नवनीत कुमार झा, दरभंगा,  राहुल सांकृत्यायन के समकालीन थर्मानंद कोसांबी भी बुद्ध के प्रति आस्था रखने वाले एक अद्भुत और अध्ययनशील यायावर थे, परन्तु वे राहुल सांकृत्यायन से वैसे ही अलग थे जैसे दो ध्रुव हों !! धर्मानंद कोसांबी से पूरी तरह से अपरिचित होने के कारण राधावल्लभ त्रिपाठी के आलेख में गाढ़ी जिज्ञासा जगी !! ज्ञानार्जन के लिए असीम यंत्रणा सहनेवाले धर्मानंद कोसांबी की संक्षिप्त जीवन – गाथा प्रेरणादायक है !! ज्ञानार्जन के लिए असीम यंत्रणा सहनेवाले धर्मानंद कोसांबी के प्रति मन अगाध श्रद्धा से भर गया है !!

धीरज कुमार के ‘ बदलाव ‘ में ऊँच और नीच जाति की कथा को बङी कुशलता के साथ उकेरा गया है । जब दलितों से काम लेना हुआ तो अपनत्व भरी चिकनी- चुपड़ी बातें बना कर काम निकाल लो और जब भोजन का समय आए तो दलितों को दुत्कार कर किनारे कर दो, यही तथाकथित बङी जातियों का चरित्र रहा है !! लेकिन बच्चों का ममत्व ऐसा होता है कि किसी  को भी ढीठ बनना ही पङता है, पर सामनेवाला यदि पूरा निर्मम हो तो आखिर कोई करे तो क्या करे !! कल्पना कीजिए कि पकवानों की खुशबू दूर से ही लेते रहने वाले दलित बच्चे भूखे ही सो जाएँ और क्या मजाल कि  ब्राह्मण/ राजपूत से पहले उन्हें कोई एक निवाला भी दे दे !! जाति व्यवस्था को गालियां देते- देते माँ सो गई और बच्चे भी, लेकिन सुबह-सुबह मंगरी नें भी ठाकुर और ठकुराइन से क्या खूब बदला निकाला !! अगर मेहनतकश दलितों में ऐसी जागरूकता आ जाए तो संभव है कि यथास्थितिवादी व्यवस्था परिवर्तित हो जाए !!

शंकर की कहानी में यह दिखाया गया है कि इस अंथेरे समय में चिकित्सा के क्षेत्र में कैसी अराजक स्थिति है कि भूख से मरे मजदूर को कोरोना पीङित समझ लिया जाता है ! गरीब मजदूरों के प्रति किसी की भी कोई जिम्मेदारी नहीं है शायद, तभी तो बिना परिणामों को सोचे- समझे  सत्ता अनाप – शनाप कुछ भी फरमान जारी कर देती है, जैसा कि यह फरमान ‘ जो जहाँ है, वहीं रुका रहे, एक जगह से दूसरी जगह न जाए ‘ एक बेसिर – पैर का फरमान नहीं तो और क्या था ? पेट की भूख को  फरमानों से तो नहीं भरा जाएगा , इस पर किसी नें भी कुछ नहीं सोचा !! जो लोग सरकारी आश्वासनों और घोषणाओं के प्रलोभन में जहाँ के तहाँ रुक गए उन्हें जल्द ही यह अहसास हुआ कि वे बुरी तरह से फंस गए हैं !! लेकिन जहां हौसला बुलंद हो और प्रखर जिजीविषा हो तो पांव कहां रुकते हैं !! मजदूरों की अदम्य जिजीविषा का आख्यान लिखने के लिए कथाकार को धन्यवाद !!

सुभाष चन्द्र कुशवाहा की कहानी तेजी से बदलते देश – समाज की स्थिति को दर्शाती है!! आज ध्रुवीकरण के इस स्याह समय में साम्प्रदायिक ताकतों की साजिश के फलस्वरूप देश की समरस गंगा  – जमुनी संस्कृति खतरे में पङ गई है !! आम आदमी को क्या चाहिए बस इज्जत की रोटी मिलती रहे यही बहुत है !! लेकिन भगवा राजनीति हमारे मौलिक अधिकारों के बजाय हिंदू और मुसलमान जैसे मुद्दों को हवा दे रही है, ताकि साम्प्रदायिक तनाव में असल मुद्दों से लोगों का ध्यान भटक जाए !! सुभाष भाई साहब की सधी हुई कलम से जो कहानी निकली है उसमें जनसामान्य की व्यथा और तात्कालिक राजनीति की व्यर्थता का बोध बहुत शिद्दत से होता है !!

प्रेम प्रकाश राय : ‘पंकज चतुर्वेदी- प्रतिवाद की भंगिमा : आशीष मिश्र’ हमारे समय के एक ज़रूरी कवि पर अच्छा आलेख। इस आलेख में हिदी कविताओं के समकालीन दौर का एक ज्ञानवर्धक और स्पष्टकारी चित्र हमारे सामने उपस्थित होता है, हालांकि वह चित्र अधूरा और बहसतलब है। उदाहरण के लिए, प्रयोगवाद और बाद के दौर का ये सरलीकृत चित्र – ‘आठवें और नवें दशक की कविता में घर, परिवार और स्थानीयता का जो छविमय आत्मग्रंथिल संसार था, उसे इस पीढ़ी के कवियों ने खोल दिया। कुछ वैसे ही जैसे साठोत्तरी कविता ने प्रयोगवादी और नई कविता के आत्मबद्ध मुलायम संसार की सीमाओं को उद्घाटित कर दिया था।’ लेकिन जैसा कि लेखक कहता है, हम जैसे मटमैले लोग कालजयी सत्य की खोज करने का दावा नहीं कर रहे हैं। कवि पंकज चतुर्वेदी के शिल्प पर उदाहरण सहित कुछ और बात होती तो आलेख अधिक समृद्ध होता। बहरहाल, कवि और आलोचक को बधाई और शुभकामना…

नरेन्द्र झारांची : ‘वागर्थ’ मई2021के संपादकीय में डा.अंबेडकर के विविध आयामों पर विचार करने के क्रम में अनेक उपशीर्षकों के माध्यम से पाठकों के समक्ष रखने का जो प्रयास किया, वह अभिनंदनीय है। यद्यपि प्रबुद्ध समाज में अंबेडकर की दृष्टि और चेतना के अनुरूप बदलाव का स्वरूप बहुत हद तक उभरकर समक्ष आता दिख रहा है, सामाजिक परिवर्तन की गति को कोई भी रोक पाएगा, ऐसा विचार और सोच रखकर आज आगे बढ़ पाना आसान नहीं रह गया है! यहां बड़े फलक पर इस विषय को सामने रखने का प्रयास किया है, इतना स्पष्ट है।

जगदीश सौरभ : ‘वागर्थ’ के मई अंक में ध्यान सरीखी अनुभूति थी पंकज चतुर्वेदी-प्रतिवाद की भंगिमा को ध्यान से पढ़ना। बहुत एकाग्रता की ज़रुरत होती है बहुत कसी हुई रस्सी या फिर बहुत कसी हुई भाषा को खोलना। कवि को जानने के चक्कर में इसी बहाने भाषा की वर्जिश भी हो जाया करती है। बहुत कम संभव होता है कि कविता की आलोचना कई दफ़े कविता से ज़्यादा काव्यात्मक हो सकती है। बहुत साधुवाद !

वेद प्रकाश आर्य :  ‘वागर्थ’ का मई अंक। ज्ञान प्रकाश जी स्वयं में संवेदना का एक दरिया हैं और उनकी यह कहानी उसी की जीती जागती मिसाल। ज्ञान प्रकाश जी की किसी भी रचना को पढ़ते समय मैं अपने आप को भूल जाता हूं। “चाय का दूसरा कप” और “डरी हुई लड़की” पढ़ने के बाद मन पर एक अवसाद सा छाया रहा परंतु इस अवसाद का असर मेरी संवेदनाओं को और निखार गया और परिष्कृत कर गया। मैं समीक्षक नहीं हूं किसी अन्य लेखक से ज्ञान प्रकाश जी की तुलना नहीं कर सकता लेकिन यह अवश्य कह सकता हूं यह ज्ञान प्रकाश जी अद्वितीय लेखक हैं। उनकी प्रत्येक रचना मनुष्य की मनुष्यता में कुछ न कुछ जोड़ती अवश्य है उसे पहले से बेहतर जरूर बनाती है।

अश्विनी कुमार सिन्हा :  स्कूल के दिनों में एक कहानी पढी थी ‘कहीं धूप कहीं छाया‘  शायद श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी की लिखी हुई, ठीक से याद नहीं, कुछ कुछ इस कहानी की व्यथा कथा वही विवशता वयक्त करती है। कहानी के दर्द को वयक्त करने में ज्ञान प्रकाश विवेक सफल हुए हैं।

किशन पाठक :  आशीष मिश्र की टिप्पणी से कविता का सांस्कृतिक राजनीतिक फलक स्पष्ट दिखने लगता है। वैश्वीकरण ने हमारी जिन सांस्कृतिक सहजताओं, पहचानों, भावनाओं, रचना नफरत और वायरस के इस दौर में पाकिस्तान के नौजवानों का भारत के लिए अमन,  दोस्ती,  मुहब्बत और दुआओं का पैगाम. कर्मों, सौंदयबोधों को झूठा साबित कर बाजार को सच बनाया कविता उन्हें पुनर्जीवित करने का प्रयास करती है। पंकज चतुर्वेदी को इससे पहले भी पढ़ा हूँ, पर अब उन्हें पढ़ने का फलक थोड़ा बढ़ जाएगा।

हरदीप सिंह :  ‘वागर्थ’ के मई अंक में पंजाबी कविताएं के अंतर्गत गुरिंगर सिंह कलसी की कविता ‘संघर्ष की तस्वीर’ वास्तव में किसानों की आवाज सुनने में बहरी सरकार के मुंह पर थप्पड़ है और एक मुक्कमल जवाब है। इस अति संवेदनशील कविता के लिए धन्यवाद। गुरभजन गिल जी ने भी अपनी कविता में कितनी सुंदर अभिव्यक्ति की है कि; माना कि ताली एक हाथ से नहीं बजती/ पर तुम ताली नहीं थप्पड़ मार रहे हो/ और संविधान के मुंह को/ तमतमाता हुआ लाल कर रहे हो…।’

रमेश राजहंस : समय बीतने के साथ तत्कालीन सभी नेताओं की महत्ता और प्रासांगिकता बदलती जाएगी, यही तो समय सापेक्षता है। जाति प्रकृति का गुण है। पशु पक्षी पेड़ पहाड़ कीट पतंग सब में हजारों जातियां हैं जरा उनके विधान को भी जानने समझने का प्रयास किया जाना चाहिए। जातिवाद मनुष्य की सामाजिक खासियत है, प्रकृति की नही। जिस जरूरत के तहत वह पैदा हुआ, उसके खत्म होते ही वह खुद ख़त्म हो जाएगा। विचारणीय पहलूओं से समृद्ध संपादकीय सौंपने के लिए धन्यवाद।

प्रवीण पण्ड्या : अंबेडकर जाग्रतविवेक थे। वह अपने विषय की पूरी पड़ताल करते हैं और अध्ययन के निष्कर्ष को सत्यनिष्ठा से स्वीकारते हैं। उन्होंने अंग्रेजों का समर्थन किया या गांधी का विरोध, उसके पीछे की उनकी दृष्टि तुच्छ नहीं थी और यही उनकी महानता है। जाति प्रथा पर विचार करते हुए वह उसके वास्तविक कारणों को प्रकट करने में सक्षम हुए हैं। एक गज़ब का विवेक देखिए, जब वह इस विचार पर केंद्रित होते हैं कि चींटी को नहीं मार सकने वाला ब्राह्मण किसी दलित के प्रति अमानवीय क्यों हो जाता है ? वह ब्राह्मण के हृदय की अक्रूरता को सत्यापित करके आगे बढ़ते हैं और उसका कारण खोजते हैं उस धर्मभीरुता में, जो कि वास्तव में अधर्म है । डॉ अंबेडकर गांधी की तरह सक्रिय राजनीति में थे और इन दोनों के लिए राजनीति के माध्यम से प्राप्तव्य निर्धारित था। दोनों की एक समानता यह है कि दोनों अपने उस निर्धारित से रंच रत्तीभर विचलित नहीं हुए हैं। डॉ. अंबेडकर पर आपका संपादकीय विचारोत्तेजक है।

पंकज कुमार बोस : वागर्थ मई अंक। धर्मानंद कोसंबी का जीवन, संघर्ष और करुणा की दास्तान है। अर्थपूर्ण गौरव और सादगी के सौंदय से युक्त। विद्वान लेखक द्वारा एक उदात्त जीवन गाथा की इस सरलतम प्रस्तुति को पढ़ कर हिंदी भाषी पाठक उपकृत अनुभव करेंगे।

अनुपमा नौडियाल : मई अंक में ज्ञानप्रकाश विवेक की मर्मस्पर्शी कहानी ,एक अरसे बाद एक कहानी पढ़ी जो सही मायने में कहानी है …जो पात्रों के मनोभावों को सहज, सुंदर शब्दों में उकेर जाती है ..,शिक्षक और शिक्षार्थी का आपसी सामंजस्य, उपदेशक बन जीवन मूल्यों की शिक्षा देने की बजाय बच्चों को स्नेह से, स्वयं ही इन मूल्यों को आत्मसात कर लेने का समय देना … मन को छू गया।

नीलम तिवारी : प्रकृति के सुकुमार कवि पंत की बड़ी ही प्रासंगिक कविता । उतना ही सुंदर काव्य पाठ भी । कविता की प्रस्तुति के लिए नैना जी धन्यवाद की पात्र हैं।

सुधीर देशपांडे  :  प्रकृति के सुकुमार कवि को सुनना हमेशा अच्छा लगता है. समसामयिक स्थितियों में चयन भी अच्छा है. आरोहावरोह कई जगह अनावश्यक रहा। नैनाजी को कविता का पाठ एक दो बार कर लेना था। प्रकृति के सुकुमार कवि की कविता को इस तरह सुन पाना अप्रत्याशित है।

नूतन पांडेय : ‘ढलती शाम का सूरज’ निशिरंजन ठाकुर की आज के सामाजिक परिस्थिति को दर्शाती एक अत्यंत मार्मिक कहानी है । प्रो. एस पी और डॉ. शेखर दो ऐसे पात्र हैं जो अपनी उम्र के अन्तिम पड़ाव की ओर अग्रसर हो रहे हैं, यहां उनके मनोभावों को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है । प्रो. एस पी जहां परिस्थिति से समझौता कर लेते हैं वहीं डॉ. शेखर अपने आत्मबल और संकल्प शक्ति को जागृत कर समय के प्रवाह को अपनी ओर मोड़ने का एक प्रयास करने की हिम्मत रखते हैं और इन सब के मनोदशा को बखानता जे पी ….. कहानी में प्रवाह बनी रहती है । जीवन के सच्चाई को दर्शाती अत्यंत मार्मिक कहानी । सरल भाषा में लिखी यह कहानी शुरू से अंत तक पाठक को अपने से जोड़े रखती है । लेखक ने सभी पात्रों के साथ न्याय किया है ।

अमित कुमार चौबे : तुम्हारा ख़्वाब कविता का बिंब और प्रतीक भले ही कुछ नया है लेकिन यह कविता पितृसत्तात्मक व्यवस्था के करीब है। कविता की सोच कुछ नई जरूर है लेकिन यह पुरुष वादी सोच के करीब है। जिसमें एक स्त्री प्रेम के मायने को अलग लिए है मग़र वह किसी न किसी रूप में पुरुषोचित के करीब है।

भुवनेश्वर चौरसिया भुनेश गुड़गांव हरियाणा, बीते दिनों यात्रा के दौरान समस्तीपुर रेलवे स्टेशन से आपकी पत्रिका खरीदने का सुअवसर मिला। कम कीमत में इतनी अच्छी पत्रिका देखकर मन गदगद हो गया। ट्रेन खुलने में कुछ ही समय शेष रह गया था लेकिन गनीमत ये रही कि इसे खरीदे बिना नहीं रह सका। आवरण पृष्ठ के अलावा भी पत्रिका जानदार शानदार निकली इसके लिए आपको साधुवाद।

इस अंक में अन्य भाषाओं से अनूदित कविताओं ने मन मोह लिया। कहानी सभी अच्छी थी “कंधे” विवेक द्विवेदी, बदलाव धीरज कुमार, तूफानी के बाद दुनिया सुभाष चन्द्र कुशवाहा,ठांव शंकर जी की कहानी लाॅकडाउन की यादें ताजा कर दी। मुख पृष्ठ के अंदर दूसरे पेज पर प्रस्तुत कविता संत रविदास जी की स्मृतियों को ताजी कर गई।

मेरी ओर से पत्रिका के निरंतर गतिशील रहने की शुभकामनाएं।