वरिष्ठ लेखिका
‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।
ॠतु बाएँ हाथ से काले चोगे को सम्हालती हुई आँसू भरी धुँधली आँखों से ‘मारवाड़ी राजबाड़ी’ को एकटक देखे जा रही थी कि स्मृतियों के एक रेले ने इस वर्त्तमान को पीछे ठेल कर, उस राजबाड़ी के सामने ला खड़ा किया, जहाँ पानी रखने का पीतल का कलशनुमा घड़ा कृष्णा देवी की हिकारत भरी ज़ोरों की ठोकर से तीन ओर की दीवार से टकरा कर जोरों से ‘धड़ांग-धड़ांग’ और क्रमश: टों टन्, टन् टन् आवाज़ कर लुढ़कता हुआ बाहर की ओर जा रहा था। नन्ही ॠतु ने जब दौड़ कर उसे दोनों हाथों से पकड़ लिया और अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में आँसुओं को रोकते हुए कातर स्वर में गुहार लगाते हुए बोली ‘‘बुआ, यह तो अपना ही बर्तन है फिर आप ऐसे क्यों कर…?’’ उसके अधूरे वाक्य को अनसुना करते हुए कृष्णा देवी ने बीच में ही अपनी कर्कश आवाज़ में चीख़कर कहा ‘‘ऐ सोरकार बाबू, आप क्या हर वक्त अफ़ीम की पीनक में रहते हैं, जो ये बाहरी लोग मेरी नल से पानी भरे जा रहे हैं और आप ठूंठ से खड़े उन्हें देख रहे हैं? क्या आपकी आँखें फूटी हुई हैं, जो आपको मालिक और नौकर का भेद समझ में नहीं आता? महीने के पहले ही दिन पॉकेट में मोटी तनख़्वाह ठूंसते वक़्त तो आपके माथे पर ढेरों आँखें उग आती हैं, वर्ना न तो आपको सड़क के मोटे-तगड़े कुत्ते और न ही ये लावारिस इन्सान समझ में आते हैं।’’
रिरियाती आवाज़ में बुआ-बुआ की रट लगाए ॠतु फटी आँखों से कृष्णा देवी का रौद्र रूप देखे जा रही थी और अनायास ही कंठ में अटके शब्द बोले जा रही थी कि तभी कनपटी पर पड़े झन्नाटेदार चाँटे से उसका सिर ज़ोरों से पास वाली दीवार से जा टकराया और एक चीख़ के साथ उसके मुँह से निकला ‘ओ माँऽ!’
इस पर कृष्णा देवी चिहुँक कर बोलीं : ‘‘ऐ छोकरी, ज़्यादा नाटक मत कर, एक तो पानी चोराती है, ऊपर से बुक्का फाड़ कर रोती है। अरी बेहया, ‘चोरी तो चोरी ऊपर से सीना ज़ोरी’ का खेल तो आज नया ही देखा।’’
बेटी की चीख़ सुन कर शालीनता और अवसाद की एक मूर्त्ति बदहवास सी सीढ़ियाँ उतर कर वहाँ आई और बेटी को अपनी ओर खींच कर उसके आँसू पोंछती हुई बोली : ‘‘दीदी! बच्ची है, घर में एक बूंद पानी नहीं था, सो अपने ‘मान’ से बड़ा बर्त्तन उठा कर पानी भरने के लिए ले आई माफ कर दीजिए।’’
बच्चे तो होते ही हैं सच्चे मन के, इसलिए माँ का सहारा मिलते ही ॠतु बोल पड़ी : ‘‘माँ, पानी का नल पूरा खुला था और उससे लगातार गिरता पानी नालों में जा रहा था, इसीलिए मैं यह बर्त्तन ले आई।’’
‘‘ऐ सारी दुनियाँ की झूठी, सोरकार बाबू क्या यह सही है?’’ सरकार बाबू ने बिना कुछ कहे नज़रें झुका लीं, उनका यह जवाब देख कर तो कृष्णा देवी को आग ही लग गई, वे लगीं हाथों को झटका दे-देकर गालियों के साथ उलाहने देने ‘‘अरे ओ सोरकार बाबू, मैं सब जानती हूँ, पुराने मालिक से चाटी हुई रियासत का स्वाद अभी भी आपकी जीभ पर है। तभी तो आप भीतर ही भीतर भाभी और इस छोकरी ॠतु के पक्षधर बने हुए हैं। सोरकार बाबू, चाहे मैं नई मालकिन ही हूँ पर अब यह नल कानूनी कागज़ पर मेरे हिस्से में आ गया है, इसलिए अपने कानों को पूरा खोल कर ध्यान से सुन लीजिए कि मैं आगे से ऐसी किसी भी ग़लती को माफ़ नहीं करूँगी, आया समझ में?’’ कह कर अपनी बांग्ला साड़ी के आँचल में बंधे चाबियों के बड़े गुच्छे को छनकाती हुई उसे अपनी पीठ के ऊपर फेंक कर कृष्णादेवी चप्पल पटकती हुई वहाँ से चल दी।
कृष्णादेवी के जाते ही ॠतु माँ के आँचल में घुस कर सुबकियां भर कर रोने लगी। मारवाड़ी राजबाड़ी की पूर्व मालकिन ने उसे ज़ोरों से खुद से चिपका लिया और असहाय मुद्रा में सरकार बाबू की ओर देखा, बेचारे सरकार बाबू की आँखों में भी पानी भरा था, पर कुछ करने लायक न होने के कारण, उन्होंने अपना मुँह दूसरी ओर घुमा लिया।’’
तभी एक फिटन वहाँ से गुजरी और उसने ॠतु को उसके धुर अतीत के उस अति पुराने ट्रैक पर ला कर खड़ा कर दिया, जब चाचा की कारस्तानी के कारण इस मारवाड़ी-राजबाड़ी का बँटवारा नहीं हुआ था और यहाँ उन लोगों का एकछत्र-राज्य था।’
ढलता सूरज अपनी अरुणिमा से सबको रंगते हुए विदा हो रहा था, बगलवाली ‘असली राजबाड़ी’ की छतों पर गुलाबजल का छिड़काव हो रहा था और उसके मुख्य द्वार पर दो फिटनें ज़मींदारी आन-बान से सजी-धजी अपनी सवारियों की प्रतीक्षा में खड़ी थीं। तभी ‘असली राजबाड़ी’ की क़रीब वाली मारवाड़ी राजबाड़ी के सामने भी एक फ़िटन आकर खड़ी हुई जो बिना किसी राजसी ठाट-बाट के भी राजसी लग रही थी और उसकी वजह थी उसका अंग्रेजी स्टोर ‘वाइटवे- लेडला’ से सद्यः आगमन एवं उसका कल्पनातीत मूल्य। बिना किसी साज-सज्जा के भी उसकी बनावट में एक विशेष प्रकार का आकर्षण था। उसकी चमाचम करती काली महोगनी लकड़ी, उसकी गद्दियां, पायदान आदि सभी सुघाड़ु गढ़त में गढ़े हुए थे, जो उसे अनकहे ही नफ़ासत के नायाब रूप में प्रस्तुत कर रहे थे।
सुरमई साँझ के आगोश में खड़े ‘असल–राजबाड़ी’ के अरबी घोड़े ज़ोरों से हिनहिना कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे थे तो उससे बगलवाली कोठी की फिटन के घोड़े ख़ूबसूरती और कदकाठी में तो असल वालों से होड़ ले रहे थे पर शांत खड़े मालिक का ऐसी शालीनता से इंतज़ार कर रहे थे मानों वे भी असलवालों के ख़ास रुतबे से परिचित हों।
तभी असल राजबाड़ी के ‘नहबत झरोखे’ से शहनाई के स्वर गूँजे और ‘बड़े बाबू’ अपने पाँच-छ: चापलूस चमचों से घिरे हुए बड़े दरवाज़े पर प्रकट हुए।
उन सभी ख़ुशामदी लोगों की पूरी भंगिमा में एक गिड़गिड़ाता हुआ भाव साफ झलक रहा था। उनमें से एक ननी बाबू थे, जो ओहदे में औरों से ऊँचे थे, सबसे पहले उन्होंने घुटनों के बल बैठ कर बड़े बाबू के पैरों की नर्म चमड़े और सुनहरे कामवाली ‘मोजरी जूती’ को अपनी धोती से झाड़ा और आहिस्ता से अपने माबदौलत के पैरों को गोद में रख कर उनमें वह मोजरियाँ पहना दी। यह क्रिया सम्पन्न करने के बाद उन्होंने बड़े बाबू के पैरों को दोनों हाथों से छूकर प्रणाम करते हुए उन्हें अपने माथे से ऐसे छुवाया गोया उन्हें अपने इष्ट शिव के चरण-स्पर्श करने का सौभाग्य मिल गया हो।
उनके बाद मणिबाबू आगे आए और मालिक की धोती की चुन्नटों को ठीक कर उन्होंने एक रत्नजड़ित छड़ी उनके हाथ में थमा दी और क्षणमात्र भी गँवाए बिना भोला बाबू ने लखनऊ इत्र से पगी ख़ुशबूदार ‘घूनी’ को नज़र उतारने के लिए मालिक के चारों तरफ ऐसे घुमाया जैसे वे दुर्गा पूजा में देवी दुर्गा के आगे ‘घूनी’ लेकर नाच रहे हों। उस ‘घूनी’ की सुगंध दूर-दूर तक मुहल्ले में महक उठी और वहाँ के साधारण स्थिति के रहवासी मुक्ताराम बाबू स्ट्रीट उ़र्फ चोर-बगान के बरामदों में मंझले बाबू की सवारी की झाँकी देखने उमड़ पड़े।
चाहे यह नज़ारा अक़्सर ही घटता रहता था, पर बड़े घरों के चोंचले देखने में साधारण जनता को वैसा ही आनन्द आता है, जैसा बाइस्कोप के डिब्बे में आँख गड़ा कर ‘सात मन की धोबन’ को देखने में। बग्घी की ऊँचाई चढ़ने में जमींदार बाबू को दिक्क़त न हो इसलिए क्षण मात्र में ही नंगी पीठ के दो साँवले मज़दूर उसकी ऊँचाई से ऐसे एकाकार हो गए मानों वे उस बग्घी का ही एक हिस्सा हों और भारी शरीर वाले ज़मींदार बाबू ने आराम से उनकी पीठ पर पैर रखे और अपनी गद्दी पर विराज गए।
बड़े बाबू के सिंहासन पर विराजने के बाद उनके चमचेभी उनके पैरों में घुसुड़-मुसुड़ कर मालिक का स्पर्श किए बिना ऐसे ठुँस-ठुँसा कर बैठ गए जैसे वे हाड़ मांस के नहीं बल्कि रबर से बने हुए हों। घोड़ों के मचल कर हिनहिनाते ही राजबाड़ी के दरवाज़े पर खड़े संतरियों ने ऐसी ज़ोरों सलामी ठोंकी जैसी वायसराय की सवारी को सेना के कमांडर देते हैं। देखते ही देखते वे घोड़े हवा से बात करते हुए विक्टोरिया मेमोरियल का चक्कर लगा कर बड़े बाबू की बागानबाड़ी के आगे जा खड़े हुए और पलक झपकते ही मणि बाबू दौड़ कर उस कोठी में गए और आपाद-मस्तक गुलाबी बोसगी सिल्क में लिपटे एक मुजस्मे को बा-अदब बा-मुलाहिज़ा की भंगिमा में बग्घी तक लिवा लाए।
बड़े बाबू के शरीर में पहली बार हल्की सी जुम्बिश हुई और उन्होंने अपनी बगल में ज़रा सी जगह बना कर अपनी बड़ी मूंछों के नीचे से हल्की सी मुस्कुराहट के साथ उस कोमलांगी की आगे बढ़ाई हुई हथेली पर अपना हाथ रख दिया, क्योंकि वे ठहरीं ‘फूलबाई’ जिन पर उस समय के अनगिनत राजे-राजवाड़े निछावर थे।’’
एक रात आँखें मूंद कर सोने का नाटक करते हुए ॠतु ने अपने माँ–बाबूजी को आपस में यह फुसफुसाते सुना था : ‘ए जी! क्या सच में ही मशहूर तवायफ़ फूलबाई इतनी सुंदर और महीन त्वचा वाली हैं कि उनके गले से गुज़रती हुई पान की पीक का लाल रंग बाहर से ‘झाँई’ मारता है?’’
राधाकृष्ण जी ने पत्नी के भोलेपन पर ठहाका लगाते हुए उन्हें अपने नज़दीक खींच कर कहा : ‘‘ऐ! मेरी भोली बन्नो, यह तो एक कहावत चल पड़ी है। पगली ज़रा सोच कि चमड़ी के अंदर की चीज़ें बाहर से कैसे दिखेंगी? उसके पार का फ़ोटो तो वह काला कलूटा एक्सरे ही होता है जो परसों डॉ. रौजरलेन धूप की तरफ करके देख रहे थे।’’ पति के उत्तर से कांताजी सिहर कर बोली ‘‘जी ये गोरे डाक्टर तो होते ही बदमाश हैं, कहाँ तो मेरे गोरे चिट्टे बाबूजी और कहाँ वह फ़ोटो? पत्नी की सहज सरल बातों को आधी-अधूरी सुनते हुए केदारनाथजी ने अपनी उनींदी आँखों को अनुमति दे दी और करवट बदल कर सो गए, और थकी हारी कांता जी भी कुछ देर बाद गहरी नींद में सो गईं, पर शरारती चुलबुली ॠतु की आंखों में नींद कहाँ? उसने यह फूलबाई नाम अपने दोस्त बहादुर से भी सुना था।
बहादुर जब उसे स्कूल छोड़ने और लाने जाता था, तो उसे रास्ते भर ढेर सारी बातें बताता रहता था। असली राजबाड़ी से सटे अपने घर के बाहर निकलते ही पाँच-छ: मकानों के बाद ट्राम लाईन वाला बड़ा रास्ता चितपुर रोड था और उसे पार करते ही बाँसतल्ला गली में उसका स्कूल था। फिर भी कुछ दूर चलने के बाद ॠतु बीच रास्ते में बैठ जाती और कहती ‘‘बहादुर भैया! पैर बहुत दुखता है, कंधे पर बिठा कर छोड़ आओ न’’ उसके बहाने पर मन ही मन मुस्कुराता हट्टा-कट्टा बहादुर उसे कंधे पर बिठा कर दौड़ने लगता और ॠतु की हँसी की किलकारी पूरे रास्ते में गूँजने लगती। बहादुर की दया में ॠतु की बालसुलभ सरलता और अप्रतिम सौंदर्य का भी बड़ा हाथ था, पर ॠतु को न तो अपने भोलेपन का अंदाज़ था न ही सौंदर्य का! वह तो बस ख़ुशबू भरी हवा की मानिंद इधर से उधर बहती हुई सबका मन हरती रहती थी।
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