कवयित्री, लेखिका एवं  लघुकथाकार। काव्यसंग्रहमाँ और अन्य कविताएं

हँसी या बेबसी

अकेलापन बेहतर है
आत्मा पर चोट करती
अपनों की भीड़ से
खामोशी बेहतर है
दिल को दुखाने वाली
बातचीत से
एक टीस उठती है
रिश्तों के बदलते रंग को देखकर
क्या सचमुच
आज गिरगिट हँस रहे हैं
इनसानों को देखकर ?

घरेलू औरतें

घरेलू औरतें
बहुत सारी चिंताएं करती हैं
वह कभी चौखट से बाहर
निकलती भी हैं तो
खुद को चौखट के भीतर छोड़कर

घरेलू औरतों की
आत्माएं घर के अंदर ही दबी रहती हैं
बाहर तो सिर्फ़ उनका शरीर निकलता है
और निकलती हैं बस चिंताएं
रसोईघर के चूल्हे और
दूध के पतीले से लेकर
दरवाजे पर लगे ताले-चाभी तक की

घरेलू औरतें कभी
नहीं बदल पाती हैं
कैलेंडर के साथ खुद को
क्योंकि
उनके कैलेंडर में सिर्फ़
तारीखें बदलती हैं
कभी नहीं बदलता है
उनका घर
और उनका घरेलूपन ।

मेरा लेखन

मैं नहीं लिखती हूँ
औरतों को
मेरा औरतपन
लिखता है मुझे
और न ही
भरती हूँ डायरियां
पर मेरी डायरियां भर देती हैं
मेरा खालीपन।

उलझन

रिश्तों का
कैसा है यह ताना-बाना
समझने की
हर कोशिश
बस उलझाती ही चली जाती है।

प्रवृत्ति

आंखें बंद करती हूँ
नहीं दिखते
उड़ते पंछी
बहती नदियां
बहती हवाएं
और ठंडी छांह

आंखों के सामने
नाचते हैं वे लोग
जिनसे भागना चाहती हूँ
पाती हूँ खुद को उस जगह पर
जहां कभी लौटना नहीं चाहती
समझ नहीं पाती
यह भय है या
मनुष्य के
भागने की प्रवृत्ति ।

तुम उदास मत होना माँ !

गिर जाते हैं पत्ते शाख़ से
फलदार वृक्ष भी
हो जाते हैं ठूंठ
फिर क्यों समझती हो मां
कि जिंदगी गई है
तुझसे रूठ

तुम्हारी ही फुनगियों पर
उगेंगे पत्ते
हरियाली मुस्कराएगी
फिर बूढ़ी हड्डियां तुम्हारी
नए जोश से खिलखिलाएंगी
लौट आएगा बालपन
तुम्हारे बच्चों के बच्चे से
कुछ नहीं होगा
अगर उनके लिए
सब्जियां और हलवे तुम
खुद न बना पाओगी
इसलिए तुम उदास मत होना मां

वक़्त कभी एक-सा नहीं होता
तुमने कभी कहा था
लड़खड़ाते कदमों को
कभी तुमने ही संभाला था
फिर क्या हो गया अगर
आज की रफ़्तार से
तुम्हारे पांव नहीं चल पाते
दर्द घुटनों के
तुम्हारी माथे की झुर्रियों को सिकोड़ देते
इसलिए तुम उदास मत होना मां!

तुम पापा की हिम्मत
पूरे घर की हो जान
तेरे आंचल की छांव में
जी रहे हम सब अपनी पहचान
तुझसे ही तो
पूरे हो रहे जीने के अरमान
क्या हो गया अगर
तुम कभी किसी को पहचान नहीं पाती
इसलिए तुम उदास मत होना मां!

बड़ा ढीठ है यह चाँद

कभी मुनिया की कटोरी में
कभी छमिया की बटलोही में
कभी नाहर पर
कभी गागर पर
कभी मुंडेर पर
कभी बटेर पर
चाँदनी को संग ले
बैठ जाता है चाँद
उफ्फ ! बड़ा ढीठ है यह चाँद

कभी हवेली से सटकर
कभी झोपड़ी की छत पर
कभी बैलों के हल पर
कभी कमंडल के जल पर
जाकर बैठ जाता है चाँद
उफ्फ ! बड़ा ढीठ है यह चाँद

न देखता अमीरी – गरीबी
न होता लाल – गुलाबी
न रूठता बेचारों से
न भागता अवारों से
न छिपता मां के आंचल में
न छिपता जीवन के सांकल से
उफ्फ ! बड़ा ढीठ है यह चाँद

न सुनता किसी की
न रुकता किसी से
अपनी ही धुन है
अपनी है लगन
दुनिया से बेखबर
चाँदनी के साथ वह रहता मगन
उफ्फ ! बड़ा ढीठ है यह चाँद ।

संपर्क: द्बाराजस्टिस दीपक रौशन, झारखंड उच्च न्यायालय, बंगला नंबर 4,न्यू जज कॉलोनी, डोरंडा रांची 834002  झारखंडमो. 9334717449