शंभुनाथ
वैश्वीकरण और डिजिटल क्रांति ने बहुत-सी मूल्यवान चीजों को मनुष्य के हाथ से बाहर कर दिया है, उन्हें पुनः उपलब्ध करना कठिन बना दिया है। दोनों मिलकर तरह-तरह से ‘तर्क’, ‘मूल्य’, ‘सच’, ‘न्याय’ जैसी चीजों का ध्वंस कर रहे हैं। उनसे सबसे ज्यादा प्रभावित मीडिया है।
कभी पत्रकारिता को चौथा खंभा कहा जाता था। लोकतांत्रिक परिसर के निर्माण में उसकी बड़ी भूमिका को देखते हुए ही ऐसा कहा जाता था। लेकिन जबसे मीडिया शब्द लोकप्रिय होने लगा, भूमिका बदलने लगी। आजकल मीडिया जनमत को नियंत्रित करने का हथियार है। वह अब लोकतांत्रिक परिसर पर कब्जा करने के लिए है। कहना न होगा कि कारपोरेट पूंजी की बढ़ी ताकत से यह बुरी स्थिति आई।
बिग मीडिया के समानांतर ‘लिटिल मीडिया’ है, जिसे हम ‘लघु पत्रिका’ की धारणा का विकास मान सकते हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं सहित जो विभिन्न वैकल्पिक कला-सांस्कृतिक निर्माण हैं, यह उनकी दुनिया है। यह दुनिया भी अब सिकुड़ने लगी है। यहां तक कि कई अखबार, जो पहले बड़े सूचना घराने के रूप में देखे जाते थे, अब लिटिल मीडिया जैसे दिखते हैं। बिग मीडिया की माया और वैकल्पिक सांस्कृतिक निर्माण के सामने संकट खड़ा है, साथ ही साहित्यिक पत्रिकाओं के सामने भी नई चुनौतियाँ उपस्थित हैं।
21वीं सदी में मीडिया के स्वरूप में एक भारी परिवर्तन आ गया है, जिसकी कभी कल्पना नहीं की गई थी। फलस्वरूप इसे ‘नया मीडिया’ तथा बाकी को ‘परंपरागत मीडिया’ कहा जाता है। मनोरंजक घटना यह है कि अपनी परंपराओं में जीने वाली करोड़ों जनता ही सबसे पहले चमक-दमक से भरे नया मीडिया की तरफ आकर्षित हुई। नया मीडिया ने भी लोगों के धर्म, जाति, धार्मिक विश्वास, अंधविश्वास और रुचियों के पोषण को अपना लक्ष्य बनाया। उसने पृष्ठभूमि में जा रही सामाजिक रूढ़ियों को पुनः उभारते हुए ‘जिसकी सत्ता – उसकी गुलामी’ की नीति अपना ली। मीडिया का बुनियादी सिद्धांत रहा है – ‘सूचना ही शक्ति है’। यह बदलकर हो गया – ‘शक्ति ही सूचना है’!
मीडिया में कारपोरेट पूंजी के आगमन के बाद परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। अब सत्ता के लिए तर्क, मूल्य, सच और न्याय को मनमानी दिशा में हांकना आसान हो गया। बदले में विज्ञापन से भारी कमाई होने लगी। दर्शक को अब पता भी नहीं चलता कि वे बेच दिए गए हैं! इसकी बिलकुल जरूरत है कि नया मीडिया को उसके वास्तविक स्वरूप में पहचाना जाए – उसे ‘कारपोरेट मीडिया’ कहा जाए।
संक्षेप में देखा जा सकता है कि कारपोरेट मीडिया क्या करता है। इसमें संदेह नहीं कि पिछले दो-तीन सौ सालों में लोकतांत्रिक विचारों और आंदोलनों ने दुनिया में तर्क, मूल्य, न्याय और सच का जो बीजवपन किया था, कई देशों में वह पेड़ अभी सूखा नहीं है, डालियां भले कमजोर हो गई हों। इसलिए कारपोरेट मीडिया बीच-बीच में बड़े जन-असंतोषों को संबोधित करता है, लेकिन उनमें छेद और दरार डालने की तिकड़मों के साथ। वह निश्चय ही एक विचारधारा लेकर चलता है, जिसे हम इस युग्म से समझ सकते हैं – ‘उच्च टेक्नोलॉजी – निम्न आइडियोलॉजी’!
इसमें संदेह नहीं कि बिग मीडिया का, जो कारपोरेट मीडिया है, इन दिनों व्यापक पतन हुआ है। उसमें मुनाफाखोरी का पागलपन है, दायित्वबोध नहीं। उसकी खबर अब विज्ञापन है। वह दो काम करता है। पहला – लोगों को स्मार्ट, डिजिटल और आत्मनिर्भर भोगमय जीवन के झूठे सपने दिखाना। दूसरा – धर्म, जाति, ‘हम-वे’ की धारणाओं के आधार पर करोड़ों लोगों के दिमाग का सांस्कृतिक रेजिमेंटेशन करना। वह ‘बौद्धिक समतलीकरण और भावनात्मक विभाजन’ करता है। कहना न होगा कि बिग मीडिया ‘ऐक्यबद्ध बाजार और विभाजित समाज’ की विचारधारा से संचालित है। कारपोरेट बाघ चाहते हैं कि एक तरफ बाजार मुक्त हो जाए और दूसरी तरफ आम लोग बंटे रहें। अंतर्विभाजन की यह छाया लेखकों, एलीट बुद्धिजीवियों और समस्त बौद्धिक वर्गों के मानस पर भी देखी जा सकती है।
इसमें संदेह नहीं कि बिग मीडिया को हमारे जीवन का एक अंग बने रहना है। आमतौर पर सभी टीवी देखते हैं, अखबार पढ़ते हैं। हम इन चीजों से बच नहीं सकते, पर यह संभव है कि अपनी सामाजिक जिंदगी इनके हवाले न करें। बहुतों को बोध हो भी चला है कि बिग मीडिया शोरगुल की जगह है, सनसनी की! सोशल मीडिया पर संवाद कम होता है, बहस कम होती है, शत्रुताएं ज्यादा पैदा होती हैं या पिछलग्गूपन ज्यादा दिखता है।
इस दुखदायी परिदृश्य में सिर्फ साहित्यिक पत्रिकाओं को ही समस्याओं से गुजरना पड़ता है, ऐसा नहीं है। समस्याएं दरअसल चित्रकला, संगीत, नृत्य, नाटक, फिल्म आदि क्षेत्रों में उन सभी के सामने हैं जो छोटे संसाधनों से वैकल्पिक सांस्कृतिक निर्माणों में लगे हैं। हम बिग मीडिया के समानांतर इन सबको ‘लिटिल मीडिया’ कह सकते हैं। ये संसाधनों के स्तर पर लिटिल हैं, लघु हैं, उद्देश्य के स्तर पर महान हैं। दरअसल इस समय वे सभी संकट से गुजर रहे हैं, जो कला, साहित्य और संस्कृति-कर्म की छोटी-छोटी इकाइयों से जुड़े हैं। अधिक चिंताजनक यह है कि उपर्युक्त संकट की गंभीरता को न समझते हुए कई बुद्धिजीवी अभी भी पुराने घिसे रिकार्ड की तरह बज रहे हैं।
समाज में तर्क, मानवीय संवेदना और मूल्य जब हाशिये पर जाएंगे तो साहित्यिक पत्रिकाएं भी किनारे होती जाएंगी। वे लेखकों के ही आसपास सिमट कर रह जाएंगी। पाठकों में भगदड़ रहेगी। हम अपने चारों तरफ देख सकते हैं कि साहित्यिक पत्रिका निकालने का उत्साह पहले से कम हुआ है। बेचैनी पहले से कम हुई है। यह एक भ्रम है कि साहित्यिक पत्रिका निकालकर कोई अमीर बना जा रहा है। यह अब मुनाफे का काम नहीं है।
आमतौर पर अपनी गांठ से पैसे निकालकर या नुकसान उठाकर ही आज साहित्यिक पत्रिका निकल रही है। अब पहले की तरह दो-चार व्यक्ति मिलकर पत्रिका नहीं निकालते। सबकुछ एकाकी प्रयास से होता है या फिर कुछ नहीं होता।
‘साहित्यिक पत्रिका’ को सिर्फ कविता, कहानी की पत्रिका की जगह अब ज्ञान के एक व्यापक अर्थ में लेना जरूरी है। इस पर गंभीरता से सोचना है कि साहित्यिक पत्रिकाओं से नई पीढ़ी का लगाव कैसे बढ़े, खुद लेखक तथा शिक्षण संस्थान इस महान आधुनिक परंपरा को बचाने के लिए क्या करें। कैसे साहित्यिक पत्रिकाओं के वितरण का पुनर्गठन हो, इस पर भी विचार करने की जरूरत है।
साहित्यिक पत्रिका को लेकर पहले की तरह का संकीर्ण वर्गीकरण अप्रासंगिक है। अब दो ही तरह की साहित्यिक पत्रिकाएं हैं – कट्टरवादी या उदारवादी! उदारवादी पत्रिकाओं में स्तर-भेद संभव है। साफ हो जाना चाहिए कि वीर रसात्मक और हास्यास्पद कवि सम्मेलन संभ्रांत भीड़ के बावजूद निश्चय ही साहित्य की जगहें नहीं हैं।
साहित्यिक पत्रिकाएं ही, चाहे वे प्रिंट में हों या डिजिटल, ताजा बौद्धिक गतिविधियों के आखिरी मंच हैं। दोनों माध्यमों की उपयोगिता है। ध्यान में रखने की जरूरत महसूस हो सकती है कि भारतीय भाषाओं के पाठक अभी इतने स्मार्ट नहीं हैं कि वे ऑनलाइन पर लंबी रचनाएं, लेख, कहानियां, उपन्यास आदि तल्लीनता से पढ़ सकें। निकट भविष्य में भी यह संभव नहीं दिखता, क्योंकि पत्रिका हो या किताब कुछ भी हाथ में लेकर पढ़ना एक अलग तरह का आनंद है।
इस तथ्य की ओर भी ध्यान जाना चाहिए कि इतनी चुनौतियों के बावजूद चार लेखक बैठकर साहित्यिक पत्रिकाओं की समस्याओं को दूर करने का उपाय नहीं सोचते। अच्छी साहित्यिक पत्रिकाओं को लेखक से रचनात्मक सहयोग के अलावा कुछ नहीं मिल पाता, जबकि बदले परिदृश्य में किसी सजग रचनाकार का दायित्व सिर्फ लिखने तक सीमित नहीं हो सकता। कुछ लोग सिर्फ लिखें और कुछ व्यक्ति सिर्फ पत्रिका निकालें और आयोजन करें, उस युग का अवसान हो चुका है।
आखिरकार भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट, प्रेमचंद जैसे लेखक कैसे लोग थे? क्या वे हमलोगों से ज्यादा आय वाले थे? चार-पांच दशक पहले तक ऐसे लेखक थे जो लेखन कर्म के साथ अपनी गांठ से पैसे निकाल कर पत्रिका निकालते थे। वे देश-दुनिया की निष्क्रिय चिंता में डूबे रहने वाले लोग नहीं थे। आज भी ऐसे कई लेखक हैं। यह जरूर अफसोसजनक है कि 21वीं सदी में ऐसे लेखकों की संख्या बढ़ रही है जो अपने घोंघेपन में ही बसंत देख लेते हैं। निश्चय ही यह परिघटना वैश्विक बौद्धिक क्षय का हिस्सा है।
सोशल मीडिया मुख्यतः मध्यवर्गीय मामला है। इस पर अपनी–अपनी वजहों से न अमीर होते हैं और न गरीब। लाखों–करोड़ों मासिक की आमदनी वाले लोग फेसबुक, व्हाट्सऐप आदि पर नहीं होते। सोशल मीडिया आभास कराता है कि वह खुद अब सभी कला–साहित्यिक रूपों का वैकल्पिक मीडिया है। यह कहां तक सच है?
हम सब लेखक-बुद्धिजीवी सोशल मीडिया में अपनी गुमटी बनाकर बैठे होते हैं। फेसबुक, ह्वाट्सऐप, ब्लाग आदि हमें सहयोग देते हुए दिखते हैं। वे हमें स्वतंत्रता का आभास कराते हैं, जो चाहे पोस्ट करो। लेकिन वे वस्तुतः हमारी क्षमताएं छीन रहे होते हैं, हमारी चिंताओं को संकुचित कर रहे होते हैं। हमारी दिमागी गैस निकलती है। हम घर में बैठे-बैठे ही दिग्विजय कर लेते हैं। सोशल मीडिया प्रसूति गृह है और कब्रगाह भी! यहां क्षणभंगुरता विराजमान है।
सोशल मीडिया आत्मसम्मोहन की प्रवृत्ति को उकसाता है, नार्सिस्टिक बनाता है। ग्रीक नायक नार्सिसस को अपने चेहरे से इतना प्यार हो गया था कि वह हर तरफ सिर्फ अपना चेहरा देखना चाहता था!
सोशल मीडिया पर लगभग टिड्डियों की तरह पोस्ट आते हैं- क्या करें पाठक! इस संदर्भ में कुछ व्यक्ति दावा करते हैं कि उनके 10 हजार फॉलोवर हैं, एक लाख फॉलोवर हैं। फॉलोवर के संबंध में यह सोचना कि वे सभी लोग रचनाएं पढ़ते हैं तो यह बहुत बड़ा भ्रम है। डिजिटल मंच जरूरी हैं, पर उनपर निर्भरता एक बड़े परंपरागत पाठक वर्ग की संभावनाओं से विच्छिन्न कर देगी।
उल्लेखनीय है कि सोशल मीडिया के ज्यादातर इलाकों पर बड़ी सूचना-फैक्टरियों का कब्जा है। वे ‘निर्मित’ और ‘झूठी’ सूचनाएं प्रसारित करती हैं। पोस्ट को लाइक और फारवर्ड करते-करते औसत बुद्धिजीवी या आम उपयोगकर्ता सोचने और कल्पना करने की अपनी शक्ति खो देता है। कई चीजें मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं, डिजिटल मनोरुग्णता बढ़ाती हैं। यह एक विडंबना है कि सैकड़ों युवा और बुद्धिजीवी आत्मसम्मोहन में अंततः बौद्धिक आत्मघात कर रहे हैं। मुझे लगता है कि सोशल मीडिया को सुबह-शाम चाय पीने से ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए। हम सोशल मीडिया का उपयोग करते हुए भी इसे स्वतंत्रता का महाद्वार न समझ लें, इसकी सीमाओं को जानें।
इस दौर में भौतिक बल बौद्धिक शक्ति पर भारी दिखाई देती है। भौतिक बल राजनीतिक-आर्थिक बल और अपनी छद्म वैचारिकता के साथ प्रभावी होता है। ताकत के जोर से अन्याय को ही न्यायसंगत और अबौद्धिकता को ही विज्ञान घोषित किया जाने लगता है। इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि यह सब अचानक हुआ। सबके पीछे सौ सालों की कट्टरवादी तैयारियां और सौ सालों की उदारवादी विफलताएं हैं।
यह समझ में आना चाहिए कि हर तरह का कट्टरवाद रचनात्मकता का एक बड़ा शत्रु है। निश्चय ही रचनात्मकता का भी सबसे बड़ा शत्रु कट्टरवाद है। कहना होगा, कट्टरवाद का सामना कट्टरवाद से नहीं किया जा सकता। कट्टरवाद जब सार्वभौम प्रवृत्ति बन जाता है तो स्पर्धा में जीतकर बड़ा कट्टरवाद ही राज करता है। जाहिर है, देश के लिए एक समावेशी भारतीय ‘विजन’ की जरूरत है। हमें यह भावना लाने की जरूरत महसूस होनी चाहिए कि मनुष्य से ऊपर कुछ नहीं है, अन्यथा हमारी टांग पुरानी, घिसीपिटी बहसों में फँसी रहेगी।
साहित्य के हाशियाकरण का सबूत इससे मिल सकता है कि आजकल के राजनेता कैसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं, टीवी वाले कैसी भाषा बोलते हैं और सोशल मीडिया में बहस का स्तर क्या है। देश के कर्णधारों और जनमत तैयार करने वाले मीडिया की भाषा अंतहीन अपशब्दों, कुतर्कों और धूर्त्तता तक पहुँच गई है। इससे पता चल सकता है कि आजकल के ऐसे पढ़े-लिखे लोग वस्तुतः साहित्य से कितने कटे हुए हैं, सौंदर्यबोध से कितने विच्छिन्न हैं।
बिग मीडिया के प्रचारों तथा उदारवादी राष्ट्रीय पहचान के क्षय का ही नतीजा है कि लोग उच्च सांस्कृतिक विरासत से विच्छिन्न हैं। एक तरह से बुद्धिपरकता का सार्वभौम विस्थापन हुआ है। आखिरकार साहित्य, साहित्यिक पत्रिकाओं और स्वतंत्र कला-प्रदर्शनों के अलावा और कौन है जो हमारी ऊच्च सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करेगा, समाज में बुद्धिपरकता को बचाकर रखेगा? नियंत्रण-मुक्त आवाजों के साहित्यिक मंच अब कितने बचे हैं? जाहिर है, यहां साहित्यिक पत्रिकाओं के सांस्कृतिक महत्व को समझ लेना चाहिए।
हिंदी संसार में कुछ काम इस मकसद से होते हैं कि सनद रहे। यह समाज व्यक्तिगत पसंद–नापसंद पर आधारित बहुत ही बहिष्कारपरक है। बहिष्कारवाद हिंदी चेतना का एक बुनियादी तत्व है, एक सामंती रुग्णता है! यह समझने की जरूरत है कि बहिष्कार करने वाला खुद भी बहिष्कृत होता है।
डिजिटल के प्रचार के बावजूद टीवी अप्रासंगिक नहीं हुआ। रेडियो ने फिर अपनी प्रासंगिकता बना ली। समाचार पत्र एक ही पद्धति की जगह नए तरीके अपना रहे हैं। इसी तरह मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं को एक बंद अध्याय मान लेना आत्मघात है। इसकी जगह उन्हें नई जीवनशक्ति की जरूरत है। साहित्य यदि प्रिंट में मर गया, तो वह ऑनलाइन में भी बच नहीं सकता। इससे प्रिंट माध्यम में साहित्य का महत्व समझा जा सकता है। एक बात और, प्रिंट में साहित्य क्षणभंगुर नहीं होता।
हम निश्चय ही एक भिन्न युग में हैं, पर हमें तो अपनी तरह से भिन्न होना है। पहले के जमाने में एक बुद्धिदीप्त सांस्कृतिक अंतःकरण था, जबकि आज के जमाने में एक प्रदूषित सांस्कृतिक अंतःकरण है। इसलिए – ‘हमें अपनी तरह से भिन्न होना है’ का अर्थ है – हमें उदार होना है, समावेशी होना है और पहले से अधिक मनुष्य होना है। साहित्य यहां साथ देता है।
उम्दा संपादकीय लेख।
इस संक्रमण काल में साहित्य,कला और संस्कृति की महान विरासत के वास्तविक रूप को वर्तमान और आने वाली ऑनलाइन पीढ़ियों तक सुरक्षित हस्तांतरित करने कि मुहिम छेड़ने की आवश्यकता है।आपके चेतना जगत से निकली साहित्यिक और पत्रकारीय चिंता समस्त बुद्धिजीवियों को सकारात्मक दिशा में सोचने के लिए आमंत्रण है। कहना न होगा कि आज का युवा पीढ़ी शार्ट कट,शोर और शोख चटक रंगों की ओर आकर्षित है। हर पल ऑनलाइन रहने की नशे की जद में हैं इन्हें कलजयी बनने की गुट्टी पिलाने के लिए समाज के प्रबुद्ध,साहित्यकारों,पत्रकारों,और कलाकारों और विद्वानों को बीड़ा उठाने की आवश्यकता है।
मूल्यवान से मूल्यवान चीज़ को यदि कोई महत्व न दिया जाए तो वह हमारे पास से ऐसे गायब हो जाती है जैसे कि वह हमारे पास कभी थी ही नहीं। आज हम हिंदी साहित्य और साहित्यिक पत्रिकाओं की स्थिति को लेकर यदि साकांक्ष और सजग न हुए और इन पत्रिकाओं में नई जीवन – ऊर्जा फूंकने के संकल्प के साथ आगे नहीं बढ़े, तो वह दिन दूर नहीं कि एक – एक कर सभी पत्रिकाओं का अस्तित्व बस इतिहास बनकर रह जाए !! वैश्वीकरण और डिजिटल क्रान्ति ने हमारे समाज और संस्कृति की चूलें हिला दीं हैं ।सबसे अधिक चिंतित करने वाली जो बात है वो ये कि दिन-प्रतिदिन हमारे देश और समाज में तर्कों, मुल्यों, सच और न्याय के लिए स्पेस कम होता जा रहा है और हम दिनों-दिन और अधिक असहिष्णु और अधिक प्रतिक्रियावादी होते जा रहे हैं। इस पतनोन्मुख समय में पत्रकारिता ( मीडिया ? ) जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा गया है, पतनोन्मुखता की सारी हदें पार कर गया है। कभी पत्रकारिता पूरी ईमानदारी और तटस्थता से की जाती थी, पर धीरे-धीरे इसकी जगह मीडिया शब्द प्रचलन में आया और पत्रकारिता का तो पूरा चरित्र ही बदल गया। पत्रकारिता पर जबसे कॉरपोरेट घरानों के आधिपत्य स्थापित करने का युग आरंभ हुआ, पत्रकारिता जोड़ने के बजाय तोड़ने के इक कारगर औज़ार के रूप में बहुत तेजी से विकसित हुआ है और इसलिए लोकतंत्र के साथ- साथ लोकतांत्रिक मूल्यों पर भी पूंजीवाद का शिकंजा कसने लगा है, क्योंकि जनमत को नियंत्रित करने हेतु ध्रुवीकरण और धार्मिक एजेंडे को मिडिया के मार्फ़त भड़काना भी आसान हो गया है और इस तरह जनमत को नियंत्रित कर सत्ता और बाज़ार का अनियंत्रित होना लाजमी है। आज कॉरपोरेट पूंजी की ताक़त बढ़ते – बढ़ते इतनी बढ़ गई है, कि मीडिया की स्थिति किसी भांड से अधिक नहीं रह गई है और इसलिए वह बाज़ार और सत्ता का भोंपू भर बनकर रह गया है और प्रतिरोध की क्षमता स्वार्थी नपुंसकता में परिवर्तित हो गई है। वैसे ‘ जिसकी लाठी उसकी भैंस ‘ यह तो हमेशा से ही होता आया है और इसलिए लोकतंत्र के बिके हुए चौथे स्तंभ पर दोषारोपण व्यर्थ है !! कॉरपोरेट मीडिया हमरा अपना ही चयन था, क्योंकि पुंजी के ज़ोर पर ऐसी चमक – दमक पैदा की गई कि हम आने वाले संकट की पदचापों को भांप न सके और हमें कॉरपोरेट मीडिया ने कब और कैसे अपना शिकार ( गुलाम ) बनाया हमें इसकी भनक तक नहीं लगी। पैसे के ज़ोर पर उच्च टेक्नोलॉजी तो आई, लेकिन इस मीडिया ने उच्च आइडियोलॉजी की हत्या कर दी। दायित्वबोध और मानवीय मूल्यों की रक्षा से कटे आज के इस कॉरपोरेट मीडिया का बस एक ही परम उद्देश्य रह गया है – मुनाफाखोरी !! बिग मीडिया या कॉरपोरेट मीडिया से हम चाह कर भी किनारा नहीं कर सकते हैं, क्योंकि जब तक हम टीवी और अखबारों से पूरी तरह से कट न जाएं, जो कि असंभव है, क्योंकि जाने – अनजाने में यह हमारे सामाजिक जीवन पर हावी हो गए हैं । आज साहित्यिक पत्रिकाओं से दिन-प्रतिदिन हमारी दूरियां बढ़ती ही जा रही हैं, क्योंकि बिग मीडिया के शोरगुल और सनसनी ने हम पर जैसे कोई काला जादू कर दिया है। रही सोशल मीडिया की बात तो वहां भी संवाद से अधिक विवाद ही है । कला, साहित्य और संस्कृति आज ख़तरे में है, क्योंकि हमारी नई पीढ़ी को साहित्य से ज़रा भी लगाव नहीं है और हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों को संकट की गंभीरता का अहसास नहीं है। हमारे लेखकों, बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों को इस बात की चिंता करनी चाहिए कि नई पीढ़ी को साहित्यिक और सांस्कृतिक सरोकारों से कैसे जोड़ा जाए। भारतेन्दु, बालकृष्ण भट्ट और प्रेमचंद की परंपरा को पुनर्जीवित करने की कोशिश होनी चाहिए और सीमित संसाधनों से घबराकर चुपचाप बैठ नहीं जाना चाहिए। सोशल मीडिया की बहुरंगी विविधता हमें संवेदनाविहीन आत्मप्रवंचना से अधिक क्या देती है ? इस पर भी बुद्धिजीवियों को पुनर्विचार करने की जरूरत है। लाइक और फॉरवर्ड की मानसिकता से ग्रस्त हमारे अवचेतन को उपचार की आवश्यकता है और वह उपचार हमें साहित्य से ही उपलब्ध होगा। आज साहित्य हाशिए पर है और इसलिए सोशल मीडिया से लेकर कॉरपोरेट मीडिया तक में जिस तरह की निम्न स्तर की भाषा का प्रचलन बढ़ा है वो हमारे उच्च सांस्कृतिक विरासत और परिमार्जित भाषा संस्कारों पर हमला है। संसद से सड़क तक जो भाषा आज प्रचलन में है वह अबौद्धिक, पक्षपातपूर्ण और कट्टरवादी विचारों से ओतप्रोत है। आपने सही कहा है कि, ” हमें उदार होना है, समावेशी होना है और पहले से अधिक मनुष्य होना है।” जो साहित्य के बिना संभव नहीं है। अतः हमें साहित्य के मुद्रण और वितरण को एक सांस्कृतिक उत्तरदायित्व मानकर अपना-अपना योगदान देना चाहिए।
बहुत ही बेहतरीन लेख मीडिया पर। खासकर आनलाइन पत्र पत्रिकाओं पर पाठकों की नजर पड़ने में हो सकता है थोड़ा समय लगे लेकिन वह समय भी दूर नहीं है।
एक एक चीज़ हिसाब से और करीने से रखने की कला का विकास शम्भूनाथ में है।
एक चीज़ छूट गई कि हर बड़ा मान लिया गया लेखक आत्ममुग्ध हो रहा है। गर्मजोशी से बढ़े हुए हाथ में अपनी मुर्दा अंगुलियां थमाने को शीर्ष का सुख मानने लगता है। वह जुड़ने और जोड़ने की ललक से बचने को अपना विक्रय-मूल्य मानने लगता है।
शम्भूनाथ चाहें तो इन मुर्दा होते प्रतिबद्धता की समाधि में समाहित होते बड़े लेखकों को जीवित करें क्योंकि कुछ भी हो उनमें क्षमता तो है। और पाठक वर्ग को नज़रअंदाज़ करनेवाली मानसिकता को दफ़नाने की कवायद भी करनी उन्हें चाहिये।