसे दोहराने की ज़रूरत भी नहीं थी। पर विधि का विधान देखिए, उसके पसंदीदा पर्चे के दिन उस विधाता ने क्या विघटन घटाया?
अंग-प्रत्यंग में उत्साह एवं पैरों में थिरकन लिए ॠतु रानी जब यूनिवर्सिटी जाने को तैयार होने के बाद घर की घिरानी बड़ी जिठानी को कहने के लिए गईं तो उसके कानों में गर्म सीसे से उनके शब्द पड़े ‘‘अरे वाह! बाई पुरो सज-धज कर कहाँ चल पड़ीं, इतना भी होश नहीं है कि आज हमलोगों की शादी की ‘सिल्वर’ वर्षगांठ है। शाम को यहां पार्टी है, जिसके लिए ये फूलों की मालाओं के ढेर तुम्हारी प्रतीक्षा में है कि तुम कब आकर उन्हें सजाओगी। ॠतु ने कातर दृष्टि से अपनी मंझली जिठानी की ओर देखा जो आनुषंगिक वस्तु की तरह सर्वदा उनसे चिपकी रहती थीं। उसकी दृष्टि का अर्थ समझ कर वे तपाक से बोली ‘‘ॠतु माफ़ करना, मेरे ज़िम्मे खाना बनवाना और मेहमानों का स्वागत करना है, इसलिए तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर पाऊँगी।’’ नौकर-चाकरों के हाथ बँटाने का तो सवाल ही नहीं था, क्योंकि यदि वे आते भी तो वे दोनों उन्हें किसी न किसी काम के बहाने वहाँ से पार कर देतीं।
बेचारी ॠतु कर्त्तव्यपरायणता के ऐसे जाल में फँस गई थी जो उससे काटे नहीं कट रहा था। पर कभी हार न मानने वाली ॠतु आज कैसे हार मान जाती, इसलिए उसने घड़ी देखना बंद किया, माथे से चिंता की लकीरें हाथ फेर कर मिटा दी, और सब कुछ भाग्य के हवाले कर कसकर कमर में फेंटा कसा और ज़ोरों से काम में जुट गई।
वह जिस गति से दाएँ बाएँ, सिर के ऊपर से, कमर के पीछे से हाथ पैर ले जाकर काम कर रही थी उसे देख कर बंगालवासियों को अष्टभुजा देवी दुर्गा की याद आ सकती थी। आश्चर्य की बात है, जो लड़की यूनिवर्सिटी जाने के लिए तैयार होकर आई थी, उसे देखकर ऐसा लगता नहीं था कि यह जब्बर, गँवार लड़की कभी स्कूल भी गई है। लम्बे-लम्बे बालों का हाथ खोफा (जूड़ा) बांधे वहां बंगाल के गाँवों की ठेठ बंगाली देहातन लग रही थी।
पूरा कमरा अच्छी तरह से सजाने के बाद कि कहीं से कोई ताना न आ जाए, उसने अपना थैला उठाया और तेज़ी से सीढ़ियाँ उतर कर पर्चा देने इतनी ज़ोरों से भागी, गोया रास्ते वाले ‘मोर्ग’ (मुर्दाघर) से उठकर किसी मुर्दे का भूत उसका पीछा कर रहा हो। जब वह बदहवास-सी परीक्षा हॉल के बाहरी दरवाज़े पर पहुंची तो यह देखकर दंग रह गई कि दरवाज़े पर यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर खड़े उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वह हक्का-बक्का सी फटी आँखों से उन्हें देखी जा रही थी कि वे बोले ‘‘ताड़ाताड़ी जान (जल्दी जाइए) और ये लीजिए आपका प्रश्नपत्र और आपकी कॉपी। आप घंटा भर लेट हैं और लेट मत करिए’’ – उसके पूरे शरीर के गद्गद् भाव को अपने वाक्यों से सांत्वना देते हुए उन्होंने कहा : ‘‘मैं आपको रोज समय से पहले प्रथम पंक्ति में बैठ कर शांति से परीक्षा देते देखता था, आप न बाएँ देखती न दाएँ, बस नाक की सीध में पर्चा लिखा, दोहराया और ‘एक्जामिनर’ को पकड़ा दिया और तो और मैंने और छात्रों की तरह बार-बार टॉयलेट की तरफ़ दौड़ते नहीं देखा, इन सब बातों से मुझे पूरा विश्वास था कि आप आएँगी ज़रूर, वैसे भी मुझे शास्त्री जी ने आपके संयुक्त परिवार के बारे में और उसमें विद्यमान अनेकानेक असुविधाओं के बीच इस ‘विद्या युद्ध’ के बारे में भी बताया था। उन महाशय की इस बात से ॠतु के मन में शास्त्री जी के प्रति ऐसा कृतज्ञता भाव उपजा जिसकी अनुभूति शब्दों से परे है। वाइस चांसलर के हाथ से प्रश्नपत्र लेते वक्त ॠतु इतना झुक गई कि वे उसे हल्का करने के लिए कहने लगे, ‘‘कोनो बैपार नेई’’ (कोई ख़ास बात नहीं है)।
उनसे प्रश्नपत्र लेकर ॠतु जब परीक्षाहॉल में घुसने लगी तो उसके परीक्षक महोदय ने रोक लिया। ॠतु बेचारी तो ऊक–चूक, तभी उसे उनके पीछे से ‘वाइस चांसलर’ का गला सुनाई पड़ा ‘‘इनाके आमि परमिशन दियेछि’’ (इनको मैंने अनुमति दी है)। यह सुनते ही बेचारे परीक्षक महोदय इस कदर पीछे हट गए मानो ॠतु को उन्हीं गॉड ऑफ ऑनर में सलामी देना था और उनसे भूल हो गई।
ॠतु देवी ने पर्चा देना शुरू किया तो जैसा उसने सोचा था, वैसे ही उसने क़िस्सा गोई और कहानियों की तरह व्याख्याएं शुरू कीं। मसलन उसने ‘विनय पत्रिका’ के लिए लिखा कि मुझे विनय पत्रिका के तुलसीदास एक ऐसे थके हुए प्रौढ़ लगते हैं, जो जब जीवन की संध्या के एक मोड़ पर बैठकर अपनी कमाई का पोटला खोलते हैं तो उन्हें उसमें रामचरित मानस के अलावा भी तमाम अटर-बटर सामग्री तो मिलती हैं पर उसमें पूर्ण समर्पण विगलित प्रेम श्रद्धा अर्पण की एक भी रचना नहीं थी। बेचारे तुलसीदास अपना सर धुनने लगे कि मैं मानता था कि मेरा रोम-रोम राम में रमा है, तो क्या यह मानना एक भ्रांति थी? क्या मैं उनके चरणों में एकनिष्ठ नहीं था? जब तुलसी पश्चाताप की अग्नि में जलने लगे तब चंदन के लेप की तब उन्हें अपने अंतर्मन में प्रभु की वाणी सुनाई दी और उन्होंने वहीं बैठ कर विनय पत्रिका की रचना शुरू कर दी। तुलसीदास खरा सोना तो थे ही ऊपर से तप की अग्नि ने उन्हें ऐसा तपाया कि विनय पत्रिका का एक-एक पद गायक और सहृदय के हृदय में सीधा उतर जाता है।
भूमिका की तरह यह लिखने के बाद ॠतु ने पद्यांश की व्याख्या चुटकियों में कर दी। कमोबेश उसने यही खेल सारे प्रश्नों के साथ भी खेला और समय पर उत्तर पुस्तिका जमा कर दी। परीक्षक महोदय ने सदाशयता दिखाते हुए कहा भी ‘‘दोरकार होय तो एकटू शोमय आरो निए निन (आवश्यकता हो तो आप थोड़ा समय और ले लीजिए)। ॠतु ने विनम्रतापूर्वक उन्हें धन्यवाद दिया और घर की ओर भागी।
(जारी)
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