शंभुनाथ

‘भूल जाना मेरे बच्चे कि खुसरो दरबारी था / या वह एक ख्वाब था / जो कभी संगीत, कभी कविता, कभी भाषा, कभी दर्शन बनता था।’ (कुंवर नारायण) यदि कभी खड़ी और ब्रजभाषा के कवि खुसरो का कुछ लिखा हुआ सामने आए तो क्या हम पहचान पाएंगे उस ‘हिंदी की तूती’ को? क्या इस जमाने के लोगों को सूरदास, कबीर, मीरा या तुलसी तक की भी बातें याद हैं और वे पहचाने जाते हैं? वे सभी अपने समय में भारत के स्वप्न रहे हैं।

निराला ‘देखा दुखी एक निज भाई’ कहते हुए दौड़ पड़ते थे उसे गले लगाने के लिए। आजकल किसी-किसी से मिले बिना कितना लंबा वक्त गुजर जाता है। यदि ऐसे किसी व्यक्ति से आज अचानक भेंट हो,  क्या उससे गरमजोशी से मिलना संभव होगा? कोरोना महामारी ने बड़ा दूर-दूर रहना सिखा दिया है, खुद अपने से भी। सामाजिक दूरियाँ बढ़ी हैं। यह कैसा समय है जब मृत्यु से डरते हुए, उससे दूर भागते हुए जीवन-चिह्नों को बचाना कठिन होता जा रहा है।‌ कोरोना से किसी न किसी रूप में हर आदमी लड़ रहा है और अपने भीतर अब थकता जा रहा है, ऊबता जा रहा है और उतना ही आत्मग्रस्त होता जा रहा है– भीतर कहीं सबसे दूर। पहले की तरह लोगों से अब खुलकर मिलना नहीं, वैसी हँसी नहीं। कोविड-19 का हमला फेफड़े पर ही नहीं, लोगों की भावनाओं पर भी है। इसने मानवीय संवेदनशीलता के क्षय को गति दे दी है, जबकि उसके संकट को देखकर विश्व-मानवता का नवोत्थान होना था। इसके विपरीत, संबंधों ने जैसे मास्क पहन लिया है और सैनिटाइजर गंगा जल हो गया है!

पेरिस से एक खबर आई थी कि कोरोना के असर के बाद लोगों को अब कॉफी की गंध पहले-सी महसूस नहीं होती। यह ऐसी महामारी है जो घ्राणशक्ति कम कर देती है। गंधांध बना डालती है। मेरे जैसे व्यक्तियों को गर्व है कि हम नियमित कॉफी हाउस जाते थे। एक खूब बड़े हॉल में गर्म कहवा की गंध अभी यादों में है और वे बहसें भी, जिनमें अपशब्द नहीं होते थे। यदि फिर कॉफी हाउस कभी जाना हो, क्या वह गंध महसूस होगी? डर लगता है कि जीवन की गंध ही तो नहीं चली जाएगी अब हमेशा के लिए; जैसे रसोई में कुछ जल जाने की गंध। वह गंध जो सिंका भुट्टा खा लेने के बाद उसे बीच से तोड़कर सूंघने से मिलती थी। किसी पुरानी किताब को खोलने पर उसके पन्नों की गंध। और घरों में आग लगा देने के बाद निकलती गंध और हाथरस की चिता की गंध। ऐसी न जाने कितनी तरह की गंध क्या अब महसूस नहीं की जा सकेगी? क्या जीभ का स्वाद ही अब सब कुछ हो जाएगा, भले न महसूस हो आने वाली विपदाओं की गंध।

कोरोना समय में कई पुरानी अच्छी आदतों के मिटने का बड़ा खतरा है। यदि कोई भूल जाए सुबह का टहलना, शाम का तैरना। अब ऑनलाइन से ही जरूरत की चीजें घर पहुंच जाती हैं। उनसे मिलना मुश्किल है जो सवेरे बाजार में दिखते थे। सब्जी वालों के चेहरे भूल जाएं। यह भी कि सड़क पर गुलमोहर का एक पेड़ है, जहां कोई थोड़ी देर ठहर जाता था। मनुष्य जब भूलना शुरू करता है, यह सिलसिला रुकता नहीं है।

निराला की एक और कविता याद आ रही है- ‘अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा’। नदी-घाटों और हरी घासों पर धरती की उदासी छाई है– कितनी अकेली लगती है प्रेम-शून्य पृथ्वी! आदमी प्रेम करना भूलता जा रहा है। लोगों के पास उनकी सिर्फ देह बची है। सैकड़ों साल की सुंदर कृतियों को भूलने का यही नतीजा हो सकता है कि आदमी के पास अब सिर्फ उसकी देह हो और इसके भीतर सिर्फ क्षुधाएं हों।

समाज बनता है आपस में बेहिचक मिलने-जुलने से। दूसरे के स्नेह-स्पर्श से, हाथ मिलाने से, गले मिलने से और साथ खेलने-कूदने से। वीडियो गेम जैसी चीजों से समाज की नींव जर्जर हो जाती है। स्नेह-स्पर्श का आलम यह है कि हाल ही जुलाई महीने में बेंगलुरु से थोड़ी दूर एक दलित युवक को सड़क पर जूते से पीटा गया, क्योंकि उसने एक सवर्ण का मोटर बाइक छू दिया था। मध्य प्रदेश के गुना जिले में एक कृषक दंपति को उसके बच्चों के सामने ही मारा-पीटा गया। दंपति ने कीटनाशक खाकर आत्महत्या की कोशिश की। जहां देखो, एक दबंग आवाज है– देख लेंगे तुमको। अब अत्याचार करने के बाद नया फैशन है पीड़ित को ही अपराधी घोषित करना। शिक्षा से स्मार्ट हुआ है आदमी।

क्या ऐसा समाज प्रेमचंद की कहानी ‘गुल्ली डंडा’ के उस छंद में कभी लौटोगे, जहां एक इंजीनियर अपने दलित दोस्त गया के पास आता है, साथ खेलता है और कहता है, ‘तुम्हारा एक दांव हमारे ऊपर है, वह आज ले लो।’ हालांकि शिक्षा ने दूरी बढ़ा दी थी। आजकल ‘गया’ बोलने लगा है तो उस पर जूते बरस रहे हैं।

कोरोना के डर से बच्चे ऑनलाइन पढ़ रहे हैं। वे विद्यार्थी ही ठीक से पढ़ पा रहे हैं जिनके पास लैपटॉप है। पॉश शिक्षण संस्थानों में ज्ञान, विज्ञान और टेक्नोलॉजी की बरसात हो रही है। बच्चे हाई कल्चर में ढल रहे हैं। आम गरीब विद्यार्थी अपनी किताबें अलमारी में रख कर रोजी-रोजगार ढूंढ रहा है, अपने पिता के साथ काम पर जा रहा है, हॉकर बन गया है या हतवाक है।

शिक्षा कोई ऐसा परिसर नहीं है जहां सिर्फ पाठ्यक्रम पूरा हो जाए, परीक्षा ले ली जाए या नौजवान कोई हुनर, कोई काम सीख ले। शिक्षा वह जगह है जहां समाज अपने सारे बौद्धिक बंधन खोल देता है बच्चों को मुर्गी के रबे की जगह मुक्त आसमान मिलता है। यहां विद्यार्थियों में पुस्तकीय ज्ञान के अलावा इच्छाशक्ति, जिज्ञासा, साहस और मानवीयताओं का भी विकास होता है।

शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों से जीवंत आमना-सामना एक अर्थ रखता है। दोस्तों से रोज मुलाकात होती है, बिना भेदभाव के रोज साथ खाना, उठना-बैठना होता है। ऑनलाइन शिक्षा कभी इन चीजों का विकल्प नहीं बन सकती।

इस दौर में शिक्षा न सिर्फ यांत्रिक होती जा रही है, बल्कि आनेवाले समय में यांत्रिक शिक्षा ही शिक्षा का संपूर्ण विकल्प बनने जा रही है। दूसरे, शिक्षा अब सामाजिक विभाजन पहले से ज्यादा तीव्र कर देगी। दो तरह के स्कूल होंगे– बड़े लोगों के और साधारण लोगों के। दोनों में भाषा अलग होगी। शक्तिमान की भाषा अलग होगी, वह अंग्रेजी होगी। शक्तियों द्वारा कुचले जाने वाले लोग मातृभाषा की कोठरी में होंगे, जहां सिर्फ सीलन होगी। बड़ी जगहों की शिक्षा आमतौर पर बाहर से जानकार कारीगर और भीतर से राक्षस बनाएगी।

इस समय स्वाभाविक है कि जी ऊबा रहे, अशांत रहे और कोई काम-काज न हो। घर से निकलने से बार-बार मना किया जा रहा है। कहा जाता है कि घर में सुरक्षा है, पर कई बार घर ही सबसे ज्यादा असुरक्षित स्थान हो जाता है। सोशल मीडिया और टीवी के निशाने पर फिलहाल घर में बैठे लोग ही हैं। लोग चैनल बदलते रहते हैं या मोबाइल पर स्क्रॉल करते रहते हैं। हर जगह एक-जैसा इकहरा स्वर होता है। इन जगहों का शोर सब कुछ कुचल देता है।

कहा जाता है कि अंग्रेजों को कुछ भारतीय रईसों के घर तीतर- बटेर और मुर्गों की लड़ाई देखकर भारत पर राज करने का मंत्र मिला था। अब सोशल मीडिया और टीवी पर इसके महा-दृश्यों का निर्माण किया जाता है जिनमें समाज के प्रबुद्ध व्यक्ति हिस्सा लेते हैं और चीखते हैं। लोग भी देखते रहते हैं, बह जाते हैं। ऐसे निर्मित महा-दृश्य लोगों को अंधा बना देने के लिए हैं, ताकि जो दिखाया जा रहा है, उसके बाहर देखने की क्षमता नहीं बचे। कोराना ने घर में बांध रखा है। मीडिया यह कहते हुए दर्शकों को अपना शिकार बनाता है- स्टे होम! दर्शक वहां जाते हैं, जहां वे ले जाए जाते हैं। इस तरह वे सबसे ज्यादा असुरक्षित अपने घरों में होते हैं। इस वायरस के लिए अभी तक न कोई किट है और न साबुन!

कोरोना के वायरस से संचार माध्यमों का राजनीतिक वायरस कम खतरनाक नहीं है। न्यूज़ चैनल जब फ्री स्टाइल कुश्ती के अखाड़े बन जाते हैं, इनके राजनीतिक वायरस से व्यक्ति नहीं, देश मरता है धीरे-धीरे। हर न्यूज़ चैनल का दावा है कि सत्य सिर्फ उसके पास है। बल्कि अब हर एकरेखीय व्यक्ति को लगता है कि सत्य सिर्फ उसके पास है और जो असहमत है उसके पास सत्य नहीं हो सकता।

गिरने की होड़ बढ़ी है। इस होड़ में कोई नहीं चाहता कि वह दूसरे से कम गिरे। ऐसी शिक्षा आर्थिक अंधेरे में अपराधी बनाएगी, अमानवीय बनाएगी। यह अद्भुत समय है। एक चीज थोड़ी बची थी, वह भी कोरोना समय में तेजी से खोती जा रही है– मनुष्य का ‘स्व’। आदमी झूठ का मालवाहक हो गया है, बस फॉरवर्ड करते जाओ! व्हाट्सएप ग्रुप में सोशल मीडिया की राजनीतिक फैक्टरियों में बना कोई माल/झूठ पहुंचा नहीं कि बिना सोचे-समझे आगे बढ़ाते जाना मुख्य काम हो गया है। अब कुछ ही जगहों पर बचा रह पा रहा है खुद कुछ रचने, खुद कुछ सोचने का माद्दा। कुछ जिद्दी लोग अभी भी हैं, अन्यथा झूठ के ‘नेटवर्क’ में विचारों को नजरबंद रखने का नाम है सोशल मीडिया! यह अच्छी स्मृतियों को खा जाता है।

जिस समय में स्मृति-ध्वंस हो, गंध खो गई हो, आंखें दिखाए जा रहे दृश्यों के बाहर देख नहीं पा रही हों, कान पॉप म्यूजिक की ठेपी से बंद हों और देह से देह का गरमाहट-भरा आत्मीय स्पर्श न हो, प्रेम न हो, उस समय मनुष्य की समस्त इंद्रियों पर ताकत का भयंकर कब्जा हो चुका होता है। ऐसी घड़ी में बहुत कुछ खो देने के खतरे होते हैं। हम तब तेज रोशनी में भी अंधेरे के गर्त में जा रहे होते हैं– दोपहर में सफेद अंधकार!

समाज में बढ़ रही निस्सहायताओं को कोरोना ने ज्यादा बढ़ा दिया है। कहीं अवसाद है तो कहीं अपराध है– इसमें भी होड़ है। जो लोग उदार, बौद्धिक स्वतंत्रता से भरपूर और संवादप्रिय समाज में रहने के अभ्यस्त रहे हैं, उन्हें यह दुनिया बेहद अपरिचित लग रही है, बिल्कुल बेगानी। गांव और शहर कभी इतने विभाजित नहीं थे। कभी धर्म इतना ओझल नहीं था। इतने तरह के पाखंड कभी नहीं थे। इस समय  क्रूर किस्म के लोग आत्मसम्मान से भरी स्त्री के उत्पीड़न में वैसी ही तृप्ति का अनुभव करते हैं, जैसे दो सौ साल पहले सती दाह के वक्त उमंग से झाल-मजीरे बजते थे। आज भी किसी स्त्री को डायन घोषित करके भीड़ मार डालती है या प्रेम करने पर लड़की को सजा देने में ही खाप पंचायत को मर्यादा की रक्षा नजर आती है। समाज में उत्पीड़न बढ़ रहा है।

कितना उलट-पुलट गया है समय और यह उतना ही ट्रैजिक भी है। ऐसे में यही प्रार्थना की जा सकती है कि जब चीखकर कोई आदमी पुकारे तो मनुष्य में सुनने की क्षमता बची रहे। यह कहीं ख्वाब न हो जाए!