शंभुनाथ
समाज में मानुष भाव, नागरिक भाव या भारतीय उदारवाद का विघटन क्यों हुआ। इसके लिए एलीट बुद्धिजीवी और उदारवादी राजनीतिज्ञ खुद कितने जिम्मेदार हैं, इस पर सोचने का यह समय है। कई बार जरूरी होता है अपने को सुधारना और अपनी पुरानी मूर्ति के बाहर आना – उसे तोड़कर।
प्रेमचंद ने कहा था, ‘इंटेलेजेंसिया में जो भी शक्ति आती है वह जनता से आती है।’ आज हाल यह है कि बुद्धिजीवियों में जो भी शक्ति आती है, वह सत्ता के गलियारों से आती है या विदेशी फंड या बूकर जैसे व्यावसायिक पुरस्कारों से।
लेखक या बुद्धिजीवी नागरिक परिसर के प्रमुख अंग हैं, बल्कि वे इसके प्रवक्ता की हैसियत रखते हैं। निश्चय ही हमेशा नहीं, क्योंकि आम नागरिक कई बार बुद्धिजीवियों को सुनना बिल्कुल बंद कर देते हैं। लोक और बुद्धिजीवी के बीच 36 का संबंध हो जाता है। इस पर सोचने की जरूरत है कि पिछले 3-4 दशकों में नागरिक परिसर के चरित्र में कैसे बदलाव आए, इस परिसर में स्वतंत्र बुद्धि का विकास कितना हो सका और बुद्धिजीवी इस परिसर में हाशिये पर क्यों हैं।
एक लोकतांत्रिक देश में कई धर्मों, वर्गों और जातियों के बीच लोकवृत्त या नागरिक परिसर जरूरी है, क्योंकि ऐसी जगहों के बिना विभिन्न विचार के लोगों के बीच संवाद और आम सहमति या असहमति का निर्माण संभव नहीं है। लोकतंत्र में नागरिक परिसर को उदार वातावरण का चिह्न माना जाता है। हालांकि इस पर संदेह व्यक्त किया गया है कि 21वीं सदी में क्या कोई मुखर और सक्रिय नागरिक परिसर संभव है। अब काफी हाउस या पहले-से अड्डों की जगह डिजिटल संवाद ने ले ली है। सिटिजन नेटजन बन गए हैं। मनुष्य में अपनी अस्मिता को अधिकाधिक अपृथक समझने या समावेशी बनाने की जगह धर्म या जातियों के आधार पर पृथक्करण और स्वकेंद्रिकता की प्रवृत्ति प्रबल हुई है। संवाद की जगह आरोप-प्रत्यारोप ज्यादा घटित हो रहे हैं। जनमत-प्रबंधन ज्यादा सुगम हुआ है। लोकतंत्र की तुलना में व्यापार और बाजार विस्तार की तरफ झुकाव ज्यादा है। व्यापारिक हितों के सामने लोकहित के मुद्दे गौण हैं। आमतौर पर लोगों को स्वतंत्रता की जगह रोबोट-सी एक-न-एक गुलामी मंजूर है। उनके सामने फिर ये सवाल हैं- स्वतंत्रता चाहिए या रोजगार? स्वतंत्रता चाहिए या आधुनिक सुविधाएं? स्वतंत्रता चाहिए या राहत? इस तरह 21वीं सदी में अंग्रेजों के समय का 18वीं-19वीं सदी का वातावरण तैयार हो रहा है।
अंग्रेजी राज के समय की तुलना में रामायण-महाभारत के समय को सामने रखते हुए प्रेमचंद ने लिखा था, ‘लंका में विभीषण ने अपने भाई रावण के खिलाफ रामचंद्र की मदद की थी, मगर विभीषण पूरी आजादी के साथ रहता था। रावण को कभी साहस नहीं हुआ कि वह विभीषण का एक बाल भी बांका कर सके। आज लड़ाई के जमाने में इस तरह का राजद्रोह कोर्ट मार्शल का कारण बन जाता। विदुर कौरवों से वजीफा पाता था, लेकिन ऐलानिया पांडवों का साथ देता था तो भी कौरवों ने यद्यपि वे कर्तव्य भावना से रहित कहे जाते हैं, इस निर्भीक स्पष्टता के लिए विदुर को मार डालने के योग्य नहीं समझा।’ (विविध प्रसंग)
भारत की विरासत पर गर्व करने वालों में आज रावण और कौरवों जितनी नैतिकता भी नहीं बची है। असहमति के सफायाकरण के लिए हर जगह साम, दाम, भेद और दंड के तरीके आम हैं।
एक उदाहरण और रखने की इच्छा हो रही है, इसमें आज का परिदृश्य दिख सकता है। भक्ति आंदोलन ने अपने समय में लोकवृत्त तैयार किया था। 12वीं से 17वीं सदी के बीच भक्ति आंदोलन का रूप सर्वभारतीय स्तर पर व्यापक हो चुका था। दक्षिण भारत में बसवण्णा, महाराष्ट्र में ज्ञानदेव, नामदेव, तुकाराम, पूर्व भारत में विद्यापति, चंडीदास, श्री चैतन्य, हिंदी क्षेत्र में कबीर, सूर, मीरा, तुलसी और जायसी के जमाने को जरा याद कीजिए। वह राजनीतिक तौर पर बड़ा अशांत, विद्वेष से भरा समय था और धार्मिक मामले में बड़ा ही पतित।
ब्राह्मण परंपरा धार्मिक मतांधता में जड़ हो गई थी तो श्रमण परंपरा भी अपने गौरव से गिरकर कई प्रतिस्पर्धी मतों और रीतियों में विभाजित थी। तंत्रवादियों, योगियों, शाक्तों आदि में वैचारिक कठमुल्लापन, बहिष्कारवाद और सुखवाद भरा हुआ था। इन्हें हाशिए के धार्मिक विमर्श या उत्तर-आधुनिक भाषा में अपने ढंग का ‘सबाल्टर्न’ कहा जा सकता है। एक तरफ महानता का दावा कर रही ब्राह्मण परंपरा में विद्वेष भरा था, कठोरता भरी थी। दूसरी तरफ असहमति, प्रतिवाद और विरोध के विमर्श बिखरे हुए थे। उनके अगुआ जितने आत्मलिप्त थे या भोगवाद में डूबे, उतने ही उग्र भी बने हुए थे। जिधर देखो, कूपमंडूकता थी। जिधर देखो, आम लोग असहाय थे और विपत्तियों से घिरे थे। वैचारिक नवोन्मेष का अभाव था।
ऐसी कठिन घड़ियां चुनौतीपूर्ण होती हैं और निश्चय ही संभावनापूर्ण भी। हम बहुत कुछ आज जैसी स्थितियां उस काल के सामाजिक परिवेश में पाते हैं। ऐसे ही काल में भक्ति आंदोलन प्रेम और ज्ञान का एक नया संदेश देते हुए उभरा था। उसने असहमति और प्रतिवाद के लिए एक साझा परिसर तैयार किया जहां सच्ची अनुभूतियां थीं, भेदभाव नहीं था, त्याग की भावना थी। सांस्कृतिक विनिमय के दरवाजे खुल गए थे। लचीलापन था, व्यक्तिवाद नहीं था। ईश्वर से मधुर एकात्मता की चाहत थी तो परदुखकातरता भी कम नहीं थी- वैष्णव जन तो तैने कहिए जे पीर पराई जाने रे!
वे सभी भक्त कवि एक-दूसरे को सामान्यत: आदर से देखते थे, भले उनकी धारा के न हों। श्री चैतन्य ने जयदेव (उड़िया), विद्यापति (मैथिली) और चंडीदास (बांग्ला) की सराहना की थी। जरा इस बड़े रेंज को देखिए। ‘गुरुग्रंथसाहिब’ में तो ‘दूसरे’ का नामोनिशान नहीं है। वे सभी भक्त अपने समय के बुद्धिजीवी थे, वे बौद्धिक भावजीवी थे। आज की भौतिकवादी दुनिया में भी उनकी चीजें प्रेरणादायक हैं।
एक जमाने में प्रेमाश्रम, शारदा सदन, सेवासदन, महिला एसोसिएशन जैसे नागरिक संगठन बन रहे थे। उस समय सफेद को काले से, न्याय को अन्याय से अलग करना आसान था, समाज में बहसें थीं। लोग जनदरदी थे। वर्तमान दौर में ऐसे नागरिक संगठन कम नहीं हैं जो धंधे की जगहें हैं। मतवाद से ऊपर उठकर गरीबों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों का भला करने के उद्देश्य से एनजीओ बना लिया, विभिन्न कंपनियों, अंतरराराष्ट्रीय संगठनों या सरकार से मैनेज करके अनुदान लिया और थोड़ा बांटा- ज्यादा खाया। इस एनजीओ संस्कृति पर भगवान दास मोरवाल का उपन्यास ‘नरक मसीहा’ है। ऐसा नहीं है कि हर जगह ऐसा है या नागरिक परिसर में सबकुछ पाखंड है या सिर्फ ढुलमुलपन है। नई स्थितियों में ऐसे काफी प्रबुद्ध लोग हैं जो शांत नहीं हैं, न पस्त और न ही बौद्धिक रूप से दिवालिये।
नागरिक परिसर से किया जाने वाला हस्तक्षेप कितना क्षणभंगुर है- कितना गहरा असर डालने वाला, यह राज्य के कुकृत्यों पर कितना खुलकर बोलता है- कितना छानकर, यह डिजिटल प्रबंधन का कितना शिकार है- कितना मुक्त, नागरिक परिसर में चालाक चुप्पियों की जगह कितनी फैलती जा रही है, पब्लिक स्फीयर का आज अर्थ बचा है या पूरी तरह निरर्थक हो चुका है- इन प्रश्नों पर बहस होनी चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि छोटी-छोटी आवाजें, जनआंदोलन की छोटी लहरें, यहां तक कि सोशल मीडिया पर कम लाइक पाने वाली पीड़ा या असंतोषों की लाखों छोटी अभिव्यक्तियां वस्तुत: एक समाज के जीवित रहने के लक्षण हैं। नागरिक परिसर की ऐसी गतिविधियां लोकतंत्र के चिह्न हैं। ऐसे सार्वजनिक स्पेस या कॉमन प्लेस के बिना हम एक स्वतंत्र देश की कल्पना नहीं कर सकते। चिंताजनक है, ऐसी जगहों पर इधर आक्रमण बढ़े हैं, कौशलपूर्वक नियंत्रण बनाए जा रहे हैं और सबकुछ को कुछ खास ढांचे के प्रबंधन की छाया में लाया जा रहा है, ताकि ज्यादा से ज्यादा स्थूल आरोप-प्रत्यारोप ही बच पाएं। क्या हम निकट भविष्य में ‘असहमति’, ‘स्वतंत्रता’, ‘बंधुत्व’, ‘समानता’ जैसे शब्द भूल जाने वाले हैं?
आर्थिक सुधार और निजीकरण द्वारा राज्य की भूमिका सीमित होते जाने से गरीबों और वंचितों की बाढ़ आ गई है। विश्व नए रूप में द्वि-ध्रुवीय हो गया है- क्षमतावान अमीर और किंकर्तव्यविमूढ़ असहाय। तीसरी शक्ति की कोई संभावना नहीं है, जिस तरह किसी समय वह अमेरिका और रूस के दो ध्रुवों के बावजूद थी।
दलितों, स्त्रियों और बुजुर्गों की असुरक्षा बढ़ गई है। अब विमर्श व्यक्तिगत प्रतिष्ठा देने वाले मामले हैं, वे सुधार या परिवर्तन लाने की जमीन नहीं हैं। 2020-21 की महामारी ने चिकित्सा और शिक्षा का असली चेहरा दिखा दिया है, विषमता की भयंकरता स्पष्ट कर दी है। सांप्रदायिक, जातिवादी और स्थानीय अंध-राष्ट्रवादी ध्रुवीकरण ने भद्दे मुद्दे सामने ला दिए हैं। राष्ट्रवाद को विध्वंसक बनाने के बाद ‘लोकल’ के आत्म को उजाड़ कर अब इसे भी विध्वंसक बनाने की तैयारी है। इन स्थितियों में नागरिक परिसर का विघटन दिखाई दे सकता है और कहा जा सकता है कि हम एक दमघोंटू माहौल में हैं।
यह भी संभव है कि हमारी सोच पर इतनी फंफूंद जम जाए कि जरा भी इस मुद्दे पर आत्मनिरीक्षण करने की स्थिति न हो। आखिरकार समाज में मानुष भाव, नागरिक भाव या भारतीय उदारवाद का विघटन क्यों हुआ। इसके लिए एलीट बुद्धिजीवी और उदारवादी राजनीतिज्ञ खुद कितने जिम्मेदार हैं, इस पर सोचने का यह समय है। कई बार जरूरी होता है अपने को सुधारना और अपनी पुरानी मूर्ति के बाहर आना – उसे तोड़कर।
‘बुद्धिजीवी’ शब्द दूसरे विश्वयुद्ध के समय लोकप्रिय हुआ था। यह 1970 के दशक तक उनके लिए इस्तेमाल किया जाता था जो देश, शासन और समाज के बारे में स्वतंत्र और आलोचनात्मक ढंग से सोचते थे। इनके पास कुछ सिद्धांत और विश्वास होते थे। वे अपनी वैचारिक सीमा में न्याय की बात करते थे। वे लेखक थे, पत्र-पत्रिकाएं निकालने वाले थे। वे सेमिनारों में मित्रतापूर्ण बहस करते थे।
बुद्धिजीवी कहने से जिस तरह रूसो, अनातोले फ्रांस, ब्रेख्त, बर्टेंड रसेल़, सार्त्र या भारतीय संदर्भ में देखें तो कबीर, राममोहन राय, डिरोजियो, फुले, भारतेंदु, रवींद्रनाथ, नर्मद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, नागार्जुन आदि का एक बिंब बनता है, 21वीं सदी की विकसित सभ्यता के दौर में अब वह धातु दखने को नहीं मिलती। ऊपर से बुद्धिजीवी शब्द के अर्थ में काफी पानी मिला दिया गया है।
आज के अधिकांश अंग्रेजी-दां बुद्धिजीवियों की नाभि किसी विदेशी विश्वविद्यालय, विदेशी फाउंडेशन या किसी न किसी राजनीतिक सत्ता से जुड़ी होती है। अब वे हमेशा हवाई यात्राओं में रहते हैं। वे देश की उच्च परंपराओं से डिसकनेक्ट रहते हैं, कई बार उच्छेदवादी होते हैं और एक न एक कुआं चुन लेते हैं, उसमें एक न एक भांग पड़ी होती है। वे हर आपदा को अवसर के रूप में देखते हैं। आमतौर पर आज का बुद्धिजीवी अपने सिर पर अपनी ही मूर्ति लेकर घूमता है। वह कई बार सही आवाज उठाता है, पर उसका लक्ष्य सामान्यतः स्वयं पूजित होने या अपना बाजार बनाने से ज्यादा नहीं होता। ऐसे बुद्दिजीवियों की चिंता यह नहीं होती कि ‘आम असहमति’ का निर्माण कैसे हो, क्योंकि वे खास होते हैं।
नोआम चॉम्स्की ने आजकल के बुद्धिजीवियों को ‘राजनीतिक खाद्यवस्तु और सत्ता-प्रतिष्ठान का पोषक’ बताया है। निश्चय ही नागरिक परिसर में बुद्धिजीवियों की विश्वसनीयता का ह्रास हुआ है।
गोपाल कृष्ण गांधी ने एक अच्छी बात कही है, ‘बुद्धिजीवी की सच्ची बुद्धि ‘लाइ डिटेक्टर’ और ‘नार्को टेस्ट’ की तरह होती है। वह कोई अंतिम सत्य कहने की जगह हमेशा बौद्धिक प्रश्न खड़े करता है।’ कहना न होगा कि सच्चे बुद्धिजीवी के लिए कभी भी साहित्य या कोई लेखन महज यश पाने का जरिया नहीं है, उसके लिए इतिहास कभी भी अपने समय को स्वेच्छाचारी ढंग से रंगने का साधन नहीं है, सिद्धांत कभी भी बौद्धिक विलासिता और राजनीति कभी भी तरक्की की सीढ़ी नहीं है। ऐसे सुदृढ़ बुद्धिजीवियों के बिना नागरिक परिसर के यथास्थितिवाद का टूटना नामुमकिन है।
कहना न होगा कि सत्ता के कुटिल उद्देश्यों से संचालित प्रतिष्ठानों से जुड़े बुद्धिजीवियों की परंपरा और व्यापक लोकभूमि से जुड़े बुद्धिजीवियों की परंपरा – ये दोनों परंपराएं न नई हैं और न कभी दोनों मिटने वाली हैं। पंचतंत्र की एक कथा में दुर्बल खरगोश ने बुद्धि से ही जंगल के भयंकर शेर को मौत के मुंह में भेजा था!