कवि और समीक्षक
कृतियाँ ‘ठाकुर जगमोहन सिंह समग्र’, ‘ समकालीन हिंदी कविता’, ‘जल भीतर इक बृच्छा उपजै’ (काव्य संचयन), ‘लौटता हूँ मैं तुम्हारे पास’ (काव्य संग्रह)।
वंदना राग की ‘बिसात पर जुगनू’ और अनामिका की ‘आईनासाज’ पुस्तकों पर चर्चा
अनामिका का ‘आईना साज़’ मध्य भारत के मुगल सल्तनत में सांस लेती हुई प्रेममार्गी सूफी काव्यधारा और अमीर खुसरो के जीवन के श्वेत-स्याह पन्नों से हमें रू-ब-रू करनेवाला उपन्यास है। ‘आईना साज़’ एक ऐसा उपन्यास है जिसके चमकदार आईने में हम खुसरो के जमाने को ही नहीं, बल्कि आज के बदरंग जमाने की मुक्कमल तस्वीर भी साफ-साफ देख सकते हैं। इसका फलक अमीर खुसरो के जीवन काल से लेकर आज के स्त्री के संघर्ष, जिजीविषा और स्वप्न तक फैला है। इसलिए यह एक साथ अतीत और वर्तमान के बीच डूबता-उतराता ऐसा आख्यान है, जिसमें अमीर खुसरो का जीवन ही नहीं, उनकी नातों, कव्वालियों और पहेलियों के साथ तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी की अनेक आहटों, अनुगूंजों को बेहद बारीकी के साथ सुना जाता है। इसमें आज के स्त्री मन की दबी-कुचली इच्छाओं-आकांक्षाओं और उनके टूटते-दरकते सपनों की छवियों को निहारा जा सकता है।
अनामिका अपने उपन्यास में इतिहास में बहुत दूर तलक जाकर जिन चरित्रों और घटनाओं को ढूंढ निकालती हैं, उनमें अमीर खुसरो, उनके निजाम पिया, उनकी शायरा बेगम महरू, बेटी कायनात और पद्मिनी जैसे चरित्र प्रमुख हैं। ये सारे चरित्र खुसरो के जीवन एवं चरित्र को एक नया आयाम प्रदान करते हैं और आख्यान को आगे ले जाने में सहायक होते हैं। इसके साथ उस काल के सुल्तान, हाकिम और शाह भी इस उपन्यास में मौजूद हैं, जिनका नाता किसी न किसी रूप में खुसरो के जीवन और शायरी से रहा है।
अनामिका ने अपने उपन्यास में मलिक मोहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’ के पन्नों को नए सिरे से खंगालने की कोशिश की है। पद्मिनी के चरित्र को खुसरो के चरित्र के साथ जोड़कर दोनों चरित्रों को लेखिका ने इतिहास और कथाओं से निकालकर एक बृहद फैंटेसी में बदलने का उपक्रम किया है। यहां खुसरो के कहने पर पद्मिनी अपना रूप अलाउद्दीन खिलजी को आईने में दिखाती है। खिलजी पद्मिनी के सौंदर्य को आईने में देखकर खुसरो और पद्मिनी से किए गए वादे को तोड़ देता है और किसी भी हद तक जाकर पद्मिनी को पा लेने की इच्छा का इजहार करता है। पद्मिनी जौहर करने से पहले खुसरो को खत लिखती है ‘आपकी शायरी मेरी नस-नस में जलतरंग सी बजती रहती है यह भी कि जो हुआ उसकी खातिर खुद को कुसूरवार न मानें।’ पद्मिनी को लेकर यह अंतर्द्वंद्व खुसरो के मन में निरंतर चलता रहता है।
खुसरो का अंतर्द्वंद्व अपने बच्चों को किए गए वसीयतनामा के साथ रखे गए खत से भी उद्घाटित होता है, जिसमें वे अपनी पीड़ा, बेचैनियों और द्वंद्व को प्रकट करते हुए लिखते हैं ‘मेरे बच्चो, तुम यह न करना, मेहनत और हुनर की रोटी खाना, किसी अमीर, किसी शाह, किसी सुल्तान, हाकिम हुकूमत को खुश रखने के पीछे उम्रे अजीज न बिताना।’ तो क्या अमीर खुसरो ने अपने जीवन में जो किया, अमीरों, सुल्तानों और शाहों के दरबारों में उन्हें खुश करने की नीयत से जिन मसनवियों की रचना की उसे लेकर सदा उनके भीतर एक संशय ही बना रहा? यह अगर फैंटेसी है तब भी अपने आप में मानीखेज है। इसे आज के संदर्भ में रेखांकित किए जाने की जरूरत है।
यह उपन्यास खुसरो के जीवन काल की चर्चा से शुरू होकर आज के स्त्री-संघर्ष और स्वप्न की पड़ताल करता है। उपन्यास का पहला खंड अमीर खुसरो जैसे मध्यकालीन शायर के जीवन पर केंद्रित है तो दूसरा खंड सपना जैन जैसी दिल्ली में संघर्षरत एक युवा स्त्री के जीवन पर। वहीं तीसरा खंड रूमी, राबिया, खुसरो, बाबा फरीद बुल्लेशाह जैसे सूफी कवियों की चर्चा पर केंद्रित है।
सपना जैन उनके मित्र मानस, महिमा, शक्ति, शिक्षक ललिता चतुर्वेदी, लॉज की मालकिन, लेखिका श्यामा, आदिवासी सरोज, डॉ. नफीस और शहाना जैसे अनेक चरित्र उपन्यास के दूसरे खंड में मौजूद हैं। इन चरित्रों को आधार बनाकर आधुनिक समय में स्त्री संघर्ष को और स्त्री मुक्ति के सवालों को लेखिका एक नए रूप में उठाने का प्रयास करती है। स्त्री की सामूहिक छवि की निर्मिति के लिए उसके पास एक आधुनिक भारतीय स्त्री सपना जैन है। दूसरी ओर आदिवासी स्त्री सरोज तथा मुस्लिम महिला शहाना भी है। ये स्त्रियां अपने वर्ग और धर्म की दृष्टि से भले अलग-अलग हों, पर उन सबका संघर्ष एक जैसा ही है। सपना जैन को मुस्लिम पूर्वग्रहों से मुक्ति दिलानेवाली तथा उसे अमीर खुसरो के जीवन से जोड़नेवाली ललिता चतुर्वेदी जैसी शिक्षिका भी है। इसका कॉमरेड पति अनेक अंतर्विरोधों से घिरा हुआ है।
सपना जैन द्वारा डॉ. नफीस जैसे मुस्लिम चरित्र को पति के रूप में स्वीकार किया जाना, उनकी पूर्व-पत्नी शहाना के प्रति उसका दोस्ताना व्यवहार -ये सारे किस्से उपन्यास के दूसरे खंड में इस कदर गुंथे हुए हैं कि सपना जैन का अपना अंतर्द्वंद्व और संघर्ष कहीं पीछे छूटने लगता है या पूरी तरह से व्याख्यायित होने से बचा रह जाता है।
मजहबी उन्माद के भयावह दौर में अमीर खुसरो की चर्चा को फिर से पटल पर रखने एवं सूफी संप्रदाय और निजाम पिया की कथा को संशय की इस आधुनिक बेला में याद किए जाने का अपना एक मकसद हो सकता है।
उपन्यास के तीसरे खंड में रूमी, राबिया, खुसरो, बाबा फरीद, बुल्लेशाह जैसे कवियों को याद किया गया है, उपन्यास का अंत इस फलसफे से होता है ‘अंतरिक्ष में हर सितारे की अगर मन अंतरिक्ष की तरह विराट और उसी तरह फना हो ले तो हर सितारा अपनी अनूठी दमक में सुरक्षित रहेगा। किसी को किसी की जगह छीनने की जरूरत ही क्यों होगी।’ धार्मिक कट्टरता और मजहबी उन्माद के वर्तमान दौर में सूफी शायरों और अमीर खुसरो के बहाने अगर सांप्रदायिक-राजनीतिक ताकतों की खोज खबर ली जाती है तभी प्रतिरोध का व्यापक संसार ठीक-ठीक निर्मित हो पाएगा।
जिज्ञासा : धार्मिक कट्टरता के दौर में सूफी शायरों को याद किया जाना आपको क्यों लाजिमी लगा?
अनामिका : यह समय है कि धर्म को उसका मानवीय स्वरूप और मानवीय वृत्तियां याद दिला दी जाएं। मैं जिस शहर और जिस परिवार में पैदा हुई, सूफियों के चिश्तियां-सिलसिले, सूफी और भक्ति साहित्य का मर्म वहां बच्चों को घुट्टी में ही पिला दिया जाता है। जिससे तू-तू, मैं-मैं का कोई उपक्रम, भेदभाव की कोई संरचना, ‘पालिटिक्स ऑफ अदरिंग’ का आयाम मेरे गले नहीं उतरता है। इसलिए अपने प्राण पन से उसका प्रतिपक्ष अपनी रचनाओं में तो गढ़ती ही हूँ।
जिज्ञासा : अमीर खुसरो का जीवन और उनकी शायरी को आपने इस उपन्यास के केंद्र के रूप में क्यों चुना?
अनामिका : मेरे माता-पिता का जीवन औपन्यासिक है। उनके प्रेम में एक सूफियाना ठाठ था। तरह-तरह की किताबों और हर धर्म के अतिथियों की चर्चा-वार्ताओं से हमारा घर गूंजता रहता था। ये अनुगूंजें ही मेरे जीवन की पाथेय हैं और मेरी रचनाओं का संबल। अमीर खुसरो की मसनवियों से मेरा परिचय पिता ने करवाया था, मुकरियों से मां ने और मजार पर अक्सर ही गाई जानेवाली नातियां कव्वालियों में तो अमीर खुसरो होते ही थे। इस तरह अमीर खुसरो मेरी भाषा में ही नहीं, मेरे घर में भी बुजुर्ग की तरह थे। उन्हें मुझे ढूंढना न पड़ा। वे मुझे सहज मिले। हजारी प्रसाद द्विवेदी के मुंह से एक बार बचपन में मैंने सुना था कि ‘अगर मुझे फारसी आती तो मैं अमीर खुसरो का आख्यान जरूर लिखता।’ उस समय मेरी इतनी बुद्धि नहीं थी कि बात का संदर्भ पूरी याद रहे, पर यह बात याद रह गई।
जिज्ञासा : उपन्यास के दूसरे खंड में सपना जैन का संघर्ष, उसकी हताशा और निराशा क्या आज की युवा स्त्री का संघर्ष, हताशा और निराशा है?
अनामिका : सपना हताशा नहीं है। संघर्षशील व्यक्ति को हताशा होने की फुर्सत ही नहीं होती। वो जो इकतारे-सा उसके भीतर बजता रहता है, अपना दुख दूसरों के दुख में घोलकर उसके निवारण में जुट जाने की धुन चित्त पर हावी हो जाती है, वह उसकी चेतना को अजब ढंग से ऊर्ध्वमूखी कर देती है। ऐसा नहीं है कि निराशा नहीं घेरती और दुर्व्यवहार, लोकापवाद, अपमान या विद्वेष की राजनीति के अलग-अलग रंग उसे उद्वेलित नहीं करते, पर प्रकृति की कोई ऊर्जा उसे निराशा के गर्त में जाने से बचा लेती है। यह बात बिजली की त्वरा के समय भीतर कौंध जाती है कि एक मैं ही तो दुखी नहीं। इस संसार में मुझसे भी ज्यादा दुखी और लोग भी हैं। इसलिए अपना दुख लेकर क्यों बैठी रहूं। इससे ज्यादा तृप्तिदायक है उनके दुख दूर करने में जुट जाऊं। साधन नहीं भी है तो क्या प्रेम तो है दिल में। उससे बड़ा मरहम क्या होगा।
जिज्ञासा : डॉ. नफीस हैदर और शाहाना जैसे पात्र आपकी अपनी संवेदना से सिरजे हुए पात्र हैं, जिसका आज के संदर्भ में अपना एक खास मायने है। इसे थोड़ा स्पष्ट कीजिए?
अनामिका : उच्चता की राजनीति ने हम संवेदनशील लोगों को एक खास तरह के कटघरे में खड़ा कर दिया है ‘जो मेरे जैसा नहीं है, वह दोयम दर्जे का है और घृणा का पात्र है।’ यह श्रेष्ठता-ग्रंथि हास्यास्पद है, दुनिया का हर लेखक अपनी-अपनी तरह से यही उजागर करना चाहता है। बचपन से लेकर अब तक करीब पचास ऐसे पढ़े-लिखे मुसलमान परिवारों में मेरा आना-जाना है जिनकी नफासत मुझे सूफियों की ही याद दिलाती रही है। पिछले कुछ दशकों से मैंने उनकी घुटन ध्यान से देखी-समझी है। उनका अकेलापन कितना बढ़ा है, इसका अहसास मुझे भी है। डॉ. नफीस और शहाना इसी समाज के किरदार है।
जिज्ञासा : क्या ‘आईना साज़’ स्त्री की अदम्य जिजीविषा, संघर्ष और स्वप्न की गाथा है?
अनामिका : जिजीविषा, संघर्ष और स्वप्न ठीक वैसे हैं जैसे दिए से दिया जलता है। जिजीविषा के स्फुलिंग से आत्मिक और सामाजिक स्वप्न जगते हैं। स्वप्न चरितार्थ करने की खातिर संघर्ष होते हैं। इस उपन्यास में स्त्री, पुरुष और प्रकृति सबमें एक खास तरह की आपसदारी कायम है। राबिया फकीर, खुसरो की मां, बेगम मलिक, महरू, कायनात से लेकर ललिता चतुर्वेदी, सपना और उसकी मां, लाद चलाने वाली दादी मां, कृष्णा सोबती के मॉडल में गढ़ी गई श्यामा जी, किरदारों के रूप में उभरनेवाली इस्मत चुगतई, रशीद जहां, डॉ. नफीस की मां, शहाना, सपना, सरोज इसी स्त्री-दृष्टि के अलग-अलग आयाम हैं।
वंदना राग का नवीनतम उपन्यास ‘बिसात पर जुगनू’ कई मायने में एक उल्लेखनीय उपन्यास है। यह 1840 से लेकर 1910 के दरम्यान भारत और चीन के तीन परिवारों, जिन्हें कथाकार ने तीन ख्वाब की संज्ञा दी है, की दास्तानगोई है। पटना, चांदपुर तथा सुदूर चीन के केंटन प्रांत के तीन परिवारों की कथा के मध्य नवजागरण, 1857 के महान विप्लव और चीन के सुप्रसिध्द ताइपिंग विद्रोह को जिस तरह इस उपन्यास के आख्यान में दर्ज किया गया है, वह विलक्षण है। इसके अपने अलग मायने भी हैं।
‘बिसात पर जुगनू’ इतिहास, वर्तमान और फैंटेसी के बीच एक पुल निर्मित करता है, जिससे इनके बीच निरंतर आवा-जाही हो सके। इस उपन्यास में आख्यान एक साथ अतीत और वर्तमान की गलियों में निर्द्वंद्व विचरण करता हुआ फैंटेसी का एक अनोखा तिलिस्म रचता है।
वंदना राग की खूबी है कि वे अपने इस प्रथम उपन्यास में ही हिंदी उपन्यास की प्रचलित और परंपरागत ढांचे को ध्वस्त करती हुई अपने लिए नए और अनोखे औपन्यासिक ढांचे का निर्माण करती हैं, जिसमें उनका अनोखा आख्यान अपने संपूर्ण वैभव के साथ विन्यस्त हुआ है। इस तरह वे इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के बीतते-बीतते हिंदी उपन्यास का एक नया प्रस्थान बिंदु निर्मित कर पाने में सफल मानी जा सकती हैं। इससे भविष्य में लिखा जानेवाला हिंदी उपन्यास प्रभावित हो सकता है। यहां बिना किसी दावे या शोर शराबे के चुपचाप आख्यान की एक नई शैली ईजाद हो गई है।
उपन्यास केवल तीन परिवारों या तीन ख्वाब न होकर दुनिया में मुक्ति और वैश्विक बंधुत्व की चाह रखनेवाले करोड़ों लोगों के ख्वाब में बदल जानेवाली कथा है। चीन के केंटन प्रांत में अफीम में डूबो दिए जाने वाले हजारों मछुआरों की फिरंगियों से मुक्ति का ख्वाब और 1857 के गदर में अपना सब कुछ दांव पर लगा देने वाले भारतीयों के ख्वाब यहां एकमेक होकर एक विराट ख्वाब में रूपांतरित हो जाते हैं।
पटना का मुसव्विरखाना और वहां गुलजार हो रही पटना कलम केवल एक भारतीय चित्रकला की शैली मात्र नहीं थी, जिसमें मुगल चित्रकला और पटना की अपनी स्थानीय चित्रशैली एक साथ सांस लेती हुई वयस्क हो रही थीं। उसे बचाए और जिलाए रखने में किसी शंकर लाल जैसे व्यक्ति की बड़ी भूमिका थी। उसके लिए पटना कलम चित्रकला से कहीं अधिक जीने और सांस लेने का माध्यम थी। मुसव्विरखाना पटना चित्रशैली के नायाब संग्रहालय से कहीं अधिक कला और कलाकारों का चहकनेवाला कलाघर था, जो अंग्रेजी हुकूमत के पांव तले न जाने कब काल-कवलित हो गया। यह नहीं होता तो विलियम स्टोन, रूकुनुद्दीन और खदीजा बेगम जैसे लोग अपनी कला की प्यास लिए कहां जाते। शंकर लाल की जिंदगी में खदीजा बेगम जैसी कलाकार को जगह कहां मिलती। इस उपन्यास के माध्यम से वंदना राग हमें पटना कलम के जादू से परिचित करवाती हैं और उस विलुप्त कला के प्रति हमारे मन में जुगुप्सा और संवेदना भी जागृत करती हैं।
बिहार की चांदपुर जैसी एक छोट-सी रियासत में सुमेर सिंह और उनकी पत्नी परगासो दुसाधन 1857 के गदर में हिस्सा लेते हैं। परगासो अपनी रियासत में बढ़-चढ़ कर इस महान विप्लव का सूत्र संभालती है। वह भारत की उन्नीसवीं शताब्दी में उसी तरह की एक महान घटना कही जा सकती है जिस तरह झांसी की रानी लक्ष्मी बाई या बेगम हजरत महल का होना एक बड़ी घटना थी। परगासो जैसी महान और विरल चरित्र की रचना इस उपन्यास की जान है। न जाने कितनी अनाम परगासो इस गदर की भेंट चढ़ गई होंगी।
चीन के केंटन प्रांत में मछुआरों का संघर्ष ताइपिंग विद्रोह के नाम से जाना जाता है। उसमें यू-यान – एक चीनी स्त्री का संघर्ष परगासो के संघर्ष से कम नहीं है। इस संघर्ष में यू-यान अपने पति चांग को खो देती है और अपने छोटे से बच्चे चिन को लेकर यहां-वहां फिरंगियों से छिपती-फिरती भागती रहती है। यू-यान को तब तक शांति नहीं मिल पाती, जब तक वह अपने बच्चे को फतेह अली खान को सुपुर्द नहीं कर देती। फतेह अली खान उस छोटे से बच्चे को लेकर चांदपुर रियासत आ जाता है। सुमेर सिंह और परगासो उसे पटना के मेडिकल कॉलेज में तालीम देते हैं। चिन भारत आकर डॉ. कान्हा सिंह में बदल जाता है।
चांदपुर रियायत की अबरक और अफीम खपानेवाला फतेह अली खान इस उपन्यास का एक विशिष्ट चरित्र है, जो इस उपन्यास का सूत्रधार भी है। उसकी तालीम पटना के एक यतीमखाने में हुई है। उसके ही रोजनामचा से इस उपन्यास का प्रारंभ होता है।
उपन्यास में ‘कलकत्ता जर्नल अखबार’ के माध्यम से लेखिका बहुत सारी महत्वपूर्ण सूचनाएं पाठकों को देती जाती हैं। इस अखबार के माध्यम से बगावत की खबर से लेकर कांग्रेस के गठन, मोहनदास करमचंद गांधी के दक्षिण अफ्रीका में किए गए आंदोलन, कांग्रेस के अधिवेशन आदि की जानकारी बीच-बीच में पाठकों को मिलती रहती है। इसी के हवाले मंगलवार 30 अक्तूबर 1860 के द्वारा यह भी जानकारी मिलती है कि ‘चीन से अफीम से दूसरी जंग के खात्मे पर चीन और इंगलिस्तान-फ्रांस-अमरीकी सरकार के बीच जो बीजिंग संधि की गई है उसमें हिंदुस्तानी व्यापार के लिए बड़ी सहूलियत मिल गई है। महारानी विक्टोरिया का शाही साम्राज्य अब हिंदुस्तान से अफी़म का व्यापार कानूनी अधिकार से करा पाएगा। चीन की कोई रोक-टोक नहीं चलेगी।’ फिरंगी भारत और चीन दोनों को मनमाने तरीके से लूट रहे थे। अफीम उस समय किसी सोने से कम नहीं था।
‘कलकत्ता जर्नल अखबार’ का 30 दिसंबर 1910 के संपादक का यह उद्धरण गौरतलब है- ‘हिंदूस्तान यूं ही उलझा रहेगा हिंदू मुसलमान के मुद्दे पर लगता है। जिस आजादी की मांग को हिंदुस्तानी बीच-बीच में 1857 से उठाते रहे है, उसे लेकर ये करेंगे क्या? आपस में तो सुलह सफाई से रहते नहीं। या तो धर्म नहीं तो जाति के झगड़े यहां चलते ही रहते हैं। कभी सुलझते नहीं। ऐसे में क्या ये खुद देश चला पाएंगे?’ ‘कलकत्ता जर्नल अखबार’ में 30 दिसंबर 1910 को उठाया गया यह सवाल 30 दिसंबर 2020 में अपने जवाब के इंतजार में खड़ा है।
फतेह अली खान नक्शानवीस है। उसकी चिंता कितनी जायज है, इसे उसके रोजनामचा बैसाख की शाम 1872 में देखी जा सकती है ‘कैसे बताऊं दुनिया को कि मुल्क में एक परगासो बीबी होती है और चीन में एक यू-यान बीबी। दोनों की जमी़न कितनी अलहदा, लेकिन फितरत कितनी एक-सी। ये बहादुर औरतें जंग में कितना कुछ हार गई हैं, लेकिन फिर भी मुल्क की बेहतरी की चिंता करती हैं।’ फतेह अली खान का यह कथन दुनिया की समस्त स्त्रियों के शौर्य और पराक्रम को रेखांकित करता है।
उपन्यास का अंत 2 मार्च 2001 को होता है। ली-ना वापस चीन जाने के लिए इंदिरा गांधी इंटरनेशनल हवाई अड्डे पर बैठी हुई है। वहां अचानक सैकड़ों की संख्या में चिड़ियां घुस आती हैं। चिड़ियां ली-ना का बोसा ले रही हैं। ली-ना को लगता है कि उसकी सैकड़ों चिड़ियां माएं उसे एक साथ आशीर्वाद दे रहीं हैं कि वह अपने मकसद में कामयाब हो गई है। उसने अपने पूर्वजों से किए गए वादे को पूरा कर दिया है। उसने चिन उर्फ डॉ. कान्हा सिंह का पता लगा लिया है। उसने वह सिरा पटना कलम के माध्यम से ढूंढ निकाला है, जो सिरा उसे उसके पूर्वजों से जोड़ती है।
ली-ना की नजर अकस्मात टी.वी. पर पड़ती है, जहां अफगानिस्तान के बामियान में तालिबानियों द्वारा गौतम बुद्ध की प्राचीन प्रतिमा को डायनामाइट तथा रॉकेट से उड़ा दिए जाने की खबरें दिखाई जा रही हैं। इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट में बैठी हुई ली-ना अचानक यह निर्णय लेती है कि वह अब चीन नहीं अफगानिस्तान जाएगी। क्या ली-ना जैसी चरित्र हमारे इस युद्ध और धार्मिक उन्माद के घटाटोप के समय में किसी शांति दूत की प्रतीक की तरह है? जिनका कोई एक देश या धर्म या परिवार नहीं है, बल्कि समूची दुनिया उसके लिए एक देश या परिवार है।
यह उपन्यास हमारी मुर्दा आंखों में एक सुंदर और जिंदा ख्वाब जगा जाता है कि हम समय रहते अपने देश और दुनिया को बचा लें। अपने खूबसूरत आख्यान और सुदंर शिल्प के साथ वंदना राग जिस भाषा का विधान करती हैं, वह अद्भुत है। उपन्यास का उलझा हुआ ताना-बाना कब अपने अंत तक आते-आते अंतत: सुलझता हुआ और कितने अनगिनत सवालों को हमारे जेहन में छोड़ता हुआ चला जाता है, कहना मुश्किल है। अपने अद्भुत आख्यान और शिल्प विधान के लिए इस उपन्यास को लंबे समय तक याद रखा जाएगा।
जिज्ञासा : ‘बिसात पर जुगनू’ जैसा उपन्यास लिखने का ख्याल आपके मन में कैसे आया?
वंदना राग : यह बहुत पहले की बात है। 2001 में बामियान अफगानिस्तान में जब बुद्ध की मूर्ति को ध्वस्त किया गया था, तभी मेरी सोच की प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी। मैंने सोचा था कि बुद्ध, जिन्हें शांति का दूत कहा जाता है, मूर्तियों को किसी भी विचारधारा से प्रेरित लोग कैसे ढहा सकते हैं? वे चीन से ज्यादा भारत के थे, लेकिन आज हम उन्हें कैसे याद करते हैं ? हमारी धार्मिक अस्मिता क्या है और उसका कैसे विकास हुआ है? क्या आज से 150 साल पहले की अस्मिताएं फिर से रीडिफाइन हो रही हैं? क्या कभी इतिहास में ऐसा भी समय था जब धार्मिक अस्मिताओं से ऊपर मानवतावादी अस्मिताएं थीं? जब वंचित तबकों को अपनी बात कहने का मौका मिला था? जब मैं यह सब सोच रही थी, तभी मेरी नजर से एक किताब गुजरी जिसमें पटना कलम के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी थी। मैं उससे भी प्रभावित हुई और बहुआयामी शोषण– आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक की कहानी मेरे मन में धीरे-धीरे खुलने लगी। मुझे लगा सिर्फ मोहब्बत ही वह रास्ता है जिससे हम सारे नफरत भरे युद्धों से जीत सकते हैं। इस तरह मेरी कहानी के किरदारों का जन्म होने लगा, जो वैसे तो अत्यंत साधारण परिस्थितियों में पैदा होते हैं लेकिन उनकी उसी साधारणता में असाधारणता छिपी हुई होती है, जिसे हम बाद में पहचानते हैं। यही सोच मेरे उपन्यास लिखने की वजह बनी।
जिज्ञासा : आपने 1840 को ही अपने इस उपन्यास का प्रस्थान बिंदु क्यों चुना?
वंदना राग : दरअसल मैं 1857 पर फोकस नहीं करना चाहती थी। उस पर अनेक बेहतरीन उपन्यास मैं पढ़ चुकी थी। लेकिन उसके बिना मेरे उपन्यास की भावभूमि तय भी नहीं हो सकती थी। इसीलिए मैंने 1840 के समय को पूर्वपीठिका के रूप में चुना। एक ऐसा समय, जिसमें युवा किरदार हों और जीवन से वास्तविक रूप से जुझने की प्रक्रिया शुरू कर रहे हों। वे प्रेम करेंगे, जीतेंगे-हारेंगे, रोजगार के बारे में सोचेंगे और एक अस्थिर समय में, जीवित रहने का चुनौती भरा व्याकरण तैयार करेंगे। यह तैयारी जरूरी है। जीवन के हर पायदान पर यही हमें वह बनाती है जो बाद में हम जाकर बनते हैं और अपनी आगामी पीढ़ियों को सौंपकर दुनिया से जाते हैं।
जिज्ञासा : भारत और चीन के 70 वर्षों के इतिहास में गोते लगाना आपके लिए किस तरह का अनुभव रहा है?
वंदना राग : यह एक अद्भुत कथा यात्रा रही। मैं चूंकि इतिहास की छात्र रही हूँ तो इस दौर की प्रतिछायाएं मेरे भीतर कहीं धंसी हुई थीं। उन्हें दोबारा झाड़-पोछकर दुरुस्त करना था और पटना कलम की कथा यात्रा को जानना था। उसमें से अपनी मन-लायक कहानी गढ़नी थी। मैंने पटना कलम शैली के बहुत सारे चित्र देखे और कल्पना में डूबती-उतराती रही। मैंने चीन के इतिहास को भी उलटा-पलटा। उस दौर की भाषा, कपड़े-लत्ते, खाने के बारे में कुछ पढ़ा, कुछ कल्पना की। लगभग डेढ़ साल मैंने उपन्यास को सिर्फ मन में लिखा, कभी मिटाया और कभी दुरुस्त किया। जब लगा अब यह पन्ने पर उतारने लायक हो गया है, तभी मैंने उसे लिखना शुरू किया और लगभग वैसा का वैसा अंतिम ड्राफ्ट तक लिखा और बने रहने दिया। मैंने उस दौर में कोई किताब नहीं पढ़ी। कोई टैक्स्ट कंसल्ट नहीं किया, कोई शोध नहीं किया। सिर्फ और सिर्फ कल्पना की और जुनून से भरी रही। यह यकीनन बहुत कठिन यात्रा थी और इसने मुझे उपन्यास आने के दस महीनों बाद तक अभी भी अपने घेरे में ले रखा है। अभी तक उससे निजात मिली नहीं है। हमेशा लगता है, और बेहतर भी लिख सकती थी शायद! और बातें और सुंदर ढंग से कह सकती थी शायद!
जिज्ञासा : इस उपन्यास में केवल तीन परिवार ही नहीं, अपितु इन परिवारों के साथ असंख्य चरित्र जुड़े हुए हैं। इतने सारे चरित्रों को आपने अपने इस उपन्यास में किस तरह से साधा है?
वंदना राग : जैसा कि मैंने कहा, यह बहुत कठिन यात्रा थी। सबसे मुश्किल काम था सारे चरित्रों के साथ न्याय कर सकना– कोशिश जरूर की है मैंने लेकिन अब पाठक बताएंगे कि सारे चरित्र मुकम्मल तौर पर साध पाई या नहीं। क्या कमियां रह गईं और कैसे अपने को अगले उपन्यास में दुरुस्त करूं।
जिज्ञासा : हिंदी के प्रचलित और सुविधाजनक औपन्यासिक ढांचे को छोड़कर आपने इस उपन्यास में एक बीहड़ और अनोखे औपन्यासिक ढांचे को क्यों चुना?
वंदना राग : यह उपन्यास बहुत कुछ कहना चाहता था। ऐसे में सहज, एकरेखीय या स्थापित ढांचे से बात कैसे बनती? इसे बिलकुल नए तरीके से ही कहा जा सकता था। क्योंकि इसमें वास्तविक ब्योरे हैं और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है, जिनके साथ छेड़-छाड़ संभव नहीं थी। लेकिन चरित्र और कहानियां तो पूरी तरह से काल्पनिक थे। ऐसे में सबका सामंजस्य बने। कुछ भी अवास्तविक प्रतीत न हो, इसके लिए कहन का तरीका यूं ही आया। अगर कहूं अपने आप आया, जैसे हाल आता है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
जिज्ञासा : आपने इस उपन्यास में 1857 के गदर के साथ परगासो दुसाधन को भी जोड़ा है जो अनेक अनाम स्त्रियों की प्रतीक हैं। ऐसा लगता है, परगासो का चरित्र आपके कहीं भीतर से निकला हुआ चरित्र है?
वंदना राग : मुझे लगता है दलित नायकों को जो ‘स्पेस’ इतिहास में मिलना चाहिए, वह उन्हें नहीं मिला। बल्कि हमने चालाकी से दलितों से कन्नी काटी, उन्हें सहयोगी भूमिकाओं में रखा और स्त्रियों को तो और भी। न पौराणिक कथा में, न ऐतिहासिक संदर्भ में वैसा बड़ा स्पेस देने की कोशिश की गई है। ऐसे में मेरी दिली इच्छा थी कि मैं ऐसा किरदार ढूंढ कर पेश करूं जो अपने संघर्षों की भाषा से आज की स्त्री के लिए भी प्रेरणास्रोत बनकर उभरे। परगासो संभव होने वाली मेरी फैंटेसी है, वह हर युग की प्रेरणा होने की ताकत रखती है।
समीक्षित पुस्तकें :
(1) बिसात पर जुगनू : वंदना राग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
(2) आईना साज़ : अनामिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
संपर्क सूत्र : रमेश अनुपम 204, कंचन विहार, डूमर तालाब (टाटीबंध) रायपुर, छत्तीसगढ़-492009 मो. 6264768849 मेल- 1952rameshanupam@gmail.com
बिसात पर जुगनू वंदना राग का अनोखा उपन्यास है इसका अपना अलग ढंग और शिल्प है बहुत सुंदर उसकी समीक्षा हुई है वंदना राग और रमेश रमेश अनुपम को बहुत-बहुत बधाई