शंभुनाथ

21वीं सदी में मीडिया के स्वरूप में ऐसा परिवर्तन आया है, जिसकी कभी कल्पना नहीं की गई थी। अब इसे ‘नया मीडिया’ तथा मुद्रित माध्यमों को ‘परंपरागत मीडिया’ कहा जाता है। नया मीडिया के दो रूप हैं- कारपोरेट टीवी और सोशल मीडिया। कहा जा सकता है कि मल्टीनेशनल के लिए कारपोरेट टीवी उसका दीवान-ए-खास और सोशल मीडिया दीवान-ए-आम है! मनोरंजक घटना यह है कि अपनी पुरानी परंपराओं में जीने वाली करोड़ों जनता चमक-दमक से भरे नया मीडिया की तरफ तेजी से आकर्षित हुई है जिस तरह वह कभी उपन्यास, रेडियो, फिल्म और ट्रांजिस्टर की तरफ दौड़ी थी।

नया मीडिया ने तकनीक के स्तर पर आधुनिकतम औजारों का इस्तेमाल किया, लेकिन सोच के स्तर पर मुख्यतः रूढ़िवादी धार्मिक विश्वास, जातिवाद और स्थानीयतावाद के पोषण को अपना लक्ष्य बनाया। इसने पृष्ठभूमि में जा रही सामाजिक बुराइयों को पुनः प्रतिष्ठित करने में एक बड़ी भूमिका निभाई। कहना न होगा कि नया मीडिया के दोनों रूपों पर क्षमतावान बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही कब्जा है।

मीडिया का बुनियादी सिद्धांत रहा है- ‘सूचना ही शक्ति है’। यह बदलकर हो गया- ‘शक्ति ही सूचना है!’ कहा जा सकता है कि मीडिया के पुराने सिद्धांत मीडिया के नए संसार में निरर्थक हो चुके हैं।

पत्रकारिता को कभी चौथा खंभा कहा जाता था। लोकतांत्रिक परिसर के निर्माण में उसकी बड़ी भूमिका को देखते हुए ही ऐसा कहा जाता था। लेकिन जबसे मीडिया शब्द लोकप्रिय होने लगा, भूमिका बदलने लगी। आज का मीडिया जनमत को नियंत्रित करने का हथियार है। वह अब लोकतांत्रिक परिसर पर कब्जा करने के लिए है। कुछ दशकों से मीडिया जगत में कारपोरेट पूंजी की बढ़ी ताकत से यह स्थिति आई है। जो अखबार पहले बड़े सूचना घराने के रूप में देखे जाते थे, अब वे लिटिल मीडिया जैसे दिखते हैं। नया मीडिया ने दरअसल सभी वैकल्पिक सांस्कृतिक निर्माणों के सामने संकट खड़ा कर दिया है।

कारपोरेट मीडिया का यथार्थ चेहरा

मीडिया के संसार में कारपोरेट पूंजी के व्यापक आगमन के बाद परिदृश्य पूरी तरह बदल गया है, बल्कि डिजिटल करेंसी बिटक्वाइन भी न्यूज चैनलों का प्रायोजक होने लगा। इनके व्यावसायिक विज्ञापनों में स्मार्ट उपभोक्ता वस्तुओं तथा पश्चिमी फैशन का विपुल प्रचार है, भले खबरों में सामाजिक विभाजन, विद्वेष, अंधविश्वास और सामाजिक टकराहटों पर जोर हो। चिंताजनक यह है कि कारपोरेट समूह और राष्ट्र के बीच गठबंधन के बाद अब सत्ता के लिए मीडिया के बल पर तर्क, सच और न्याय को मनमानी दिशा में हांकना आसान हो गया है और बिग मीडिया की स्वायत्तता अंतिम रूप से खत्म हो गई है।

एक बड़ा फर्क आया है- आम लोग जब मंदी, महामारी और रोजी-रोजगार में गिरावट के दौर से गुजर रहे हैं, मीडिया को भारी मुनाफाखोरी का मौका मिला है। फिक्की के 2021 के एक रिपोर्ट के अनुसार मीडिया और मनोरंजन उद्योग की 2020 में आय 1.38 लाख करोड़ रुपये थी जो 2021 में 1.73 लाख करोड़ है और 2023 में 2.23 लाख करोड़ हो जाएगी। 2024 तक संपूर्ण आय में टेलीविजन की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत, सिनेमा की 9 प्रतिशत और प्रिंट मीडिया की 13 प्रतिशत होगी। इसका अर्थ है कि टीवी पर कारपोरेट की सबसे ज्यादा पकड़ होगी।

अभी टीवी पर विज्ञापन से भारी कमाई हो रही है, क्योंकि खबरें भी बेची जा रही हैं। दर्शक को पता भी नहीं चलता कि वे बेच दिए गए हैं! इसकी बिलकुल जरूरत है कि टेलीविजन को उसके वास्तविक स्वरूप में पहचाना जाए, उसे ‘कारपोरेट मीडिया’ कहा जाए।

कारपोरेट मीडिया दो काम करता है- पहला, वह लोगों को स्मार्ट, डिजिटल और आत्मनिर्भर भोगमय जीवन के सपने दिखाता है। दूसरा, धर्म, जाति, ‘हम-वे’ की धारणाओं के आधार पर करोड़ों लोगों के दिमाग का ‘सांस्कृतिक रेजिमेंटेशन’ करता है। वह लोगों के ‘बौद्धिक समतलीकरण और भावनात्मक विभाजन’ द्वारा यह काम संपन्न करता है। कहना न होगा कि कारपोरेट मीडिया ‘ऐक्यबद्ध बाजार और विभाजित समाज’ की विचारधारा से संचालित है।

कारपोरेट समूह चाहते हैं कि एक तरफ बाजार मुक्त हो जाए, दूसरी तरफ आम लोग बंटे रहें- उनका क्षोभ बंटा रहे। सामाजिक विभाजन की छाया आम पब्लिक के अलावा लेखकों, एलीट बुद्धिजीवियों और समस्त बौद्धिक वर्गों के मानस पर भी देखी जा सकती है।

यह भी देखा जाना चाहिए कि आजकल के राजनेता मीडिया पर कैसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं, टीवी वाले कैसी भाषा बोलते हैं और सोशल मीडिया में बहस का स्तर क्या है। देश के कर्णधारों और जनमत तैयार करने वाले मीडिया की भाषा अंतहीन अपशब्दों, कुतर्कों और शोरगुल से भरी होती है। इससे पता चल सकता है कि आजकल के ऐसे पढ़े-लिखे लोग वस्तुतः हिंदी की कैसी क्षति कर रहे हैं और वे सौंदर्यबोध से कितने विच्छिन्न हैं।

क्या यह सूचना गतिरोध का युग है?

क्या आज के समाज को सूचनाविहीन समाज कहा जा सकता है? हालांकि हर तरफ खबरें ही खबरें हैं, सूचनाओं के अंबार हैं और आदमी जो चाहे बोल रहा है। कई बार लग सकता है कि पहले से स्वतंत्रता बढ़ गई है। खासकर भारतीय स्वतंत्रता की ७५वीं वर्षगांठ पर सोचा जा सकता है कि क्या हमारी स्वतंत्रता अब स्वर्णमृग की तरह मायावी हो चुकी है। वस्तुतः यह एक सूचनाविहीन समाज है, सूचनाओं से वंचित समाज है। यह एक ‘डिसइन्फार्मेशन सोसाइटी’ है, जिसका निर्माण अमीर मीडिया कर रहा है।

हर पाठक-दर्शक को सही खबर जानने का अधिकार है, जबकि आज के मीडिया का लक्ष्य है पाठक-दर्शक के मानस का बौद्धिक समतलीकरण। यह गलत सूचनाओं और अति-पक्षपातपूर्ण ढंग से खबरों का प्रसारण करके तो होता ही है, सबसे अधिक सूचना को रोककर होता है। इसे हम ‘डिसइन्फार्मेशन’ या सूचना-गतिरोध कह सकते हैं। इसका अर्थ है, ‘सूचना समाज’ का निर्माण करते-करते हमारी यात्रा अब सूचनाविहीन समाज की ओर है।

ब्रिटिश इतिहासकार थामस कार्लाइल ने पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा था। जबसे पत्रकारिता की जगह मीडिया आया, चौथे खंभे की बाहरी चमक-दमक बढ़ गई है, पर भीतर से वह खोखला हो गया है। लक्षित किया जा सकता है कि कोरोना महामारी के दौर में नर्सिंग होम या मीडिया ही टकसालघर बना है! दोनों जगहों पर पैसा बरस रहा है। यदि आर्थिक मंदी के दौर में मीडिया की आय बढ़ती जा रही है, तो समझना मुश्किल नहीं है कि वह कहां से और क्यों इतना अधिक अर्थोपार्जन कर रहा है और जनमानस को प्रभावित करने में उसकी भूमिका क्यों बढ़ गई है। देश जब संकट की दशा में है, मीडिया सबसे अधिक स्मार्ट और रंग-बिरंगा है। अब कुछ भी वैसा नहीं दिखता, जैसा वह है। अब सबकुछ वैसा दिखता है जैसा दिखाया जाता है। लक्षित किया जा सकता है कि मीडिया किस तरह अब एक अदृश्य हिंसा है!

इसी का नतीजा है कि इधर समाज में संवाद, बहस, तर्क जैसी चीजें घटी हैं, आलोचनात्मक विवेक का ह्रास हुआ है और आदमी अंध-फॉलोअर ज्यादा हुआ है। कहा जा सकता है कि पाठकों-दर्शकों की सोच के बंध्याकरण में नया मीडिया की एक बड़ी भूमिका है। उसका छद्म बिंब बनाते हुए पैसा बटोरना और पैसा बटोरते हुए छद्म बिंब निर्मित करना एक खेल है। वह ऐसी सूचनाएं नहीं देता जो व्यक्ति में सोचने की शक्ति पैदा करे, उसे अ-ज्ञान से मुक्ति की ओर ले जाए। वह ऐसी सूचनाएं देता है जिसके जाल में फँसकर आदमी परजीवी हो जाता है और सोचना छोड़ देता है। आज का मीडिया एक ही बात बार-बार कहकर मानो आदमी को अपनी खबरें रटाता है। वह मस्तिष्क को अपना सूचना-भंडार बना लेता है। वह ज्ञान नहीं देता, चिंतन शक्ति नहीं देता और न उच्च मानवता का अहसास कराता है। वह सहस्रबाहु है, वस्तुतः सूचनाविहीन समाज निर्मित करने का एक शक्तिशाली औजार।

मीडिया की स्वायत्तता जरूरी है

देश में पहला अखबार ‘हिकी बंगाल गजट’ कलकत्ता से १७८० में निकला था। उसका नीतिकथन था, ‘सभी के लिए खुला, पर किसी से प्रभावित नहीं’। अंग्रेजी राज की आलोचना करने के कारण अंग्रेज होते हुए भी हिकी को जेल जाना पड़ा था। उससे डाक की सुविधा छीन ली गई तो उसने २० हरकारे रखे। वह अखबार निकालता रहा!

आजकल खबरें बेचने के लिए छोटे-बड़े अनगिनत मीडिया काउंटर बने हुए हैं, अपने पैसे दो – अपनी खबरें लो! मीडिया के लिए इस नीतिकथन का अब कोई अर्थ नहीं है, ‘सभी के लिए खुला पर किसी से प्रभावित नहीं’! अब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने की जरूरत नहीं है,‘अभिव्यक्ति का प्रबंधन’ काफी है!

भारत में मीडिया का जन्म असहमति और प्रतिवाद से हुआ था। कहा जा सकता है कि पत्रकारिता का किसी से प्रभावित न होना ही पत्रकारिता का स्वराज है, मीडिया का स्वराज है। देश के नागरिक जिस दौर में पराधीनता के बंधनों से घिरे थे, अखबारों ने जंजीरों पर चोट की थी। लोग जब बोल नहीं पा रहे थे या अभी जाग्रत न थे, तब पत्र-पत्रिकाएं मुखर थीं। उस जमाने के पत्रकार आजकल के टीवी एंकरों की तरह भड़काऊ और भड़कीले नहीं थे। वे तर्क के साथ अपनी बातें रखने वाले बड़े सादे इनसान थे। वे आज की तरह पूंजी की कठपुतली न थे।

मीडिया का स्वराज, उसकी स्वायत्तता उसकी निजी गरिमा के लिए बेहद जरूरी है। लेकिन आज स्वराज की इच्छा मर गई-सी लगती है। भूमंडलीकरण के दबाव में आर्थिक स्वराज के बारे में सोचना तो फिलहाल असंभव-सा है। पत्रकारिता के स्वराज पर भी इधर आक्रमण बढ़े हैं, पत्रकारों पर दबाव बढ़ा है- हायर एंड फायर! सबसे चिंताजनक है ‘स्वराज’ की इच्छा को ही मिटा देने का प्रयास।

समाज में यूनिवर्सल डीजनरेशन क्यों आ रहा है

सवाल है, पश्चिमी देशों का मीडिया जब आज भी काफी स्वतंत्र और निर्भीक है, भारत में मीडिया का इतना अधिक पतन कैसे हुआ। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि देशों के मीडिया उद्योग में ज्यादा बड़ी पूंजी लगी है। फिर भी देखा जा सकता है कि वहां विचारों की बहुलता बनी हुई है, संपादक ज्यादा स्वतंत्र हैं। वहां आर्थिक स्पर्धा में सच के लिए जगह है। वहां मीडिया सामान्यतः सत्ता का लाउडस्पीकर नहीं हो पाता। भारत में मानसिकता के किस दोष के कारण मीडिया पक्षपातपूर्ण प्रोपगंडा का औजार बना हुआ है और ज्यादातर ‘सनसनीखेज’ पर टिका है, यह देखने की जरूरत है। इधर समाचार-रसिकों के वर्ग का भी विस्तार हुआ है, जो इस ‘ह्रास’ का मजा लेता है।

अब हर सूचना और खबर ही मानो ‘प्रोपगंडा’ है। अब खबरें नहीं, ‘निर्मित खबरें’ हैं। अब जो ‘सनसनीखेज’ और ‘कॉन्ट्रोवर्शियल’ है, वह मूल्यवान है, वह नहीं जो सारवान है। एक तरह से आज का मीडिया बाजार और राजनीति के बीच सैंडविच है। वह झूठ का मोहक मालवाहक है। इसपर झूठ इतने आत्मविश्वास से कहा जाता है कि वह सबको सच लगता है। अब मुनाफाखोरी का ऐसा पागलपन है कि कोई दायित्वबोध नहीं बचा है।

एक सवाल है, पाठकों-दर्शकों की दृष्टि सिर्फ उन चीजों की ओर क्यों आकर्षित होती है जिनमें मिर्च-मसाला भरा होता है? कहना न होगा कि हाल के दशकों में आई जन-रुचि की गिरावट ही पक्षपातपूर्ण और विकृत सूचनाओं के लिए उर्वर जमीन बनी है।

अब सत्य प्रचारित नहीं होता। जो प्रचारित किया जाता है, उसे ही सत्य मान लिया जाता है। धारणा बनी है, लोकतंत्र पर कब्जा रखना है तो चौथे खंभे को जैसे संभव हो, वश में रखो। यही वजह है कि नया मीडिया को जनता के मन-मस्तिष्क में सेंध मारने वाले सूचना-तंत्र के रूप में विकसित किया गया है। दुखद है कि वह इधर घृणा और असहिष्णुता के नग्न प्रचारक के रूप में सामने आया है, भले इससे सामाजिक समरसता की क्षति हो। वह राजनीति और बहुराष्ट्रीय व्यावसायिक कंपनियों – दोनों की सेवा में है। वह बिकने वाले लोकप्रिय कलाकारों की पूरी टीम के साथ है। वह लोगों के दिमागी रेजिमेंटेशन के लिए नित नई तकनीक और विशेषज्ञों की फौज लेकर है।

क्या सोशल मीडिया वैकल्पिक मीडिया है?

इसमें संदेह नहीं कि नया मीडिया को हमारे जीवन का अंग बने रहना है। करोड़ों लोग टीवी देखते हैं, सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। ये प्रभावशाली माध्यम बनकर उभरे हैं। हम इन चीजों से बच नहीं सकते, पर यह संभव है कि अपनी जिंदगी इनके हवाले न करें।

बहुतों को बोध हो भी चला है कि न्यूज चैनल शोरगुल की जगह है। यह चीख-चिल्लाकर सच को छिपाने और सनसनी की जगह है। सोशल मीडिया पर संवाद कम होता है, बहस कम होती है, शत्रुताएं ज्यादा पैदा होती हैं और आंख मूंदकर फारवर्ड करने का पिछलग्गूपन ज्यादा दिखता है।

सोशल मीडिया मुख्यतः एक मध्यवर्गीय मामला है। यह कारपोरेट संसार द्वारा ही एक खास उद्देश्य से निर्मित जगह है, जो डेटा-व्यवसाय में मुनाफा देती है। इसपर अपनी-अपनी वजहों से न काफी अमीर लोग होते हैं और न काफी गरीब लोग। लाखों की मासिक आमदनी वाले लोग फेसबुक, यूट्यूब, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम आदि पर सक्रिय नहीं होते। इसपर आम बुद्धिजीवी डेटा खरीद कर अपनी बौद्धिक पीड़ा निकालते और राहत पाते हैं। आम लोग अपने दुख, खुशियां और सुंदरताएं शेयर करते हैं और तुष्ट होते हैं। उल्लेखनीय है कि हर पोस्ट क्षणभंगुर है, फिर भी यह एक आकर्षक नागरिक परिसर है।

हम लेखक-बुद्धिजीवी अपने सामाजिक कर्तव्यों को टालकर सोशल मीडिया में अपनी गुमटी बनाकर बैठे रहते हैं। फेसबुक, ह्वाट्सऐप, इंस्टाग्राम आदि हमें स्वतंत्रता का आभास कराते हैं, जो चाहो पोस्ट करो। ये स्वतंत्रता का महाद्वार की तरह नजर आते हैं। समझ में नहीं आ पाता कि इनके जरिए कारपोरेट जगत वस्तुतः हमारी क्षमताएं छीन रहा होता है, हमारी चिंताओं को संकुचित कर रहा होता है और हमें अतंर्शत्रुता फैलाने के औजार में बदल रहा होता है। यहां यूजर वस्तुतः ‘यूज्ड’ होता है। हम सोचते हैं  हमने घर बैठे-बैठे दिग्विजय कर ली है।

सोशल मीडिया ने जमकर आत्मसम्मोहन की प्रवृत्ति विकसित की है, उपयोगकर्ताओं को नार्सिस्टिक बनाया है। ग्रीक नायक नार्सिसस को अपने चेहरे से इतना प्यार हो गया था कि वह हर तरफ सिर्फ अपना चेहरा देखना चाहता था और इसके लिए उसने अपने महल में हर तरफ आईने लगा रखे थे!

सोशल मीडिया पर लगभग टिड्डियों की तरह पोस्ट आते हैं- क्या करे यूजर! इसपर तस्वीरें ज्यादा देखी जाती हैं, लंबे पोस्ट कम पढ़े जाते हैं। सोशल मीडिया पर पढ़ना कोई नहीं चाहता, सब पढ़ाना चाहते हैं। सुनना कोई नहीं चाहता, सब सुनाना चाहते हैं। इस संदर्भ में कुछ व्यक्ति दावा करते हैं कि उनके १० हजार फॉलोवर हैं, एक लाख फॉलोवर हैं! फॉलोवर के संबंध में यह सोचना कि लोग पूरा पढ़ते हैं तो यह एक बहुत बड़ा भ्रम है।

उल्लेखनीय है कि कारपोरेट-निर्मित सोशल मीडिया के ज्यादातर इलाकों पर छोटी-बड़ी सूचना-फैक्टरियों का कब्जा है। वे ‘निर्मित’ और ‘झूठी’ सूचनाएं प्रसारित करती हैं। ऐसे पोस्ट को लाइक और फारवर्ड करते-करते आम उपयोगकर्ता खुद सोचने और कल्पना करने की अपनी शक्ति खो देता है। सूचना फैक्टरियों की चीजें फॉरवर्ड करने के अलावा, एक अन्य प्रवृत्ति बढ़ी है आत्मविज्ञापन की। किसके घर में कौन-सी खास रसोई बनी, कौन किस यात्रा पर निकला, किसके बेटे-बेटी ने परीक्षा और नौकरी में भारी सफलता पाई, किस लेखक की रचना कहां छपी, सोशल मीडिया पर छवियों के साथ ऐसे आत्मविज्ञापनों की बाढ़ है। निजी दुख के साथ निजी सुख भी अब सार्वजनिक हैं। निजता के परिसर का इस तरह सिकुड़ते जाना मानवीय रचनात्मकता का भी सिकुड़ना है।

व्यक्ति की निजता भौतिक सुरक्षा की दृष्टि से ही जरूरी नहीं है, यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर विचार करने और आत्मगरिमा महसूस करने की जगह भी है। सोशल मीडिया इन चीजों को मिटाकर व्यक्ति में आत्मशून्यता भर देना चाहता है। निश्चय ही आत्माभिव्यक्ति और आत्मविज्ञापन में फर्क है।

सोशल मीडिया का इस्तेमाल राजनीतिज्ञ और धर्म-ध्वजधारी ज्यादा कर रहे हैं। यह सामाजिक सौहार्द की जगह विद्वेष के प्रचार और प्रतिस्पर्धा का मंच बन चुका है, जहां व्यक्ति नगण्य है। कई चीजें मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं, वे डिजिटल मनोरुग्णता बढ़ाती हैं। यह एक विडंबना है कि लाखों युवा और आम लोग ‘फ्रेंड’ के भ्रमजाल में फँसकर एक निरर्थक सोच में वस्तुतः बौद्धिक आत्मघात कर रहे हैं। इसके कुछ सकारात्मक पहलुओं पर नकारात्मक नतीजे भारी हैं। मुझे लगता है कि सोशल मीडिया को सुबह-शाम चाय पीने से ज्यादा महत्व देना अपने को उजाड़ना है।

क्या डिजिटल मीडिया एक मानसिक रोग बन चुका है?

फेसबुक, व्हाट्सऐप जैसे डिजिटल माध्यम की शुरुआत के साथ संभावना व्यक्त की गई थी कि सामान्य डेटा शुल्क देकर अब तेजी से वैश्विक संपर्क और सौहार्द स्थापित किया जा सकेगा। लोगों का चित्त उदार होगा। देश की ही नहीं धर्म, जाति और स्थानीयता की भी सीमाएं टूटेंगी। लंबे समय के बिछुड़े लोग मिलेंगे। परिवार के बिखरे लोग दूरियों के बावजूद आपस में खुलकर बात करेंगे और छवियों का आदान-प्रदान करेंगे। जुकेरबर्ग मालामाल होने के साथ नायक हो गया था। वह अब अपने ही निर्माण को संदेह से देख रहा है और किंकर्तव्यविमूढ़ है, क्योंकि यहां लौटने की राह नहीं है।

आज सोशल मीडिया पर कई लोग दिन-रात लिप्त रहते हैं। उपयोगकर्ताओं में सबसे बड़ा वर्ग स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों और युवाओं का है। उनकी पढ़ाई बुरी तरह प्रभावित हुई है। कोरोना काल में डिजिटल संक्रमण का विस्तार हुआ है और निश्चय ही लोगों की ऑनलाइन दक्षता बढ़ी है। इसके फायदे भी हैं। लेकिन एक घटना यह भी है कि सोशल मीडिया पर राजनीतिक कब्जे के लिए सैकड़ों करोड़ रुपए व्यय किए जाने लगे हैं। सतही बातों, झूठे प्रचार और अज्ञानता-निर्माण के हजारों केंद्र बन गए हैं जो सबसे निम्न स्तर का या उत्तेजक है, वह ज्यादा ‘वायरल’ होता है जिससे लोकरुचि जाहिर होती है। इतिहास और विज्ञान की दशा द्रौपदी की हो गई है। अब अज्ञान ही ज्ञान है। यदि झूठ अपने राजनीतिक विचारों के करीब है तो उसे बिना सोचे-समझे फारवर्ड करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। देखा जा रहा है कि आम लोग धर्म, इतिहास और देश के महापुरुषों के बारे में विद्वेषपूर्ण प्रचार का तेजी से हिस्सा बन जा रहे हैं, उनके मन में कोई प्रश्न नहीं उठता।

उच्च तकनीक और बड़ी पूंजी के बल पर समाज में फैलाए जा रहे धार्मिक जहर के शिकार साधारण विद्यार्थी किस तरह हो रहे हैं, इसका एक ताजा उदाहरण ‘बुल्ली बाई’ ऐप है। इंजीनियरिंग की तैयारी कर रही एक १२वीं पास लड़की भी मुस्लिम स्त्रियों की नीलामी में शामिल हो गई। मास्टरमाइंड लड़के के साथ लड़की भी मुंबई पुलिस द्वारा गिरफ्तार की गई, तब पता चला कि वह अपने माता-पिता दोनों को खो चुकी है और गरीब है और वह ऐसे शर्मनाक अभियान में शामिल है।

एक स्त्री स्त्री की नीलामी की कल्पना करती है, यह घटना सोशल मीडिया के जरिए फैलाई जा रही घृणा के घातक सामाजिक असर की ओर संकेत करती ही है, यह स्त्रीवाद की सामाजिक जड़-विहीनता भी दर्शाती है।

विभिन्न सर्वेक्षणों में एक चीज यह प्रकाश में आई है कि फेसबुक पर ज्यादा समय देनेवाले लोगों में अवसाद, अनिद्रा, तनाव, आत्मसंशय या आत्म-आसक्ति बढ़ी है। कई व्यक्ति दिन भर में ५ से १० घंटे तक फेसबुक में डूबे रहते हैं। वे अक्सर मोबाइल खोले रहते हैं। उनमें कई लोग आत्म-व्यर्थता की चिंता से ग्रस्त होते हैं। ऐसे व्यक्ति किसी ठोस काम के योग्य नहीं रह जाते। कुछ में आत्महत्या की प्रवृत्ति पनपने लगती है। ‘फ्रेंड्स’ की भीड़ में, खासकर इस नई सार्वजनिकता में व्यक्तिगत रूप से दुख-दर्द सुनने के लिए समय किसी के पास नहीं है!

फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम जैसे माध्यम टीवी चैनलों की ही तरह कारपोरेट प्रोडक्ट हैं। देखा जा सकता है कि संपूर्ण नया मीडिया वस्तुतः समाज की समावेशी आलोचनात्मक समझ को मिटाने के लिए उपयोग में लाया जा रहा है। अब पूरे आत्मविश्वास के साथ झूठ को सच, अन्याय को न्यायसंगत और अबौद्धिकता को विज्ञान बना दिया जाता है।

हमारी एक बड़ी चिंता यह होनी चाहिए कि इधर ‘झूठ’ को तर्कसम्मत बना कर उपस्थित किया ही जा रहा है, समाज में बड़े पैमाने पर निराशा और अवसाद भी फैल रहा है। युवा पीढ़ियां सोशल मीडिया के बुरे नतीजों की ज्यादा शिकार हैं। उनमें कहीं अवसाद बढ़ा है, कहीं आत्म-आसक्ति बढ़ी है। ये चीजें महामारी से कम खतरनाक नहीं हैं। इस संकट का सामना करने के लिए ऐसे नए संगठन और योजनाओं की जरूरत है, जो युवाओं को सामाजिक संवाद के अवसर सुलभ कराए और डिजिटल घेरों से बाहर निकाले।

साहित्यिक मीडिया को बचाने के लिए लेखकों की सक्रियता जरूरी है

इस दुखदायी परिदृश्य में मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं, साहित्य, चित्रकला, संगीत, नृत्य, नाटक, फिल्म आदि उन सभी के सामने समस्याएं बढ़ी हैं जो छोटे संसाधनों पर आश्रित वैकल्पिक सांस्कृतिक निर्माण हैं। दरअसल इस समय वे सभी संकट से गुजर रहे हैं, जो कला, साहित्य और संस्कृति-कर्म की छोटी-छोटी इकाइयों से जुड़े हैं जो लिटिल मीडिया हैं। अधिक चिंताजनक यह है कि संकट की गंभीरता को न समझते हुए कई बुद्धिजीवी अभी भी पुराने रेकार्ड की तरह बज रहे हैं और आत्मविज्ञापनों से ज्यादा आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।

हम अपने चारों तरफ देख सकते हैं कि साहित्यिक पत्रिका निकालने का उत्साह पहले से कम हुआ है। सोशल मीडिया ने नई साहित्यिक पत्रिकाएं निकालने की बेचैनी कम कर दी है।

आमतौर पर अपनी गांठ से पैसे निकालकर या नुकसान उठाकर ही आज साहित्यिक पत्रिका निकल रही है। अब पहले की तरह दो-चार व्यक्ति मिलकर पत्रिका नहीं निकालते। सबकुछ एकाकी प्रयास से होता है या फिर कुछ नहीं होता।

‘साहित्यिक पत्रिका’ को सिर्फ कविता, कहानी की पत्रिका की जगह अब ज्ञान के एक व्यापक अर्थ में लेना जरूरी है। इसपर गंभीरता से सोचना है कि साहित्यिक पत्रिकाओं से नई पीढ़ी का लगाव कैसे बढ़े, खुद लेखक तथा शिक्षण संस्थान इस महान आधुनिक परंपरा को बचाने के लिए क्या करें। कैसे साहित्यिक पत्रिकाओं के वितरण का पुनर्गठन हो, इसपर भी विचार करने की जरूरत है।

साहित्यिक पत्रिकाएं ही, चाहे वे प्रिंट में हों या डिजिटल, ताजा बौद्धिक गतिविधियों के आखिरी मंच हैं। यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि साहित्य यदि प्रिंट में मर गया तो वह ऑनलाइन में बच नहीं सकता। भारतीय भाषाओं के पाठक अभी इतने स्मार्ट नहीं हैं कि वे ऑनलाइन पर लंबी रचनाएं- कहानियां, उपन्यास, लेख आदि तल्लीनता से पढ़ लें। पत्रिका हो या किताब कुछ भी हाथ में लेकर पढ़ना एक अलग तरह का आनंद है। इसलिए साहित्यिक संसार के लिए मुद्रित माध्यम की वर्तमान उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता।

उल्लेखनीय है कि प्रिंट में साहित्य क्षणभंगुर नहीं होता, बल्कि वह एक प्रत्यक्ष भौतिक वस्तु होता है। उसे हम छू सकते हैं, उलट-पुलट सकते हैं। निश्चय ही सोशल मीडिया ने जो नया अवसर दिया है उसे एक हद तक विपदा के रूप में भी देखा जाना चाहिए। वह निश्चित रूप से सामाजिक गतिविधियों का विकल्प नहीं है, जबकि उसे इसी रूप में देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।

यह चिंता की बात है कि साहित्यिक पत्रिकाओं को लेखक से रचनात्मक सहयोग के अलावा कुछ नहीं मिल पाता, जबकि बदले परिदृश्य में किसी सजग रचनाकार का दायित्व सिर्फ लिखने तक सीमित नहीं हो सकता। कुछ लोग सिर्फ लिखें और कुछ व्यक्ति सिर्फ पत्रिका निकालें और आयोजन करें, उस युग का अवसान हो चुका है।

आखिरकार भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा जैसे लेखक कैसे लोग थे? क्या वे हमलोगों से ज्यादा आय वाले थे? चार-पांच दशक पहले तक ऐसे काफी लेखक थे जो लेखन कर्म के साथ अपनी गांठ से पैसे निकाल कर पत्रिका निकालते थे। वे देश-दुनिया की निष्क्रिय चिंता में डूबे रहने वाले लोग नहीं थे। आज भी ऐसे कई लेखक हैं। यह जरूर अफसोसजनक है कि २१वीं सदी में ऐसे लेखकों की संख्या बढ़ रही है जो अपने घोंघेपन में ही बसंत देख लेते हैं।

हम अब एक भिन्न युग में हैं

क्या अब मान लेना होगा कि मीडिया जिस तरह द्रोह कर रहा है, अब बौद्धिक पुनर्जागरण असंभव है? नया मीडिया के दोनों रूप देश को जोड़ने और अंध जातीय-धार्मिक दीवारों को तोड़ने की जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं। फलस्वरूप जो देश सुलग रहे हैं उनमें भारत भी है, जबकि यह मानवता में गहरी जड़ें रखने वाला देश है। यह आंदोलनों का देश है, इसे नफरत की आग से बाहर निकलना है। कहा जा सकता है कि पाठकों-दर्शकों में जब तक सच की भूख है और स्वतंत्रता की प्यास है, तब तक आशा बची हुई है। सत्य मरजीवा होता है, जितनी बार मारो, वह जी उठता है। फिर भी यह प्रश्न खड़ा है, यदि राजनीति में अंधेरा हो, क्या मीडिया में सूर्योदय संभव है?

हम निश्चय ही एक भिन्न युग में हैं, पर हमें तो अपनी तरह से भिन्न होना है। पहले के जमाने में एक बुद्धिदीप्त सांस्कृतिक अंतःकरण था, जबकि आज के जमाने में एक प्रदूषित सांस्कृतिक अंतःकरण है। इसलिए ‘हमें अपनी तरह से भिन्न होना है’ का अर्थ है हमें ‘क्रिटिकल’ होना है, समावेशी होना है और पहले से अधिक मनुष्य होना है।