शंभुनाथ

सूफी दरवेश होते थे, एक प्रांत से दूसरे प्रांत और एक देश से दूसरे देश में आने-जाने वाले| वे प्रेम से भरे और लोभहीन लोग थे| इसलिए भ्रमणशील और निरंतर यात्री थे| यह विचित्र लग सकता है कि एक समय धर्म प्रचारकों और व्यापारियों ने ही उन बड़े भूमि-मार्गों और जल-मार्गों की खोज की थी जिनसे होकर बाद में युद्धोन्मादी सिकंदर, कई दूसरे आक्रमणकारी और लुटेरे एक देश से दूसरे देश में आने-जाने लगे थे| शांतिप्रिय लोगों ने अपने व्यापक मानवीय हृदय के कारण ऐसे बड़े मार्गों की खोज की थी| बाद में ये हिंसा के राजमार्ग बन गए|

एक समय बौद्ध धर्म अहिंसा का प्रचारक बनकर श्रीलंका, अफगानिस्तान, नेपाल, तिब्बत, चीन, जापान आदि देशों में गया| सूफी लोग प्रेम का लोकदूत बनकर एक तरफ ईजिप्ट और अफ्रीका के देशों में गए| दूसरी तरफ वे ईरान, अफगानिस्तान, भारत, इंडोनेशिया तक आ गए| एशियाई देशों में उनकी उपस्थिति की खूबी यह है कि उन्होंने अरबी को छोड़कर फारसी, सिंधी, उर्दू, पंजाबी और हिंदी को चुना| यह उनके प्रेम का लौकिक विस्तार था| उदारवादी सूफी साधक काव्य और संगीत प्रेमी थे| कहना न होगा कि एक दौर में हिंदी सहित कई जनभाषाओं और कलाओं की समृद्धि में सूफियों का बड़ा योगदान है|

सूफियों पर चिंतन की विडंबना

इस्लामी कट्टरवादी सूफी मत को इस्लाम की विकृति के रूप में देखते हैं और इसके प्रति असहिष्णु रहते हैं तो सेकुलर बुद्धिजीवियों को इसमें मध्यकालीन चमत्कारवाद नजर आता है| इस्लामी विद्वानों के लिए सूफियों के पक्ष में कुछ भी कहना बड़ा साहस का काम रहा है, हालांकि पिछले कुछ दशकों से सूफी मत के अध्ययन में विस्तार आया है, साथ ही इसके संबंध में उपनिवेशवादियों की कई ओरियंटलिस्ट धारणाओं को चुनौती मिली है|

एक प्राच्यवादी लेखक ई.एच.पाल्मर ने 1867 में लिखी गई अपनी किताब ‘ओरियंटल मिस्टीसिज्म’ में बताया था, ‘सूफी मत आर्य नस्ल के ही प्राचीनतम धर्म का विकास है|’ वे सूफी मत की व्याख्या भारत की देवपूजा और कुरान के विश्वासों की मध्यवर्ती घटना के तौर पर करते हैं|

कार्ल अन्सर्ट ने सूफी मत के योग-संपर्क को योग के इस्लामीकरण के रूप में देखा (सूफिज्म)| एक लेखक अजीज अहमद का कहना है कि सूफी रहस्यवाद का संबंध वेदांत की जगह ईसाई रहस्यवाद से है| किसी ने सूफी दर्शन को आत्मछल तो किसी ने इसे निष्क्रिय भक्ति के रूप में भी देखा! उन सबकी नजर मानवजाति की एकता और उच्च मूल्यों की तरफ बढ़ने की विश्वव्यापी सभ्यतागत आकांक्षा की तरफ नहीं गई| वे किसी भी धार्मिक सिंथीसिस की व्याख्या ‘हिंदूकरण’ या ‘इस्लामीकरण’ के रूप में ही कर पा रहे थे और यह देखने में ज्यादा मशगूल थे कि ‘अभेद में भेद’ कहां है|

तुलसीदास ने ‘साखी सब्दी दोहरा कहि कहनी उपखान’ (दोहावली) कहकर संतों-सूफियों को वेद-पुराण का निंदक बताया था, लेकिन उन्होंने ‘रामचरितमानस’ में अंततः ‘सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा’ भी कहा था और सूफियों की तरह ही प्रेम भावना को सर्वोच्च ठहराया था, ‘रामहि केवल प्रेम पियारा, जान लेहु जो जानहि हारा’| इस विकास को ध्यान में रखने की जरूरत है| स्पष्ट है कि सूफी संतों और कबीर ने प्रेम की जो महत्ता स्थापित कर दी थी, उससे तुलसी प्रभावित थे|

उल्लेखनीय है कि रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी सूफी साहित्य के संदर्भ में न सिर्फ दो छोरों पर नहीं हैं, बल्कि इस साहित्य को सकारात्मक दृष्टि से देखते हैं| यह स्वाधीनता आंदोलन काल के उदारवाद की शक्ति का बोध कराता है|

दरअसल कबीर हों या तुलसी, जायसी हों या मीरा – उन भक्त कवियों की सांस्कृतिक पूंजी किसी भी धर्माचार्य-पुरोहित से बड़ी है| कोई भक्त कवि किसी एक खास प्रेरणास्रोत तक सीमित न था| उनके काव्य-रूपक कई धाराओं से आए थे| सभी भक्त कवि एक न एक सीमा तक धर्मसत्ता से टकराए| उन्होंने संसार को प्रेम का संदेश दिया|

सूफी मत और भक्ति आंदोलन का संबंध

सूफियों, संतों और सामान्यतः संपूर्ण भक्ति आंदोलन की विविध धाराएं कई बार एक-दूसरे के विरोध में दिखती हैं| वे इसी तरह प्रस्तुत भी की जाती रही हैंः सगुण-निर्गुण, प्रेम मार्ग-ज्ञान मार्ग, भक्त-संत या दास्य, माधुर्य, सख्य जैसी विभाजनमूलक कल्पना करके| लेकिन सभी कवियों की अपनी-अपनी विशिष्टता के बावजूद उनमें अखंडता है और उन्हें रेल के एक-दूसरे से कटे डिब्बे की तरह नहीं देखा जा सकता| भक्ति की कोई धारा अलगाव में बनी स्वतःसंपूर्ण सांस्कृतिक अभिव्यक्ति नहीं है| सभी धाराओं के बीच मतभेद के बावजूद संवाद और सांस्कृतिक मिश्रणशीलता रही है| उनके बीच अनुभवों, भावनाओं और दृष्टियों का अंतःसंचरण होता रहा है| क्या आज भी कुछ मतभेदों के बावजूद दस लोग आम असहमति और आम सरोकार व्यक्त नहीं करते?

ऊपर से देखने पर सूफी मत और भक्ति के बीच संबंध देखना मुश्किल लग सकता है| सूफी एकेश्वरवादी दर्शन में देवताओं की जगह ‘एक ईश्वर’ की धारणा है, जबकि भक्ति के अद्वैतवाद में देवताओं को मानते हुए वस्तुतः इनकी एकता को ‘एक ईश्वर’ के रूप में देखा गया है| यह भी बताया गया है कि ईश्वर सर्वत्र है-‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’| सूफी एक अलग राह से इस धारणा तक पहुंचे थे, ‘आत्मा और परमात्मा एक है’ या ‘मैं ब्रह्म हूँ’| मंसूर हल्लाज ने बगदाद में ९२२  में इसी आशय से अपनी ईश्वरमय दशा में कहा था, ‘अन अल हक’ (मैं ईश्वर हूँ) और उसे जलाकर मार डालने का राजदंड मिला था|

सूफियों और भक्त कवियों में बहुत-सी बातें समान हैं, जैसे भेदभाव और बाह्याडंबर का विरोध| सभी भक्त कवि ही अहंकार, ‘मैं-मैं’ और ‘मोर-तोर’ के विरुद्ध थे| ध्यान में रखने की जरूरत है कि वे सभी कवि ही बड़े कठोर समाज में भक्ति, ज्ञान और प्रेम का प्रचार कर रहे थे| ये तीनों चीजें एक-दूसरे से भिन्न नहीं थीं| दक्षिण भारत, महाराष्ट्र-गुजरात और हिंदी क्षेत्र के भक्त कवि त्याग, प्रेम भावना और रूढ़ियों से विद्रोह द्वारा समाज में खुलेपन का आगाज कर रहे थे| उनके बीच एक और समानता है, वह है तल्लीनता| वे अपने संगीतमय गान में बिलकुल तल्लीन हो जाते थे|

सूफियों और भक्त कवियों ने धर्म के केंद्रीकरण, संस्थानीकरण और सत्ता से रिश्ते को आमतौर पर कबूल नहीं किया| हालांकि मंदिर और खानकाह बन रहे थे| पंजाबी सूफी कवि बाबा फरीद (1179-1266) कहते थे, ‘आध्यात्मिकता में ऊंचाई चाहते हो तो राजाओं और राजकुमारों से बचकर रहो|’ कुंभनदास कहते थे, ‘संतन को कहा सीकरी सो काम’| यह समानता भी महत्वपूर्ण है कि भक्तों और सूफियों ने समान रूप से लोकभाषाओं की शक्ति बढ़ाई|

सूफी बाबा फरीद जब किसी को आशीष देते थे, तो कहते थे, ‘जा, तुझे इश्क हो जाए’! इस इश्क का अर्थ सिर्फ ईश्वर से प्रेम न होकर संसार के सभी लोगों से प्रेम है, हिंसा से मुक्ति है| सूफियों ने जाति व्यवस्था को शिथिल किया और स्वच्छ प्रेमपूर्ण जीवन का संदेश दिया| बाबा फरीद जागरण का आह्वान करते हैं, ‘फरीदा सूता है त जाग’! उनका एक दोहा अपने लोकप्रिय रूप में इस प्रकार है, ‘कागा सब तन खाइयो, चुनि-चुनि खाइयो मांस| ए दुहि नयना मत खाइयो, पिया मिलन की आस|’ सूफी चेतना में ईश्वरीय इश्क एक ऐसी ही आग है, ऐसा ही नशा है| यह प्रेम ईश्वरीय होते हुए भी भाईचारा और बराबरी पर आधारित नए सामाजिक मूल्यों का स्रोत है|

सूफी मत और योग

सूफी मत और योग के संबंध पर कम चर्चा हुई है, जबकि सूफियों का योग से संबंध उनके हिंदुस्तान चैप्टर की एक उल्लेखनीय घटना है| जायसी के ‘पद्मावत’ में रत्नसेन जोगी होकर ही घर से निकलता है और सिंहलद्वीप जाता है| वह महादेव के मंदिर में बैठकर साधना और पद्मावती का ध्यान करता है| उधर हीरामन सुग्गा पद्मावती के पास पहुंचता है| वह पद्मावती को रत्नसेन की दशा बताकर उसे साथ ले आने में सफल होता है| पद्मावती को अचानक देखते ही रत्नसेन मूर्च्छित हो जाता है| ऐसी घटनाओं को मुख्यतः अन्योक्ति की तरह पढ़ा जाना चाहिए| यह सूफी दर्शन में आध्यात्मिक ‘हाल’ की दशा है| फिर पद्मावती रत्नसेन की छाती पर चंदन से कुछ लिखकर लौट जाती है| रत्नसेन निराश हो जाता है और जल मरने को उद्धत होता है| देवताओं के आग्रह पर महादेव और पार्वती वेश बदलकर उसके पास आते और समझाते हैं| वे उसे सिद्धि गुटका देते हैं और सिंहलगढ़ में घुसने का मार्ग बताते हैं|

अहंकारी राजा के क्रुद्ध होने पर सब कुछ त्याग करके आया योगियों का दल जब सिंहलगढ़ पर ‘चढ़ाई’ करता है, महादेव के साथ हनुमान भी रत्नसेन और उसके योगियों के दल के साथ आ खड़े होते हैं| ऐसे सभी विवरणों के रूपक-अर्थ हैं| पहली बात यह है कि जायसी के सूफी मत का योग के जिस विशिष्ट रूप से संबंध है, वह नाथपंथियों की योग साधना तक सीमित नहीं है| वह मुख्यतः शिव से जुड़ा है, प्रेम से जुड़ा है| सिंहलगढ़ पर चढ़ाई का उद्देश्य भी वस्तुतः किसी को परास्त करना न होकर ‘आत्म’ पर विजय पाना है| सूफियों का योग का मार्ग चुनने का लक्ष्य प्रेम की उच्च भूमि पर पहुंचना रहा है, आत्मसेवा नहीं और आज की तरह व्यवसाय कतई नहीं!

जायसी के ‘पद्मावत’ का अंत कठोर सामाजिक-राजनीतिक हालात की वजह से ट्रैजिक है| यह ‘पद्मावती’ फिल्म देखकर समझ में नहीं आ सकता| उपर्युक्त महाकाव्य जौहर की प्रचलित कथा के दबाव में रूढ़ि-पोषण करता है| लेकिन यह गौण चीज है, मुख्य है प्रेम की चरम सत्यता का प्रचार|

पंजाबी सूफी कवि बुल्ले शाह (1680-1757) की एक कविता में हीर कहती है ‘मुझे रांझा कहकर पुकारो, हीर नहीं!’ एक अन्य कथा में चरवाहा रांझा हीर से मिलने के पहले योग सीखने के लिए नाथपंथियों के एक ठिकाने पर जाता है| पंजाबी सूफी कविता में भी योग की उपस्थिति है| उस जमाने के पंजाब में योगियों की व्यापक उपस्थिति थी| उनके ठिकाने को ‘टिल्ला जोगिया’ कहते थे| बुल्ले शाह की हीर सूर की राधा की तरह है, ‘राधा हरि हो गई’ (यदि हरि राधा हो पाते)! यह ‘भृंगी-कीट न्याय’ के रूप में जाना जाता है, जिसमें भौंरा जिस कीट को भी पकड़ता है उसे वह अपने सदृश बना लेता है| सभी भक्त कवियों का ईश्वर-प्रेम यही करता है| वह भक्त को अपने अनुरूप ईश्वरीय बना देता है, जबकि २१वीं सदी का धर्मांध आदमी ईश्वर को ही अपनी तरह का बना देने पर तुला है| भक्ति और धर्मांधता दो विपरीत छोर की चीजें हैं|

प्रेम व्यक्ति और बाकी सारी चीजों के बीच एक पुल है

सूफियों ने हिंसा के युग में प्रेम के भीतर से जीवन के सार की खोज की थी| १८वीं सदी के ही एक अन्य पंजाबी कवि वारिस शाह के काव्य ‘हीर’ का रांझा कृष्ण की तरह बांसुरी बजाता है| इस अंतरसांस्कृतिक संबंध को समझना चाहिए| पंजाबी में सोहनी-महीवाल, शीरीं-फरहाद, यूसुफ-जुलेखा की कथा आदि को विषय बनाकर सूफी कविताएं लिखी गई हैं| सूफी दर्शन में जो अंतरधार्मिकता है, जो अंतरसांस्कृतिक हाइब्रीड है, वह उदारवाद का चिह्न है| सूफी दूसरी धार्मिक परंपराओं को ‘अन्य’ की तरह नहीं देखते, जो एक बड़ी घटना है|

सूफी प्रेम और आनंद के अमर गायक हैं जलालुद्दीन रूमी (1207-1273)| उन्हें अपनी आंतरिक सचाई और नवोन्मेषी कल्पना की वजह से विश्व प्रसिद्धि मिली| उन्होंने कविता, संगीत और मृत्यु को जिस प्रकार जोड़ा, वह न सिर्फ कला-साहित्य के बल्कि मानव-मुक्ति के संदर्भ में भी एक उदाहरण बन गया| उनका काव्य फारसी का चरम सांस्कृतिक उत्कर्ष है| रूमी की कविताएं सूफी तत्व और भाव-आवेग को समझने के लिए जरूरी मानी गई हैं| वे सभी धर्मों के लिए प्रेरणा बनी हैं| उनकी कविताओं के सामने हर कट्टरवाद धराशायी हो जाता है| उन्होंने प्रेम के बारे में कहा था, ‘प्रेम तुम्हारे और बाकी सारी चीजों के बीच एक पुल है!’ सूफियों का प्रेम ईश्वर से प्रेम तक सीमित न था, उसका लौकिक आयाम भी महत्वपूर्ण था|

रूमी एक परंपरागत इस्लामी शिक्षक से सूफी बने थे| उन्होंने धर्म का एक उदारवादी परिप्रेक्ष्य रखा था| वे सूफी मत की आधारशिला रखनेवालों में प्रमुख माने गए तथा दुनिया में सहिष्णुता के एक बड़े प्रतीक के रूप में देखे गए| उनकी कविताओं से अनूदित ये पंक्तियां उनके दर्शन को खोलती हैं-

इस सफर में मैं रहा, बिन मेरे
उस जगह दिल खुल गया, बिन मेरे
मुझको मत कर याद हरगिज
याद रखता हूँ खुद को, बिन मेरे!

रूमी की कविताओं में ‘मैं’ के अहंकार से मुक्त होकर ईश्वर से प्रेम है और उसके सौंदर्य से एकात्मता है| इस आनंद के सामने धार्मिक कर्मकांड और भौतिक सुखों के कृत्रिम आकर्षण फीके हो जाते हैं| विलक्षण बात यह है कि रूमी ने ईश्वर से मिलन की अनुभूति के मामले में ही विविधता को महत्व नहीं दिया, धार्मिक विविधता और सहिष्णुता का भी समर्थन किया| उनके दिमागी खुलेपन की एक वजह यह हो सकती है कि उन्होंने पश्चिम और पूर्व दोनों दिशाओं की खूब यात्रा की थी और अनुभव बटोरे थे|

रूमी की सहिष्णुता का परिचय हजरत मूसा से संबंधित उनकी इस कथा में हैः हजरत मूसा ने राह से गुजरते समय एक चरवाहे को देखा जो बहुत तल्लीनता से खुदा से बातें कर रहा था, ‘प्यारे खुदा, तू कहां है, बता ताकि मैं तेरे मोजे सीऊं, तेरे बालों में कंघी करूं, तेरे कपड़े धोऊं, तेरे हाथ चूमूं, पैरों की मालिश करूं, तेरे लिए रोज घी और दूध पहुंचाया करूं…|’ चरवाहे को मजहब की धारणाओं से भिन्न, बेबुनियादी बातें करते देखकर मूसा को गुस्सा आया, ‘अभागे, तू काफिर हो गया है क्या? अपने मुंह में रूई ठूंस| तेरे कुफ्र की दुर्गंध सारे संसार में फैल रही है| मोजे और कपड़े तुझे ही शोभा देते हैं, भला सूर्य को इन चीजों की क्या जरूरत है? यह बेहूदी बकवास बंद कर|’ चरवाहा खामोश हो गया और डर से कांपने लगा| उसने अपने कपड़े फाड़ डाले, वह जंगल में चला गया|

मूसा को आकाशवाणी सुनाई दी, ‘मूसा, तूने यह क्या किया? मेरे बंदे को मुझसे जुदा कर दिया? तू संसार में मनुष्यों को मिलाने आया है या अलग करने? मैंने लोगों का भाव अलग-अलग बनाया है और उन्हें भिन्न-भिन्न बोली दी है| जो बात किसी के लिए अच्छी है, वह तेरे लिए बुरी हो सकती है| उनके जाप और भजन से मैं अपवित्र नहीं हो जाता, बल्कि उनके मुंह से जो मोती जैसे विचार झरते हैं, उनसे उनकी आत्मा शुद्ध होती है-यह भी देख!’ मूसा ने जब आकाशवाणी सुनी तो वे चरवाहे की तलाश में बेसब्र दौड़े| चरवाहा एक जगह डर से छिपा कांप रहा था| मूसा ने उससे कहा, ‘तेरे दम से ही सृष्टि है| तू जैसे इबादत कर रहा था, वैसे ही कर!’ चरवाहा ने कहा ‘मेरी दशा बयान से बाहर है, अब मैं खुदा से कैसे जुड़ूं!’ मूसा को अपनी गलती का अहसास हुआ|

ईश्वर को स्त्री के रूप में देखना

सूफी मत में एक दूसरा अनोखा मामला है – स्त्री के प्रति सम्मान| सूफियों ने ईश्वर के मर्दाना आभास को मिटा कर ईश्वर को स्त्री-रूप में उपस्थित किया, जैसे ‘पद्मावत’ की पद्मिनी को ईश्वर रूप में देखना| यह ईश्वर के पुंलिंगीकरण से एक बड़ा सांस्कृतिक प्रस्थान है| सूफी कवियों ने स्त्री-पुरुष में भेद वैसे ही नहीं माना जिस तरह जाति, धर्म और राष्ट्र के स्तर पर भेद नहीं देखा| लक्षित किया जा सकता है कि पश्चिमी देशों में भी तब स्त्री के प्रति सम्मान और बराबरी का भाव विकसित नहीं हुआ था| अरबी जनजातियां एक समय देवियों की मूर्ति की पूजा करती थीं, साथ ही वे अबोध कन्याओं को जला दिया करती थीं| ऐसे दौर में पैगंबर साहब ने मूर्ति पूजा का ही विरोध नहीं किया, उन्होंने इस्लाम में स्त्री-पुरुष दोनों में समान गुण देखे और स्त्रियों को इज्जत देने की सिफारिश की| सूफी परंपरा में यह तत्व इतना विकसित हुआ कि स्त्री रूप में परमात्मा की कल्पना की गई| उसके अनोखे सौंदर्य का गुणगान हुआ, जैसे पद्मिनी के दांत चमकने से ही सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्रों में उजाला होता है, ‘रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती|’ (पद्मावत)| जायसी के ‘पद्मावत’ को इस ईश्वरीय और आध्यात्मिक आलोक से बाहर रखकर समझना असंभव है|

उल्लेखनीय है कि इस्लाम में आगे पनपी कट्टरता की वजह से स्त्रियों के बीच से ज्यादा सूफी कवयित्रियां नहीं हुईं| फिर भी रबिया सहित कई सूफी स्त्रियां थीं| मुगल बादशाह शाहजहां की बेटी जहांआरा सूफी थीं| रूमी ने स्त्रियों के बारे में एक महत्वपूर्ण बात कही है, ‘स्त्री ईश्वर की किरण है, महज धरती पर रहने वाली प्रेमिका नहीं| वह निर्मित नहीं की गई है, खुद निर्माणकर्ता है|’ यह हिम्मत कबीर भी नहीं कर सके थे| उन्होंने खुद को ‘बहुरिया’ के रूप में चुना था और परमात्मा को पुरुष बनाया था- ‘हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया’!

जो भी हो, सूफियों और कबीर जैसे संतों ने व्यापक लोकप्रियता अर्जित की| यह इन भक्तों के प्रति आम लोगों के मन में आदर भाव की सूचना है और कट्टर धार्मिक-सामाजिक बंधनों से उनके ऊबने का उदाहरण है| आगे चलकर नजीर अकबराबादी जैसे कवियों को कृष्ण को लेकर आनंद से भर जाते देखा गया है| नजीर ने गुरुनानक को लेकर कहा था| ‘सब शीश नवा अरदास करो और हरदम बोलो वाहे गुरु!’ एक समय इस तरह का अंतरधार्मिक-अंतरसांस्कृतिक संबंध मजबूत हो रहा था, बढ़ी-चढ़ी राजनीतिक बर्बरताओं के समानांतर| उस दौर की अस्मिताओं में पृथकतावादी कठोरता की जगह सांस्कृतिक घुलनशीलता थी| इस संप्रीति के निर्माण में सूफियों की एक बड़ी भूमिका है| उन्होंने भक्ति साहित्य में प्रेम को इस तरह एक महान मूल्य बना दिया कि कोई भी भक्त प्रेम की उपेक्षा नहीं कर सका|

सूफी विरह है बाह्याडंबर से विद्रोह

सूफी विचारधारा में विरह का प्रमुख स्थान है| कबीर ने सूफी विरह की महत्ता इस तरह व्यक्त की है, ‘जिहि घट विरह न संचरे सो घट सदा मसान|’ जहां विरह नहीं है, वह जगह श्मशान जैसी है| सूफी मत में विरह रहस्यदर्शी की ऐसी मनोदशा है जिसमें वह अपने भीतर ईश्वर को पागल होकर खोजता है| यह संसार की संकीर्णताओं से मुक्त होकर अपने अहंकार रहित ‘मैं’ को, वैयक्तिकता को पाना है| विरह एक तरह से मनुष्य में ‘व्यक्ति’ की वापसी है, जहां से उस महत की खोज शुरू होती है जिससे उसे प्रेम है|

सूफी भावना में विरह अकेला होने की नहीं, ईश्वर से एकात्म न हो पाने की पीड़ा है| कठमुल्ले हिंदू तथा मुस्लिम धर्माचार्य ऐसे विरह की निंदा करते हैं, क्योंकि पुरोहित लोग रुपयों के चढ़ावे पर तुरंत देवता के दर्शन करा देते हैं| अतः विरह कैसे हो! मुल्ला भी बीच से हटकर किसी को सीधे खुदा से कैसे मिलने दें!

सूफी कवि अमीर खुसरो की पंक्ति है, ‘सखी पिया को जो न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां’| सूरदास ने राधा के विरह का चित्र, जो कई जगहों पर कामोत्तेजक है, खींचा है| कहा जा सकता है कि विरह में इतनी भावपूर्ण तल्लीनता, भक्ति और शृंगार दोनों भूमियों पर, बहुत कुछ सूफी चेतना की देन है| विरहाग्नि जितनी तेज होती है, धार्मिक-सामाजिक बंधन उतनी जोर से टूटते हैं| दरअसल भक्ति में विरह के प्रवेश ने एक सच्चा मन और ‘कल्चरल सेल्फ’ पैदा किया| विरह की भयमुक्त अभिव्यक्ति बाह्याडंबर से विद्रोह है|

संगीत सुनना ईश्वर से इश्क करना है

सूफियों का काव्य के अलावा संगीत, नृत्य आदि कलाओं के क्षेत्र में भी बड़ा सांस्कृतिक योगदान है| यह दरबारों के शास्त्रीय संगीत और कव्वाली से लेकर गांवों में बाउलों के गान तक विस्तृत है| ऐसे संगीतात्मक गान सूफी भावना की तरफ झुकाव का परिचय देते हैं| अमीर खुसरो का यह लोकप्रिय गाना ही लें, ‘छाप-तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाई के| बात अघम कह दीन्हीं रे मोसे नैना मिलाई के| गोरी गोरी बइयां हरी-हरी चुरियां| बइयां पाकर हर लीन्हीं रे मोसे नैना मिलाई के|’ इसके कई रूपभेद हैं| कव्वाली के इस रूप में परमात्मा से ‘इश्क’ अधिक लौकिक था| कहना न होगा कि अलग से भी सूफी संगीत अपना एक व्यक्तित्व रखता है और आज भी लोकप्रिय है|

भारतीय काव्य, दर्शन और शास्त्रीय संगीत में कई स्रोतों से लोक तत्व जुड़े हैं| ठुमरी और दादरा-गायिका विद्या राव ने लिखा है, ‘इनके पाठ वैष्णव भक्ति तथा सूफी परंपराओं से लिए गए हैं|… विस्मय होता है कि ठुमरी के रोमांटिक रूपों में सूफी निर्गुण दर्शन और काव्य को भी स्थान मिला है| कलाकार, विद्वान और संरक्षक ऐसी निर्गुणी ठुमरी की चर्चा करते रहे हैं जो विरह के रूपक को लेकर चलती है|… ठुमरी और सूफी कव्वाली के बीच जो संपर्क बना, वह बड़ा अप्रत्याशित और सम्मोहक था| ठुमरी और कव्वाली संगीत के दो विपरीत छोरों पर हैं, लेकिन इनमें कई समानताएं भी हैं| दरअसल ठुमरी और अमीर खुसरो की कव्वाली- इन दोनों की गायकी और काव्य पूर्वी क्षेत्र के लोक गीतों से जुड़े रहे हैं| अमीर खुसरो के पद को ठुमरी या दादरा के रूप में गाया जा सकता है|’ (पोयटिक्स एंड पालिटिक्स ऑफ सूफिज्म एंड भक्ति इन साउथ एशिया, सं. कविता पंजाबी)| विद्या राव ठुमरी के रूप में गाए गए एक सूफी दोहा का उदाहरण रखती हैं, ‘साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़े मोहे को चैन| जैसे बन की लकड़ी सुलगत है दिन-रैन|’ यह सूफियों के ‘इश्क हकीकी’ का उदाहरण है| यह सच्चा आध्यात्मिक प्रेम है, यह इश्क मजाजी नहीं है|

दरअसल संगीत सुनना ईश्वर से इश्क करना है| संगीत और ईश्वर दोनों ही शब्दहीन वाक्य हैं, इसलिए सीमाहीन! शब्दहीन वाक्य, अर्थात जहां ध्वनियों के बीच कोई दूरी नहीं है, सबकुछ अखंड है! विद्या राव कहती हैं, ‘संगीत सुनते समय यह फर्क मिट जाता है कि कौन गा रहा है और कौन सुन रहा है और गायकी में क्या कहा जा रहा है| खासकर ठुमरी संगीत का वह रूप है जिसमें सरहदें धुंधली हो जाती हैं!’ (वही)| सूफी विचारधारा में संगीत को इस तरह अपनाना एक धार्मिक विद्रोह है| सूफी दर्शन ने जिस तरह जाति, धर्म और क्षेत्र की सरहदों को मिटा दिया, उसने संगीत में भी समावेशिकता पैदा की| संगीत के कारण कट्टरवादियों ने सूफियों का तिरस्कार किया था| हिंदू मीरा नाची थीं, पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे’ उन्हें अपने समय के सत्ता संपन्न हिंदुओं का तिरस्कार झेलना पड़ा था, ‘लोग कहे मीरा भई बावरी, न्यात कहे कुल नासी रे|’ भारत में कलाओं को निम्न काम माना जाता रहा है, खास कर हिंदी परिवारों में!

भक्ति और सूफी संगीत ने, खासकर ठुमरी और दादरा ने कई तिरस्कृत स्त्रियों को गायकी के क्षेत्र में ऊंचा नाम दिया| इनकी गायकी ने तन्मयता को एक नया शिखर प्रदान किया, दुनिया से मनुष्य के रिश्ते को बदल दिया और भाईचारे का ही नहीं स्वतंत्रता का भी अहसास कराया|

बंगाल के बाउल भी सूफियों जैसे रहे हैं, हिंदू और मुसलमान के दायरे से बाहर निकले हुए| इन्होंने परंपरागत धार्मिक व्यवस्था और रिवाजों को नहीं माना| इन्हें भी ब्राह्मण और मौलवी दोनों का दुत्कार सहना पड़ा| बाउल मुख्यतः अंग्रेजों द्वारा उजाड़े गए जुलाहे थे और निम्न जाति के समझे जाते थे| ये मधुकरी वृत्ति के थे| गाते थे, ‘तुम क्या पढ़कर पंडित हुए हो रे!’ बाउल में मुख्य नाम लालन फकीर है| रवींद्रनाथ ने बाउल (बावरा) की तारीफ की है, ‘ग्रामीण बंगाल के हृदय में कैसे उच्च सभ्यता की प्रेरणाएं हैं, यह बाउलों को देखकर बोध होता है|’ बाउल गाते रहे हैं, ‘बाउल होयवा मुखेर कथा ने’, बाउल होना मुंह की बात नहीं है! गेरुआ पहन लेने से ही कोई बाउल नहीं हो जाता| इसी तरह हिंदू होना या मुसलमान होना भी एक अंतःसाधना है, एक भक्ति है| दरअसल तिलक-छाप लगा लेने भर से कोई सच्चा हिंदू और दाढ़ी-टोपी रख लेने से कोई सच्चा मुसलमान नहीं बन जाता!

पवित्रताऔर उदारवाद’  दो भिन्न चीजें नहीं हैं

सूफी कहते थे, ‘कितनी जोर से हम आवाज दें कि उसे सुनाई पड़ जाए| अजीब बात है, मछली तो पानी में है और पानी की तलाश है उसे!’ सूफी मत को भक्ति आंदोलन के एक महत्वपूर्ण आयाम के रूप में देखने की जरूरत है| इसने उदार जीवन और कला-साहित्य के न जाने कितने अनोखे बिंबों की रचना में योग दिया| सूफियों की प्रेमाभिव्यक्ति विभिन्न कालों और भाषाओं में विभिन्न रूपों में सामने आई| कबीर की तरह किताबी ज्ञान की आलोचना करते हुए जायसी ने कहा था, ‘पढ़े बहुत पर नेह न जाना’! प्रेम को धर्म मानने की वजह से ही ‘पवित्रता’ और ‘उदारवाद’ अब दो भिन्न चीजें नहीं रह गई थीं|

कहना न होगा कि प्रेम को लेकर पागलपन भारत के सांस्कृतिक अंतःकरण का एक अमर हिस्सा है| सूफियों ने अपनी खास शैली में वस्तुतः घृणा पर आधारित धर्मोन्माद का एक सांस्कृतिक विकल्प खोजा था| खासकर संतों, सूफियों, शैव और वैष्णव भक्तों ने प्रेम को किस तरह सौंदर्यशास्त्रीय उदात्तता दी, यह देखने की चीज है| उन सभी ने ‘दूसरे’ की धारणा से मुक्त प्रेम भावना को जो अंतर-सांस्कृतिक उत्कर्ष प्रदान किया, वह आज भी एशियाई एकता का एक बड़ा प्रेरणास्रोत है|