शंभुनाथ

प्रेमचंद कवि नहीं थे, लेकिन उन्होंने कवि के बारे में जो लिखा है वह अनोखा है :‘जिसे संसार दुख कहता है, वह कवि के लिए सुख है।धन और ऐश्वर्य, रूप और बल, विद्या और बुद्धि- ये विभूतियां संसार को चाहे कितना ही मोहित कर लें, कवि के लिए यहां जरा भी आकर्षण नहीं है।उसके मोह और आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशाएं और मिटी हुई स्मृतियां और टूटे हुए हृदय के आंसू हैं।जिस दिन इन विभूतियों से उसका प्रेम न रहेगा उस दिन वह कवि न रहेगा।’

यह कथन ‘गोदान’ के चरित्र मेहता का गोविंदी से है जो कभी कविताएं लिखती थी।लेकिन समृद्ध खन्ना की गृहस्थी की यांत्रिकता में शामिल होने के बाद उसके जीवन में कविता प्रायः अतीत की चीज हो गई।प्रेमचंद लिखते हैं, ‘खन्ना कविताएं देखते तो उनका मजाक उड़ाते।’ आज ज्यादा साफ तौर पर देखा जा सकता है कि संपन्न लोगों के उपयोगितावादी संसार में कविता निरर्थक होती गई।

इन दिनों पुराने महानगरों का विस्तार करते हुए नए नगर बन रहे हैं।यहाँ नए आलीशान भवन हैं, बड़े शॉपिंग मॉल हैं, क्लब हैं, बड़े होटल तथा कन्वेंशन सेंटर हैं।निजी विश्वविद्यालय और भव्य तकनीकी संस्थान भी हैं।इन नई जगहों पर कविता के लिए जगह नहीं है।एयरपोर्ट के बुक मार्ट में कविता की किताबें नहीं होतीं।अधिकांश अखबारों से कविता बाहर है।आधुनिक मध्यवर्गीय नागरिक अब कविता से बहुत दूर हैं।

कविता और समाज के बीच खाई चौड़ी हुई है, फिर भी कविताएं बड़े पैमाने पर लिखी जा रही हैं।धन और ऐश्वर्य के बढ़ते आकर्षण, फैशन, राजनीतिक सत्ता के पीछे दौड़ तथा तकनीकी शिक्षा की लोकप्रियता के असर में कविता बेकार की चीज समझी जा रही है, जबकि किसी भी संस्कृति की सबसे चौकस आवाज कविता है।भाषा शिक्षण में कविताएं अनुपयोगी लगने लगी हैं, क्योंकि ये जटिल होती हैं।राजनीतिक जनमत के निर्माण में भी कविता अब कोई भूमिका नहीं निभाती।रामचंद्र शुक्ल ने ऐसे ही संदर्भों में लिखा था, ‘तुच्छ वृत्तियों वाले हृदय में कविता निवास नहीं करती’।

इन दिनों तुच्छ ही महान है और संकीर्णता ही आदर्श है।कविता भाव प्रसार करती है, इसलिए खतरनाक है।संभव है कि वजट भाषणों में कविता की कुछ पंक्तियां तुलसी पत्ते की तरह छिड़क दी जाएं, अन्यथा आमतौर पर समाज में साहित्य मात्र के प्रति वितृष्णा देखने को मिलती है या चारणों की पूछ है।सामान्य-सी बात है, बुरी संस्कृतियों की ताकत अच्छी संस्कृतियों को सामाजिक प्रचलन से बाहर कर देती है, जिस तरह लागों के मैले नोट चलते रहते हैं, जबकि स्वच्छ कड़कड़िया नोट पड़े रहते हैं!

12 वीं सदी में कल्हण ने लिखा था, ‘हे कवि भाई, यह जगत तुम्हारे बिना अंधा है।’ कवि सैद्धांतिक और राजनीतिक संकीर्णताओं से ऊपर उठ कर सबके हित में लिखता है।वह जो लिखता है, उसमें एक दृष्टि होती है।देखा जा सकता है कि इधर कविता लोगों की पीड़ा और विक्षोभ को व्यक्त करने के लिए फिर बड़े पैमाने पर अपनाई गई है।वह वर्तमान घटनाओं से जुड़ी है और आंदोलनों की भाषा बनी है।सबसे महत्वपूर्ण बात यह उजागर हुई है कि कविता भय को तोड़ती है।

भामह (छठी सदी) को अलंकारवादी कहा जाता है।उन्होंने एक बात कही थी, ‘ऐसा कोई शब्द नहीं है, ऐसा कोई अर्थ नहीं है, ऐसा कोई न्याय और ऐसी कला नहीं है जो कविता का अंग न बनती हो।कवि का दायित्व इतना बड़ा है।’ (काव्यालंकार, 5.4)।खास कर कविता जब फिर एक बड़े ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ी है, क्या जीवन के अर्थ, न्याय और कला के संदर्भ में कवि सामान्यतः अपना बृहत्तर दायित्व महसूस करते हैं?

जो दिखाया जाता है,

सच उसके बाहर है

रचना करने के लिए बाहर देखना जरूरी है।कवि स्रष्टा से पहले द्रष्टा होता है, तभी कुछ सार्थक रच पाता है।वाल्मीकि ने बहेलिया द्वारा क्रौंच पक्षी का वध होते देखा था।कबीर सब ‘आंखिन देखी’ कहते थे।यह बाहर देखना जागतिक होना है, सामाजिक होना है।आत्मान्वेषण से भी तभी कुछ मिलेगा, जब पहले पर्यवेक्षण हो।निराला ने लिखा था, ‘देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर/वह तोड़ती पत्थर’।नागार्जुन ने लिखा, ‘बादल को घिरते देखा है’।यह ‘देखना’ क्रिया बहुत महत्वपूर्ण है।सवाल है, आज क्या हम खुद कुछ देख पा रहे हैं? हम सिर्फ वह देख रहे हैं जो हमें दिखाया जा रहा है- इंटरनेट और टीवी द्वारा, मीडिया द्वारा, विज्ञापनों-होर्डिंगों द्वारा या सामने हो रहे धार्मिक-राजनीतिक ड्रामा के जरिए।हमारे पास खुद देखने की जो क्षमता है, आज वह बड़े पैमाने पर छीनी जा रही है।

क्या हम सारी चीजें खुद देखना नहीं चाहते? कुछ भी खुद देखना आज बौद्धिक साहस का काम है।पहाड़-समुद्र हों, शहरी जीवन हो, गांव हो या रिश्ते हों, इनको अपनी दृष्टि से देखना अपनी स्वतंत्रता को बचाना है।दरअसल जो दिखाया जा रहा है हम उसकी कैद में फँसे हैं।मानव मस्तिष्क आज से पहले कभी प्रचार की इतनी कठिन गिरफ्त में न था।जिधर देखो उधर ‘प्रचारित’ का रमरमा है, कहीं पैर रखने की जगह नहीं है।इसलिए लेखक के लिए दिखाए जा रहे के बाहर देखना हमेशा चुनौतीपूर्ण है।यह जैसे एक बड़े भूलभुलैये से बाहर आने का मामला है और जो ठीक लगे उसके पास साहस से खड़ा होने का।

कविता की भाषा- इसके शब्दों, लयों, ध्वनियों और मौन से जब हम अपने सामने की दुनिया को देखते हैं तो यह उतनी नहीं रह जाती जितनी आमतौर पर दिखती है।कविता पाठकों-श्रोताओं को तभी छूती है जब बहु-ऐंद्रिक अनुभवों को असंभावित तरीकों से व्यक्त किया जाता है, जब उसमें असहज बना देने वाले प्रश्न होते हैं, जब उसमें ऐसे दृश्यात्मक बिंब होते हैं जो हमारे सौंदर्यबोध को विस्तार देते हैं और जब उसमें भीतर से गूंजती एक लय होती है।ऐसी कविता में वह दुनिया बिलकुल एक नए रूप में दिखने लगती है जिससे हम परिचित थे, लेकिन इस तरह परिचित न थे।प्रसाद की ‘बीती विभावरी जाग री’ की सुबह हो या केदारनाथ सिंह का ‘पानी’, ‘कुदाल’ या ‘टमाटर बेचने वाली बुढ़िया’ हो, क्या वह हमारी जानी-पहचानी दुनिया की समझ का विस्तार नहीं करती और संवेदना की नई खिड़कियाँ नहीं खोलती?

हम जोर गले से सुनते हैं

तो जोर गले से बोलने भी लगते हैं

कई राजनीतिज्ञों के लिए आज ज्यादा जरूरी हो गया है कि पहले वह यह देखे, लोकप्रियता किसमें है।इसके हिसाब से वे तथ्यों को घुमाते हैं, अलग-अलग समय में अलग-अलग तरह से घुमाते हैं।धर्म के शोर से फायदा हो, तो धर्मनिरपेक्ष होने के बावजूद उस शोर में भी शामिल हो जाते हैं।इस तरह आम लोगों के लिए छलनेवाले ‘वाग्जाल’ निर्मित होते रहते हैं।

यह वस्तुतः सभी की स्वतंत्रता की चिंता छोड़कर बहुतों की स्वतंत्रता की उपेक्षा करते हुए कुछ की स्वतंत्रता का युग है।अब बहुतों को सिर्फ स्थानीय या धार्मिक भावुकता से जकड़ कर भुलावे या भय में रखना काफी होता है।उन्हें अपनी आंख से देखने और दिमाग से सोचने का कम से कम अवसर मिले, इस पर सावधान रहना होता है।इसके लिए दो चीजें जरूरी हैं- बौद्धिक छद्मावरण और हिंसात्मक भौतिक प्रदर्शन।दोनों के मेल से विभिन्न राजनीतिक चिह्नों के जरिए लोग भुलावे में रखे जाते हैं।वे चाबी वाले खिलौने बना दिए जाते हैं।

फिर हर कामेडी ही त्रासदी के दृश्य ले आती है।लोग अपनी उच्च राष्ट्रीय परंपराओं, जीवन की बुनियादी जरूरतों और समानता की भावनाओं से विच्छिन्न होकर बौद्धिक छद्मावरण, हिंसात्मक भौतिक घटनाओं और भेदभाव के अंग हो जाते हैं।लोग ‘हम-वे’ या ‘बाहरी-भीतरी’ में विभाजित कर दिए जाते हैं।वे सिर्फ वह सुनते हैं जो तर्क से नहीं गले के जोर से बोला जा रहा हो।अब वह सब नहीं जंचता जो मुस्करा कर और तर्क या तथ्य देकर शांतिपूर्ण ढंग से कहा जा रहा हो।अब जो भी कहना हो, क्रोध से बोलो।परशुराम और राम गड्डमड्ड हो गए हैं, राम में परशुराम की प्रतिष्ठा कर दी गई है!

हम जोर गले से सुनते हैं तो जोर गले से बोलने भी लगते हैं।फिर बिना शोर के कुछ भी नहीं होता।पुराने फिल्मी गाने और पुराने नायक-नायिकाओं का धीमा नृत्य बोरिंग लगता है।म्युजिक कानफाड़ू चाहिए, हिंसात्मक! इंतजार में धीरे-धीरे परिपक्व होता प्रेम अब ऊबाऊ लगता है।न्यूज मीडिया में चिल्ला कर खबरें न पढ़ी जाएं तो वे सच नहीं लगतीं।सारे उद्योग जैसे शोर का उत्पादन करने के लिए हैं।व्यापार नहीं चलेगा यदि शोर नहीं पैदा किया जाए और विज्ञापनों में झूठ की डुगडुगी न पीटी जाए।पार्टियों में मस्ती नहीं आएगी अगर डीजे शोर पैदा करने में पीछे रह जाएं।शोर ही संगीत है, शोर ही राजनीति है और शोर ही मीडिया है।हर ओर के शोर का वस्तुतः मिटती सहृदयता, खोती बुद्धिपरकता तथा बढ़ती हिंसा से गहरा संबंध है।

रावण छद्मावरण और हिंसात्मक भौतिक प्रदर्शन का सबसे सटीक उदाहरण है।वह सीता की कुटी में साधु के छद्मावरण में आया था।सीता ने उस पर भरोसा कर लिया।सभी को नतीजा मालूम है।यह वाल्मीकि थे, जिनके पास हर ओर से थक-हार कर शब्द आए और उन्होंने रामायण लिखी।उन्होंने रावण को पहचाना और राम को खड़ा किया।

कविता के शब्द वस्तुतः भय, छद्मावरण और हर शोर को चीर देते हैं, भले मासूम बच्चे की तरह आते हैं।

कविता साथसाथ

जीना सिखाती है

वैश्वीकरण का एक लंबा समय गुजरने के बाद हम एक अस्थिर भविष्य के सामने हैं।हमारे सामने अभूतपूर्व दृष्टियां हैं और भयावह दृश्य हैं।हम जो सोच रहे थे, वह अब सोच नहीं पा रहे हैं।हम पहले देख रहे थे।अब हमें दिखाया जाता है।हम जो अधिकार चाहते थे, वह मांग नहीं पा रहे हैं।

एक बच्चा चॉकलेट मांग रहा था।उसके पिता ने उसे पेड़ की ऊंची डाल पर बैठा दिया, जिधर बंदर थे।वह रोने लगा और भय से चाकलेट मांगना छोड़कर अब पेड़ से उतारने की मांग करने लगा।हर तरफ छाए भय ने मांगों, अधिकारों और जरूरतों को किस ओर मोड़ दिया है, इससे समझा जा सकता है।

कविता कभी कुछ रोक नहीं पाई, कुछ बदल नहीं पाई और न इसने कभी कोई समाधान निकाला।ऐसे भी हम एक बिलकुल समाधान-रहित समय में जी रहे हैं और सांस लेने के लिए सिर्फ थोड़ी सी खुली हवा चाहते हैं- कई बार तो सिर्फ स्कूल, बाजार या उपासना स्थल जाकर सुरक्षित लौट आने भर का शांत रास्ता।ऐसे समय में कविता इससे ज्यादा क्या कर सकती है कि वह लोगों के दुख, घबराहट, प्रतिरोध और विस्मयजनक रूप से समाज में अभी भी बचे प्रेम में साझा करे और साहस दे।

इतने संवेदनशील और संकटपूर्ण दौर में भी कई कृत्रिम सैद्धांतिक चौखटे हैं।एक ही पीड़ा को व्यक्त करते रंग-रंग के झंडे हैं।भारत में और कोई वाद भले फला-फूला न हो, कलहवाद खूब फला-फूला है।कम से कम कविता इस तरह बंटी नहीं है, वह कभी इस तरह बंट कर अर्थवान नहीं हो सकती।वह ‘निर्मित दृश्यों’ से बाहर बन रही है, चौखटों और झंडों से वह बार-बार ऊपर उठी है।इसकी वजह यह है कि कविता हमेशा ही सुंदरता, आजादी और भाषा की नई संभावनाओं की खोज है।वह जब भी रची जा रही होती है, शोर से बाहर निकल रही होती है।

कविता एक ऐसी जगह है जहाँ भले सुलभ समाधान न हो, पर उसमें ऐसी कल्पना होती है जो बौद्धिक छद्मावरण और सत्ता की हिंसा से मुक्त हो।सच्ची काव्यात्मक कल्पना पर निर्मित दृश्यों का दबाव नहीं होता।समझना चाहिए, कविता लिखना मनुष्यता की आग को अंधेरे समय में बचा कर रखना है।इससे रोशनी बनती है, दरअसल सूर्य अंधेरे का ही विस्फोट है!

कविता के दो काम हैं

यदि शब्द अरक्षित हों, उन्हें विभिन्न तरह के बौद्धिक छद्मावरण का औजार बनाया जा रहा हो और भाषाई प्रदूषण फैल रहा हो या भाषा का उपयोग सिर्फ उपयोगितावादी दृष्टि से हो रहा हो तो यह शब्द के साथ-साथ मानवता और स्वतंत्रता की भी हत्या है।देखने की जरूरत है कि जिस तरह सैकड़ों साल से कल्पना की स्वतंत्रता और विविधता रही है, क्या आज है? मन का तब कैसा विस्तार था, लोग चंद्रमा को मामा बना लेते थे।नदी को मां के रूप में देखते थे।बुद्ध अवतार मान लिए गए। ‘अदर्स’ के प्रति आत्मीयता की यह भावधारा अवरोध का शिकार कैसे हो गई?

कविता के दो काम हैं- प्रतिरोध और संरक्षण।भय का, भेदभाव का, निर्मित दृश्यों का, हिंसा का, शोर का प्रतिरोध जरूरी है।इतना ही जरूरी है शब्दों की आत्मा का संरक्षण।इससे जुड़ा है अपने भीतर के प्रेम को, न्याय भावना को, सामाजिकता को, कलात्मक अभिरुचि को और आंतरिक आनंद को बचाना।बल्कि कुछ पीड़ाओं को भी बचा कर रखना, उन्हें सुखों में खो जाने न देना!

लोगों के दिलों से कविता को उजाड़ने के लिए मोहनी सूरत लिए एक दैत्याकार मनोरंजन-व्यवस्था कायम है।फिर भी कविता बची है तो कहानियां और विचार बचे हुए हैं।कविता बची है तो स्वतंत्र कल्पनाशीलता भी स्वाभाविक रूप से बची हुई है।सबसे बड़ी बात है कविता अंध-ग्रहण, अनुकरण या किसी प्रचारित भिन्नता को चुपचाप मान लेने से सावधान करती है।एक तरह से समूचा साहित्य ऐसा होता है।यह घटनाओं पर आंखें खोल कर रखना, स्वतंत्र ढंग से कल्पना करना और साथ जीना सिखाता है।

आजकल लोग सूचनाएं ज्यादा पढ़ते हैं, रचनाएं कम।कविता कल्पना की सूचना से भिन्नता का सबसे अच्छा उदाहरण है।कविता व्यापक जीवनबोध के लिए है।हम जब कविता पढ़ते हैं, वह हमारे कंधे पर हाथ रख देती है कि हम अपने दुख या आनंद में अकेले नहीं हैं।कविता स्मृति और निराशा में सूराख है।वह घटनाओं और चीजों को देखने की वैकल्पिक राहें बताती है कि दुनिया को ऐसे भी देखा और जिया जा सकता है।

कविता में वे चीजें होती हैं जिन्हें हम सबसे अधिक प्यार करते हैं।यही वजह है, कविता को कभी घृणा का हथियार नहीं बनाया जा सका।यह दूसरों को नीचा दिखाने की जगह नहीं है।इसलिए स्वेच्छाचारियों और घृणा के सौदागरों के लिए कविता एक वर्जित संसार है।

कट्टरवाद

कल्पनाशीलता का शत्रु है

कट्टरवाद कल्पनाशीलता का शत्रु है, वह संपूर्ण रचनात्मकता का शत्रु है।रचनात्मकता का भी सबसे बड़ा शत्रु कट्टरवाद है।कट्टरवाद और हिंसा ने एशिया महादेश की रचनात्मकता को काफी क्षतिग्रस्त किया है, कलाओं को नुकसान पहुंचाया है।एशिया के हर देश में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण है, हिंसा है।रोजमर्रा का जीवन चल रहा हो, लेकिन आंतरिक जीवन, अंतर्जगत को भारी सांस्कृतिक धक्के लगे हैं।बाहर से धमकियां हैं तो प्रलोभन का बड़ा जाल भी बिछा हुआ है।बहुतों के लिए कठिन हो गया है सच कहना।लोग अपने भीतर सिकुड़ते जा रहे हैं।सामाजिक घेटो का निर्माण हो रहा है।लठैत लौटे हैं।इन दिनों पुरानी रूढ़ियों, भोगवाद, अंधविश्वास और भेदभाव के वायरस फैले हैं, कोरोना  से भयंकर।इसका असर साहित्य के प्रति आकर्षण पर भी पड़ा है।

21 वीं सदी में हिंसक पुनरुत्थानवाद ने पिछले लगभग दो सौ सालों के महान आधुनिक साहित्य को अपनी बाढ़ में लगभग विध्वस्त कर दिया है।आधुनिक सौंदर्यबोध ही नहीं, मूल्यबोध भी मिटा दिया गया है।वह सारा साहित्य जैसे झूठ हो।वे सभी सामाजिक सुधार जैसे झूठ हों।वह राष्ट्रीय एकता जैसे झूठ हो।आजादी की वह लड़ाई और इसमें हुए सभी बलिदान झूठ हों।जन आंदोलन झूठ हों।मनुष्य के आधुनिक विद्रोह झूठ हों।इससे पता चलता है कि बौद्धिक छद्मावरण में कितनी ताकत आ गई है।

यह जैसे एक भारी दुख का समय है।बहुत मूल्यवान चीजें पाकर खो देने का, मेहनत से पैदा किए गए भरोसा के टूटने का और फिर से दीवारें उठाए जाने का।अब जिधर देखो हिंसा है, सुरक्षा बल का आना-जाना है और बेचैनी है।

संस्कृति से हिंसा पैदा की जाती है तो हिंसा अपनी संस्कृति बनाने लगती है।ऐसी संस्कृति हमेशा घृणा उगलती है।वह देश के भीतर ‘बार्डर’ तैयार करती है।अंतहीन संदेह, अराजकता और घृणा का सिलसिला बन जाता है।यह सांस्कृतिक प्लेग है जो किसी को नहीं छोड़ता।हर आदमी नफरत की बंदूक तान कर ‘दूसरे’ को एक न एक बार्डर के उस पार देखने लगता है।फिर भी कहना होगा कि यह संस्कृतियों की टकराहट नहीं है, संस्कृतिहीनता और संस्कृति के बीच लड़ाई है।

कवि-लेखक भी नफरत, हिंसा और प्रातिष्ठानिक वंचना का शिकार होते हैं।देश की सांस्कृतिक आत्मा के जो निर्माता हैं, वे शत्रु समझे जाने लगते हैं।उनकी मुश्किल यह है कि वे बिखरे हुए हैं, उनका समाज नहीं बन पाता।उनकी शक्ति यह है कि वे मुश्किलों में भी कल्पना करना, यथार्थ से होकर यथार्थ के पार देखना और बोलना नहीं छोड़ते।वे दुनिया की दीवारों में खिड़की की तरह होते हैं।

इसमें संदेह नहीं कि समाज के सांस्कृतिक मंच पर पॉप सेलेब ज्यादा छाए हुए हैं, क्योंकि अब संस्कृति के मंच हिंसा के मंच हैं या मनोरंजन के।मान लेना चाहिए कि कवि-लेखक सांस्कृतिक अल्पसंख्यक हैं।इसके बावजूद उनका महत्व है, क्योंकि वे ही शब्दों, विचारों और दबाई गई सचाइयों के रक्षक हैं।वे ही सृजनात्मक कल्पना के वाहक हैं।वे ही बताते हैं कि एक सभ्य दुनिया में घृणा अस्वाभाविक चीज है।वे सदियों से बताते रहे हैं कि प्रेम ही ज्ञान की पराकाष्ठा है।इसलिए साहित्य ऐसी जगह है जहाँ ‘बार्डर’ नहीं हो सकता, दीवारें नहीं हो सकतीं और जहाँ केंद्र नहीं होता।

नए संसार में कवि की जगह

यह भी एक बड़ा प्रश्न है कि इस दौर के समाज में कवि कैसे देखे जाते हैं।अब के कवि निराला, अज्ञेय या नागार्जुन की तरह घर-बार से प्रायः मुक्त या बोहेमियन नहीं होते।वे आम मध्यवर्गीय नागरिकों की तरह प्रायः सुव्यवस्थित होते हैं और वेशभूषा से अ-विशिष्ट।कवियों के मन में विशिष्टताबोध बचा रह गया हो, पर समाज में अब वे विशिष्ट नहीं रह गए हैं।कवि किसी भी तरह का अपना विशिष्ट आकर्षण दुनिया में खो चुके हैं।

कवि नहीं अब गायक पहचाने जाते हैं।आम शिक्षित या धनाढ्य लोग वाक्पटु और हास्य कवियों को ही कवि समझते हैं।ऐसे कवियों के लिए सामाजिक मुद्दे, राजनीति, प्रेम- सब महज चुटकुला है।उनके पास ऐसी हँसी नहीं होती जिसके पीछे बेचैनी हो, हास्यास्पद हँसी होती है।ऐसे कवियों में कुछ भावनाओं के व्यापारी होते हैं।ऐसे कवि पैसा लेते हैं, मजा देते हैं।वे पॉपुलिस्ट परफार्मर हैं।इनका लक्ष्य अपना काव्याभासी उत्पाद बेच कर पैसा कमाना है, देश की सांस्कृतिक आत्मा या किसी मूल्यबोध की रक्षा करना नहीं।

काव्य और गायन (वाल्मीकि) या काव्य और नाटक (कालिदास) पहले अभिन्न थे।कविता का परफार्मिंग आर्ट होने से वैर नहीं है, बल्कि कविता की चित्र, संगीत, वाचन, नृत्य या नाट्यरूप में बड़े उद्देश्य से प्रस्तुति सामाजिक सुरुचि और अच्छी संस्कृति का चिह्न है।दुखद है कि हिंदी क्षेत्र में कुछ कारणों से कविता और कलाओं के बीच ज्यादा संबंध नहीं बन सका।हिंदी मानस पर बॉलीवुड-संस्कृति और सस्ता मनोरंजन उद्योग पूरी तरह हावी होता गया।हिंदी के बड़े कवि भी किनारे पड़ गए।

कवि को कभी शासकों और सांसदों से ज्यादा आदर दिया जाता था।वह लोकहृदय का सांसद होता था।उसमें दृढ़ता भी अपेक्षाकृत ज्यादा होती थी।यह कटु सत्य है कि अब के समाज में बड़े साहित्यिक कवियों से भी ज्यादा आदर इलाके के पार्षद का है।

उच्च तकनीक का

असर पड़ा है 

फेसबुक ने कवियों को लोकप्रिय तो नहीं बनाया है, लेकिन उनके लिए एक विराट लोकतांत्रिक परिसर खोल दिया है।वे भी अब कवि हैं जो अन्यथा कवि नहीं हो सकते थे।अब बड़े पैमाने पर फेसबुक व्हाट्सएप, यूट्यूब, वेब पत्रिकाओं और ऑडियो-विजुअल पत्रिकाओं में भी कविताएं आ रही हैं।कहा जा सकता है कि प्रिंट माध्यम के बाहर एक नया संसार खुला है जहाँ अभी सैकड़ों नए प्रयोग होने हैं।

उच्च तकनीक के विस्तार का कविता पर कई तरह के प्रभाव हैं।इसने कविता लेखन, प्रकाशन और पढ़ने-सुनने को आसान बना दिया है।इसी आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि कवियों के बाहर कविता पढ़ने-सुनने वालों का कोई बड़ा और टिकाऊ सहृदय समुदाय बना है।यह भी कहना मुश्किल है कि सोशल मीडिया पर आने वाली कविताएं मन पर देर तक अपनी छाप छोड़ पाती हैं।कविता लिखे जाने के तुरंत बाद पोस्ट किए जाने के अवसर सुलभ रहने के कारण कई बार कविता की गुणवत्ता और कला की क्षति भी होती है।ऐसी कविताओं पर तात्कालिकता का अधिक दबाव रहता है।कई बार वे कविता कम, विचार ज्यादा होती हैं।ई-माध्यम में इन समस्याओं को चुनौतियों के रूप में देखा जाना चाहिए और सावधान रहना चाहिए।

किसी जमाने में व्यावसायिक पत्रिकाओं ने हिंदी के कई प्रतिभा संपन्न रचनाकारों को हड़प लिया था। ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘सारिका’, ‘दिनमान’, ‘माया’ आदि में काम करनेवाले कई प्रतिभाशाली लेखकों का लिखना प्रभावित हुआ था।इसी तरह फेसबुक ने भी कई लेखकों -रचनाकारों को छीना है, उनकी रचनात्मकता को प्रभावित किया है।फेसबुक, व्हाट्सएप आदि पर मिलता आत्मसुख रचनात्मकता के लिए जोंक साबित हो सकता है।

इस साहित्यिक क्षति की ओर भी नजर जानी चाहिए कि फेसबुक आदि की वजह से कहानी, उपन्यास और कथेतर गद्य लेखन की ओर झुकाव किस तरह काफी कम हो गया है!

सवाल है, ई-माध्यम की बढ़ी लोकप्रियता का क्या यह अर्थ है कि आमने-सामने कविता पढ़ने-सुनने की जरूरत अब नहीं रही।क्या मुद्रित कविता का युग खत्म हो गया है? हाथ में पत्रिका लेकर या कविता संकलन लेकर पढ़ी जाने वाली कविता मन में ज्यादा बसती है।कवि को सामने सुनने का  अपना अलग आनंद है।किताबें टिकाऊ होती हैं।फेसबुक, व्हाट्सएप आदि पर आने वाली कविताओं की रफ्तार जितनी तेज है, उनकी क्षणभंगुरता उससे ज्यादा है।लोगों का ज्यादा समय स्मार्ट फोन पर बीतने को ऐसी बौद्धिक एकायामिता के रूप में भी देखा जा सकता है जो मनोरोग तक जाती है।यह व्यक्तियों को घरघुसरा, अ-सामाजिक और आलसी बनाती है।सांस्कृतिक सक्रियता को सीमित कर देती है और मनुष्य -मनुष्य के प्रत्यक्ष संबंध का नाश।

सभ्यता,

कविता के विरुद्ध है तो भी

कविता निश्चय ही वाशिंग मशीन नहीं है, लेकिन मनुष्य की संवेदना की ठंडी बैटरी को चार्ज करती है।इसका सार्वकालिक महत्व है।वर्तमान सभ्यता कविता के विरुद्ध है, तो भी कब थकी है मानवता, कब रुकी है गंगा की धारा, कब बंद हुआ है कविता का लिखा जाना।

यह जरूर मानना चाहिए कि कवि कर्म बैठे ठाले की चीज नहीं है।यह आत्मप्रचार का साधन नहीं है, बल्कि एक बड़ी चुनौती स्वीकार करने के साहस  का मामला है।इसके अलावा, रचना धारा का जीवन धारा से जीवंत संबंध जरूरी है, अर्थात शब्द और कर्म में दूरी का कम से कम होना।कवि का जीवन कुएं जैसा हो तो उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि उसकी कविता आसमान-सी विस्तृत होगी।उसकी कल्पना में अंततः टर्र-टर्र की आवाज सुनाई देगी!

कवि का कविता लिखना जब तक कविता द्वारा कवि को लिखा जाना नहीं होता, तब तक कवि कर्म मूल्यवान नहीं हो पाता।

दरअसल हर आदमी ही आधा-अधूरा है, वह कविता लिखकर या पढ़कर कुछ नहीं बस अपनी पूर्णता के करीब पहुंचना चाहता है!

लक्षित किया जा सकता है कि सभ्यता के चमकते शिखर पर यह दुनिया लगातार अराजक, बदसूरत और हृदयहीन होती जा रही है।ऐसे में संवेदनशील लोगों के लिए कविता एक बड़ा भरोसा है।

इधर कविता के परिदृश्य में अधिक विविधता आई है।इसका न कोई एक रूप है, न एक काव्य सिद्धांत है और न अब कोई एक काव्य प्रवृत्ति है।संभव है, एक आत्मसचेत कवि को आज सबसे ज्यादा अपने से जूझना पड़े, यदि उसे सचमुच बाहर लड़ना है।अपने भीतर की कठोर बौद्धिक चौहद्दियों से जूझ कर ही बाहर दीवारों पर सार्थक चोट की जा सकती है।

कविता रचने के काम को आसान मान लेना अज्ञानता है।एक छोटी-सी कविता लिखने के लिए भी बड़ी कठिन यात्रा करनी होती है, फिर लंबी कविता की बात ही क्या।कवि को धुनिया होना पड़ता है ताकि वह लिट्टी की तरह जमी रुई को धुन कर धवल बादलों-सा खूबसूरत बना दे।कवि को बढ़ई होना पड़ता है, ताकि वह बिना मोह किए रंदा मार-मारकर अपनी भाषा को दुरुस्त कर दे।वह अपनी रचना की निर्मम छील-छाल से न हिचके।उसे कुम्हार भी होना पड़ता है, ताकि वह जीवन से मिट्टी लेकर अपने चाक पर प्यार से कुछ गढ़े।यह अपेक्षा की जा सकती है कि कविता की अंतर्वस्तु लुहार से और कला सुनार से ली जाए।इतने तरह के श्रम हमारे पूर्वज कवियों ने किए थे, तब आज हम उनकी कविताओं को याद रखते हैं।

इधर सैकड़ों नए कवि हुए हैं।शहर-शहर में इतने कवि हैं कि वे आसानी से अपना एक बड़ा सहृदय-वृत्त बना लेते हैं।इन्होंने आपस में बिखरे होने के बावजूद साहित्यिक दुनिया को दृश्यमान बना रखा है।कविता सुनने की संस्कृति अंतरंग गोष्ठियों और आडियो-विजुअल माध्यम में बची हुई है, भले बड़े कवि सम्मेलन न होते हों।कविता के लोकप्रियकरण के लिए नए प्रयोग हो रहे हैं और इनमें हिस्सेदारी बढ़ रही है।भविष्य की कविता के नए द्वार खुल रहे हैं।

हम जब भविष्य की कविता की बात कर रहे हैं तो निश्चय ही हमारा अभिप्राय भविष्य के साहित्य से भी है जिसके पहले से ज्यादा विविध रूप हैं।यह भविष्य की मानवता, भविष्य की सांस्कृतिक आत्मा और भविष्य की सचाइयों की बात भी है।क्या लगता है आपको, कौन रचेगा और बचाएगा इन चीजों को- भले बोरसी में बचा कर रखी आग की तरह?