शंभुनाथ

‘जेठ की चढ़ती दोपहरी में खेतों में काम करनेवाले भी अब गीत नहीं गाते हैं।… कुछ दिनों के बाद कोयल भी कूकना भूल जाएगी क्या?’ (रसप्रिया)

‘रखिए अपना पुरुख वचन, खूब सुन चुकी हूँ पुरुख वचन! चालीस साल से और किसका वचन सुन रही हूँ!’ (तीर्थोदक)

‘जाति बहुत बड़ी चीज है। जाति की बात ऐसी है कि सभी बड़े-बड़े लीडर अपनी-अपनी जाति की पार्टी में हैं। यह तो राजनीति है।’

‘उपभोक्ताओं को पता नहीं- इस आंचलिकता नामक माल का आफ्टर इफेक्ट क्या होगा। इस नई चीज में विष की मात्रा कितनी है, किसी को नहीं मालूम।’ (बाजार दर)

‘भारतमाता जार-बेजार रो रही है।’ (मैला आँचल)

‘थर-थर कांपे धरती मैया, रोए जी आकास
घड़ी-घड़ी पर मूर्छा लागे, बेर-बेर पियास
घाट न सूझे, बाट न सूझे, सूझे न अप्पन हाथ’ (परती परिकथा)*

भारत के नेता जब विदेश जाते हैं, वे निश्चित रूप से अपने देश का नाम इंडिया बताते हैं। कोई भारत नहीं कहता। देश के कर्णधार जब धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हैं, तब किसी ने उन्हें इंडिया की जगह भारत बोलते नहीं सुना होगा। इन सभी के इंडिया से राम और पांडव की तरह किसान बहिष्कृत हैं!

हमारा देश, जहाँ ‘राष्ट्रवाद’ ज्यादा है, शहरी मिजाजवाला होता जा रहा है। उसमें किसान और गांवों के लिए जगह घट गई है। वह नई टेक्नोलॉजी की गोद में है। अब देश में ‘वर्ल्ड क्लास’ के सुपर बाजार और खाद्य शृंखलाएं हैं। मंदिर भी सैकड़ों करोड़ में बनते हैं। लेकिन एक घटना यह भी है कि कृषक खेत में गीत गाना भूल गए हैं! वे चिंताओं से घिरे हैं। दूसरी तरफ, ज्यादातर स्त्रियों को आज भी सिर्फ ‘पुरुख वचन’ सुनते रहना होता है। नेता अब देश से ज्यादा अपने धर्म में होते हैं, अपनी जाति में होते हैं। ढेर सारा साहित्य पढ़कर भी अधिकांश बुद्धिजीवी सामंती संकीर्णताओं से बाहर नहीं निकल पाते। आर्थिक मंदी में हालत यह है कि मेहनती हाथ बैठते जा रहे हैं, रोजी-रोजगार का संकट है।

फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य से यह साफ झलकता है कि कृषक, जेंडर, जाति और रोजगार के प्रश्न स्वतंत्र द्वीप की तरह नहीं हैं। इसका भी बोध होता है कि सांस्कृतिक समस्याओं की उपेक्षा करके हमेशा राजनीतिक मुद्दों को प्रधानता देना, बल्कि सत्ता के लिए सांस्कृतिक दुर्बलताओं का उपयोग करना देश के लिए किस तरह आत्मघातक है। रेणु महसूस कर चुके थे कि राजनीति अब पहले की तरह प्रेरणादायक नहीं रह गई है और साहित्यकारों की तो इसमें कोई इज्जत नहीं है।

रेणु को आंचलिक कथाकार या अंचल के प्रवक्ता के तौर पर देखा जाता है। ऊपर के उनके एक कथन से साफ है कि वे आंचलिकता में जहर भी देखते हैं। किसी बहुलतावादी भारतीय समाज में जब स्वेच्छाचारी केंद्रवाद बढ़ेगा, तब सार्थक विकल्प के अभाव में स्थानीयताएं विकृत रूपों में पनपेंगी। प्रांतीयता, जाति, धर्म आदि के आधार पर राजनीतिक गुट बनेंगे और राष्ट्रवाद के शोर के बीच ही राष्ट्रीय भावना का क्षय होगा। कहना न होगा कि रेणु का युग हो या आज का समय हो, दरअसल राष्ट्र, स्थानीयता और लोकतंत्र के रिश्ते का टूटते जाना ही भारतमाता के जार-जार रोने की वजह है! इसलिए ‘भारतमाता की जय’ बोलने का अर्थ है – उसके करुण रूदन का समाधान निकालना, अन्यथा यह ऊपरी मन से चीखना है।

जिस चीज की तरफ रेणु ने मुख्य रूप से इशारा किया, वह है ‘आंचलिकता’ का बाजार का माल बन जाना। बाजार जब ‘लोकल’ को घेरता है, तो  ‘लोकल’ अपनी सांस्कृतिक जिजीविषा खोकर महज उपभोक्ता माल बन जाता है। धर्म, जाति और क्षेत्रीय पहचानों की मार्केटिंग होने लगती है। ‘आंचलिकता’ बाजार के अलावा राजनीति का भी माल बन जाती है। इस तरह ऊपर से नीचे तक लूट-मार की सामुदायिक वैधता के दृश्य ही महासत्य की तरह दिखाई देते हैं।

रेणु की कृतियों में अभावों, विपत्तियों और कलह के बीच यदि ‘लोकल’ का लालित्य है, जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं में सुंदरताओं के महान चित्र हैं तो ‘लोकल’ में घुसे बाजार और राजनीति के विष की भी शिनाख्त है। यह विष धार्मिक रूढ़ियों, पाखंडों, जातिवाद, लैंगिक अवमानना और अंध-क्षेत्रीयता के रूप में है। ये चीजें ‘राष्ट्र’ को भीतर से जहरीला ही नहीं बनातीं, उसे क्रमिक आत्मघात के दरवाजे पर खड़ा कर देती हैं।

सांस्कृतिक महामारी का दौर

लंबे समय तक ‘कल्चरल डिकेडेंस’, अर्थात सांस्कृतिक क्षय की चर्चा होती रही है। लेकिन वर्तमान दौर सांस्कृतिक क्षय से सांस्कृतिक महामारी के दौर में प्रवेश करने का है। क्षय से जूझने के लिए स्पेस होता है, जबकि महामारी स्पेस नहीं देती। वह महाविनाश लाती है और अपने नए स्ट्रेन विकसित करती रहती है।

आज का भारत सांस्कृतिक महामारी से गुजर रहा है। इसका एक चिह्न है, बहुलतावादी राष्ट्रीय भावना का महाविनाश। दूसरा चिह्न है अपने सांस्कृतिक अतीत की सकारात्मक उच्च स्मृतियों से संवाद टूट जाना और कूपमंडूकता का पुनरुत्थान। तीसरा चिह्न है, पश्चिमी सभ्यता के उच्च तत्वों की जगह उसकी चमकदार छिछली चीजों का आकर्षण बढ़ना। चौथा चिह्न है, तकनीकी-भौतिक प्रगति के बावजूद मानवता की बुनियाद का हिल जाना और संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों का प्रधान हो उठना। एक तरह से यह ‘एडवांस्ड टेक्नोलॉजी – बैकवर्ड आइडियालॉजी’ का प्रभुत्व है। आज के समय को ‘उच्च तकनीक – निम्न बौद्धिकता’ का दौर कह सकते हैं।

कोरोना महामारी के वैक्सीन की तैयारी जोरों पर हो, पर सांस्कृतिक महामारी का वैक्सीन नहीं बन पा रहा है। इसकी मुख्य वजह बड़े-बड़े महापुरुषों और क्रांतिकारियों का नाम जपते हुए भी अपने जीवन में उनके आदर्शों से दूर होते जाना है। इधर दिखावा बढ़ा है। हम साहित्य की अपनी आधुनिक परंपराओं में और निश्चय ही रेणु के साहित्य में पाते हैं कि उसमें आधुनिकीकरण के साथ-साथ प्रेम, प्राकृतिक पर्यावरण, बुद्धिपरकता और मानवता से जीवित संबंध की आकांक्षा है। आज की ढहती हुई सभ्यता में भी साधारण लोगों के मन में यह आकांक्षा मरी नहीं है, यह कहा जा सकता है।

राष्ट्र और किसान

राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के दौर में ‘राष्ट्र’ और किसान के बीच जितना संबंध था, क्या कारपोरेटीकरण के वर्तमान समय में ‘राष्ट्र’ और किसान के बीच संबंध बच पा रहा है? किसान और कृषक देश के नागरिक होते हुए भी नागरिक नहीं समझे जाते। जन स्वार्थ के दायरे में मुख्यतः शहरी जनता के स्वार्थ होते हैं। देखा जा सकता है कि अंग्रेजी राज के उपनिवेशवाद-जमींदार गठबंधन की शैली में आज के जमाने में कारपोरेटवाद-राष्ट्रवाद गठबंधन है। प्रेमचंद ने 1933 में चिंता व्यक्त की थी, ‘इस व्यवसाय युग की यही महिमा है! यहाँ व्यक्ति का कोई महत्व नहीं है। यहाँ जो कुछ है धन है और मशीन है। वही देहातों की तबाही, वही घरेलू व्यवसायों का सर्वनाश।’ (विविध प्रसंग-2)। वैश्वीकरण के वर्तमान समय में यही हो रहा है। प्रेमचंद ने यह भी कहा था ‘हम तो किसानों को सलाह देंगे कि वे खुद अपना संगठन करें।’ (वही)। वर्तमान परिदृश्य यह है कि कृषकों को जो थोड़ी-बहुत राहत मिल रही थी, उससे भी ‘राष्ट्र’ अपने हाथ खींच रहा है।

कृषक भी व्यापार करता है, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों से जुड़कर खुद उत्पादन करके। नए समय में बड़े-बड़े अन-उत्पादक व्यापारी हैं। वे उत्पादकों से बहुत ज्यादा अमीर और सुखी हैं। इसके अलावा, आर्थिक वृद्धि की वर्तमान पद्धति ने गांवों की जमीन के अधिग्रहण, विस्थापन और लचर पुनर्वास की वजह से कृषक जीवन में भारी उदासी ला दी है। जो लोग सुख पा रहे हैं, उन्हें दूसरों की पीड़ाओं की चिंता नहीं है। कहना न होगा कि कृषि सुधार के नए दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जाल अधिक विस्तृत होता जाएगा। कृषक वस्तुतः अपनी जमीन पर से अपने अधिकार खोकर गुलामी के एक नए दौर में प्रवेश करेंगे।

बड़ी कंपनियों और नई सूचना तकनीक के बीच सैंडविच है किसान

आज का आम कृषक बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विकसित सूचना तकनीक के बीच किस तरह फँसा है, यह देखना एक बौद्धिक यातना से गुजरने के समान है। बड़ी कंपनियों ने पिछले कुछ सालों में कोल्ड स्टोरेज, आधुनिक मालगोदामों और खुदरा बिक्री में अपने पैर वामनावतार की तरह पसारे हैं। इनमें बड़े पैमाने पर निवेश हुआ है। भारत के 400 से ज्यादा शहरों में बड़ी कंपनियों के स्टोर खुल चुके हैं।

भारत में आधुनिक मालगोदामों का बाजार 2024 तक 2881 अरब रुपयों तक पहुंचाने का लक्ष्य है, ताकि कंपनियां कृषकों से अपनी दर पर अन्न खरीदकर अधिक समय तक रख सकें और जरूरत पड़ने पर जमाखोरी कर सकें। फिलहाल निजी क्षेत्र में 50 करोड़ मैट्रिक टन की स्टोरेज क्षमता है जिसका पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है। कारपोरेट जगत में ‘हिंदू पैसा’- ‘मुस्लिम पैसा’ का झगड़ा नहीं है! रिलायंस के खुदरा व्यापार में सऊदी अरब का निवेश नवंबर 2020 तक 47,265 करोड़ तक पहुंच गया है जो कुल निवेश का 2.4 प्रतिशत है। यह विस्तार चौंकाता है और कृषि नीति पर पड़ा दबाव स्पष्ट हो जाता है। दरअसल हजारों करोड़ का विदेशी निवेश बेकार जाएगा और मालगोदाम अन्न से भर नहीं पाएंगे, यदि कृषकों से पल्ला झाड़कर उन्हें बड़ी कंपनियों के रहमो-करम पर न छोड़ दिया जाए।

बड़ी कंपनियां अब चावल-दाल-गेहूँ ही नहीं, करेला-भिंडी, आलू- प्याज भी बेचने लगी हैं। रोज विकसित हो रही टेक्नोलॉजी का उपयोग कृषि से जुड़े औद्योगिक उत्पादन के अलावा खुदरा व्यापार में भी हो रहा है। कृषि बाजार मेंफेसबुक भी कूदा है। बड़ी कंपनियों ने ग्राहकों के लिए ‘खेत से सीधे थाली तक’ और किसानों के लिए ‘जियो कृषि ऐप’ जैसी सेवाएं शुरू कर दी हैं। इनसे कृषि वस्तुओं की गतिशीलता बढ़ी है। कोरोना महामारी ने खरीद के लिए ऑनलाइन का उपयोग बढ़ा दिया है, जिससे लाखों छोटी दुकानें तबाह हैं। इस तरह टेक्नोलॉजी अन्य क्षेत्रों की तरह कृषि और खुदरा बाजार में भी एक बड़ी भूमिका निभा रही है। उसके सहयोग से बड़ी कंपनियों के पक्ष में ऐसे तर्कव्यूह की रचना की जाती है कि कई बार आम उपभोक्ताओं और कृषकों को उनके तर्कों में दम नजर आता है। उनकी सेवाओं के नीचे क्या दब और मिट रहा है, इसका अंदाजा नहीं हो पाता। सवाल है, क्या यह सब अंततः किसी महाविनाश का खूबसूरत द्वार है!

लोकतंत्र विकास के मार्ग में अवरोधक नहीं होता, लेकिन मौजूदा विकास लोकतंत्र की राह में बाधा बनता जा रहा है। इतिहास की गति इस समय कुछ ऐसी है कि आम कृषकों का हित कैसे हो, वे खुशहाल कैसे हों- इस तरह की चिंता पर बड़ी कंपनियों को मुनाफा का अवसर देने की नीति भारी है। यह समस्या तब अधिक गंभीर हो जाती है, जब कृषक और नागरिक हित की जगह दलीय राजनीतिक हित प्रधान हो जाते हैं। राजनीति चुप्पियों से भरी होती है। बड़े नेता बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे बौने तथा विवश दिखते हैं।

कइयों को नहीं पता चलता कि नई कृषि व्यवस्था में खेत का मालिक  एक तरह से बड़ी कंपनियों का कर्मचारी हो जाएगा, भले उसे नए वैज्ञानिक शोधों और व्यापारिक दक्षता का लाभ मिले। कृषक को कंपनियों के डिक्टेट के अनुसार उत्पादन करना होगा। उत्पादन पर बड़ी कंपनियों के उत्तरोत्तर बढ़ते कब्जे का एक नतीजा यह होगा कि गरीबी रेखा के नीचे के लोग अपने बैंक एकाउंट में सीधे चार-पांच सौ रुपये जरूर पा जाएंगे, पर जब वे बड़ी कंपनियों के स्टोर का चावल-गेहूँ खरीदेंगे तो उन्हें ज्यादा कीमत देनी होगी। राशन कंपनियों से मिलेगा, इसमें संदेह है। इस तरह खाद्य सुरक्षा कानून के हास्यास्पद हो जाने और पुनः भुखमरी का खतरा है। इस दौर में मानवता सबसे बुरी दशा में है और व्यापार की निरंकुशता आसमान पर है।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अनंत मुनाफाखोरी के अवसर देना और कृषक हित  भी सोचना हाथ से एकसाथ दो कबूतर पकड़ने की तरह है! कृषकों को वैज्ञानिक शोधों और व्यापारिक दक्षता के लाभ जरूर मिलने चाहिए, पर मधुर हिंसा में लिप्त बहुराष्ट्रीय कंपनियों की छाया में ही क्यों?

वैश्वीकरण के जमाने में कृषकों की आत्महत्या में वृद्धि पहले से ही एक चेतावनी है। जरूरत बदलती स्थितियों में आत्महत्या को रोकने की होनी चाहिए, इसीलिए कृषक मुखर हो रहे हैं। उनकी कांपती अंगुलियों का एक ही ठिकाना उनकी तनी मुट्ठियां हैं!

राष्ट्र क्यों है

प्रेमचंद ने ‘देहातों पर दया-दृष्टि’ शीर्षक टिप्पणी में एक मजेदार व्यंग्य किया है, जिसका संबंध किसानों को भुलावा में रखने के औपनिवेशिक लटकों-झटकों से है। वे लिखते हैं, ‘इंग्लैंड के व्यापारी भारत के गरीब ग्रामीणों पर बड़ी दया करते हैं। जिस चीज की जरूरत हो वह फौरन से पहले यहां मुहैया कर देते हैं। यह दया-दृष्टि नहीं तो और क्या है?… एक साहब जिनका नाम कर्नल हार्डिंग है, संपूर्णतः निःस्वार्थ भाव से यहां के देहातों में बेतार के गाने और भाषण आदि सुनाने का प्रबंध कर रहे हैं।… जिनके पास न खाने को अन्न है और न पहनने को वस्त्र, वह ब्रॉडकास्टिंग सुनकर अपना मनोरंजन न करेंगे तो कौन करेगा? यह व्यापार चलाने की कितनी बढ़िया नीति है। ये व्यापारी मानवीय प्रकृति की दुर्बलताओं को खूब समझते हैं और उससे खूब अपना मतलब गांठते हैं। मनोविज्ञान उनकी व्यवसाय-बुद्धि का मुख्य साधन है। कल्लोंच से कल्लोंच आदमी में भी आमोद-विनोद की प्रवृत्ति होती है। यह व्यवसायी उसी जगह पर निशाना लगाता है और शिकार मार लेता है।’ (वही)। विदेशी व्यापारियों की नीति पर  प्रेमचंद की कितनी बढ़िया पकड़ है!

अब रेडियो की जगह टीवी है, मोबाइल है। इनसे रसदार मनोरंजन के अलावा पेड न्यूज,  विज्ञापनों के स्वप्नलोक  तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों से नागरिकों के लाभ का बड़े आकर्षक ढंग से प्रचार होता है। मीडिया के इन्हीं प्रचारों से दर्शकों के विचार बनते हैं, देश की महान परंपराओं और साहित्यिक पुस्तकों से नहीं!

बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां चाहती हैं कि ‘राष्ट्र’ रियायतें हटा ले और जन-स्वार्थ में लगे नियंत्रण हट जाएं, ताकि वे खुलकर मुनाफा-मुनाफा खेल सकें। जमींदार चले गए, अब कारपोरेट घराने आ रहे हैं। वस्तुतः राष्ट्रवाद के शोर में यदि ‘राष्ट्र’ गुम है, तो सबसे पहले मिलजुलकर उसे खोजना और तराशना होगा। कृषकों का संघर्ष वर्तमान स्थितियों में काफी कठिन है। फिर भी वे हमलों के सामने खड़े हो रहे हैं, भले बिखरे हुए हैं। यह सब वस्तुतः अपने देश में ‘राष्ट्र’ की खोज है!

राष्ट्र क्यों है? भारतमाता क्यों है? यदि कमजोर संतानों को संरक्षण नहीं मिले और वंचितों को उनके भाग्य के भरोसे छोड़ दिया जाए तो राष्ट्र क्यों है, किसके लिए है?

कितना फर्क है ‘वर्ल्ड क्लास’ के मॉल और अनिश्चितता से भरी खेती में, पोटेटो चिप्स और आलू में, टोमेटो सॉस और टमाटर में! प्रेमचंद ने लिखा है, ‘कमजोरों का जबरदस्तों से संरक्षण चाहना स्वाभाविक है। लेकिन जबर्दस्तों का संरक्षण चाहना इसके सिवा और क्या है कि वे और भी शक्तिवान हो जाएं।’(वही)।

कारपोरेट सभ्यता का हमला

इस जमाने में लोगों की सोच पर शहरी मानसिकता हावी है। जिन दिनों शहरों में अचानक बिजली चली जाती है, शहर के लोग लोडशेडिंग और पसीने से परेशान हो जाते हैं। वे उनके हाल के बारे में सोच ही नहीं सकते, जिनके इलाके में बिजली अभी पहुंची ही नहीं है या पहुँची है तो दो-तीन टिमटिमाते बल्व तक सीमित है।

शहरी राष्ट्रवादी सोचते हैं कि कृषक बंद राजनीतिक ढक्कन से निकलकर आखिरकार बोल क्यों रहे हैं। वे भाग्य-भरोसे क्यों नहीं रहते और वे क्यों ‘राष्ट्र’ में स्पेस चाहते हैं।

मुख्य बात यह है कि हमारी आंखों के सामने रोज कौन होते हैं, हम किनके साथ उठते-बैठते हैं या हमारी चिंताओं में कौन हैं। क्योंकि इस पर ही देश का ‘विजन’ और विकास-मार्ग निर्भर करता है। यह संभव नहीं है कि आर्थिक सुधार गरीबों की पर्याप्त खाद्य सुरक्षा तक में बाधक हो और हम सोचें कि बच्चे कुपोषण से मुक्त हो जाएंगे या कारपोरेट संसार से जुड़कर कृषक निहाल हो जाएंगे। कारपोरेट बाघों और ग्रामीण गाय -बैलों को समान रूप से आजाद कर देना क्या है?

भारत के बारे में कहा जा सकता है कि इस देश में सभी रोजगारों, वर्गों, धर्मों और जातियों के लोग बसे हुए जरूर हैं, पर वे साथ नहीं रहते हैं। लोग एक-दूसरे के करीब भले दिखें, पर उनके बीच खाई होती है। उनके बीच शत्रुता का राजनीतिक बीजारोपण किया जाता है, ताकि वे अधिकाधिक बंटे रहें। लोग यथार्थ के सामने खड़ा होने से डरते हैं। लगता है कि भारतमाता चंद ताकतवर लोगों की मां बना दी गई है और बड़ी संख्या में भारतवासी उसकी सौतेली संतानों जैसे हैं।

दुनिया में जो सभ्यता इस समय बन रही है, वह कारपोरेटरों की सभ्यता है। इस सभ्यता में लोभ, भेदभाव, चतुराई, हिंसा और असुरक्षा- ये पांच मुख्य तत्व हैं। निश्चय ही व्यापार, उद्योग-धंधे और नई टेक्नोलॉजी जरूरी हैं, लेकिन किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में ‘खुलेपन’ के बावजूद ‘राष्ट्रीय नियंत्रण’ भी जरूरी है। राष्ट्र का कारपोरेट हाथों की कठपुतली बन जाना जनहित के विरुद्ध है, देश की आजादी के विरुद्ध है। वर्तमान समय में व्यापार, उद्योग और टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल पूरी तरह कारपोरेट हित में हो रहा है और कारपोरेटरों से राजनीति के लिए भारी पैसा मिल रहा है।

बाहर से आनेवाली सभ्यता का जब देशी कारोबार के साथ-साथ संस्कृति पर हमला होता है तो वह हमला संस्कृति के उदात्त तत्वों पर होता है। हम अपने समय में सिर्फ कारपोरेट वर्चस्ववाली अर्थव्यवस्था ही नहीं, एक ऐसी कारपोरेट सभ्यता भी लक्षित कर सकते हैं, जिसमें इन्सान महत्वपूर्ण नहीं हैं।

कृषकों को भी सपने देखने दीजिए

विलियम डिग्बी ने 1901 की अपनी किताब ‘प्रॉस्परस ब्रिटिश इंडिया’ में लिखा था, ‘भारत में अंग्रेजों के रहने के लिए शहरों के रूप में इंग्लिस्तान बनाया जा रहा है और ग्रामीण क्षेत्रों को हिंदुस्तान समझा जाता है। एक में शासक वर्ग के लोग रहते हैं, दूसरे में शासित वर्ग के।’ इस समय हमारा देश इस अर्थ में विभाजित है कि इसमें एक छोटा-सा इंडिया है और एक बड़ा-सा भारत है। इंडिया सैकड़ों करोड़ की आर्थिक शक्तिवाले कारपोरेटरों का देश है, जबकि भारत कृषकों, छोटे उत्पादकों और व्यापारियों, श्रमजीवियों और बेरोजगार युवाओं का देश है।

हर इन्सान की बुनियादी इच्छा यही है कि वह सम्मानपूर्वक जिए। भारत के किसान  सम्मानपूर्वक जीना चाहते हैं। इस सम्मानपूर्वक जीने में खेतों में स्वतंत्रतापूर्ण ढंग से अन्न पैदा करने के अलावा, शुद्ध खाना-पीना, पढ़ना-लिखना, पहनना-ओढ़ना, अपनी कोमल भावनाओं के साथ मजबूत घर में रहना और सही सूचनाएं पाना शामिल है। शहरी व्यक्ति सोचते हैं कि कृषक आज भी प्रेमचंद के ‘गोदान’ के कृषकों की तरह अर्धनग्न क्यों नहीं हैं। उन्हें कुढ़न होती है, जब किसान शहर में घुसते हैं।

निश्चय ही ऐसी स्थिति में संवेदनशील शहरवालों पर एक बड़ी जिम्मेदारी यह है कि अन्न उगानेवालों की तकलीफों और आक्रोश को समझें और उन्हें भी सपने देखने दें।

भारत में कृषकों की सर्वभारतीय आवाज कभी नहीं रही है, क्योंकि देश की किसी भी राजनीति के वे मुख्य मुद्दा नहीं रहे हैं। ज्यादातर राज्यों में शहरी बुद्धिजीवियों और कलाकारों का किसानों से अब संपर्क नहीं है। बाजार, राजनीति, मीडिया और कला-संस्कृति के प्रवाह का एकतरफा रुख महानगर से गांव की ओर है। गांव घिरे हुए हैं। गांव विच्छिन्न हैं। उनसे अन्न के अलावा कुछ और लेने में किसी को दिलचस्पी नहीं है। कृषकों की मोम-सी भावनाओं का पाला महानगरीय एलीट व्यक्तियों के पत्थर-समान कलेजे से पड़ा है। कहना न होगा कि कृषकों को सांप्रदायिकता, जातिवाद और सामाजिक रूढ़ियों से घेरनेवाले लोग वस्तुतः शहर का शिक्षित एलीट नेतृत्व है, अन्यथा आम कृषकों की देशीयता में अति निर्मल राष्ट्रीयता है, एक बड़ी मनुष्यता है।

सबाल्टर्न अध्ययन और कृषक

कृषकों को राष्ट्र से न्याय चाहिए। राष्ट्र से न्याय ‘राष्ट्र’ की उपस्थिति में ही मिलेगा। मुश्किल यह है कि राष्ट्रवाद के हथियार से ‘राष्ट्र’ को देश से धीरे-धीरे अनुपस्थित किया जाना तेज हो गया है।

कहना न होगा कि सबाल्टर्न अध्ययनों में जिस ‘राष्ट्र’ को एक खलनायक के रूप में दिखाया जा रहा था, वस्तुतः एक सच्चे नायक और हमसफर के रूप में उसकी जरूरत है। बिडंबना यह है कि जिस दौर में राष्ट्रवाद का भारी शोर है, उसी दौर में ‘राष्ट्र’ कमजोर और धीरे-धीरे गायब हो रहा है। वह कारपोरेट-बंदी है।

ऐसे समय में सबाल्टर्न इतिहास का क्या कोई अर्थ है? उसका ‘राष्ट्र’ के खंडों का इतिहास लिखने की पद्धति, ‘माइक्रो हिस्ट्री’ अपनी कुछ उपलब्धियों के बावजूद अब अप्रासंगिक कृषक संघर्ष महत्वपूर्ण है। सबाल्टर्न इतिहास द्वारा अलगाव में तथ्यों का विश्लेषण और राष्ट्रीय वैश्विक तत्वों से पृथकता पर बल बौद्धिक आत्मघात सिद्ध हुआ है, क्योंकि आज दुनिया में विशिष्टता और पृथकताबोध के चरम अंध-राष्ट्रवादी  रूप सामने हैं। इसके अलावा, सबाल्टर्न अध्ययन ने अराजक ढंग से ‘हम और वे’ का विभाजन बढ़ाया है।

इतने अधिक ‘अन्य’ किसने पैदा किए?

आज भारत के किसी भी जन-आंदोलन में राष्ट्रीय व्यापकता नहीं है। इसकी जगह सत्ता संघर्ष में ‘सामाजिक भिन्नता’ तथा ‘स्थान’ के मुद्दों की प्रधानता है। कहना होगा कि भारत जैसे बहुलतावादी देश में किसी भी प्रतिरोध को समावेशी होना चाहिए। स्थानीयतावाद या सबाल्टर्नवाद लोगों के प्रतिरोध को शुद्धता के नाम पर संकुचित, एकायामी तथा स्थिर कर देता है। ऐसे कई अध्ययन हिंदी में हैं, जो सबाल्टर्नवाद से प्रभावित हैं। ऐसे कई कृषक संघर्ष भी हैं, जो लंबे समय से अब स्थानकेंद्रित और स्थिर हो चुके हैं और देश की दशा को प्रभावित करने की क्षमता उनमें नहीं है।

दरअसल लंबे समय से कृषकों को एक-दूसरे से विच्छिन्न और चुप रखा गया है। इसलिए कृषक एक जगह आंदोलन करते हैं- वे मुंबई या दिल्ली की सड़कों पर होते हैं तो दूसरी जगहों के लोग मूक दर्शक होेते हैं या निष्क्रिय समर्थन देते हैं। एक जगह लोग जगते हैं तो दूसरी जगहों पर सो जाते हैं। इस तरह बारी-बारी से सो जाने की मानो राजनीतिक होड़ है!

लोकतंत्र में जिसकी बात है, क्या अब उसे ही कहनी होगी? ‘दूसरे’ लोग उसकी बात नहीं कहेंगे? यह हमारा आंदोलन है-यह उनका आंदोलन है, यही चलेगा? इस दौर में सभी की अपनी-अपनी लड़ाई है और लड़ाई में सभी अकेले हैं। किसान भी इस समय, देखा जाए तो प्रायः अकेले हैं। आखिरकार देश के भीतर इतने अधिक ‘अन्य’ किसने पैदा किए? क्या इनकी तकलीफों के बीच पुल बन सकता है? एक सच्चे राष्ट्र में और लोकतंत्र में ‘अन्य’ का बेगानेपन समझा जाता है, ‘अन्य’ के रूप में देखे जाने पर होनेवाली पीड़ा समझी जाती है? क्या किसान को ‘अन्य’ से बाहर लाया जाएगा?

 

(* ऊपर की सभी पंक्तियां फणीश्वरनाथ रेणु की हैं।)