लेखन एवं अनुवाद
मौन और मृत्यु का संसार रचने वाली कवयित्री
हाल ही में लुईस ग्लूक के नाम वर्ष 2020 के नोबल लिट्रेचर प्राइज़ की घोषणा करते हुए स्वीडिश अकादमी ने उन्हें ‘कविता का अचूक स्वर’ कहा, ‘जो व्यक्तिगत अनुभवों को आडंबरहीन सौंदर्य के साथ प्रस्तुत करके उन्हें सार्वभौमिक बना देता है।‘ प्रसिद्धि और पुरस्कार ग्लूक के लिए नए नहीं हैं। नोबल से पहले पुलित्ज़र, बोलिङ्गेन प्राइज़ समेत कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों पर अपना नाम लिख चुकी सतहत्तर वर्षीय ग्लूक यले यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। हालांकि आलोचकों का एक बड़ा वर्ग लुईस की कविताओं में षड्यंत्रों के शिकार ग्रीक पौराणिक चरित्रों के प्रभाव को रेखांकित करते हुए दुख और उदासी को उनका प्रधान स्वर घोषित करता है; जिसके साथ वे निरंतर मानवीय जीवन की तकलीफ़देय सच्चाइयों यानि मौन, मृत्यु, बचपन और अकेलेपन को बांचती हैं। लेकिन फिर भी उनकी कलम अवसाद नहीं रचती। क्योंकि अतीत में विचरते हुए भी वे वर्तमान पर आंख टिकाए रखती हैं। क्योंकि आवेश रखते हुए भी वे अनियंत्रित नहीं हैं और क्योंकि सीमाओं की बात करते हुए भी वे सीमाओं में बंधने में विश्वास नहीं करतीं। आइए 1943 में न्यूयार्क में जन्मी लुईस ग्लूक के विचारों से संवाद करें।
आज से कई साल पहले विलियम बटलर यीट्स ने कहा था, ‘जब हम दूसरों के साथ लड़ते हैं, तब बेकार बातें बनाते हैं, लेकिन जब हम खुद के साथ लड़ते हैं तो कविता रचते हैं।‘ लेकिन कविता केवल युद्ध नहीं है, न केवल विद्रोह है और न केवल अहं की सिद्ध। अपने मूल में कविता समय को पकड़ने की कवायद है और उसमें ठहर जाने की कोशिश। इंकार नहीं कि किसी-किसी क्षण कविता विद्रोह हो या अहं का प्रदर्शन; लेकिन इसे कविता की अंतिम व्याख्या नहीं माना जा सकता। न अंतिम गति और न अंतिम स्थिति। जिस तरह जीवन कई-कई परतों में आकार लेता है, उसी तरह कवि भी सत्य की, दृष्टि की, समय की, मन की, अनुभव की अनेक परत एक साथ जीता है। कविता में हमेशा; क्यों, क्या, कैसे की व्याख्या भी संभव नहीं है, क्योंकि वास्तव में यह अभिव्यक्ति की अकुलाहट से भरा एक पिकासोई क्षण है, जिसके भीतर हज़ार बहाने छिपे हो सकते हैं और यह भी हो सकता है कि ख़ुद अभिव्यक्ति एक बहाना हो।
21 जुलाई 2009 को पोइट्स डॉट ऑर्ग पर प्रकाशित एक साक्षात्कार में जब दाना लेविन ने एक कवि के तौर पर लुईस ग्लूक से सवाल किया कि एक ऐसे असाधारण समय में, जहां हर तरफ संघर्ष है और हमारे चारों ओर इतना कुछ हो रहा है, वहां आपके लिए व्यक्तिगत और मनोविश्लेषणात्मक रूप से किसी क्षण पर टिके रहने के क्या मायने हैं? तो ग्लूक का जवाब था, “मुझे नहीं लगता कि इन सवालों का जवाब इनके साथ लड़कर दिया जाना चाहिए। मुझे लगता है ऐसे सवाल ऊपर-ऊपर हमें तौल रहे होते हैं, जबकि गहराई में मन उनका हल तलाश रहा होता है और हमें पता भी नहीं चलता। मतलब सवालों के जवाब ख़ुद-ब-ख़ुद प्रकट होते हैं, हमारे काम में… मैं कभी अपने पीछे पाठकों की भीड़ खड़ी करने के बारे में नहीं सोचती। क्योंकि मेरा ख्याल है कि कविता लिखते समय आप ख़ुद दोहरी भूमिका निभा रहे होते हैं। उस समय आप ही पाठक होते हैं और आप ही रचयिता। वैसे दुनिया में हज़ारों तरह के पाठक हैं- कुछ चतुर, कुछ गहन, कुछ ठोस, कुछ अस्पष्ट, कुछ जुनूनी, कुछ अतिज्ञानी, कुछ अतिमानी। कुछ ऐसे, जो छंद पर ही अड़ जाते हैं और कुछ ऐसे, जो भाव के लिए लड़ जाते हैं। आप किसे चुनोगे, किसे छोड़ोगे? इसलिए मैं बहुवचन में नहीं सोचती। हां मैं जानती हूं कि मेरी कविता को एक पाठक चाहिए, क्योंकि उसकी पूर्णता पाठक से ही है। लेकिन यह केवल एक पाठक तक सीमित है। उस एक पाठक का बहुवचन में अस्तित्व हो या न हो, इससे मानसिक तौर पर कोई अंतर नहीं आता। मेरे लिए जो बात मायने रखती है, वह है पाठकीय प्रतिक्रिया की सूक्ष्मता और गहनता। कविता के लिए बड़ा पाठक वर्ग खड़ा करने का विचार मुझे हमेशा से बहुत ऊटपटांग लगता है। मैंने कभी भी बहुत बड़े पाठक वर्ग की कल्पना नहीं की, न दावा किया। जब कोई मुझसे कहता है कि मेरे पास बड़ा पाठक वर्ग है, मैं सोचती हूं, ‘वाह ये बढ़िया है! लगता है मैं लोंगफेलो में तब्दील हो गई हूं। एक ऐसी कलम में जिसे समझना, पसंद करना आसान होता है। एक ऐसे तरल अनुभव में, जो सभी लोगों के लिए सहज उपलब्ध होता है। लेकिन मैं लोंगफेलो नहीं होना चाहती। क्षमा चाहूंगी हेनरी लोंगफेलो, लेकिन वाक़ई मैं तुम्हारे जैसा नहीं बनना चाहती। बल्कि सच कहूं तो एक सीमा के बाद अगर मुझे प्रशंसा मिलती है, तो मुझे लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। यह अभी नहीं होना चाहिए था।“
अधूरे छंदों का पूरा आख्यान
स्वीकार्यता को कला एवं कलाकार की पूर्णता के तौर पर ग्रहण करने वाले समाज में लुईस की इस बात को समझ पाना थोड़ा कठिन था, इसलिए उन्हें अनेक तरह की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा। उन्हें यथार्थ से परे मृत्यु का संसार रचने वाली कवयित्री कहा गया और इसी आधार पर उनकी कविताओं को ख़ारिज करने की कोशिश की गई, लेकिन अपनी परिभाषाएं आप रचने वाली लुईस ‘रचना’ को ‘आलोचना’ से बरक्स रखकर नहीं देखतीं। उनके लिए “कवि होना; पासपोर्ट पर लिखी जाने वाली कोई संज्ञा या कोई काम नहीं है, एक भाव है।“ वे कहती हैं कि “मैं मानती हूं कि सांसारिक सम्मान; संसार में जीव का जीवन सरल बना देते हैं। लेकिन मेरा लक्ष्य कभी भी अपने जीवन काल में सक्षम, समर्थ हो जाना नहीं था। मैं मृत्यु के बाद जीना चाहती हूं।”
इसीलिए मौन, मृत्यु, आत्मा और अकेलेपन से संवाद करती उनकी कविताओं में अगर फुसफुसाहटें और ख़ामोशी है, तो समय के संघर्ष भी हैं और चीख़ें भी! हां यह बात सही है कि उनकी कविताओं में कथ्य के सिरे कई जगह छूटते हुए जान पड़ते हैं। मानो कोई बात कहते-कहते अधूरी छोड़ दी गई हो, लेकिन यह अनायास नहीं है। कहन की यह शैली उन्होंने जानबूझकर चुनी है, क्योंकि “मुझे पूरी कविताएं अच्छी नहीं लगतीं। पूरी कविताओं में एक तरह की भावनात्मक निश्चितता होती है। यह निश्चितता मुझे भीड़ में कसमसाती रेवड़ की याद दिलाती है, जो मुझे कतई पसंद नहीं!”
लुईस का यह एटीट्यूड मन को रवि-कवि की जुगलबंदी से आगे देखने और सोचने को मजबूर करता है। लुईस अपने पाठक से उम्मीद भी यही करती हैं। एक बार उनके किसी पाठक ने उनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘लुईस ग्लूक की कविताओं में दाखिल होने की फीस है एक डॉलर, लेकिन एक बार जब तुम उनके भीतर दाखिल हो जाते हो, सीमाएं जटिल हो जाती हैं।’ और वाक़ई ऐसा ही है। आप बहुत आसानी से उनकी कविताओं में दाखिल हो सकते है, लेकिन जैसे ही कोई उनके भीतर कदम रखता है, वह भाव से लेकर संरचना तक हर स्तर पर विरल हो उठती हैं। लुईस की दृष्टि में यह विरलता ज़रूरी है, क्योंकि आप हमेशा सरल नहीं हो सकते। वे कहती हैं, “मेरे ख़याल से कविता मन से मन का संवाद है। माने एक मन, मुंह बनकर संदेश देता है और एक मन, कान बनकर उसे ग्रहण करता है। बस इतना ही; इससे ज़्यादा कुछ नहीं, लेकिन इससे कम भी कुछ नहीं! क्योंकि मेरे लिए कानों से ग्रहण किया गया, कविता का अनुभव आंखों से प्रेषित होता है। (इसलिए कवि के रूप में) आप ख़ुद को दोहराते हुए शांति से नहीं बैठ सकते। यह सबसे बड़ी हार है, सबसे बड़ी असफलता! कला का स्वप्न ज्ञात तथ्य पर दावा करना नहीं है। कला का स्वप्न है उसे प्रकट करना, जो छिपा हुआ है। कलात्मक चुप्पी एक तरह की यंत्रणा है, केवल अपनी वर्तमान व्यथा में ही नहीं, बल्कि चुप के अनंत हो जाने के डर में भी।”
मौन में डूबी मुखर ध्वनि
वाक़ई लुईस जानती हैं कि कब, कितना कहना है और कब चुप हो जाना है। वे कहती हैं, “मैं अक्सर बहुत समय; बहुत लंबा समय बिना लिखे गुज़ारती हूं और इस बात की चिंता नहीं करती। इसका मतलब यह नहीं कि मैं चिंता रहित हूं, इसका मतलब है कि उस दौरान मेरी सोच का सिरा किसी और बिन्दु पर अटका होता है। फिर अचानक मैं अपने मौन से बेचैन हो जाती हूं और एकदम से घबरा उठती हूं। एवर्नो (लुईस की एक पुस्तक) लिखे जाने के दौरान मैं उसी दौर से गुज़र रही थी। क्षणभंगुरता और दुख की ऊर्ध्वधार धुरी पर कसी कविताओं के साथ के पलों में मैं वह सब कर चुकी थी, जो मैं कर सकती थी। इसलिए मुझे लगता था कि मेरी नई किताब को एक अनगढ़, खुरदुरी सतह पर खड़े होने के बावजूद ज़्यादा पेनोर्मिक, ज़्यादा कैजुअल होना चाहिए। और सच कहूं एवेर्नो ने मुझे सिखाया कि एक अनगढ़, खुरदुरी सतह पर किसी तरह लिखा जाता है।“
एक अन्य साक्षात्कार के दौरान इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए लुईस ने कहा कि “लोगों को लगता है कि ये (माने लेखन, संपादन, शिक्षण) बहुत बड़ी बात है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि केथोलिक चर्च की सीमाओं के बाहर कोई भी भी शख़्स गहन स्वार्थ और व्यक्तिगत लाभ के बगैर एक भी काम करता है। नए लेखकों को सिखाने के लिए मैं जो करती हूं, वह इसलिए करती हूं क्योंकि यह मेरे लिए ईंधन है। मैं काफी शिद्दत से महसूस करती हूं कि एक लेखक के तौर पर मैं जिस जगह खड़ी हूं या एक लेखक के तौर पर जिस तरह बदली हूं, वह उस गहन जुड़ाव का ऋणी है, जिसके साथ मैं कोई भी काम करती हूं। कई बार बहुत अजीब-ओ-गरीब काम; लोग बातें बनाते हैं, लेकिन मैं कान नहीं देती।“ शायद कान देने भी नहीं चाहिए, क्योंकि एक अच्छा कवि वह है; जो वही लिखता है, जो दिखता है। उससे भी अच्छा कवि वह है; जो वह भी लिखता है, जो नहीं दिखाता। लेकिन सबसे अच्छा कवि वह है, जो देखे और अनदेखे की संधि रेखा पर खड़ा होकर रचना करता है। क्योंकि तब वह ‘है’ और ‘नहीं है’ के बीच ‘होने’ की संभावना तलाश रहा होता है। लुईस की तरह। इसलिए उनकी कविताओं में गहरी चोट भी है और कचोट भी!
अपने मूल में कठोरता के बावजूद लुईस की कविताओं में एक मुलायमियत है। एक तरह की लयबद्धता। अगर प्रेम, परिवार और जीवन में जीत-हार को उनकी शुरुआती कविताओं की विशेषता कहा जाए, तो उनकी बाद की कविताएं अपने मूल स्वर यानि पहचान और उससे जुड़ी त्रासदियों पर लौटती नज़र आती हैं। उन्होंने अपनी कविता वाइल्ड आइरिस में कहा भी है, ‘विस्मृति से जो भी लौटता है, वह लौटता है एक आवाज़ की तलाश में…’ यह लौटना एक व्यक्ति का लौटना भी कहा जा सकता है। एक समय का लौटना भी, क्योंकि अंततः हर व्यक्ति को अपनी पहचान इसी समय में तलाशनी है।
फ़ेमिनिज़्म नहीं एक्टिविज़्म
“मैं क्यों झेलती हूं? गाढ़े अंधेरे की क़ैद, क्यों हूं मैं अबोध? (क्या) किसी मशीन ने हमें बनाया है। अब तुम्हारी बारी है; उनसे सवाल करने की, मुड़कर जाने और पूछने की मैं क्यों हूं? क्यों हूं मैं?” 2001 मदर एंड चाइल्ड में लिखी यह पंक्तियां आलोचकीय दृष्टि से अहम हैं, क्योंकि इनके भीतर लैंगिक भूमिका, दैहिक ताड़ना, सामाजिक परंपरा समेत कई ऐसे बिंदु शामिल हैं, जहां से स्त्री विमर्श की लंबी बहस शुरू हो सकती है। यूं एनोरोक्सिया, भूख, आत्म-वंचना के रूपकों के बीच लुईस लगातार स्त्री अनुभवों को स्वर देती रही हैं और स्त्री के मौन, स्त्री के प्रश्न, स्त्री के आयाम, स्त्री की भूमिका को लुईस अक्सर अपनी कविताओं में मिथकीय ढंग से चित्रित करती रही हैं। लेकिन नारीवादी लेखिका होने के लेबिल से स्पष्ट इनकार करती हैं। “एक स्त्री के स्त्री की तरह लिखे जाने की समकालीन अवधारणा मुझे भावनात्मक रूप से नहीं लेकिन तार्किक रूप से परेशान करती है। अगर (दोनों लिंग के बीच) कहीं कोई भेद है भी, तो मुझे लगता है कि साहित्य को उसे ख़त्म करना चाहिए। न कि स्त्री-लेखन, पुरुष दृष्टि जैसे विमर्शों को बढ़ावा देना चाहिए।“ बेशक जेण्डर देखकर विमर्श का रुख तय करने वालों के लिए यह कथन निराशा की बात हो सकता है, लेकिन जीवन का एक लंबा अरसा अपनी मां की स्वीकृतियों के लिए संघर्ष करते हुए बिताने वाली लुईस फ़ेमिनिज़्म में नहीं एक्टिवज़्म में विश्वास करती हैं। हालांकि सच यह भी है कि कालिदास की कथा की तरह उनकी कविताओं के भी अनेक पाठ, अनेक व्याख्याएं, अनेक दर्शन संभव हैं। जैसा कि अक्सर होता भी है, लेकिन सबसे पहली और सबसे अहम बात यह है उनमें घुली चेतना!
चेतना की बात करते हुए याद आ रहा है, अपनी किताब ‘ए विलेज लाइफ़’ के बारे में बात करते हुए एक बार लुईस ने कहा था, “जीवन के अंत में; जब आप मर रहे होते हैं, तब जिस तरह आपके सामने पूरा जीवन पलटकर आता है, यह किताब मेरे लिए वही है। एक पूरा जीवन; जहां मृत्यु का एक ऐसा रंगमंच सजा है, जो दुनियावी मार के नकली नाटकों से परे है। यह एक गहरा उच्छवास है। एक लंबा गहरा उच्छवास!” लेकिन मुझे लगता है कि केवल एक किताब नहीं, लुईस का पूरा लेखन ही एक उच्छवास है। इस उच्छवास को वही सुन सकता है, जिसे मौन के शब्द हो जाने पर भरोसा हो। क्या आपको है??
upma.vagarth@gmail.com