शंभुनाथ

कोई भाषा जब आत्मपहचान खोती है तो वह पहले भीतर से दरिद्र होती है। उसमें ज्ञान और संवेदना का ह्रास होने लगता है। हिंदी का सिद्ध-नाथों से लेकर कबीर-तुलसी और भारतेंदु-प्रेमचंद-निराला से होते हुए आज तक एक बुद्धिदीप्त, समावेशी और हृदय की भाषा के रूप में विकास होता आया है। इसे खड़ा करने के लिए महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे व्यक्तियों ने सरकारी नौकरी छोड़ी थी। कई संस्थाओं का निजी प्रयास से निर्माण हुआ था, घाटा उठाकर पत्र-पत्रिकाएं निकाली गई थीं और पता नहीं कितने लोगों ने कठोर श्रम किया था, तब जाकर हिंदी सम्मानजनक स्थान पर पहुंची थी। हिंदी आज उन सबके विपरीत अज्ञानता और भेदभाव के निर्माण का औजार बना दी जा रही है। वह विदूषक होती जा रही है, जो चिंताजनक है।

कुछ दशकों पहले हिंग्लिश की समस्या खड़ी हुई थी, बाजार ने हिंदी का अहिंदीकरण करना शुरू किया था। यह विकृतिकरण थमा तो एक दूसरी कुटिलता सामने आई, हिंदी का शुद्धिकरण होने लगा। हिंदी की आत्मपहचान पर यह खतरा कम बुनियादी नहीं है। हिंदी से चुन-चुनकर प्रचलित अंग्रेजी और उर्दू शब्दों को बाहर निकालने और इसे कठिन संस्कृतनिष्ठ बनाने का अभियान देश की इस महान भाषा को संकुचित करने की कोशिश कही जाएगी। 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में ‘मतरूकात’ अभियान चला था, अपनी-अपनी भाषा से दूसरी भाषाओं के शब्दों को बाहर निकालने का कुचक्र, जबकि किसी भाषा की शक्ति का बोध उसके बढ़ते शब्द-भंडार से होता है। भारत के संविधान ने ऐसी हिंदी को प्रोत्साहित करने का निर्देश दिया है जिसमें दूसरी भाषाओं के शब्दों के लिए द्वार खुला हो। हिंदी वैसे भी सदियों से एक मिश्रणशील भाषा रही है, इसमें न जाने कहां-कहां से शब्द आकर घुलमिल गए। गंगा को जितना साफ किया जाए, क्या उसके जल को अनगिनत जगहों की मिट्टी से अलग किया जा सकता है?

हिंदी को सबसे अधिक संकुचित किया जा रहा है, उसकी उस ज्ञान परंपरा से काटकर, जिसका निर्माण संस्कृत साहित्य के अलावा लोकभाषाओं, संतों-सूफियों-भक्ति आंदोलन तथा नवजागरण ने किया है। प्रेमचंद-निराला-अज्ञेय-रामविलास शर्मा जैसे लेखकों ने भी किया है। दिक-दिगंत को छूती हुई लगभग 55 करोड़ लोगों की भाषा है हिंदी। इसे हम मेढक के टर्रटर्राते ठौर से नहीं देख सकते। इस पर कोई एकरेखीय ढांचा नहीं थोपा जा सकता। ऐसा करनेवाले जाने-अनजाने अपने को विस्तृत साहित्यिक विरासत से ही अलग नहीं कर रहे होते हैं, भाषा को ‘कूप जल’ भी बना रहे होते हैं।

हिंदी को उसकी समावेशी भारतीय संस्कृति तथा विश्व के ज्ञान भंडार से अलग करके नहीं देखा जा सकता। हालत यह है कि इस जीवंत और गतिशील भाषा पर एक संकुचित इतिहास थोपा जा रहा है। अतीत के इस हमले को भाषाई पुनरुत्थानवाद कहा जा सकता है। निःसंदेह हिंदी को अतीत की रूढ़ियों से घेरने की जगह भविष्य की संभावनाओं से जोड़ने की जरूरत है।

भाषा और धर्म के बीच कोई संबंध नहीं है। जायसी, रहीम, रसखान जैसे मुसलमान कवियों ने हिंदी में लिखा था। यह बात बांग्ला, तमिल, गुजराती आदि को देखकर भी समझी जा सकती है। भाषा एक मुक्त गगन है। वह एक ही तरह की चिड़िया, एक ही धर्म या एक ही विचारधारा के लिए निर्धारित नहीं की जा सकती। कुछ व्यक्ति हिंदी को धर्म से जोड़कर देखते हैं, जो गलत है। यह भी समझने की जरूरत है कि कुछ भी यदि ज्ञान है तो वह चहारदीवारी में नहीं रह सकता। हिंदी के शुद्धिकरण के नाम पर यदि कोई दूध को गाय के चारे में बदलना चाहे तो वह असफल होगा।

हर राष्ट्रीय भाषा अपने देश की आत्मा को जानने का द्वार है। हमें कहना होगा कि अपने देश को विविध तरह से जाना जा सकता है। भारत जितना बड़ा देश है, हमारा दिल भी उतना बड़ा होना चाहिए। यदि कोई हिंदी को व्यक्तिवाद या अतीत की धारणाओं में सीमित करना चाहता है तो यह जीवन दृष्टि की संकीर्णता का नतीजा है। यह आत्मक्षय है। किसी भाषा में जब स्मृति एक कुआं तथा कल्पना एक बड़ा पत्थर बन जाती है, उस भाषा का दम फूलता है।

आज जो अपने हिंदी-प्रेम का सिर्फ नगाड़ा बजाते हैं, उनसे पूछा जा सकता है कि हिंदी में सूचना तकनीक, इंजीनियरिंग, प्रबंधन तथा ज्ञान-विज्ञान के सामान्य विषयों की पाठ्य पुस्तकें क्यों नहीं बन रही हैं। आज करोड़ों आम लोगों के लिए आत्मनिर्भरता का अर्थ है नए ज्ञान-विज्ञान की अंग्रेजी में दी जाने वाली शिक्षा से वंचित होना तथा अपनी मातृभाषा के पिछड़े शैक्षिक संसार में पड़े रहना। आत्मनिर्भरता का अर्थ है सिर्फ संपन्न लोगों को अंग्रेजी में उच्च शिक्षा पाने तथा ऊँचे पदों पर जाने का अधिकार। यह चिंताजनक है कि अब हिंदी पिछड़े लोगों की भाषा बनकर सिर्फ 55 करोड़ की संख्या का गौरवबोध कराती है!

हिंदी में उच्च शिक्षा का संकुचित अर्थ है साहित्य से एम.ए. करके स्कूल मास्टर बनो या बहुत ज्यादा तो कॉलेज का प्रोफेसर बन जाओ या कहीं अनुबंध पर झूलेलाल बने रहो। हिंदी का पाठ्यक्रम एक म्यूजियम से ज्यादा नहीं होता। परंपरा को जानने का अर्थ है-क्रिकेट के गेंदबाज की तरह मैदान में पीछे जाकर सामने गेंद फेंकना न कि पीछे ही रह जाना! फिलहाल हिंदी पाठ्यक्रम में खिड़कियां ही नहीं हैं कि शिक्षार्थी ज्ञान के एक बड़े संसार से जुड़ सकें। इसके अलावा, साहित्य का पढ़ने-पढ़ानेवाले पर जरा भी ऐसा प्रभाव या संस्कार नहीं पड़ता कि उसका मन थोड़ा बड़ा हो। आमतौर पर भाषा-चतुर होकर कई व्यक्ति अधिक धूर्त्त हो जाते हैं। उनका मन वस्तुतः साहित्य से निर्मित नहीं होता। वह बाजार और राजनीति की टकसाल में ढलकर निकलता है।

अंग्रेजी कम जानने वालों को भी ज्ञान का अधिकार है। हिंदी यदि एक जीवित और उत्थानशील भाषा है, जैसी कि वह है, तो वह सिर्फ कवि-कहानीकारों तथा फेसबुक के टिप्पणीकारों की दुनिया नहीं हो सकती। इसमें सिर्फ राजभाषा अधिकारी नहीं होंगे या सिर्फ स्कूल-कॉलेज के शिक्षक नहीं होंगे। इसमें सिर्फ अखबार और फिल्में भर नहीं होंगी। हिंदी सिर्फ नेताओं के संबोधन के लिए नहीं होगी। हिंदी यदि एक जीवित और उत्थानशील भाषा है तो इसमें वैज्ञानिक होंगे, प्रबंधक होंगे, साफ्टवेयर इंजीनियर होंगे, वकील होंगे, समाज वैज्ञानिक और इतिहासकार भी होंगे।

राष्ट्रसंघ में लंबे समय से अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और चीनी भाषाएँ प्रतिष्ठित हैं। ये दूसरे विश्व युद्ध के विजेता देशों की भाषाएं हैं। 1973 में अरबी और स्पेनिश भाषाएं भी प्रतिष्ठित हुईं। इनके बोलने वालों की संख्या हिंदी से काफी कम है। संयुक्त राष्ट्र में जाकर आवाज उठाई गई (2007), लेकिन हिंदी वहां अब तक प्रतिष्ठित नहीं हो पाई है, भले ‘विश्व हिंदी’ और ‘अंतरराष्ट्रीय हिंदी’ बोल-बोलकर एक से बढ़कर एक तमाशा होता है। कुछ लोग विदेश यात्रा के मजे लेते  हैं। दरअसल हिंदी की आत्मपहचान को एक विस्तृत जमीन पर देखना होगा, अन्यथा सबकुछ आत्ममुग्धता की रंगीन दलदल में धँसता जाएगा।

इस पर सोचने की जरूरत है कि संस्कृत प्रचलित क्यों नहीं रह सकी, जबकि पंडितों-विद्वानों के बीच केरल से लेकर कश्मीर तक बोली जाती थी। वह एक महान भाषा है, लेकिन सिमट गई, क्योंकि उसकी अंतर्वस्तु इतिहास की नई जरूरतों के अनुसार बदल नहीं सकी।

वह एक खास बौद्धिक ढांचे के बाहर निकल नहीं पाई और पुरानी धारणाओं के संरक्षणवाद में लगी रही। उसका लोक की नई आकांक्षाओं और जरूरतों से संपर्क टूट गया। आगे की भाषाएं भी इन्हीं वजहों से धीरे-धीरे इतिहास की वस्तु होती गईं। अब बारी हमारी राष्ट्रीय भाषाओं की है, यदि समय रहते हमने अपनी भाषाओं के संसार को नई जरूरतों के अनुसार विस्तृत नहीं किया। कहना न होगा, यह काम उदार भावना, विस्तृत संसाधनों और दायित्वशील और कल्पनाशील व्यक्तियों के प्रयास से ही हो सकता है- हिंदी की सेवा के नाम पर सेवन करनेवालों के द्वारा नहीं!

इन्फोसिस के संस्थापक और एक बड़े औद्योगिक व्यक्तित्व नारायण मूर्ति ने हाल में (जुलाई 2021)कहा है, ‘रोजगार की दुनिया में जो नौजवान अंग्रेजी में निपुण नहीं हैं वे पिछड़ जाएंगे। 2025 में 5 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था निर्मित करने के लिए अंग्रेजी पर फोकस देना जरूरी है। अब अंग्रेजी ही देश के ग्रेजुएटों के बीच संपर्क भाषा है। वर्तमान दौर में अंग्रेजी शिक्षा एक बहुमूल्य चीज है। देखा गया है कि जो नौजवान अंग्रेजी नहीं जानते तथा पर्याप्त कुशल नहीं हैं, वे पर्याप्त रोजगार रहते हुए भी उसे हासिल नहीं कर पाते।’ अंग्रेजी जानना अच्छी चीज है, पर इसकी कठोर अनिवार्यता एक तरह की गुलामी का चिह्न है।

उपर्युक्त परिदृश्य में यदि हिंदी शिक्षितों के आत्मनिर्भर होने का अर्थ पकौड़े बेचना, भटकते रहना और अवसाद में धीरे-धीरे मौत की तरफ बढ़ना है तो निश्चय ही यह आत्मनिर्भरता नहीं है, यह लोगों को एक सुपरिकल्पित गुलामी में रखना है।

हिंदी अतीत में फँसी हुई है, जबकि उसमें एक उन्नत भविष्य-दृष्टि होनी चाहिए। उसे अतीत के अंधविश्वासों से नहीं, ज्ञान और विज्ञान की परंपराओं तथा तकनीकी नवोन्मेषों से जोड़ना होगा। इसके अलावा, इस देश की भाषिक बहुलता का सम्मान करना सीखना चाहिए। पश्चिमी चिंतक समझते रहे हैं कि भाषिक बहुलता किसी देश के विकास में बहुत बड़ी बाधा है। इसलिए प्रांतीय भाषाओं की तुलना में अंग्रेजी हमेशा एक बेहतर चयन है। इसे रोटी को लेकर बिल्लियों के बीच मतभेद को निबटाने के लिए ‘बंदर न्याय’ कहा जा सकता है-मंकी जस्टिस! बंदर खुद सारी रोटी चट कर गया!

दरअसल लंबे समय से कहा जा रहा है कि भारत में एकमात्र अंग्रेजी-निपुण शहरी मध्यवर्ग ही है जो ‘भारतीय एकता’ का सही प्रतिनिधित्व करता है। वह जाति और प्रांतीयता से ऊपर उठा हुआ है। तर्क दिया जाता है कि हिंदीभाषी राज्य सबसे ज्यादा इसलिए पिछड़े हैं कि आमतौर पर यहां के लोग अंग्रेजी में निपुण नहीं हैं। इसलिए ‘नए भारत’ तथा ‘अंग्रेजी’ के बीच एक स्वाभाविक संबंध है। दरअसल अंग्रेजी भी अब पहले-सी बुद्धिदीप्त भाषा न होकर एक सतही भाषा बन चुकी है।

सर्वविदित है कि भाषा का संबंध भले धर्म से न हो, पर सत्ता से है। ऐसा अतीत में भी रहा है चाहे वह पालि हो, फारसी हो या अंग्रेजी हो। कहना न होगा कि अंग्रेजी पर सर्वानुमति एक एलीटवर्गीय निर्मिति है। (वाक्य ?) यह एक भ्रम है कि अंग्रेजी में निपुण लोग जाति, धर्म या प्रांतीयता से ऊपर उठे हुए होते हैं तथा हिंदी प्रदेशों के पिछड़े होने की एकमात्र वजह यहां रहवास करनेवालों का अंग्रेजी में कमजोर होना है। अंग्रेजी की बदौलत नए भारत में जनतंत्र, न्याय और शांति की स्थापना हो सकेगी, यह भी एक बहुत बड़ा भ्रम है। यह वस्तुतः हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं और संस्कृतियों से नया रिश्ता बनाकर ही संभव है।

समझना मुश्किल नहीं है कि हिंदी क्षेत्र की राष्ट्रीय एकता को तोड़ने के लिए एक समय लोकभाषाओं के आधार पर भाषाई पृथकतावाद का प्रचार किया जाता था, जबकि हिंदी वस्तुतः अपने विराट क्षेत्र की अवधी, ब्रज, राजस्थानी, भोजपुरी, मैथिली, छत्तीसगढ़ी आदि 49 लोकभाषाओं तथा भाषाओं की संतान है-सीधे संस्कृत उसकी माता नहीं है। इन दिनों हिंदी क्षेत्र की राष्ट्रीय एकता को जाति-धर्म के नाम पर विभाजित किया जा रहा है और लोगों को अज्ञानता, मूर्खताओं तथा दकियानूसी विचारों की जंजीर से बांधा जा रहा है, ताकि ‘ऊपर लूट-नीचे फूट’ जारी रहे!

कहना न होगा कि अंग्रेजी एकध्रुवीय वैश्वीकरण की वजह से ही वैश्विक सत्ता की भाषा है, ग्लोबल भाषा है और पूरा विश्व उसका भाषाई उपनिवेश है। बहुत अस्पष्ट नहीं है कि दुनिया का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह नई विश्व अर्थव्यवस्था के हाशिये पर है, उसी तरह अरबों लोगों की भाषाएं भी हाशिये पर हैं, आक्रांत हैं, असहाय हैं और बाजारू विकृतिकरण की शिकार हैं।

हिंदी बहुतों को वर्चस्व की भाषा लगती है, पर वह वस्तुतः आक्रांतों की भाषा है-आक्रांतों की आवाज है। यह अद्भुत विडंबना है कि हिंदी राजभाषा बनी हुई है, पर सत्ता की भाषा अंग्रेजी है। उस पर जरूरत से ज्यादा गर्व करना किसी के पेशे का हिस्सा हो सकता है, पर उसकी वास्तविक हालत बहादुरशाह जफर की है जो नाममात्र का बादशाह था। हिंदी का दर्द भी जफर के दर्द-सा है!

हम हिंदी को चारागाह समझते हैं, इसमें जीते नहीं हैं। एक भाषा में जीने का अर्थ है, उसके मूल्यों और सुंदरताओं से जुड़ी संस्कृति में जीना, अपने ‘मैं’ के बाहर भी सोचना तथा पूरे देश-दुनिया को देखना। नौकरी पाने के बाद, एक बल पाकर उसमें यह इच्छा अधिक सुलग उठनी चाहिए, पर विडंबना यह है कि साल-छह महीने के बाद यह वस्तुतः मरने लगती है।

हिंदी को लेकर बंद दिमाग का एक सबूत यह है कि इसे फिल्मों, टीवी सीरियलों और नाच-गानों की भाषा से अधिक नहीं समझा जाता। हिंदी की मुख्य पहचान यही बना दी गई है। हिंदीतर क्षेत्र के लोग भी, जो हिंदी नहीं समझते, हिंदी म्युजिक के दीवाने हैं। यह मनोरंजन उद्योग की आक्रामक शक्ति है। हिंदी के अलावा दूसरी किसी भाषा में हास्यास्पद कवि सम्मेलन नहीं होते। ऐसे कवि सम्मेलनों में उपस्थित भीड़ पर जरा नजर डालिए, हल्के किस्म के मजे में सभी सराबोर नजर आएंगे। इन घटनाओं से यही खुलासा होता है कि हिंदी में कोई गंभीर काम करने, किताबें पढ़ने, पत्रिकाएं पढ़ने, विविध कलाओं से जुड़ने और शालीन ढंग से तर्क-वितर्क करने के लिए स्पेस लगातार कम होता जा रहा है।

कई बार लगता है कि हिंदी सिर्फ इसलिए सुरक्षित है कि यह मनोरंजन उद्योग की भाषा है। जो हिंदी क्षेत्र कभी स्वाधीनता आंदोलनों और ज्ञान के उत्कर्ष की एक उर्वर जमीन रहा है, वहां सबकुछ का ‘मेगा कॉमिक शो’ में बदलना हिंदी का उत्थान है या इसका बौद्धिक दुखांत, इस पर सोचने की जरूरत है। खुद सोचना भूलने की चीज नहीं है!