रमाशंकर सिंह

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में 2018 से 2020 तक फेलो। समाज, संस्कृति, राजनीति पर वायर हिन्दी, क्विंट हिन्दी और जनपथ जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर लगातार लेखन।

हिंदी लोकवृत्त की समस्याएं‘ विषय पर आयोजित बहस के अंतर्गत पाठकों ने अबतक अजय कुमार, अमितेश कुमार, बसंत त्रिपाठी और कुंवर प्रांजल सिंह के विचार पढ़े। इस अंक में  हिस्सा ले रहे हैं- अवधेश प्रधान, शुभनीत कौशिक और मृत्युंजय।

परिचर्चा की पृष्ठभूमि में निम्नलिखित सवाल हैं।

  1. जब आपके सामने ‘हिंदी लोकवृत्त’पदबंध आता है तो आप क्या सोचती/सोचते हैं?
  2. हिंदी लोकवृत्त की समकालीन दिक्कतें क्या हैं? क्या उनसे निजात पाने का कोई सुचिंतित तरीका संभव है?
  3. क्या यह हिंदी भाषा की ही विशेषता है कि वह एक सामंतवादी, पिछड़े, भेदभावपूर्ण समाज का निर्माण करे या समस्या कहीं और है और हम देख कहीं और रहे हैं?
  4. हिंदी जन-क्षेत्र में आदिवासी, दलित, घुमंतू, मुसलमान, स्त्रियों, ट्रांसजेंडर्स का भविष्य क्या है और वे इसे भविष्य में कैसे रचेंगे?

 

अवधेश प्रधान

प्रसिद्ध समालोचक। पूर्व प्रोफेसर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय। अद्यतन पुस्तक सीता की खोज

हिंदी लोकवृत्त की अपनी समस्याएं हैं

(1)हिंदी लोकवृत्त पदबंध सुनते ही सबसे पहले हमारे सामने देश का वह विशालतम भूभाग आता है जिसे रामविलास शर्मा हिंदी प्रदेश कहा करते थे, जो देश के हृदय में स्थित होने से उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु तक, पूर्व में असम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक समूचे देश को जोड़ता है, जहां मौर्य और गुप्त काल में मगध जैसा विशाल साम्राज्य स्थापित था, जहां पाटलिपुत्र, काशी, मथुरा और उज्जयिनी जैसे नगर प्राचीन काल से थे, जहां वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, अर्थशास्त्र की रचना हुई, जहां राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर जैसे महापुरुष;कालिदास, भवभूति और बाणभट्ट, कबीर, रैदास, सूरदास, तुलसीदास, जायसी, मीरा, बिहारी और घनानंद, मीर, गालिब और नजीर जैसे महाकवि हुए, जहां अशोक और अकबर जैसे सम्राट हुए, जहां स्वामी हरिदास, बैजूबावरा और तानसेन जैसे संगीत के शिखर हुए, जहां जयपुर, ग्वालियर, आगरा और दिल्ली में स्थापत्य और वस्तु के विश्वस्तरीय नमूने हैं, जिनकी पराकाष्ठा है ताजमहल।

आधुनिक युग में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1557-59) भी इसी भूमि पर लड़ा गया। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन से लेकर 1942 के आंदोलन तक इस प्रदेश ने स्वतंत्रता आंदोलन के प्रत्येक रूप और प्रकार में भाग लिया। उत्तर प्रदेश में बाबा रमाचंद्र तो राजस्थानी विजय सिंह पथिक जैसे किसान नेता हुए! झारखंड में कानू-सिधू, बिरसा मुंडा और ताना भगत जैसे आदिवासियों के नायक हुए। ‘कवि वचन सुधा’, ‘सरस्वती’, ‘मर्यादा’, ‘प्रताप’, ‘कर्मवीर’ और ‘आज’ जैसे पत्रों ने जनचेतना को निखारने का काम किया। स्वामी सहजानंद सरस्वती जैसा किसान नेता इसी धरती ने दिया। काशी जो प्राचीन काल से ही संस्कृत विद्या का केंद्र रहा, वहां 1916 में महामना मदन मोहन मालवीय ने देश का पहले राष्ट्रीय आवासीय विश्वविद्यालय-काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना करके नालंदा के गौरव को पुनर्जीवित कर दिया। 1857 की क्रांति से अनुप्राणित नागौवती आदि ने देवबंद में दारुल उलूम की स्थापना  की तो ‘नई रोशनी’ के पैरोकार सैयद अहमद खां ने अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना करके मुस्लिम जागरण को प्रेरणा दी। दलितों और स्त्रियों को भी शिक्षा के द्वारा जगाने का जो काम आर्य समाज ने शुरू किया था, उसने आर्य समाज के दायरे के बाहर भी हलचल पैदा की।

गरीब जनसाधारण के हक में जनवादी नीतियों को लागू किए बगैर न कृषि की हालत सुधरनेवाली है, न उद्योग की, न शिक्षा की, न स्वास्थ्य की। न गंगा साफ होनेवाली है, न पर्यावरण सुधरने वाला है।

आजादी की लड़ाई के नए दौर में यहां प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी जैसी कवि-प्रतिभाएं हुईं तो दूसरी ओर प्रेमचंद हुए जिनके जोड़ का, किसान जीवन का बड़ा कथाकार संसार में दूसरा नहीं है। हिंदुओं, बौद्धों, जैनों, मुसलमानों और किसानों के बड़े-बड़े तीर्थ और धर्मस्थल इसी प्रदेश में हैं लेकिन साझी विरासत की, सांप्रदायिक सहभाव की, मेल-मोहब्बत की शानदार रवायतें भी यहां मौजूद हैं। प्रकृति ने हिंदी प्रदेश को जल से भरी रहने वाली गंगा, यमुना, नर्मदा, सरयू जैसी सदानीरा नदियां दी हैं, भले बड़े-बड़े बांधों और शहरी नालों ने उन्हें बेदम कर दिया। हिंदी समाज ने नागरी प्रचारिणी सभा, हिंदी साहित्य सम्मेलन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, हिंदुस्तानी एकेडेमी जैसी संस्थाएं बनाईं, संग्रहालय और पुस्तकालय बनाए। कुसंस्कृत राजनीति के नागों और लाभ-लोभ के मगरमच्छों ने उनका क्या हाल किया, यह सब जानते हैं।

(2) ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन ने यहां एक तरह की सामाजिक जड़ता लक्षित की है। संसाधनों का असमान बंटवारा है, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं-सुविधाओं का अभाव है। दक्षिण में पेरियार और महाराष्ट्र में फुले-अंबेदकर की तरह के सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलन यहां नहीं हुए। पंजाब में रविदासी समाज के लोगों ने अपने धार्मिक स्थल ही नहीं बनाए, स्कूल-कॉलेज और अस्पताल भी खोले। मंदिर-मंडल के दौर में दलित-पिछड़ा समुदाय की राजनीतिक भागीदारी और दावेदारी बढ़ी तो ऊंची जातियों की पलट प्रतिक्रिया भी उग्र हुई। बिहार में सी.पी.आई-एमएल के किसान जागरण ने सामंती जड़ता को तोड़ा तो उसकी प्रतिक्रिया में बथानी टोला, बाथे जैसे जनसंहार हुए, रणवीर सेना जैसी प्रतिक्रियावादी गोलबंदी भी हुई। लेकिन किसानों ने थका देने वाले लंबे प्रतिवाद-संघर्ष में रणवीर सेना जैसी गोलबंदियों को तोड़ दिया। इसने डोला प्रथा जैसी बुराइयों को उखाड़ फेंका। गांव-देहात में कब्रिस्तान वगैरह की जमीन पर कब्जा करने वाली सांप्रदायिक ताकतों को रोकने में भी कामयाबी हासिल हुई। पिछड़ी जातियों और दलित नेतृत्व के राजनीतिक उभार ने वामपंथियों के राजनीतिक प्रभाव को क्रमशः सीमित किया। जमीन पर किसानों और मजदूरों के आंदोलन कमजोर हुए और दलित-पिछड़ा राजनीति पर बाहुबलियों और माफियाओं ने दबदबा कायम किया। कई पार्टियों के झंडे अलग हैं, आर्थिक विकास की नीतियां एक हैं। इन नीतियों को बदले बगैर, गरीब जनसाधारण के हक में जनवादी नीतियों को लागू किए बगैर न कृषि की हालत सुधरनेवाली है, न उद्योग की, न शिक्षा की, न स्वास्थ्य की। न गंगा साफ होनेवाली है, न पर्यावरण सुधरने वाला है। कारपोरेट पूंजी, निजी पूंजी का प्रवाह दूसरे राज्यों में उमड़ रहा है और हिंदीभाषी राज्यों को जान-बूझकर पिछड़ा रखा गया है ताकि वे प्राकृतिक संसाधन और सस्ता मजदूर मुहैया करते रहें।

कोरोना की पहली लहर में मुंबई से, अहमदाबाद से, सूरत से, मद्रास से पैदल चलते हुए जिन मजदूरों का कारवां जेठ की धूप और लू में ‘लांग मार्च’ करता दिखाई दिया, वे हिंदी प्रदेश के मजदूर थे। 19वीं सदी के गिरमिटियों के 21वीं सदी के वंशजों में कुछ संभावनाएं भी बनी हैं, जैसे- पंचायतों में स्त्रियों, दलितों और पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी है। स्त्रियों की सार्वजनिक जीवन में गतिविधि बढ़ी है। वे मुखर भी हुई हैं- ‘निर्भया’ से लेकर नागरिकता कानून-विरोधी आंदोलन तक। स्कूलों और कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में आधी जमीन पर वे काबिज हो गई हैं। नए किसान आंदोलन में भी उनकी एक आवाज है। सभी कम्युनिस्ट ताकतें इकट्ठा हों तो वे इन संभावनाओं का उपयोग हिंदी प्रदेश की तकदीर बदलने में कर सकते हैं। वे गांधीवादी, समाजवादी, पर्यावरणवादी, नारीवादी शक्तियों को कारपोरेट पूंजी के खिलाफ एक बड़े राष्ट्रव्यापी जन-आंदोलन में उतार सकते हैं। काश, वे अपनी ताकत को समझ पाते!

लोगों को जातिवाद, संप्रदायवाद की अफीम से मुक्त करने के लिए जनसाधारण के बीच जाकर स्थानीय स्तर पर उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करने का अभियान चलाना चाहिए। जनता की चेतना को निखारने के लिए गांव-गांव पुस्तकालय-वाचनालय का जाल फैलाना चाहिए।

(3)सामंतवादी, पिछड़े, भेदभावपूर्ण समाज का निर्माण करना हिंदी ही नहीं, किसी भी भाषा की विशेषता नहीं होती। सामंतवाद, पिछड़ेपन और भेदभाव का संबंध हिंदी से जोड़ना औपनिवेशिक दासता-बोध से पोषित नौकरशाही सूझ-समझ का प्रतिफल है। अंग्रेजी के अखबारों ने इसी उच्च-भ्रू मानसिकता से इस महादेश के हृदय प्रदेश को गोबर-पट्टी (काऊ बेल्ट), और ‘बीमारू’ प्रदेश(बी= बिहार+ झारखंड, एम= मध्यप्रदेश+ छत्तीसगढ़, आर= राजस्थान+ हरियाणा, यू= उत्तरप्रदेश + उत्तराखंड) कहना शुरू किया। हिंदी के भी ‘बाबू’ पत्रकारों, लेखकों और राजनीतिक विश्लेषकों ने यही सब दुहरा-दुहरा कर साबित करने की कोशिश की कि वे मौलिक चिंतक हैं। सामंतवाद, पिछड़ेपन और भेदभाव से कोई प्रदेश मुक्त नहीं है। पूंजीवादी विकास ने हर जगह सामंती अवशेषों को कमजोर करने के बजाय मजबूत किया। महाजनी पूंजी की छाया में जो आर्थिक उदारीकरण आया उसने न सामंती वर्गहितों को नुकसान पहुंचाया, न सामंती रूढ़ियों को। उलटे, जहां-जहां आर्थिक उदारीकरण अधिक हुआ, वहां-वहां समाज और अनुदार होता गया। जैसे महाराष्ट्र और गुजरात में। बंबई, कभी कम्युनिस्टों का गढ़ था, मजदूर आंदोलन का केंद्र था, नाविक विद्रोह का प्रत्यक्षदर्शी था, वह शिवसेना का गढ़ हो गया। गांधी और पटेल के गुजरात ने दंगों के इतिहास में एक ऐसा दुर्दांत रेकार्ड बना दिया, जिसकी कोई मिसाल नहीं। दलितों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों (जातीय/धार्मिक/क्षेत्रीय/नस्लीय) के साथ-साथ बुद्धिजीवियों, सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर हमले सब जगह बढ़े हैं।

अंग्रेजी राज ने हमेशा याद रखा कि 1857 की क्रांति में हिंदी प्रदेश के हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलजुलकर ‘फिरंगी राज’ को हटाकर ‘सुराज’ कायम करने की सबसे पहली, लंबी और बड़ी लड़ाई लड़ी थी। इसीलिए उन्होंने इस प्रदेश की ताकत को हर तरह से तोड़ने, कमजोर और बर्बाद करने की नीति अख्तियार की। उन्होंने राजाओं, सामंतों, तालुकेदारों, जमींदारों को साथ लिया और यहां किसानों को तबाह किया, दंगे कराए, हिंदी-उर्दू के झगड़े को हवा दी, परंपरा से चली आती शिक्षा व्यवस्था को खत्म किया, हिंदी माध्यम से शिक्षा चालू नहीं होने दी, देशी उद्योग-धंधों को चौपट किया। अकाल पर अकाल पड़ने लगे। हैजा और अकाल अंग्रेजी राज का लक्षण हो गया। यही कारण है कि सबसे अधिक गिरमिटिया मजदूर  यहीं से गए। आजादी के बाद की सरकारों ने भी इस प्रदेश की भरपूर उपेक्षा की। वोट बैंक की राजनीति ने यहां संप्रदायवाद को, जातिवाद को खूब बढ़ाया। पूंजी की जिस ताकत ने अपने स्वार्थ में इस प्रदेश को पिछड़ा रखा, वही अब इस पर पिछड़ेपन का आरोप लगाती है ताकि लोगों का ध्यान कृषि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य-संबंधी जमीनी हकीकतों से, जन-विरोधी नीतियों से भटक जाए।

(4)आदिवासी, दलित, घुमंतू, मुसलमान, स्त्रियां, ट्रांसजेंडर्स, बेराजगार, कारीगर, पटरी व्यवसायी आदि तमाम समूह अलग-अलग संघर्ष करते हैं। कभी-कभी उनके हक में कुछ कानून बन जाते हैं, कुछ रियायतें मिल जाती हैं- बस। लेकिन उनकी नियति समूचे राष्ट्र जीवन की नियति से जुड़ी हुई है। इसलिए कायदे से उनका संघर्ष उस व्यापक राष्ट्रवादी जन-आंदोलन से संबद्ध होना चाहिए, जो राष्ट्रीय नियति को एक प्रगतिशील लोकतांत्रिक दिशा में बदल देने के लिए परिचालित हो। मेधा पाटकर, सुंदरलाल बहुगुणा, अरुंधती राय, वंदना शिवा, सुनीता नारायण आदि ने जनता को पर्यावरण के मुद्दे पर शिक्षित किया है, जागरूक किया है, एक हद तक आंदोलित भी किया है। ऐसा ही नागरिक और मानवाधिकार के कार्यकर्ताओं ने भी किया है। ये निर्दलीय प्रयास हैं लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

लोगों को जातिवाद, संप्रदायवाद की अफीम से मुक्त करने के लिए जनसाधारण के बीच जाकर स्थानीय स्तर पर उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करने का अभियान चलाना चाहिए। जनता की चेतना को निखारने के लिए गांव-गांव पुस्तकालय-वाचनालय का जाल फैलाना चाहिए। छोटी-छोटी बैठकों में बातचीत के द्वारा प्रश्नोत्तर के द्वारा लोकशिक्षण का अभियान चलाना चाहिए। वह सबकुछ एक व्यापक राष्ट्रव्यापी और राष्ट्रीय कार्यक्रम और आंदोलन से संबद्ध होना ही चाहिए। अमरीकी कंपनियों के बहिष्कार पर सभी कम्युनिस्ट पार्टियां एकजुट होकर बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकती हैं। तीन कृषि बिलों को लेकर चलने वाला किसान आंदोलन एक बहुत बड़ी संभावना है। अगर इसमें गरीबों और खेत मजदूरों के भी मुद्दे शामिल करके व्यापक प्रचार के द्वारा पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों को भी गोलबंद कर दिया जाए तो पूरे हिंदी प्रदेश की सामाजिक जड़ता टूट सकती है। हिमाचल प्रदेश के किसान भी अडानी के महागोदामी-अजगरी लपेट के शिकार हैं। झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी भी बुनियादी तौर पर किसान ही हैं। किसान समस्याओं के हजार-हजार रूपों को एक ही धागे में पिरोने की जरूरत है। साम्राज्यवाद ने, महाजनी पूंजी ने, कारपोरेट पूंजी ने सारे देश में बायकाट और स्वदेशी आंदोलन खड़ा करने लायक परिस्थिति पैदा कर दी है। ऐसे एक बड़े परिपेक्ष्य से परिचालित जन आंदोलन की धारा जातिवाद, उग्र धर्मोन्माद, संकीर्ण संप्रदायवाद जैसे तमाम कूड़े-कचड़े को अपने साथ बहा ले जाती है। संपूर्ण क्रांति से लेकर अन्ना हजारे तक के आंदोलनों की परिणति किसी न किसी धोखे में, समझौते में हुई है। इसीलिए जरूरी है कि इस कारपोरेट पूंजी-विरोधी विराट स्वदेशी जन आंदोलन का नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टियां करें। कारपोरेट पूंजी को, आर्थिक उदारीकरण को जारी रखते हुए न कोई अस्मितामूलक जागरण सफल हो सकता है, न समतामूलक धर्मनिरपेक्ष समाज की रचना ही संभव है। तमाम समूहों की पीड़ाएं हिमालय जितनी बड़ी हो गई हैं, उनसे कोई जन आंदोलन की धारा फूटनी चाहिए-

हो गई है पीर परबत-सी पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए!

ईमेल – awadhesh.pradhan@gmail.com

मृत्युंजय

प्रबुद्ध लेखक और संस्कृतिकर्मी

हिंदी लोक परिसर की परंपरा अब स्थगितप्राय  है

लोकवृत्त वही है जिसे अंगरेजी में पब्लिक स्फीयर कहते हैं। यह परिवर्तन की पवनचक्की है। कोई भी परिवर्तन सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टिकोण के बिनालंगड़ा होता है। इसीलिए लोकवृत्त में सामाजिक सुधारक और लेखक – कवि – विचारक की भूमिका ज्यादा मायने रखती है। लोकगीत और नाटक लोक परिसर को जाग्रत करने के बड़े माध्यम हैं। इन माध्यमों से लोक परिसर में समानांतर राय की नींव रखी जाती है। भारतेंदु ने ‘अंधेर नगरी’ लिखकर हिंदी लोक परिसर को जाग्रत करने का काम किया था। यूं पूरा साहित्य ही लोक परिसर को संवेदनशील और विचारवान बनाता है। मगर हिंदी पट्टी में नाटक खेलने और देखने का प्रचलित रिवाज नहीं बन सका और न ही साहित्य के पठन-पाठन का गंभीर संस्कार बना।

जमाना बदलता गया, मगर उस जमाने का हाल न बदला। जो हाल सौ साल पहले था, आज भी लगभग वही है। भक्तिकाल के कवियों ने लोक परिसर को सबसे अधिक कारगर बनाया था। स्वतंत्रता आंदोलन में गली-गली में लगने वाली प्रभात फेरियां लोक परिसर को झकझोरती थीं। लोक परिसर से लपटें उठती दिखी थीं। आजाद भारत में भी असंतोष की लहरें लोक परिसर में गिरती-उठती रही हैं।वे सत्ता प्रतिष्ठान पर दस्तक देती रही हैं और परिवर्तन की राहें बनाती रही हैं। असंतोष का ही जमाना था जब ‘राग दरबारी’ लिखा गया। उसने लोक परिसर को झनझना दिया था। कई बार किसी भाषा में एक ऐसी रचना आ जाती है कि वह राष्ट्र की लोक संवेदना को छू जाती है।

भारत में लोक परिसर खड़ा नहीं हो पाता अब। जो बनता है वह जातिवृत्त और धर्मवृत्त है। पहली नजर में गुरुद्वारा इसका बड़ा उदाहरण है। यह एक ऐसा ही धर्मवृत्त है, हालांकि गुरु साहबान के वचन संकीर्णता की सारी सीमाएं तोड़कर उत्कर्ष की यात्रा पर ले जाते हैं। धार्मिक सीमा तोड़ते हैं। लेकिन बात खालसा पर आकर खत्म होती है। पिछले तीन दशकों में हिंदी लोकवृत्त बनाने की कोशिश राम के इर्द-गिर्द हुई है। बहुत हद तक सफलता मिली है। मराठा अस्मिता छत्रपति शिवाजी के इर्दगिर्द भले ही गोलबंद होती है , मगर वह मराठा परिसर कभी नहीं बनती है। बंगाल का अड्डा अवश्य लोक परिसर का एक मजबूत उदाहरण है। बंगाल का काफी हाउस लोक परिसर बनाने की भूमिका में रहा है। किसी जमाने में दिल्ली के काफी हाउसों ने भी यह  काम किया था। हिंदी पट्टी में काफी हाउस का संस्कार नहीं बना कभी। काफी हाउसों में विचारों का धुआं ऐसा बनता रहा है कि उससे कई बार आग सुलग उठी है।

गुरुद्वारावृत्त और रामवृत्त में बुनियादी फर्क है। गुरुद्वारा कई दफा प्रतिष्ठान की सोच के बरक्स लोक परिसर में बनी समझ या राय का प्रतिनिधि बनने का आभास दिया करता है। लेकिन वह कभी लोक परिसर की भूमिका में नहीं होता। लोक परिसर वह होता है जहां राजनीति, संस्कृति और अर्थव्यवस्था के साथ-साथ अपने आम मुद्दों पर जन सामान्य विचारों और रायों का आदान-प्रदान कर सके खुल्लमखुल्ला। गुरुद्वारा स्वयं एक प्रतिष्ठान है। रामवृत्त भी प्रतिष्ठान की एक शाखा है। रामवृत्त लोकवृत्त को समाप्त कर एक खास सत्तावृत्त की समझ को लोकवृत्त में स्थापित कर देता है।

भारत में लोक परिसर खड़ा नहीं हो पाता अब। जो बनता है वह जातिवृत्त और धर्मवृत्त है। 

व्यापक संदर्भ में पत्रकारिता या मीडिया के लोक परिसर होने की याद अभी धूमिल नहीं है, वह अब धर्म-परिसर का परिसेवक है। किसी जमाने में लोकल मीडिया या लघु पत्रिकाएं लोक परिसर का काम छोटी सीमा में, मगर जिम्मेदारी से करती थीं। सोशल मीडिया अपनी चारित्रिक विशेषताओं की वजह से कभी भी लोक परिसर नहीं बन सकता, बल्कि वह लोक परिसर के लिए अवसर ही नहीं रहने देता। टीवी पर चलने वाले दंगल लोक परिसर की धूल-धज्जी उड़ाते रहते हैं।

भारत कृषि प्रधान देश के रूप में जाना जाता रहा है। मगर इस देश में किसानवृत्त जैसी कोई अवधारणा नहीं बनी। हालिया किसान आंदोलन की स्थिति यह है कि वह दर दर जा रहा है, मगर आंदोलन को किसानवृत्त की धार नहीं मिल रही है। अगर लोक परिसर अस्तित्व में होता तो किसान आंदोलन लावा में बदल जाता। वह दृश्य कितना अनोखा होता कि देश में किसानवृत्त की ओर से लंगर होता! भारत में मजदूरों की भी बड़ी आबादी बनी है। लेकिन मजदूरवृत्त की कोई अवधारणा नहीं बनी।अगर बनी होती तो मजदूर असहाय नहीं हुए होते, जो अक्सर देखा जाता है। सोच और समझ की तब एक नई दुनिया बनी होती।तब हम एक नि:स्पंद युग के मुलाजिम नहीं होते। अगर बनी होती तो हिंदी क्षेत्र में भी संवेदी लोक परिसर सांस ले रहा होता। देश के हर अंचल, हर भाषा का अपना-अपना नागरिक परिसर बना होता। वह विशिष्ट होता, जैसे हर अंचल और हर भाषा क्षेत्र का अपना-अपना भोजन और स्वाद विशिष्ट होता है। जब विचारों की परात सजती तो नए विचारों की रेसिपी भी वहां से निकलती।दुनिया तब इतनी विकल्पहीन नहीं होती।

भारत वीतरागी देश नहीं है।इसलिएधर्म की बैसाखी हरेक को चाहिए चलने के लिए।दुनिया का कोई देश वीतरागी नहीं है।हर जगह लोभ और वर्चस्व का नगाड़ा पीटा जाता है। इसलिए दुनिया में लोकवृत्त नहीं, लोभवृत्त बनते हैं।अतः बिखराव और भगदड़ स्वाभाविक दृश्य हैं। हिंदी लोकवृत्त जैसा पदबंध सुनते हुए भी कुछ ऐसा ही दृश्य उभरता है। घायल और आहत, मगर दंभ और डाह से लबरेज। हिंदी पट्टी माने पेट और दांत। हिंदी लोक परिसर भय, भ्रम और भूत का डेरा है। पहले इसे अंधविश्वासों ने किराए पर ले रखा था। उसका दबदबा और कब्जा अभी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ  है।

सच यह है कि हिंदी लोक परिसर जैसी अवधारणा फिलहाल वजूद में नहीं है। कोई भी लोकवृत्त बनाने की पहल तभी हो सकती है जब  काई और जाले साफ करने में दिलचस्पी हो। हिंदुस्तान आज भी गोबर पाथने वाली संस्कृति पर गर्व करने के लिए हुंकारें भरता है, खासकर हिंदी पट्टी। गोबर पाथने वाली संस्कृति में अपन के अलावा सभी पशुवत होते हैं,जिन्हें सोचने, समझने और राय बनाने का हक नहीं होता। उनका जीवन और दिनचर्या नांद और नींद-अभिमुखी होते हैं। उन्हें ऐसा ही बना दिया जाता है । ऐसी संस्कृति में सभी अपने-अपने सुख के लिए दुखी होते हैं। जयशंकर प्रसाद की पंक्ति है,‘अपने दुख सुख से पुलकित यह मूर्त विश्व सचराचर’। वह संस्कृति अलग ही होती है जिसमें सब दुखी होते हैं एक दूसरे के दर्द से। जहां ऐसा होता है वहां लोक परिसर स्वतः बनता है। लोक परिसर लोकतंत्र की भी एक बड़ी जरूरत है। लोक परिसर को समाप्त करना या उसका समाप्त होना लोकतंत्र को गंगा में भसा देना है।

भारत का लोकतंत्र सत्ता और शक्ति की रणभूमि बन कर रह गया है। देश के कई हिस्सों में चुनाव मरने-मारने का उन्मादी हिंसात्मक उत्सव है। इसलिए चुनाव में विजय का उत्सव उन्माद की हद पार करता रहता है।ऐसा लोक परिसर के अभाव में ही होता है। लोक परिसर समाप्त होता है तो लोक मर्यादा, लोकमत और आदर्श का अंकुश भी समाप्त हो जाता है।

आजाद भारत में ऐसे बहुतेरे उदाहरण मिलेंगे जब हिंदी लोकवृत्त ने मशाल का काम किया है। एक नहीं कई कई मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर विचारों को खदका-खदका कर मुकम्मल राय बनाई है।इससे समाज और सरकार दोनों की सोच बदली है।

शासन का स्वभाव सामंती हो या पूंजीवादी, उसकी सामान्य विशेषता यह है कि दोनों ही लोक भागीदारी को सीमित करते हैं।एक दूसरी सामान्य विशेषता यह है कि दोनों ही केंद्रीयकरण बढ़ाते हैं। तीसरी समान विशेषता है, ये डंडे के जोर से हांकते हैं अपने शिकार को। ये तीन ऐसी विशेषताएं हैं जो किसी भी लोक परिसर पर अमरबेल की तरह चढ़ जाती हैं। आज भय का वातावरण कुछ ऐसा है कि हर परिसर थर थर कांप रहा है। लोक परिसर एक ऐसा चूल्हा हो सकता है जिसकी धीमी आंच पर लोकमत की खिचड़ी पकती रहे। खिचड़ी भी पके और गरमाहट भी मिले। मगर किसी भी शासक को कहां कबूल है यह आज?

हिंदी परिसर की बुनियाद बनाने में कवियों की बुनियादी भूमिका हो सकती है। पुरानी उक्ति है : जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि। कवि केवल इतना भर कर दें कि जहां जहां काई – फिसलन – विचलन है या अंधेर है, वहां रोशनीपात कर दें। ऐसा हो सकता है, बशर्ते कवि रविवारीय मूड में न हों। निश्चित रूप से कवि का अर्थ केवल कविताओं के रचयिता भर से नहीं है, कवि हृदय से है व्यापक अर्थ में। भारतेंदु से लेकर नागार्जुन ने यह काम बड़ी जिम्मेदारी से किया है। हिंदी लोक परिसर की परवरिश की है ऐसे कवियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी। ऐसा हुआ है, लेकिन निराला ने जो एक बात कही है, वह गौरतलब है। जो कहा, वह लगभग सौ साल पहले कहा था 1923 में,  ‘कविता की भाषा से मनोरंजन तो होता है परंतु वह जीवन – संग्राम के काम की नहीं होती। कविताप्रिय मनुष्य कल्पनाप्रिय हो जाता है। उससे काम नहीं होता। ललित कल्पना मनुष्य को कर्म के कठोर क्षेत्र पर उतरते भय दिखाती है। कविता की सुकुमार भावना लोगों को सौंदर्योपासक बना देती है। इससे जाति के कर्म-जीवन के शिथिल होने की संभावना है।’

हिंदी लोकवृत्त का दबाव और असर 1975-77 में आखिरी बार देखने को मिला था।इसका असर केवल हिंदी पट्टी तक सीमित नहीं था। इसी तरह चंपारण सत्याग्रह को याद कर सकते हैं, जिसकी आग हिंदी लोक परिसर से उठी थी और असर ऐसा कि इंग्लैंड तक थरथरा गया था। हम कह सकते हैं कि आजाद भारत में ऐसे बहुतेरे उदाहरण मिलेंगे जब हिंदी लोकवृत्त ने मशाल का काम किया है। एक नहीं कई कई मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर विचारों को खदका-खदका कर मुकम्मल राय बनाई है।इससे समाज और सरकार दोनों की सोच बदली है।

नौवें दशक के बाद जो हिंदी लोक परिसर डिजाल्व होना शुरू हुआ, वह आज पूरी तरह जमींदोज हो चुका है। बचा खुचा बाजार के हत्थे चढ़ गया है। यदि ऐसा न हुआ होता तो आज स्मार्ट सिटी की जगह स्मार्ट गांव का सपना देखा जा रहा होता।यदि लोक परिसर होता तो स्मार्ट गांव की ब्ल्यू प्रिंट पर बहस हो रही होती। भ्रष्टाचार को कलंक की तरह देखा जाता। जीवन में आदर्श के लिए जगह बचाई जा रही होती। स्त्री-पुरुष संबध में सम्मान और समानता का नया आयाम आया होता। हर वर्ग और वर्ण का मानवीय पक्ष प्रबल हुआ होता। समाज में लोक रचनात्मकता  की बयार चल रही होती। ध्यान रहे लोक परिसर यूटोपिया नहीं है। विभाजन और शासन की फैली हुई विष बेल को काटने की ताकत केवल लोक अड्डा के पास ही है। दीवान आम में बनी राय जब दीवान खास के लिए सबक का सबब बन जाए तो उसे लोक दायरा कहते हैं।

डॉक्टर्स एंड डॉक्टर्स, शॉप नं. एफ20, एनबीसीसी शॉपिंग सेंटर, राजारहाट, कोलकाता-700156 मो.9433076174 / mrityunjoy.kolkata@gmail.com

शुभनीत कौशिक

इतिहास के युवा शोधार्थी, गांधी के जीवन और दर्शन में रुचि। संप्रति : सतीश चंद्र कॉलेज (बलिया) में अध्यापन।

हिंदी लोकवृत्त में वैकल्पिक आवाजें भी हैं

‘हिंदी लोकवृत्त’ पर बात शुरू करने से पहले थोड़ी-सी चर्चा लोकवृत्त की। जर्मन दार्शनिक हैबरमास द्वारा दी गई ‘पब्लिक स्फ़ीयर’ की धारणा के लिए हिंदी में ‘लोकवृत्त’ शब्द का इस्तेमाल पिछले कुछ वर्षों में स्वीकार्यता हासिल कर चुका है। हालांकि वैचारिक धारणा के अनुवाद की यह प्रक्रिया एक यात्रा से होकर गुजरी है, जिसमें ‘पब्लिक स्फ़ीयर’ के लिए सार्वजनिक दायरा, जनपद जैसे शब्दों का भी प्रयोग होता रहा है। ‘लोकवृत्त’ शब्द को स्वीकार्यता मिलने के बावजूद इस शब्द की सीमाएँ हैं। लेकिन जब हम ‘लोक’ का व्यवहार पब्लिक, फ़ोक, पीपुल जैसी सभी विशिष्ट धारणाओं के लिए करने लगें, जो प्रथमदृष्टया एकसमान लगने पर भी एक-दूसरे से बहुत भिन्न हैं, तो इससे असमंजस की स्थिति और बढ़ जाती है।

‘हिंदी लोकवृत्त’ से मुराद प्रायः हिंदीभाषी क्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक अंतर्गठन और वैचारिक ताने-बाने से रहती है। उल्लेखनीय है कि जिसे हम हिंदीभाषी क्षेत्र कहते हैं या मानते हैं, वह क्षेत्र अवधी, ब्रज, बुंदेली, बघेली, भोजपुरी सरीखी समृद्ध भाषाओं और उनके बोलने वालों से मिलकर बना है। भाषाई आधार पर भी यह ‘हिंदी लोकवृत्त’ कई अन्य लोकवृत्तों से मिलकर बना है। सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर या राजनीतिक धरातल पर भी देखें तो हिंदी लोकवृत्त बहुस्तरीय और विविधता से परिपूर्ण है।  

राहुल सांकृत्यायन ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी जीवन-यात्रा’ और पुस्तक ‘तुम्हारी क्षय’ में इस संकीर्ण प्रवृत्ति और उसका शिकार होने वाले लोगों की व्यथा के बारे में विस्तारपूर्वक लिखा है।

समस्याओं की बात करें तो हिंदी लोकवृत्त में कुछ ऐसी बुनियादी समस्याएं देखने को मिलती हैं, जिनकी पृष्ठभूमि हिंदी लोकवृत्त की निर्मिति के आरंभिक काल तक फैली हुई है। यह समय है उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध का, जब औपनिवेशिक उत्तर भारत में हिंदी लोकवृत्त आकार ले रहा था। समाज में गहरे पैठ बनाए हुए सामंती और जातिवादी सोच, अंधविश्वास, सांप्रदायिक मनोवृत्ति हिंदी क्षेत्र की बुनियादी समस्याओं में से है। ये समस्याएँ कमोबेश दूसरे क्षेत्रों में देखने को मिलती हैं, किंतु हिंदी भाषी इलाक़े में ये और भयावह रूप धारण कर लेती हैं। ये समस्याएँ स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा के क्षेत्रों से लेकर आम जनजीवन में गाहे-बगाहे दिखाई पड़ती हैं, अनुभव की जाती हैं। शिक्षा जगत, जिसे मुक्तिकामी विचारों का वाहक होना था, वह ख़ुद इन समस्याओं में जकड़ा हुआ है। अगर हम उत्तर प्रदेश और बिहार में ही उच्च शिक्षा के संस्थानों पर ध्यान केंद्रित करें तो हम पाएँगे कि यहाँ के अधिकांश महाविद्यालयों में किसी एक जातिविशेष के शिक्षकों और शिक्षणेतर कर्मचारियों का प्रभुत्व होता है। कॉलेज की स्थापना कितने ही बड़े आदर्शों को लक्ष्य में रखकर की गई हो, लेकिन जातिगत प्रभुत्व की शुरुआत कॉलेज की स्थापना के क्षणों में ही हो जाती है। महाविद्यालयों का प्रबंधतंत्र इस व्यवस्था का पोषक होता है और शिक्षक-कर्मचारी भी इसमें भागीदार हो जाते हैं और इस व्यवस्था को बनाए रखने की हरसंभव कोशिश करते हैं। 

हिंदीभाषी क्षेत्रों में स्थित राज्य या केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थिति भी कुछ इससे अलग नहीं है और वे भी जातिवाद के दंश से अछूते नहीं हैं। नियुक्ति की प्रक्रिया हो या शोधार्थियों का चयन, जातिवाद, भाई-भतीजावाद योग्यता पर हावी हो जाती है। इनमें वे लोग भी शामिल होते हैं, जो सार्वजनिक मंचों पर, अकादमिक गोष्ठियों में या अपनी किताबों और लेखों में जातिवाद और भाई-भतीजावाद का विरोध करते दिखाई पड़ते हैं। लेकिन अंदरखाने वे भी इस खेल में बड़ी सहजता से शामिल हो जाते हैं। यह भी सच है कि आज उच्च शिक्षा का पूरा ताना-बाना ही खुशामदों पर, चापलूसियों पर टिका हुआ जान पड़ता है। इसमें कुलपति संकायाध्यक्षों से, संकायाध्यक्ष विभागाध्यक्षों से, विभागाध्यक्ष शिक्षकों से और शिक्षक छात्रों से अपनी खुशामद कराने में लिप्त रहता है। अगर बात अपने करीबी की हो, सजातीय की हो, तो प्रतिभाओं का गला घोंट देने में ऐसे खुशामदपसंद लोगों को कोई ऐतराज नहीं। राहुल सांकृत्यायन ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी जीवन-यात्रा’ और पुस्तक ‘तुम्हारी क्षय’ में इस संकीर्ण प्रवृत्ति और उसका शिकार होने वाले लोगों की व्यथा के बारे में विस्तारपूर्वक लिखा है।

यह खुशामदी प्रवृत्ति और सामंती सोच हिंदी पट्टी के अधिकांश नेताओं और प्रशासनिक अमले में भी दिखाई पड़ती है। प्रशासनिक अधिकारी का, जिन्हें ‘लोक सेवक’ (पब्लिक सर्वेंट) कहा जाता है, जनता के प्रति व्यवहार तो कभी-कभी पुराने सामंतों को भी मात दे देता है। प्रशासनिक अधिकारियों में घर कर गई यह सामंती प्रवृत्ति कोरोना से उपजी महामारी और लॉकडाउन के दौरान कई अवसरों पर खुलकर सामने भी आई है, जिसमें वे पुलिस के साथ आम लोगों पर, सब्जी या ठेले वालों पर बेरहमी से डंडे बरसाते दिखाई पड़े। दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश में हाल ही में संपन्न हुए पंचायत चुनावों में प्रधान या दूसरे पदों पर चुनी गईं दलित महिलाओं के प्रति गाँव के सवर्ण समुदाय का व्यवहार और उन पर की जा रही ज़्यादती भी महिला सशक्तिकरण के दावों के बीच समाज में गहरे पैर जमाए हुई पितृसत्तात्मक सामंती सोच की एक बानगी है।       

इसी क्रम में एक और बात जो ध्यान में आती है वह है हिंदी लोकवृत्त में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव और लोगों के मन में अंधविश्वास का जड़ जमाए रखना। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रचार-प्रसार में स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालयों को जो भूमिका अदा करनी चाहिए थी, वह उन्होंने निभाई नहीं। यहीं से रामदेव जैसे लोगों को यह साहस मिलता है कि इस संकट के समय में भी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (एलोपैथी) और चिकित्सकों की खिल्ली उड़ा सकें, उन पर मनगढ़ंत आक्षेप लगाकर चलते बनें। इस जकड़ी हुई मनोवृत्ति के सुधार के लिए हिंदी पट्टी में प्रबोधन की ज़रूरत है। अकारण नहीं कि दिवंगत इतिहासकार लालबहादुर वर्मा इस क्षेत्र में प्रबोधन की परिघटना को संभव बनाने पर लगातार ज़ोर देते रहे।

नैन्सी फ़्रेज़र ने कहा था कि‘पब्लिक स्फ़ीयर’ अपने आप में कोई समावेशी धारणा नहीं है। ‘पब्लिक स्फ़ीयर’ में महिलाओं और सबाल्टर्न समुदायों की आवाज़ों को अनसुना कर दिया जाता है।  ऐसे में ये उपेक्षित समुदाय मिलकर ‘काउंटर पब्लिक’ का निर्माण करते हैं, जहाँ हर तरह की वैकल्पिक आवाज़ों को सुना जाता है और जहाँ उन्हें अपेक्षित स्पेस भी मिलता है।

यह सही है कि उपर्युक्त समस्याएँ केवल हिंदी भाषी क्षेत्र तक सीमित नहीं हैं। इनके दायरे में भारत के अधिकांश इलाक़े आ जाते हैं। यदि ऐसा न होता तो महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में गोविंद पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश सरीखे लोगों की हत्याएँ नहीं हुई होतीं। किंतु इतना तो कहना ही पड़ेगा कि हिंदी में ऐसे व्यापक जनसरोकार वाले समर्पित बुद्धिजीवियों का प्रायः अभाव रहा है। इसलिए अब ज़रूरी हो चला है कि बुद्धिजीवी वर्ग समाज के प्रति अपना दायित्व निभाए। वह सिर्फ़ हिंदी पट्टी की कमियाँ गिनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझ सकता। यदि हिंदी पट्टी में सामंती और जातिवादी प्रवृत्ति का बोलबाला है तो बुद्धिजीवियों को ख़ुद से भी यह पूछना होगा कि दकियानूसीपन और जड़ता की इस मनोभूमि को तोड़ने के लिए उन्होंने कौन-से कदम उठाए, क्या उन्होंने अपनी सामाजिक भूमिका का निर्वहन किया, क्या उन्होंने अपनी कथनी और करनी में भेद मिटाने के प्रयास किए। इन सवालों से जूझकर, अंतःसंघर्ष की प्रक्रिया से गुजरकर ही इन समस्याओं का समाधान हो सकेगा।

निश्चय ही दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों और महिलाओं ने हिंदी जनक्षेत्र को गढ़ने में, उसे समावेशी और समतामूलक बनाने में अहम भूमिका निभाई है। हाल के वर्षों में इसमें घुमंतू समुदाय और ट्रांसजेंडर भी प्रमुखता से शामिल हुए हैं। यहाँ लोकवृत्त की सीमाओं की बात करते हुए राजनीति विज्ञानी नैन्सी फ़्रेज़र की याद आना स्वाभाविक है, जिन्होंने हैबरमास के ‘पब्लिक स्फ़ीयर’ की धारणा की आलोचना करते हुए कहा था कि ‘पब्लिक स्फ़ीयर’ अपने आप में कोई समावेशी धारणा नहीं है। ‘पब्लिक स्फ़ीयर’ में महिलाओं और सबाल्टर्न समुदायों की आवाज़ों को अनसुना कर दिया जाता है। नैन्सी फ़्रेज़र ने यह भी कहा था कि ऐसे में ये उपेक्षित समुदाय मिलकर ‘काउंटर पब्लिक’ का निर्माण करते हैं, जहाँ हर तरह की वैकल्पिक आवाज़ों को सुना जाता है और जहाँ उन्हें अपेक्षित स्पेस भी मिलता है।

भाषा, सरोकार, सामाजिक प्रतिबद्धता – हर दृष्टि से दलित, महिला, अल्पसंख्यक, घुमंतू समुदाय और ट्रांसजेंडरों ने हिंदी लोकवृत्त को समृद्ध किया है और भविष्य में उठने वाली ऐसी ही वैकल्पिक आवाज़ों के लिए ज़मीन भी मुहैया कराई है। इन समुदायों ने अपने आंदोलनों, वैचारिक कर्म और सृजनशीलता से हिंदी लोकवृत्त को पहले से कहीं अधिक संवेदनशील और जागरूक बनाया है। साथ ही, पूर्वग्रहों और रूढ़ियों के प्रति हिंदीभाषी समाज को सचेत भी किया है। यह प्रक्रिया अभीभी जारी है। ऐसे में यह उम्मीद करना अस्वाभाविक नहीं कि ये सभी हिंदी लोकवृत्त को भविष्य में और अधिक समावेशी, संवादपरक और समतामूलक बनाने की राह प्रशस्त करेंगे।     

 

शुभनीत कौशिक, बापू भवन, टाउन हाल, बलिया – 277001. फोन : 9868560452.