सपने में भी मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे नंदा भैया की श्रद्धांजलि लिखनी पड़ेगी, लेकिन यथार्थ क्रूर होता है। उसे चुपचाप स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता। मुझे याद पड़ता है, 1988 में जब मेरी युवा पत्नी का अप्रत्याशित और आकस्मिक निधन हुआ था, तब हिंदी के प्रतिष्ठित समालोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने मुझे शोक-संवेदना भेजते हुए लिखा था- ‘मृत्यु प्रकृति का अंतर्विरोध है, इसे सहना ही होगा।’
श्रद्धांजलि लिखना हमेशा कष्टदायक होता है, क्योंकि यह एक तरह से दिवंगत लेखक का कहीं मूल्यांकन भी होता है। मेरे एक स्व. मित्र मजाक में प्रायः मुझे श्रद्धांजलि-लेखक कहा करते थे। मैं उनकी बात का बुरा नहीं मानता था, क्योंकि अब तक मैंने हिंदी के अनेक महत्वपूर्ण लेखकों की श्रद्धांजलि पत्र-पत्रिकाओं में अपना कर्तव्य समझ कर लिखी थी, क्योंकि मुझे लगा नई पीढ़ी दिवंगत लेखक को भूल न जाए। इस प्रसंग में मुझे छठे दशक के उत्तरार्ध में आचार्य शिवपूजन सहाय और प्रो. नलिन विलोचन शर्मा की बातचीत का एक दिलचस्प हिस्सा याद आता है। बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन की पत्रिका ‘साहित्य’ के ये दोनों संपादक एक दिन मनोविनोद के मूड में थे। शिवपूजन बाबू ने कहा- ‘नलिन, तुम बहुत अच्छी श्रद्धांजलि लिखते हो। तुम्हें मेरी श्रद्धांजलि भी लिखनी पड़ेगी। नलिन जी ने पटल कर कहा- स्थिति उलटी भी हो सकती है और सचमुच ऐसा ही हुआ। 1961 में नलिन जी का आकस्मिक देहांत हुआ और शिवपूजन बाबू को एक नहीं तीन पत्रिकाओं के स्मृति विशेषांकों (‘साहित्य परिषद पत्रिका’, ‘नई धारा’ आदि) का संपादन करना पड़ा। प्रकृति कभी-कभी क्रूर मजाक करती है। अपनी पत्नी को छोड़ कर अपने किसी परिजन की शव-यात्रा में शामिल होने का मुझे चाहते हुए भी अवसर नहीं मिला। अपने जीवन में पहली बार मैं शिवपूजन बाबू की शवयात्रा में 1963 में शामिल हुआ था।
भैया मुझसे 5 साल बड़े थे। हम चार भाइयों में सबसे कोमल, साथ ही कमजोर। मुझे लगता था शराब पीने की अपनी अराजक आदत के कारण मेरी मौत उनसे पहले होगी। उन्हें मेरी श्रद्धांजलि लिखनी पड़ेगी। बहरहाल, लगभग 70 वर्षों का हमारा साथ रहा। मैंने उनके कवि रूप को भी देखा, उनके आलोचक रूप को तो आप सबने देखा। अपने बचपन की सिर्फ तीन घटनाओं का उल्लेख मैं इसलिए करना चाहूंगा, क्योंकि इससे उनके स्वभाव, प्रकृति और अनुशासन की झलक मिलती है। 1949 में अपने गांव के विद्यालय में पहली क्लास से मैं दूसरी क्लास में चला गया। पता नहीं उनको कैसे पता चला कि मुझे अक्षर पहचानना नहीं आता है। एक दिन शाम को लालटेन जलने के बाद उन्होंने मुझसे हिंदी की किताब लाने का आदेश दिया। किताब सामने थी। उसमें एक कविता ‘तकली’ शीर्षक से थी। उन्होंने कहा- इसे पढ़ो। पूरी कविता कंठस्थ थी, मैंने उन्हें सुना दिया। अब आई मेरी परीक्षा की घड़ी। उन्होंने कहा- यह बताओ ‘तकली’ शब्द कहाँ है? मैं पकड़ा गया। उन्होंने मुझे लङ़कों के स्कूल से हटा कर लड़कियों के स्कूल कन्या पाठशाला, जो ठीक मेरे घर के थोड़ा आगे था, डाल दिया।
दूसरी घटना मजेदार है। बचपन में ही गांव के सहपाठियों के साथ मुझे ताश खेलने का चस्का लग गया था। एक दिन ताश खेलते रंगे हाथ उन्होंने मुझे पकड़ लिया। उनके हाथ में छाता था। गुस्सा तो आया ही। उन्होंने उसी छाते से जोर से मुझे पीठ पर मारा। छाता टूट गया। मुझे कितनी चोट लगी इसकी चिंता उनको नहीं थी, चिंता थी छाता टूटने के कारण बाबू से डाँट सुननी पड़ेगी। तीसरी घटना अनुशासन से संबंधित है। मैं मिडल क्लास पास कर चुका था। गर्मियों की छुट्टी में वे मुझे अंग्रेजी व्याकरण पढ़ा रहे थे और हिंदी से अंग्रेजी में ट्रांसलेशन करना सिखा रहे थे। उसी समय ठीक मेरे दरवाजे के सामने से एक बारात गुजरी, लेकिन मेरी हिम्मत नहीं थी कि मैं आँख उठा कर उसे देख सकूं। वे एक ‘हार्ड टास्क मास्टर’ थे।
मेरे दोनों अग्रज ब्रजकिशोर सिन्हा और नंदकिशोर नवल का हिंदी साहित्य से गहरा लगाव था। घर पर साहित्यकारों के पत्र, पत्रिकाएँ और नई पुस्तकें आती रहती थीं। कभी वी.पी.पी. से, कभी कलकत्ता या पटना से खरीद कर। भैया कविता लिखना मिडल क्लास से ही शुरू कर चुके थे। उनकी पहली कविता- ‘साथी, किस पर मैं अपना प्यार लुटाऊं’, पटना के साप्ताहिक ‘योगी’ में 1951 में छपी थी। पटना के साहित्यकारों से उनका परिचय हो चुका था। जब वे नाइंथ क्लास के विद्यार्थी थे, उनका पहला कविता संग्रह ‘मंजीर’ छपा था। शीर्षक आचार्य शिवपूजन सहाय का दिया हुआ था। 1955 के साप्ताहिक ‘योगी’ के दीपावली विशेषांक में उनकी एक कविता ‘दीपशिखा- सी जलो सुवासित तुम मेरे मानस में’ छपी। इस कविता को पढ़कर माखनलाल चतुर्वेदी ने संपादक के नाम पत्र लिखा था, जिसे उन्होंने भैया को भेज दिया था। पत्र मेरा देखा हुआ ही नहीं, पढ़ा हुआ भी है। भैया मेधावी थे ही, साहित्यकारों की नई पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाओं को ढूँढ कर पढ़ते थे।
उन्होंने गांव के नवयुवक पुस्तकालय को अपने गीतों का पहला संग्रह ‘मंजीर’-‘साहित्य-पिता नवयुवक पुस्तकालय को’, लिख कर दी थी। एक बार मैंने देखा उनके नाइंथ क्लास की हिंदी कापी पर किसी शिक्षक ने उनके द्वारा लिखे निबंध पर टिप्पणी की थी- ‘यदि इसी तरह लिखते रहे तो कभी विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम होने का अवसर मिलेगा।’ 1960 में उन्होंने पटना कालेज से बी.ए. (आनर्स) हिंदी में किया। उन्हें प्रथम श्रेणी में दूसरा स्थान मिला, लेकिन एम.ए. (हिंदी) में पटना विश्वविद्यालय में उन्हें प्रथम श्रेणी में प्रथम (गोल्ड मेडलिस्ट) स्थान मिला। 1960 के बाद वे क्रमशः गद्य, खास कर आलोचना की ओर मुड़े। नागार्जुन ने अपने एक पत्र (4 मई 1955) में लिखा- ‘मगर बेटा, गद्य नहीं लिखोगे तो काल तुम्हें धकिया कर मुख्यधारा से हटा कर दियारे में फेंक देगा। पूरा साहित्यकार होने की नीयत हो तो फिर गद्य की तरफ अपने को मोड़ो, हाँ।’ इसी तरह 22 जून 1955 के पत्र में उन्होंने लिखा- ‘तुम्हारा गद्य खूब ही जीवंत होता है, इसका सबूत इन पत्रों से मिला- ‘बिंदु-विसर्ग या कॉमा तक की त्रुटि तुम्हारी लेखनी को ज्ञात है- यह एक भारी चमत्कार है बबुआ। मैं तुम्हारी प्रतिभा के प्रति आश्वस्त हो उठा हूँ। मेरी लालसा है कि आगे चल कर तुम्हें गद्य की तरफ मुड़ा हुआ पाऊं।’
एम.ए. करने के बाद आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा के निर्देशन में उन्होंने ‘निराला का काव्य-विकास’ पर पीएच.डी. का शोध प्रबंध लिखा। इस सिलसिले में उन्होंने बनारस में नागरी प्रचारिणी के पुस्तकालय को खंगाल डाला और त्रिलोचन की संगत की, जिन्होंने निराला की कई कविताओं की गाँठ खोली। शिवचंद्र शर्मा द्वारा संपादित ‘स्थापना’ पत्रिका के त्रिलोचन-केंद्रित अंक में ‘डायरी बनारस की, संगत त्रिलोचन’ की छपी। वैसे उनका पहला आलोचनात्मक लेख ‘गीत-नवगीत’ शीर्षक से ‘माध्यम’ 1965-66 में प्रकाशित हुआ। ‘समीक्षा’ (सं. गोपाल राय) में उन्होंने खूब समीक्षाएँ लिखीं। बाद में वे डॉ. नामवर सिंह द्वारा संपादित ‘आलोचना’ में छपने लगे। उनके आलोचनात्मक लेखों की पहली पुस्तक ‘कविता की मुक्ति’ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से 1980 में प्रकाशित हुई। इसी वर्ष वे ‘आलोचना’ के सह-संपादक हुए। पांच वर्षों तक नामवर जी को ‘आलोचना’ के प्रकाशन को नियमित करने और सामग्री जुटाने में यथासंभव मदद की। डॉ. रामविलास शर्मा की 70वीं वर्षगांठ पर उन पर केंद्रित अंक में ‘हरसिंगार की छाया में’ लंबी डायरी छपी, जिसमें उन्होंने आगरा में एक सप्ताह रुक कर रामविलास जी से निरंतर मिल कर, उनसे हुई साहित्यिक बातचीत को दर्ज किया था। एक समय ‘नागार्जुन की राजनीति’ (अपूर्वानंद) पुस्तक की भूमिका लिखने के कारण बड़ा विवाद हुआ, जिसके कारण उनको ‘आलोचना’ से हटाया गया। यह निर्णय नामवर जी का था, लेकिन इसके लिए दोषी ठहराई गई शीला संधू (देखें- ‘तद्भव’ का अंक)।
कहना न होगा कि ‘आलोचना’ नंदकिशोर नवल के आलोचक का प्रस्थान बिंदु है। बाद में उन्होंने आठ खंडों में ‘निराला रचनावली’ का संपादन किया, जो हिंदी विद्वानों की दृष्टि में नेमिचंद्र जैन द्वारा संपादित ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के बाद दूसरी सुसंपादित रचनावली है। उन्होंने ‘दिनकर रचनावली’ (चौदह खंड) के आरंभिक पांच काव्य खंडों का संपादन भी तरुण कुमार के साथ किया। निश्चित रूप से वे मार्क्सवादी आलोचना से प्रभावित थे, लेकिन मानने थे कि ‘हिंदी आलोचना मार्क्सवाद के वियोंड भी है।’ (साक्षात्कार-नंदकिशोर नवल)।
आलोचना में डॉ. नवल ने मुक्तिबोध, निराला और मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं पर गंभीरता से लिखा। यही नहीं, उन्होंने ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ (भारतीय ज्ञानपीठ) भी लिखा। लिखे बिना वे रह नहीं सकते थे। 1980 के बाद उन्होंने निरंतर लिखा और खूब लिखा।
पत्रिकाओं के संपादन में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। आजादी के पूर्व, जिन दो साहित्यकारों ने सबसे ज्यादा पत्रिकाओं का संपादन किया, उनमें आचार्य शिवपूजन सहाय के बाद श्री रामवृक्ष बेनीपुरी थे। कई पीढ़ियों के बाद सातवें दशक से अब तक कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने लगभग आधा दर्जन से ऊपर -‘समवेत’ से लेकर ‘पूर्वग्रह, समास होते हुए अब ‘नटरंग’ तक का संपादन किया। डॉ. नवल ने छह-सात पत्रिकाओं का संपादन किया, 1968-69 में अपने सहयोगियों- सिद्धिनाथ मिश्र, कुलबंद मिश्र, शिवबच्चन सिंह के साथ ‘ध्वजभंग’ निकाला। पत्रिका निकालने की योजना राजकमल चौधरी के साथ बनी थी और उन्होंने पत्रिका का नाम- ‘प्रचोदयात’ (गायत्री मंत्र में प्रयुक्त) सुझाया था, लेकिन डॉ. नवल उनकी तरह क्रांतिकारी नहीं थे। ‘ध्वजभंग’ का प्रवेशांक जून 1968 को राजकमल चौधरी की पहली पुण्य तिथि पर निकला था। इसके आवरण पृष्ठ पर 21 कविता पुस्तकों के शीर्षक थे। चौदह शीर्षक के आगे ‘क्रास’ का चिह्न लगा था, शेष सात पुस्तकों की समीक्षाएँ सहयोगी संपादकों द्वारा लिखी गई थीं। दूसरे अंक में चुनी हुई सात कहानियों की समीक्षाएँ थीं और अंतिम अंक में लंबी कविताएँ।
‘ध्वजभंग’ के बाद स्वतंत्र रूप से युवा लेखन के लिए प्रतिबद्ध उन्होंने ‘सिर्फ’ का संपादन किया। इस पत्रिका का प्रवेशांक मार्च 1970 में और आखिरी छठा अंक दिसंबर 1971 में निकला। ‘सिर्फ’ के संयोजन में 27-28 दिसंबर 1970 में पटना में विराट युवा लेखक सम्मेलन हुआ, जिसमें लगभग तब के 50-60 युवा लेखक शामिल हुए- जिनमें रेणु, नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, धूमिल, नागेश्वर लाल, ममता कालिया, काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, परमानंद श्रीवास्तव, रवींद्र कालिया, वेणुगोपाल, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, नंद चतुर्वेदी, ज्ञानेंद्रपति, सतीश जमाली, वीरेन डंगवाल, वाचस्पति उपाध्याय, नीलाभ, जुगमिंदर तायल, विभु कुमार, सुरेश सेठ, चंद्रभूषण तिवारी आदि शामिल थे। 1957 में इलाहाबाद में आयोजित साहित्यकार सम्मेलन और 1965 में कलकत्ता में संपन्न कथाकुंभ के बाद यह तीसरा बड़ा आयोजन था, जिसकी स्मृति अब भी कुछ साहित्यकारों को है।
डॉ. नवल द्वारा संपादित तीसरी पत्रिका थी- ‘धरातल’। इसके संपादक में नाम तो जाता था अयोध्यानाथ शांडिल्य का (मथड़ा, बिहार शरीफ-नालंदा) लेकिन संपादक थे- नंदकिशोर नवल। ‘धरातल’ के कुल 14-15 अंक निकले। प्रवेशांक सितंबर 1977 में और अंतिम अंक- 14-15- जून 1982 में प्रकाशित हुआ। अपने एक पत्र में वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह लिखते हैं- ‘उसने (धरातल) सबसे महत्वपूर्ण काम शायद यह किया है कि उसके द्वारा पहली बार अरुण कमल, राजेश जोशी और उदयप्रकाश जैसे एकदम नए कवियों का कृतित्व सामने लाया गया (धरातल-8 जून 1979)। ‘धरातल’ में (9-10 दिसंबर 1979) ही डॉ. नामवर सिंह का जेएनयू में 1980 में प्रेमचंद की जन्मशती पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में अंग्रेजी में लिखा गया एकमात्र लेख अब तक असंकलित छपा।
‘उत्तरशती’ (पटना) का संपादन भी उन्होंने किया था, इसके कुछ अंक मैंने देखे थे। नामवर जी के साथ सह-संपादित ‘आलोचना’ और अंतिम पत्रिका ‘कसौटी’ थी, जिसका प्रवेशांक अप्रैल-जून 1999 में और 15वां और अंतिम अंक अक्टूबर-दिसंबर 2002 में निकला था।
‘कसौटी’ साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास में संभवतः पहली ऐसी पत्रिका थी, जिसके प्रवेशांक में ही संपादक ने घोषणा कर दी थी कि इस पत्रिका के सिर्फ 15 अंक निकलेंगे, यानी- आरंभ और समापन की घोषणा दाएँ-बाएँ। और सचमुच पत्रिका का समापन अंक 15वां अंक- ‘बीसवीं शती : कालजयी कृति’ पर केंद्रित था। यह अंक न केवल इस पत्रिका की उपलब्धि थी, बल्कि हिंदी साहित्य की भी उपलब्धि थी, क्योंकि इसमें हिंदी की श्रेष्ठ कृतियों का- कविता, उपन्यास, कहानी, नाटक, इतिहास-आलोचना और स्ट– का पुनर्मूल्यांकन हिंदी के विधाविशेष के विशेषज्ञ आलोचकों द्वारा किया गया था। इसकी चर्चा पत्र-पत्रिकाओं में खूब हुई। अंतिम अंक के संपादकीय ‘मुहूर्त्त ज्वलित श्रेयो’ में लिखा गया था- ‘हमने ‘कसौटी’ के प्रवेशांक के संपादकीय में निवेदन किया था। ‘फिलहाल हमने ‘कसौटी’ के पंद्रह अंक निकालने का निश्चय किया है। हम यह दावा नहीं करते कि इतने ही अंकों से हम साहित्य के परिदृश्य को बदल देंगे, क्योंकि हम हिंदी साहित्य की व्यापकता से परिचित हैं, लेकिन ये अंक उस दिशा में एक सार्थक हस्तक्षेप होंगे, इसका हमें विश्वास है। हम पुनः यह बात दुहरा रहे हैं कि हमारा उद्देश्य धुंध को छांटना होगा, न कि एक नई धुंध खड़ी करना या जो पहले से फैली हुई है, उसे और घना करना।’
इस सचाई के बावजूद कि नंदकिशोर नवल ने जबर्दस्ती अपने भीतर के कवि को अपने जानते मार दिया था, लेकिन अंत–अंत तक उनके भीतर का कवि जीवित रहा और जब–तब उनके लेखन के बीच झांक लेता था, जब वे कविताओं का विश्लेषण हार्दिक संवेदनशीलता के साथ करते थे। उनका स्वतंत्र, सहयोगी कवि के साथ और चुनी हुई कविताओं के चार संग्रह हैं– (1) ‘कहाँ मिलेगी पीली, (2) ‘आभा’ सिद्धिनाथ मिश्र के साथ, (3) ‘नीलकमल कुछ और भी धुल गया’ (चुनी हुई कविताएं) संपादक–श्याम कश्यप, (4) पथ यहाँ से अलग होता है, संपादक–राकेश रंजन, (5) ‘उदय बेला’, संजय शांडिल्य के साथ।
उनके लेखन के आरंभ में 1956 में, उनकी दो कहानियाँ प्रकाशित हुईं। पटना से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र ‘आर्यावर्त’ में ‘बेनीचाचा’ और जमालपुर (मुंगेर) से प्रकाशित ‘वीर बालक’ में ‘बैटरी शॉट’। ये दोनों कहानियाँ मेरी पढ़ी हुई हैं। पहली कहानी हमारे गांव के एक ऐसे कुटिल आदमी पर लिखी गई है, जो न केवल गांव की राजनीति में दखल देते हुए अपना स्वार्थ साधता था, बल्कि अपने ईमानदार काग्रेसी बड़े भाई को भी अपनी कुटिलता में लपेटने की कोशिश में रहा करता था। दूसरी कहानी में हमारे गांव के दूसरे धनी व्यक्ति हैं जो अपनी रेडियो की हिफाजत के लिए ‘बैटरी शॉट’ का बहाना करते थे।
हिंदी में नागार्जुन ने हजारों पत्र लिखे हैं- हिंदी लेखकों, पाठकों और अपने प्रशंसकों को। 151 पत्र तो उन्होंने डॉ. नवल को लिखे। मुझे लिखे पत्रों की संख्या भी 50 से ऊपर है। वाचस्पति (बनारस) के पास उत्तर-काशी जहरीखाल में महीनों रहते थे। उनके शांति निकेतनी झोले में पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों के अतिरिक्त पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय भरपूर होते थे। डॉ. नवल भी मुस्तैदी के साथ लेखकों और प्रियजनों को खूब पत्र लिखते थे। मुझे उन्होंने 35 वर्षों में 1970 से 2003 तक 271 पत्र लिखे। ये मेरे द्वारा संकलित और संपादित पुस्तक ‘प्रिय भग्गन’ (मेरा घरेलू नाम) शीर्षक से प्रकाशित है। इधर कवि-पत्रकार स्व. श्याम कश्यप के नाम लिखे लगभग 300 पत्र सुरक्षित ढंग से तिथि-क्रम से तीन फइलों में मुझे मिले हैं, जिन्हें मैं संपादित करके प्रकाशित करूंगा।
पिछले दिनों मैं पं. मुकुटधर पांडेय की पुस्तक-‘हिंदी में छायावाद’ देख रहा था। इस पुस्तक में संकलित आरंभिक चार लेख ‘श्री शारदा’ पत्रिका (जबलपुर) में 1920 में छपे थे। डॉ. नामवर सिंह ने अपनी ‘छायावाद’ पुस्तक (1955) में ‘श्री शारदा’ में प्रकाशित लेखों का पहली बार उपयोग किया था। पं. मुकुटधर पांडेय ने अपनी पुस्तक में इसका उल्लेख किया है। मुझे देख कर हैरानी हुई कि भैया ने अपने शोध के क्रम में पं. मुकुटधर पांडेय को छायावाद को लेकर एक प्रश्नावली भेजी थी। पांडेय जी ने विस्तार में क्रम से उन प्रश्नों का उत्तर दिया है, रायगढ़ से 3.9.67 के अपने पत्र में। मुकुटधर पांडेय ‘छायावाद’ शब्द के प्रस्तुतिकर्ता ही नहीं, सबसे पहले छायावादी कवियों पर टिपप्णी करनेवाले भी थे। उन्हें लंबी आयु मिली थी। उनके जीवित रहते ही उन्हें मृत मान लिया गया था। उनका जन्म 30 सितंबर 1895 में और निधन 6 नवंबर 88/89 में हुआ था। इस तरह वे 93/94 वर्ष जीवित रहे।
इधर मैं देख रहा था कि भैया अपने जीवन की सांध्य बेला में कई प्रकाशित पुस्तकों में संकेत देते रहे थे कि यह आलोचना पर उनकी आखिरी पुस्तक है। लेकिन फिर वे किसी नई पुस्तक में लग जाते थे। उनकी पुस्तक ‘मूरतें : माटी और सोने की’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से 2017 में निकली। इसी की भूमिका में लिखते हैं-‘मैंने अपनी पिछली पुस्तक ‘हिंदी कविता : अभी, बिल्कुल अभी’ की भूमिका में कहा था कि इस पुस्तक के साथ हिंदी में मेरे आलोचनात्मक लेखन की समाप्ति होती है और भविष्य में मैं आलोचना जैसी कोई चीज न लिख सकूँगा।’ मेरा आशय हिंदी कविता की आलोचना से था। उसमें मैंने यह कहा था कि अब मैं हिंदी से इतर तीन महाकवियों- कालिदास, विद्यापति और रवींद्रनाथ पर पुस्तक लिखूंगा।…’ खैर, इन तीनों पर लिखने की अपनी क्षमता देख कर उन्होंने यह विचार छोड़ दिया और संस्मरण लिखने में लग गए। लेकिन इसी भूमिका के अंत में घोषित करते हैं, ‘मेरी अगली पुस्तक अज्ञेय की कविता पर होगी, जिसमें पांच-छह निबंध होंगे। दो निबंध मैंने लिख रहे हैं बाकी तीन-चार निबंध लिखकर, आशा है, दिसंबर के मध्य तक मैं वह पुस्तक पूरी कर लूंगा। कमाल देखिए, ‘मूरतें’ राजकमल से 2017 में निकली और उसके पहले 2016 में ‘कवि अज्ञेय’ पुस्तक आ गई।
इधर उनसे मिले बहुत दिन हो गए थे। शायद एक-दो वर्ष। फोन पर बातचीत होती थी। उनका जीवन अनुशासित था और लेखन व्यवस्थित। वे बेहद संयमी थे। इसलिए हमलोग यह मानकर चल रहे थे कि उन्हें खूब लंबी उम्र मिलेगी। लेकिन हुआ उलटा। अब विश्लेषण करने पर मुझे लगता है, दशकों से लगातार लिखते–लिखाते उन्होंने अपने को ‘एक्झास्ट’ कर लिया था, यानी ‘निचोड़’ लिया था। उनके शरीर में रेसिस्टेंस शक्ति नहीं रह गई थी। ऊपर से उनकी जिजीविषा मर गई थी। ‘मूरतें’ वाली पुस्तक में दो बार उन्होंने मृत्यु की आकांक्षा प्रकट की है। ‘बाबू’ (पिताजी) पर लिखे संस्मरण ‘चट्टान-सा धीरज’ के अंत में लिखते हैं- -‘ईआ (मां) चली गई, उसका यह प्यारा बेटा भी उसके पास जल्दी से जल्दी पहुंचने का इंतजार कर रहा है। फिराक का यह शेर मैं अक्सर दुहराता हूँ :
सब मरहले हयात के तय करके अब फिराक
बैठा हुआ हूँ मौत में ताखीर (विलंब) देख कर।
‘मूरतें’ का अंतिम संस्मरण नामवर जी पर है, जिसमें स्पष्ट लिखते हैं- ‘मुझे जो करना था, वह कर चुका। यह पुस्तक मेरी अंतिम पुस्तक (सचमुच-लेखक) है। अब मेरी जीने की इच्छा नहीं है, सो मैं चाहता हूं कि मेरी शेष आयु उन्हें (नामवर जी) मिल जाए और वे शती पूरी करें। उनकी उपस्थिति-मात्र से हिंदी श्री संपन्न बनी रहेगी। अंत में प्रियदर्शी ठाकुर ‘खयाल’ का एक शेर उद्धृत कर मैं आपसे विदा लेता हूँ। ‘थोड़ी दूर और मेरा बोझ उठा/ फिर तो ले जाएगी हवा मुझे।’
उनके जाने के साथ लगता है, मैं भी चला गया। जब उन्हें कोई पुस्तक नहीं मिलती थी तो मुझसे कहते थे। जिन दिनों ‘हिंदी आलोचना का विकास’ ‘आलोचना’ में धारावाहिक छप रहा था, उन्हें डॉ. रामविलास शर्मा की पहली पुस्तक- ‘प्रेमचंद’ (1941) नहीं मिल रही थी। मैं बिहारशरीफ (नालंदा) में था। वहाँ के एक पुराने पुस्तकालय में यह पुस्तक मुझे मिल गई। इसी तरह आचार्य नंददुलारे वाजपेयी की पुस्तक ‘प्रेमचंद : एक विवेचन’ भी। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ- उन्हें कैसे श्रद्धाजंलि दूँ। क्योंकि मुझे मालूम है लेखक कभी नहीं मरता- अपनी कृतियों में हमेशा जीवित रहता है।
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