सहायक प्रोफेसर, प्रदर्शनकारी कला विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा
‘बहु दिन धरे, बहु कोश दुरे
बहु व्यय कोरे, बहु देश घुरे
देखते गियेछि पर्वत-माला, देखते गियेछि शिंधु
देखा होए ना चक्षु मेलिया
घर होते शुधु दुई पा फेलिया
सारा देश घुरे, देखा होए न एकटी घास उपरे
एक टी शिशिर बिंदु।’
(मैं कई वर्षों तक हजारों मील घूमा, खूब खर्च करके बहुत सारे देशों में घूमता रहा, पर्वतमालाएं-सागर देखता रहा, लेकिन इन आंखों ने उसे नहीं देखा जो मेरे घर से दो कदमों की दूरी पर ही था। पूरा देश घूमकर भी जो चीज दिखाई न पड़ सकी वह थी, मैदान में घास के शीर्ष पर टंगी ओस की एक बूंद)
यह कविता विश्व कवि रवींद्रनाथ ने सत्यजीत रे की डायरी में उस समय लिखी, जब रे अपनी छोटी उम्र में उनसे ऑटोग्राफ लेना चाहते थे। उस समय गुरुदेव ‘विश्व भारती, शांतिनिकेतन’ विश्वविद्यालय के संस्थापक के रूप में शिक्षा की नैसर्गिकता रच रहे थे। आगे चलकर रे ने उसी संस्थान में चित्रकला की शिक्षा ली थी। इन दोनों महान प्रतिभाओं के संबंध का यह शैशवकाल एक बुजुर्ग और एक बच्चे के मध्य का संबंध है, जो रे के लिए ताउम्र प्रेरणास्रोत बने रहे। आगे चलकर सत्यजीत राय उस छोटी सी कविता में अंतर्निहित मर्म और टैगोर के योगदान से इस कदर प्रभावित रहे कि वे खुद एक कवि, कथाकार, कलाकार, चित्रकार और फिल्मकार के रूप में स्थापित हुए और रवींद्रनाथ के कई उपन्यासों, कहानियों और उनके जीवन पर फिल्में बना डाले। 1941 में जब रवींद्रनाथ की मृत्यु हो जाती है तब रे का फिल्मी सफर शुरू होता है। एक को विश्व साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ‘नोबल’ मिलता है, तो दूसरे को सिनेमा का ‘आस्कर अवार्ड’ से सम्मानित किया जाता है। यह अलग-अलग काल खंड की भारतीय प्रतिभाओं के प्रति सर्वोच्च सम्मान का अद्भुत संयोग और संबंध को दर्शाता है।
रवींद्रनाथ ने भारतीय ही नहीं विश्व साहित्य, संस्कृति और दर्शन को बहुत ही गहराई से प्रभावित किया है। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, गीत-नाटक, और नृत्य-नाटक आदि बहु-विधाओं में सृजन किया है। सिर्फ रचना ही नहीं समाज को सुसंस्कृत करने के लिए ‘शांतिनिकेतन’ जैसे बहु-अनुशासनिक शैक्षणिक-सांस्कृतिक संस्थान (विश्वविद्यालय) की स्थापना की । रवींद्रनाथ ठाकुर का कला प्रेम शांतिनिकेतन की आबोहवा में समाहित है। जिसमें प्रकृति का महासाम्राज्य, दृष्टि और दर्शन है जिसमें प्रकृति की विराटता स्त्री की सहज व्यापकता के साथ एकाकार होकर अभिव्यक्त होती है। एक सूत्र में कहा जाए तो जहां आधुनिकता के साथ प्रकृति की व्यापकता व्याप्त है। स्त्री की उदात्त भावनाओं और बौद्धिकता में प्रकृति का एकाकार या प्रकृति में मनुष्य का समाहार है शांति निकेतन । इसमें प्रगतिशील विवेक और बौद्धिक विचारों के प्रति जागरूकता है जो बंगाल ही नहीं समस्त भारत का नवजागरण है जहां बदलते सामाजिक दर्शन का प्रभाव साफ-साफ देखा जा सकता है।
रवींद्रनाथ को पूरी दुनिया ‘विश्व-कवि’ और ‘गुरुदेव’ की उपाधियों और नोबल पुरस्कार विजेता के रूप में अच्छी तरह से जानती है। रवींद्रनाथ के उपन्यासों, कहानियों, नाटकों और उनके जीवन पर अनेक निर्देशकों ने विभिन्न भाषाओं में महत्वपूर्ण फिल्मों का निर्माण किया है। मसलन ताशेर देश (सुधेंदू राय), चार अध्याय (कुमार साहनी), चोखेर बाली (ऋतुपर्णा घोष) आदि-आदि अनेक, जिनका विस्तार से यहां जिक्र करना असंभव और अनावश्यक है। इन्हीं आदि-आदि अनेकों में से ‘सत्यजीत रे’ एक अहम नाम है। पचास और साठ के दशक में सत्यजीत रे द्वारा निर्मित-निर्देशित फिल्मों ने उन्हें सार्थक विश्व सिनेमा के साथ एकाकार कर दिया था।
रवींद्रनाथ टैगोर का कला प्रेम सत्यजीत राय के हृदय में बस गया था। शांतिनिकेतन की आबोहवा को राय ने स्वयं महसूस कर अपनी फिल्मी संसार में समाहित किया। सत्यजीत राय ने रवींद्रनाथ के दो उपन्यास (नष्ट नीड़, घरे बाइरे) और तीन कहानीयों (संपति’, ‘मोनिहार’ और ‘पोस्ट मास्टर’) पर सुंदर फिल्मों का निर्माण किया। इनके साथ-साथ उनके जीवन पर एक वृत्तचित्र भी बनाई जो रवींद्रनाथ के जीवन पर अब तक का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज़ माना जाता है। सर्वप्रथम उनके वृत्तचित्र ‘Rabindranath Tagore’ पर बात करते हुए उनकी प्रामाणिक जीवन गाथा को समझना है।
चूंकि रवींद्रनाथ का साहित्य, संस्कृति, गतिविधियां और दर्शन इतना व्यापक और वैविध्य भरा है कि 54 मिनट के वृत्तचित्र में समेटना कैसे संभव है? फिर भी सत्यजीत रे ने उनके मूल मर्म को प्रस्तुत कर इसे संभव कर दिखाया। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने राय को सुझाव दिया था कि ‘गुरुदेव’ की जीवनी पर एक डक्युमेंट्री बने। जिस पर 1958 से ही राय ने काम करना शुरू कर दिया था और टैगोर की 100 वीं जन्मसदी 7 मई1961 में रिलीज कर दी गई थी। ठाकुर के जीवन की गतिविधियों पर विडियो बहुत ही कम उपलब्ध था इसलिए राय को मुख्यतः स्थिर चित्रों, आडियो और उनकी कलाकृतियों का प्रयोग करना पड़ा था। इस वृतचित्र को पूरा करने में उन्हें तीन फीचर फिल्मों के बराबर परिश्रम करना पड़ा था। पृष्ठभूमि में ज्योतिंद्र मोइत्रा का संगीत एक अलग प्रकार से प्रयोग हुआ है। लेखन, निर्देशन, प्रोडक्शन खुद सत्यजीत राय का ही है। राय ने सौमित्र चटर्जी, सोभना गांगुली आदि कुछ पात्रों का इस्तेमाल अवश्य किया है। सौमेंदू राय ने सिनेमाटोग्राफी और संपादन दुलाल दत्त ने किया था। वृत्तचित्र का प्रारंभ सत्यजीत राय के नेरेशन में उस दृश्य के साथ शुरू होती है, जब विश्व कवि की शवयात्रा कलकत्ता में निकल रही है। जिसमें टैगोर के खानदान की पीढ़ियों का परिचय देते हुए उनकी शिक्षा-दीक्षा का विवरण प्रस्तुत किया जाता है। पहला ड्रामा-ओपेरा ‘वाल्मीकि प्रतिभा’ उसके संगीत और अन्य पर चर्चा होती है। विश्वभारती, शांतिनिकेतन, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, गीतांजलि, नोबल, देशी-विदेशी यात्रा आदि अनेक सूत्रों के स्रोतों का समाहार पेश करते हैं। स्वतंत्रता का सटीक पर्यावरण गुरुदेव के चिंतन, मनन, लगन और व्यावहारिक सृजन में अभिव्यक्त हुआ है। साहित्यिक, सांस्कृतिक, कलात्मक और शिक्षा में योगदान उन्हें बीसवीं सदी की महानतम विचारकों में शुमार करता है। उनके वैचारिक और कला की अनूठी छुअन के बिना भारत की आधुनिक अस्मिता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शांतिनिकेतन के आधार पर हम अपने अतीत को समझबूझ कर भविष्य के साथ उसका संबंध निश्चित कर सकते हैं। उनकी मान्यता थी कि ‘एक नई, विवेक संपन्न और धर्मनिरपेक्ष सार्वभौमिकता द्वारा अंग्रेजी राज की जगह लेने का राष्ट्रवादी स्वप्न कभी साकार नहीं हो सकता है जब तक भारत की सांस्कृतिक विरासत और विविध जीवन शैलियों के अनुसार साम्राज्यवाद विरोधी आंदेलन को एक नए विचार से अनुप्राणित नहीं किया जाएगा तब तक आजाद भारत का स्वप्न बौना साबित होगा।’
यह डाक्युमेंट्री भारतीय नवजागरण के राजाराम मोहन राय से संबंधित करते हुए उनके द्वारा मृत्यु से पूर्व विश्व मानवता को दिये गए इस संदेश और चेतावनी से खत्म होती है कि ‘सभ्यता खतरे में है’। इस प्रकार से राय 54 मिनट में ही रवींद्रनाथ के जीवन, दर्शन, साहित्य, संस्कृति और गतिविधियों को प्रस्तुत कर मात्र वृत्तचित्र ही नहीं पेश करते हैं बल्कि उन्हें आत्मसात करके उनकी अगली कड़ी के रूप में खुद को जोड़ते हुए प्रस्तुत हो रहे होते हैं।
सत्यजीत राय ने रवींद्रनाथ के अनमोल और विराट सहित्य से तीन लघु कहानियों को एक फिल्म तीन कन्या में पिरोकर प्रस्तुत किया। अगर वृत्तचित्र को अलग कर दिया जाए तो रवींद्रनाथ पर यह पहली फिल्म है जिसका प्रदर्शन गुरुदेव की जन्मसदी वर्ष 1961 में ही करते हैं। यह वह कालखंड है जब राय विश्व सिनेमा में अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर परिपक्वता और विविधता की तरफ अग्रसर हो चुके होते हैं। ‘पाथेर पांचाली (1955), अपराजितो (1957), पारस- पत्थर (1958), जलसाघर (1958), अपुर संसार (1959), देवी (1960) जैसी फिल्मों से विश्व स्तर पर धूम मचा कर ऑस्कर अवार्ड की पूर्वपीठिका रच चुके होते हैं। इटली और फ्रांस के महान निर्देशकों का प्रभाव सत्यजीत राय पर पड़ा था। इटली के नव-यथार्थवादी फिल्मकार ‘वित्तोरियो डिसिका’ ने विश्व सिनेमा को प्रभावित किया था, सत्यजीत राय स्वयं मानते थे कि उनकी फिल्म ‘पाथेर पांचाली’(1955) पर इतालवी फिल्मकार विट्टोरियो डिसिका की कृति ‘बाइसकिल थीफ’ (1948) और फ्रांसीसी फिल्मकार ‘ज्यांरेनुआ’ की ‘दिरिवर’(1951) का असर है। राय पर यूरोपीय फिल्मों के असर के बावजूद भी अपने रवींद्रनाथ उनके अंतर्मन में बैठे हुए थे। यही एक किस्म की देशज आधुनिकता है, जो उन्हें रवींद्रनाथ के जीवन और साहित्य पर फिल्मों का निर्माण करने के लिए प्रेरित किया, और शुरुआत हुई ‘तीन कन्या’ से।
‘तीन कन्या’ रवींद्रनाथ की तीन लघु कहनियों ‘पोस्ट मास्टर’, ‘मोनिहार’ और ‘संपति’ को मिलाकर बनाई गई है। संपति’ जो आखिरी भाग है। इसमें मुख्य पात्र सौमित्र चट्टोपाध्याय और अपर्णा सेन हैं। पोस्ट मास्टर वाले हिस्से में चंदना बनर्जी, नृपति चट्टोपाध्यय और अनिल चटर्जी हैं, जबकि मनिहारा में काली बनर्जी, कनिका मजुमदार और कुमार राय व अन्य हैं। दरअसल तीनों कहानियों में अलग-अलग तीन स्त्री-पुरुष पात्र हैं, जिन्हें ‘तीन कन्या’ त्रयी में पिरोकर राय प्रस्तुत करते हैं। इसे स्त्री-त्रयी (वोमेन ट्रिलोजी) के नाम से भी जाना जाता है। संपति भाग के प्रथम दृश्य एक नदी, नाव, पृष्ठभूमि में बजता सुंदर सा लोक संगीत, किनारे खड़ी निश्छल कौतुक हो ताकती एक बंगाली गवंई किशोरी और नाव से उतरता हुआ बंगाली भद्र पुरुष जो नदी के किनारे फिसल जाता है और कीचड़ में लिथड़ जाता है। जिसे देख कर लड़की हँसती है। पूरा दृश्य भद्रलोक की नजर से एक हास्य सृजित करता है लेकिन उसके मूल में उस परिवेश की विद्रूपता भी प्रदर्शित होती है। और सबसे ऊपर उस किशोरी (मीनू) का निर्मल जादू दर्शक के सिर पर चढ़ कर बोलता है, सम्मोहित करता है और गरीबी की निश्छल, अल्हड़ हँसी-ठिठोली मुग्ध करती है। फिल्म में सभी उसे मीनू नाम से पुकारते हैं, जबकि असल नाम मृनमयी है। हरेक चीजों को उसकी नजर से देखने/दिखाने की सफल कोशिश करते हैं सत्यजीत राय। जिसमें प्रकृति का महासाम्राज्य, दृष्टि और दर्शन है। शादी से पूर्व और पश्चात ‘झूला’ का अर्थ बदल जाता है, साथ ही उसकी आजादी, निश्छलता, अल्हड़ता और भी बहुत कुछ मुरझाने लगता है। एक बहुत ही मार्मिक दृश्य है जब मीनू को शादी के बाद उसके अलहड़पन पर लगाम लगाने के लिए उसे एक कमरे में बंद कर दिया जाता है। वह बाहर निकलने के लिए बेचैन होकर सारा सामान उलट-पलट और तोड़ डालती है। बंगाली भद्रलोक की वैवाहिक प्रक्रिया की निर्ममता और एक सहज स्त्री द्वारा उसका विखंडन का प्रतीक बन जाता है यह दृश्य।
पोस्टमास्टर का पहला दृश्य भी एक बच्ची से ही शुरू होता है। नदी प्रकृत्ति की विराटता स्त्री की सहज व्यापकता के साथ एकाकार होकर अभिव्यक्त होती है। तीसरी ‘मनिहार’ में भी नदी, खंडहर, भूत-प्रेत के बहाने एक स्त्री की कथा उपस्थित है। लेकिन पहली दोनों में जहां स्त्री और प्रकृत्ति अपनी वांङमयता के साथ भद्रलोक की संस्कृति और संस्कार पर भारी पड़ती है, वहीं ‘मनिहार’ में बंगाली भद्र (सामंती) वर्ग के खंडहर का संपत्ति के प्रति पुरुष और स्त्री के आकर्षण और परस्परिक द्वंद्व प्रमुखता से प्रदर्शित होता है। भूत-प्रेत, रहस्य रोमांच का सहारा यथार्थ को उभाड़ने के लिए लिया गया है। इसे देखते हुए किसी नाटक देखने का अनुभव होता है। यहां कुलीन स्त्री के रूप को बखूबी प्रदर्शित किया गया है। इसे हम पूर्व की प्रकृतिगामी विचार स्त्री से तुलनात्मक रुप में भी देख सकते हैं जो एक अलग अर्थ में आधुनिकता का लबादा ओढ़े हुए है। एक सूत्र में कहा जाए तो जहां आधुनिकता अत्यधिक होगी वहां प्रकृति की व्यापकता कम होती जाएगी। तीन कन्या की त्रयी में एक सहज हास्यबोध के साथ करुणा का काव्य है, तो परंपरा का विघटन और पुनः जुड़ाव की निरंतरता है, विवाह व्यवस्था पर चुपके-चुपके से विमर्श भी है। सब मिलाकर स्त्री की उदात्त भावनाओं और बौद्धिकता में प्रकृत्ति का एकाकार या प्रकृति में मनुष्य का समाहार है ‘तीन कन्या’।
‘तीन कन्या’ के बाद रवींद्रनाथ की कृतियों को पर्दे पर लाने के लिए ‘राय’ अब एकाग्रता और निरंतरता तक पहुंच चुके होते हैं। पहले डक्युमेंट्री, फिर ‘तीन कन्या’ और अब उनके औपन्यासिक कहानी ‘नष्ट नीड़’ पर खूबसूरत और चर्चित फिल्म ‘चारूलता’, जिसे 1964 में प्रदर्शित करते हैं। तब तक ‘राय’ विविध प्रकार के प्रयोग करते हुए विश्व सिनेमा में एक ‘राय स्कूल’ के रूप में स्थापित हो चुके थे। उसी समय आती है ‘चारूलता’, जिसे बहुत से आलोचक इनकी सबसे निष्णात फिल्म मानते हैं। मूल ‘नष्टनीड़’ में 19वीं शताब्दी की एक अकेली स्त्री की कहानी है, इसमें कुलीन वर्ग के विवेक और बौद्धिक विचारों के प्रति जागरूकता है। रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘नष्ट नीड़’ पर आधारित यह फिल्म बंगाल के नवजागरण काल की है जहां बदलते सामाजिक दर्शन का प्रभाव साफ-साफ देखा जा सकता है । चारुलता को अपने देवर अमल से प्रेम होने लगता है। यह एक विवाहित स्त्री का पर पुरुष पर अनुरक्त होना उस दौर में एक क्रांतिकारी कदम था। स्त्री अपना जीवन स्वयं अपने तरीके से जीना चाहती है। इस फिल्म को आज भी कई फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इसका कारण सिर्फ कथ्य न होकर इसका शिल्प भी है जिसमें पहले फ्रेम में चारुलता अपने दूरबीन से देखती है तथा कई ऐसे दृश्य हैं जो आपको बिल्कुल अनूठा लगता है। चाहे फिल्म का छायांकन हो, संपादन हो, गीत हो, दृश्य-विन्यास, प्रकाश का प्रयोग हो तथा सबसे महत्वपूर्ण अभिनय हो। इस फिल्म में चारु के रूप में माधवी मुखर्जी के अभिनय और सुब्रत मित्र और बंसी चन्द्रगुप्ता के काम को बहुत सराहा गया है। इसे राय की सर्वोत्कृष्ट कृति माना जाता है। राय ने खुद कहा कि ‘इसमें सबसे कम खामियाँ हैं और यही एक फ़िल्म है जिसे वे मौका मिलने पर बिलकुल इसी तरह दोबारा बनाएंगे।’
इसके बाद उपन्यास ‘घरे बाइरे’ को इसी नाम से फिल्म के रूप में निर्मित कर सत्यजीत राय अमर हो गए। यह एक पूर्णतः राजनीतिक और दार्शनिक फिल्म है, जिसके केंद्र में प्रेम और दाम्पत्य अपनी निरंतरता में जारी रहता है। ‘घरे बाइरे’ उपन्यास को ठाकुर ने स्वदेशी आंदोलन के समय लिखा था। सत्यजीत राय ने 1940 के दशक में इसकी पटकथा तैयार की, लेकिन इससे पहले उन्होंने अपनी पहली फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ बनाई। इसे बहुत बाद में पूर्ण किए। इस फिल्म के साथ एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि यहां गांधी और रवींद्र नाथ टैगोर के बीच स्वदेशी को लेकर हुए मतभेद के यथार्थ को भी दिखाया गया है । इसकी कहानी 1907 के कालखंड में अमीर बंगाली रईस निखिलेश (विक्टर बनर्जी) की संपत्ति पर आधारित है। लॉर्ड कर्जन के मुस्लिम और हिंदू राज्यों में बंगाल के विभाजन के अराजक परिणाम के बाद, राष्ट्रवादी आंदोलन में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया था। निखिलेश अपने दोस्त, क्रांतिकारी संदीप (सौमित्र चटर्जी) की उपस्थिति में अपनी पत्नी बिमला (स्वातिलेखा सेनगुप्ता) के साथ खुशी से रहता है। दोनों के विचारों में बहुत फर्क है। एक तरफ निखिलेश जो मेंचेस्टर से आयात हुई वस्तुओं का उपभोग करता है जबकि संदीप विदेशी वस्तु को अस्वीकार कर स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग की दलील देता है। असल में यह फिल्म गांधी के स्वदेशी आंदोलन पर भी प्रश्न उठाती है और लोगों को जीवन की सच्चाई से परिचय कराती है । संदीप विदेशी सिगरेट पीता है अर्थात निखिलेश गरीबों के पक्ष में खड़ा होता है कि उनके पास जो वस्तु आसानी से मिले उसका वे व्यापार करें, उपभोग करें, जबकि संदीप के कथनी और करनी में फर्क है। वह दंभ भरता है वंदे मातरम का। लेकिन उसके आड़ में वह उग्र हिंदू मुस्लिम दंगों का पक्षधर है। जबकि निखिलेश मानव धर्म को स्वीकारता है और हर किसी की आजादी को समझता है। वह बिमला को कहता है कि यदि तुम्हें किसी अन्य पुरुष से प्रेम हो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि तुम्हें प्रेम की अनुभूति होनी चाहिए। यहाँ वह बिमला को पूर्ण स्वतंत्रता देता है जिसके परिणामस्वरूप वह संदीप से प्रेम भी करने लगती है लेकिन अंत में दोनों में फर्क समझती है। फ़िल्म के अंत में निखिलेश मारा जाता है और अंतिम दृश्य में राय ने बिमला को क्लोजप में लेकर सधवा से विधवा बनाते हैं और फिल्म जलती हुई चिता से शुरू होकर जलती हुई चिता से ही समाप्त होती है। यह फिल्म स्त्री मुक्ति, दलित पक्षधर तथा मानव धर्म का भी बयान करती है। इसमें रवींद्रनाथ का ‘विश्व भारती’ की परिकल्पना में ‘समूचा विश्व हमारा है’ का वैश्विक दर्शन अभिव्यक्त हुआ है।
इस फिल्म की प्रकाश योजना बेहतरीन है। फिल्म के कई दृश्यों में मोमबत्ती का प्रयोग किया गया है। इसमें सौमित्र चटर्जी, विक्टर बैनर्जी, जेनिफर केंडल और स्वातिलेखा चटर्जी (सेनगुप्ता) शामिल हैं। सौमित्र चटर्जी इनकी फिल्मों के नियमित कलाकार थे, जिन्होंने अपने करियर की शुरुआत ‘अपुर संसार’ से की थी। विक्टर बनर्जी ने इनके साथ ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में भी काम किया था। स्वातिलेखा चटर्जी, हालांकि रंगमंच की एक अभिनेत्री थी, जिनके पास फिल्मों में अभिनय का कोई अनुभव नहीं था। राय ने उन्हें एक स्टेज प्रोडक्शन में देखा और तय किया कि वह बिमला की भूमिका निभाने के लिए सही विकल्प है।
यह फिल्म 1984 के कॉन्स फिल्म फेस्टिवल में पाल्मे डी’ओर के लिए प्रतिस्पर्धा में थी। 32वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में, इसने बंगाली में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता। 1983 में फ़िल्म ‘घरे बाइरे’ पर काम करते हुए राय को दिल का दौरा पड़ा जिससे उनके जीवन के बाकी सालों में उनकी कार्य-क्षमता बहुत कम हो गई। ‘घरे बाइरे’ का छायांकन ‘राय’ के बेटे संदीप रे की मदद से 1984 में पूरा हुआ।
‘सत्यजीत राय’ को जीवन में अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने इन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की। चार्ली चैपलिन के बाद ये इस सम्मान को पाने वाले पहले भारतीय फ़िल्म निर्देशक थे। इन्हें 1985 में दादासाहब फाल्के और 1987 में फ़्रांस के लेज्यों द’आनु पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मृत्यु से कुछ समय पहले इन्हें ससम्मान अकादमी पुरस्कार और भारत का सर्वोच्च ‘भारत रत्न सम्मान’ प्रदान किए गए। मरणोपरांत सेंफ्रांसिस्को अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में अकिरा कुरुसोवा सम्मान से नवाज़ा गया। इन समस्त उपलब्धियों में बंगाल की आबो-हवा और माटी का बड़ा योगदान है, जिसमें नवजागरण के प्रणेता राजा राम मोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, रवींद्रनाथ जैसे मनीषा रचे-बसे हैं।
सत्यजीत राय उस महान परंपरा के संवाहक होने के साथ-साथ उनमें नवसृजन के नवाचार को जोड़कर समृद्ध करते हुए गति प्रदान करने की प्रगल्भता थी। इनकी मृत्यु होने पर कोलकाता शहर लगभग ठहर गया था और हज़ारों लोग इनके घर पर श्रद्धांजलि देने और शवयात्रा में लाखों जनसमूह उसी तरह से शामिल हुआ, जिस प्रकार से रवींद्रनाथ की शवयात्रा में। इस प्रकार से रवींद्रनाथ का साहित्य, संस्कृति और दर्शन सत्यजीत रे के फिल्मी कैरियर में बहुत ही गहराई के साथ अंतर्निहित है। रवींद्रनाथ की कहानी, उपन्यास, चित्रकला, कविता, नृत्य, नाटक और अन्य समस्त विधाओं का राय ने अपनी फिल्मों और अन्य सृजनात्मक कार्यों में प्रयोग किया है। उनके समस्त कार्यों में रवींद्रनाथ दृश्य-अदृश्य धारा की तरह अंतःप्रवाहित हैं।
संपर्क: सहायक प्रोफेसर, प्रदर्शनकारी कला विभाग (फिल्म एवं थियेटर ) महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय ,वर्धा महाराष्ट्र / मो. 94048235670 ईमेल – drsurabhibiplove@gmail.com