(जन्म : 1949) प्रख्यात संस्कृत विद्वान, कवि और साहित्यशास्त्र के आचार्य। 150 से अधिक ग्रंथ प्रकाशित।

ठहराव

बर्मा से जनवरी 1906 में लौट कर कलकत्ता टिके। यहां अंग्रेजी के प्रोफेसर हरिनाथ दे को पालि पढ़ाते रहे तथा अरविंद घोष के बड़े भाई प्रोफेसर मनमोहन घोष के संपर्क में भी आए, जो प्रेसिडेंसी कालेज में प्रोफेसर थे। दे साहब ने एक परिचित के लिए चिट्ठी दी तो सिक्किम रवाना हो गए।  सिक्किम से लौट कर कलकत्ता में हाल ही में खुले नेशनल कालेज में पालि भाषा का विभाग खुलवाने के लिए संघर्ष किया। नेशनल कालेज 15 अगस्त 1906 को आरंभ हुआ था। धर्मानंद को इस संस्था में तीस रुपये महीने के वेतन पर पालि पढ़ाने के लिए नियुक्ति दी गई। अरविंद घोष इस कालेज में प्राचार्य थे। वे वंदे मातरम् पत्रिका का संपादन करते थे। पत्रिका में छपी सामग्री के कारण उन्हें जेल हो गई, अलीपुर बम कांड में लिप्त होने का भी उन पर आरोप था। कालेज से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उनकी जगह सतीशचंद्र मुखर्जी प्राचार्य हुए। उनका रुख धर्मानंद के प्रति अच्छा नहीं था। उन्होंने धर्मानंद को सख्त हिदायत दी कि आप पढ़ाएं, तो बौद्ध धर्म और बुद्ध के बारे में कुछ भी प्रचार न करें।

नौकरी पर लगने के बाद धर्मानंद ने गोवा जा कर घर परिवार की सुध लेने की ठानी। गोवा जाने के पहले भंडारकर साहब के साथ टूट चुके संपर्क की डोरी को फिर से बांधना चाहते थे। बंबई पहुंचे। अब भंडारकर उनसे मिल कर प्रसन्न हुए। उन्होंने पुणे में धर्मानंद का व्याख्यान कराया और इस अंतराल में धर्मानंद ने अपने अटूट संकल्प, श्रम और साधना से ज्ञान के जो क्षितिज छू लिए थे, उससे वे संतुष्ट हुए। मुंबई में वी.ए. सुक्थणकर से भेंट हुई।

मुंबई और गोवा होते हुए कलकत्ता लौटे, तो गोवा से पत्नी को साथ ही लेकर आए। नेशनल कालेज से पालि में एम.ए. उत्तीर्ण करके जो पहला बैच निकला, उसमें अंग्रेजी के प्रोफेसर हरिनाथ दे भी एक छात्र थे। अध्यापक के रूप में धर्मानंद ने जो प्रतिष्ठा अर्जित की, उसके कारण कलकत्ता विश्वविद्यालय में सौ रुपये महीने के वेतन पर उन्हें प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति मिली। मनमोहन घोष चाहते थे कि धर्मानंद की विद्वत्ता का लाभ उनकी संस्था को मिलता रहे। तो कुलपति आशुतोष मुखर्जी से अनुमति लेेकर धर्मानंद नेशनल कालेज में भी बिना वेतन लिए पालि पढ़ाते रहे।

कलकत्ता में ही सत्येंद्रनाथ टैगोर के माध्यम से उनकी मुलाकात बडोदरा के महाराज सयाजी राव से हुई। महाराजा धर्मानंद के मुरीद बन गए और आजीवन उनके आश्रयदाता भी बने रहे। उन्होंने धर्मानंद से आग्रह किया कि अपने राज्य में वापस लौट आएं और पूणे में रह कर काम करने के लिए पचास रुपया महीना स्टाइपेंड अपनी ओर से देने का प्रस्ताव किया, जो धर्मानंद ने स्वीकार कर लिया।

कलकत्ता छोड़ने के पहले उन्होंने बर्मा की एक और यात्रा की- इस बार त्रिपिटकों का वहाँ से प्रकाशित नया संस्करण प्राप्त करने के लिए। इस बीच कुलपति आशुतोष मुखर्जी को पता चला कि धर्मानंद कलकत्ता छोड़ कर जा रहे हैं, तो उन्होंने उनका वेतन बढ़ा कर ढाई सौ रुपया प्रतिमाह कर दिया, और धर्मानंद से कहा कि बडोदरा के महाराजा से भी वे अनुरोध करेंगे कि वे धर्मानंद को तीन वर्ष और कलकत्ता में रहने दें। पर धर्मानंद की अपने प्रदेश में रहने की उत्कट इच्छा थी। अंततः 1909 में कलकत्ता छोड़ कर पूणे आ गए। इसी समय अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय से उन्हें एक निमंत्रण मिला, जिसमें अमेरिका आकर उस विश्वविद्यालय में विसुद्धिमग्ग नामक त्रिपिटक ग्रंथ के समीक्षात्मक संस्करण के संपादन के काम में हाथ बंटाने का अनुरोध किया गया था। हार्वर्ड विश्वविद्यालय की शोधयोजना लंबे समय तक चलने वाली थी, धर्मानंद उसमें एक चरण पूरा कर पूणे लौट आए।

सयाजीराव की ओर से जो स्टाइपेंड मिलता था, उसमें काम था पूणे में रह कर मराठी में बौद्ध धर्म विषयक ग्रंथों का अनुवाद तथा बौद्ध साहित्य का संपादन करना। महाराज के अनुरोध पर 1910 में उन्होंने बडोदरा में बौद्ध धर्म और दर्शन पर पांच व्याख्यान दिए, जिनका बुद्ध, धर्म आणि संघ नाम से पुस्तकाकार प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक की प्रस्तावना वी.एस. सुक्थणकर ने लिखी है। मराठी में बुद्ध के जीवन और अवदान पर यह पहली प्रामाणिक कृति थी, जिसकी रचना पर्याप्त अध्ययन और अनुसंधान के पश्चात हुई।

धर्मानंद समझौतापरस्त नहीं थे, अपने सत्य को बेहिचक कह देते थ। महाराज के मुंह पर ही उन्होंने अपने एक भाषण में अपने राज्य में शराब की दूकानों पर पाबंदी न लगाने की आलोचना कर डाली। महाराज साहब सभा के अध्यक्ष थे, वे खिन्न होकर अध्यक्षीय भाषण दिए बिना चले गए, पर तुरंत अपने राज्य में शराब की सारी दुकानें बंद करने का फरमान भी जारी कर दिया। सयाजी राव और धर्मानंद में स्नेह के संबंध आजीवन बने रहे। 1909 में धर्मानंद ने सिगालसुत्त का मराठी अनुवाद पूरा किया। इंडियन एंटीक्वेरी नामक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित शोधपत्रिका के लिए कुछ लेख पूरे किए।

गोवा छोड़ने के बाद 1906 तक धर्मानंद का यात्राओं का सिलसिला अनवरत चलता रहा। इसी वर्ष उज्जैन, देवास, इंदौर, नागपुर व मुंबई की यात्राएं कीं। यह सारी उठापटक बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिए थी। अमेरिका में प्रवास का अवसर मिला।

1910 में श्चेर्बास्की न्यायशास्त्र पढ़ने भारत आए थे, मुंबई में नित्यानंद स्वामी से अध्ययन करते थे। इन्हीं दिनों धर्मानंद का उनसे परिचय और संपर्क हुआ। श्चेर्बात्स्की ने धर्मानंद का स्मरण रखा और रशियन अकादेमी आफ सायंसेस की तरफ से धर्मानंद को रूस आने का न्योता भिजवाया 1912 में धर्मानंद अमेरिका के दूसरे प्रवास से लौटे और पूणे में फर्ग्युसन कालेज की नौकरी स्वीकार कर ली। फर्ग्युसन कालेज के अलावा अब वे न्यू इंग्लिश स्कूल में भी पालि पढ़ा रहे थे।

अमेरिका में रह कर मार्क्सवादी साहित्य का खूब अध्ययन किया, मार्क्स में उनकी रुचि और आस्था जागृत हुई। उन्हें बुद्ध के अपरिग्रह के दर्शन और साम्यवाद में समानता नजर आने लगी। पूणे आकर मई 1912 में उन्होंने वसंत व्याख्यानमाला के अंतर्गत मार्क्स पर व्याख्यान दिया। 

महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ को पता चला कि धर्मानंद 75 रुपये महीने पर फर्ग्युसन में नौकरी कर रहे हैं, तो मुंबई में भेंट होने पर उन्होंने लताड़ते हुए कहा – यह आपने क्या किया? नौकरी स्वीकार करने के पहले आपको मुझ से पूछना नहीं चाहिए था क्या? आप अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में नौकरी करके आए हो, आपकी 75 रुपये हर महीने कीमत लगा दी – क्या यह बात आपके योग्य है? (खुलासा, प्रकाश साप्ताहिक 4-5, 1937, सुक्थणकर द्वारा उद्धृत, मराठी से अनूदित)

बी.ए. औऱ एम.ए. की डिग्रियां न होने के बावजूद इतनी प्रतिष्ठित संस्था में धर्मानंद को प्राध्यापक रख लिया गया था। फर्ग्युसन में उनका मन रमा। खुलासा शीर्षक से प्रकाश मराठी साप्ताहिक में छपे अपने संस्मरणों में धर्मानंद बताते हैं कि यह संस्था उन्हें त्यागमूलक प्रवृत्ति का उत्कृष्ट नमूना लगती थी। आगरकर, गोखले, परांजपे, कर्वे आदि तपःपूत मनीषियों के अवदान का वर्णन पढ़ कर उनका मन धन्य धन्य कहने लगा। पर पगार सौ रुपया तय हुई थी, उसमें से पच्चीस रुपये काट कर पचहत्तर रुपया दिया जाता। इससे धर्मानंद का मन कट कर रह जाता।

फर्ग्युसन कालेज में चिंतामण विनायक राजवाडे, चिंतामण विनायक जोशी, परशुराम लक्ष्मण वैद्य, नारायण केशव भागवत और पी.वी., बापट उनके विद्यार्थी रहे, ये सभी भारतीय इतिहास, संस्कृत साहित्य और प्राच्यविद्या के अध्ययन में अपने बहुमूल्य योगदान के लिए जाने जाते हैं। इस बीच सारनाथ में भी धर्मानंद ने अध्यापन किया और वहां आनंद कौसल्यायन उनके छात्र रहे।

पूणे में दस रुपये महीने के भाड़े पर घर लिया था। अमेरिका में जिस घर में रह चुके थे, उसके मुकाबले यह घर संकीर्ण और गंदा लगता। धर्मानंद के कारण ही फर्ग्युसन कालेज में पालि का शिक्षण प्रारंभ हो सका था। उधर अमेरिका से तगादा बराबर आ रहा था कि आकर काम पूरा करें। अंततः दो साल की बिना पगार के छुट्टी ले कर वे 1918 में फिर अमेरिका चले गए। उनके प्रभाव से महाराज सयाजीराव ने पूणे में पालि पढ़ने वाले छात्रों के लिए चार छात्रवृत्तियां शुरू कीं।

इस बीच धर्मानंद महात्मा गांधी की नजरों में आ चुके थे। गांधी जी की इच्छा थी कि गुजरात विद्यापीठ के पुरातत्त्व मंदिर में या तो मुनि पुण्यविजय या धर्मानंद अध्यक्ष का पद स्वीकार कर लें। धर्मानंद ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। मुनि पुण्यविजय इस पद पर कार्य करते रहे। 1922 में गुजरात विद्यापीठ में वे आ गए, यहाँ के पुरातत्त्व मंदिर में कार्य करते हुए विद्यापीठ में पालि भाषा भी पढ़ाते रहे।

विद्यापीठ के तीन वर्ष के कार्यकाल में धर्मानंद ने गुजराती में सुत्तनिपात, भगवान बुद्ध ना पचास संवादो, बुद्धचरित, बुद्धलीला, बोधिचर्यावतार, धर्मचक्रप्रवर्तन, आपबीती आदि चौदह ग्रंथों की रचना की। इनमें से तीन को छोड़ कर शेष का प्रकाशन गुजरात विद्यापीठ द्वारा किया गया।

1916 में कृपलानी जी के माध्यम से गांधी से पहली भेंट हुई। 1930 में नमक सत्याग्रह में भाग लेने के लिए उन्हें जेल हुई। 1930-31 में अठारह महीने जेल में रहे।

1922 से वे गांधी के परम निष्ठावान अनुयायी बने रहे। उनके जीवनीकार सुक्थणकर बताते हैं कि मुंबई में विले पार्ले से शुरू होने वाले आंदोलन का नेतृत्व धर्मानंद ने किया।

प्राच्यविद्या के एक गंभीर अनुसंधाता के रूप में धर्मानंद का यश विद्वज्जगत में फैल चुका था और आजादी की लड़ाई में उनकी सक्रियता की भी चर्चा थी। 1929 में नेहरू लाहौर कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए, तो वे नेहरू से मिले, और उनके साथ समाजवाद के विषय में विचारों का आदान-प्रदान किया। धर्मानंद एक तीसरे मोर्चे पर भी सक्रिय थे- पाठ्यक्रमों में पालिभाषा औऱ बौद्ध धर्म तथा दर्शन का समावेश। भंडारकर से उनके अब फिर से बहुत अच्छे संबंध बन गए थे और भंडारकर इस समय मुंबई विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उनके सहयोग से धर्मानंद मुंबई विश्वविद्यालय में पालि और बौद्ध धर्म-दर्शन का सन्निवेश कराने में सफल हुए।

1926-27 में धर्मानंद चौथी बार अमेरिका प्रवास पर रहे। इस बार बेटी माणिक और बेटे दामोदर साथ थे। दामोदर का हार्वर्ड में दाखिला करवाया। दामोदर स्नातक कक्षा तक की पढ़ाई कर के 1929 में भारत लौट आए, माणिक धर्मानंद के साथ उसके चार साल बाद ही लौटीं। अमेरिका में रह कर घनघोर परिश्रम करते रहने से धर्मानंद को मधुमेह हो गया। अमेरिका के इस प्रवास में विसुद्धिमग्ग का संस्करण पूरा कर लिया।

अमेरिका में यह प्रवास संपन्न होने पर भारत आ कर पत्नी को तीर्थयात्रा कराने का मनोरथ पूरा किया। एक दो महीने तक उसके साथ तीर्थयात्रा पर रहे। रामेश्वरम, श्रीरंगम, जगन्नाथ पुरी, काशी, बुद्धगया, सारनाथ आदि स्थानों पर उसे ले गए। इन सभी स्थानों पर धर्मानंद की अपने पुराने मित्रों से भेंट भी हुई। इसी बीच लेनिनग्राद से निमंत्रण मिला। 1929 में धर्मानंद रूस गए।

धर्मानंद ने अपने मूल्यों और अपनी अकादमिक निष्ठा से समझौता कभी नहीं किया। 1925 में उन्होंने एक लेख छपवाया, जिसमें उन्होंने प्रमाणसहित यह स्थापित किया कि बुद्ध और महावीर दोनों मांसाहारी थे। इसके छपते ही जैन समाज बौखला उठा औऱ धर्मानंद की सार्वजनिक रूप से घोर निंदा की गई। धर्मानंद ने पलट कर उत्तर दिया कि जो उनसे असमहत हैं, वे तटस्थ विद्वानों की उपस्थिति में उनके साथ चर्चा करें, उनके पास जो संदर्भ हैं, उन पर विचार करें, यदि यह साबित होता है कि वे गलत थे, तो वे सार्वजनिक रूप से क्षमायाचना करेंगे। उनके इस आमंत्रण पर विरोधी चुप बैठ कर रह गए। 

धर्मानंद की संतानों में बड़ी बेटी माणिक के जन्म के बाद 1907 में दामोदर का जन्म हुआ, उनके बाद दो बेटियां और हुईं 1910 में मनोरमा और 1918 में कमला। माणिक और दामोदर को वे अमेरिका में साथ ले गए थे, इनकी शिक्षा की व्यवस्था वहां की। मीरा कोसंबी बताती हैं कि अपनी इन दोनों संतानों के प्रति धर्मानंद के मन में कुछ अधिक ममता भी बाद तक बनी रही – विशेष रूप से अपने बेटे दामोदर के प्रति, जो डी.डी. कोसंबी के नाम से विख्यात हुए। दोनों बाप बेटे में बहुत सी बातें समान थीं, मार्क्स और बुद्ध के दर्शन के प्रति रुझान, गांधी जी के प्रति श्रद्धा तथा संस्कृत का स्वाध्याय। दामोदर जब हार्वर्ड में स्नातक का पाठ्यक्रम कर रहे थे, तो उनके कमरे में सज्जा के नाम पर केवल गांधी जी की तस्वीर लगी रहती थी।

1914 में उनकी बुद्ध के विषय में दूसरी पुस्तक बुद्धलीलासारसंग्रह प्रकाशित हुई। इस किताब में तीन खंडों में बुद्ध तथा बोधिसत्त्व के जीवनचरित हैं। रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने इसकी भूमिका लिखी है। 1917 से 1925 के बीच उनके चार ग्रंथ प्रकाशित हुए बुद्धपाठि, निवेदन, जातक कथा भाग एक तथा समाधिमार्ग। मराठी में निवेदन और गुजराती में आपबीती -ये दो पुस्तकें धर्मानंद के आत्मोत्सर्ग और जीवनसंघर्ष के दस्तावेज हैं। किशोरीलाल मशरूवाला ने अपने एक मित्र को लिखे पत्र में इनके संबंध में लिखा- उनकी आपबीती (गुजराती) आपने पढ़ी है या नहीं? बहुत पढ़ने योग्य है। सत्यधर्म की खोज के लिए पुरुषार्थी मुमुक्षु क्या क्या करेगा और कितने कष्ट उठाएगा – इसकी इसमें तवारीख है। और बाद में जो उन्होंने प्राप्त किया, उसे जगत में वितरण करने के लिए भी उन्होंने जीवन थक जाए तब तक परिश्रम किया। बहुत बड़े भंडार में से अच्छे अच्छे मोती चुन कर उन्होंने हमें दिखा दिए हैं। वे बड़े संत पुरुष हैं। यह भाषालंकार नहीं, सच बात है। (सुक्थणकर द्वारा मराठी जीवनी में उद्धृत)।

बुद्ध, धम्म एंड संघ (1910), बुद्धलीलासार संग्रह (1914), हिंदी संस्कृति एंड अहिंसा, बोधिसत्त्व नाटक (1940), भगवान् बुद्ध (1940) – इन मौलिक पुस्तकों के अलावा धर्मानंदप्रणीत विशाल वाङ्मय संपादित ग्रंथों के रूप में है। सुत्तनिपात, विसुद्धिमग्ग, विसुद्धिमग्गटीका, अभिधम्मकथासंग्रह, सनातनपसादिकाबहिर्निदावण्णना आदि उनके द्वारा संपादित ग्रंथ हैं।

‘निवेदन’ भारत मराठी पाक्षिक में धारावाहिक रूप से 1912 से 1916 के बीच छपा। खुलासा में 11 प्रकरणों में धर्मानंद ने 18 सितंबर 1938 तक की अपनी जीवनयात्रा के सारे पड़ावों का वर्णन किया है।

1926 में अमेरिका जाने के पूर्व धर्मानंद का बौद्धसंघाचा परिचय नामक ग्रंथ प्रकाशित हुआ। बुद्धकालीन समाज के आचारविचार को समझने के लिए यह महत्वपूर्ण है। बुद्ध की 2500 वें परिनिर्वाण जयंती के उपलक्ष में भगवान बुद्ध शीर्षक से ग्रंथ धर्मानंद ने लिखा, जिसकी कई आवृत्तियां हुईं। प्रकाशन के क्रम में यह उनका दसवां ग्रंथ है। यह पुस्तक साहित्य अकादमी ने प्रकाशित की थी। यह इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक है। साहित्य अकादमी ने इसका तेरह भाषाओं में अनुवाद भी कराया। धर्मानंद के शिष्य भदंत आनंद कौसल्यायन ने इसका सिंहली में अनुवाद किया।

पार्श्वनाथाचा चातुर्याम धर्म तथा बोधिसत्त्व नाटक – उनकी ये दो कृतियां उनके महाप्रयाण के पश्चात 1949 में धर्मानंद स्मारक ट्रस्ट ने प्रकाशित कीं। पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह के चतुर्याम धर्म में उनका प्रबल विश्वास था। पार्श्वनाथाचा चतुर्याम धर्म में उन्होंने पार्श्वनाथ के अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह के सिद्धांतों की गांधी के जीवन दर्शन के आलोक में पुनर्मीमांसा की। उनके साथ विनोबा के साम्ययोग का भी समन्वय करते हुए आध्यात्मिक मानववाद का सूत्र दिया, जिसमें उन्होंने मार्क्स के समाजवाद का भी आधार स्वीकार किया।

 

उनकी केवल तीन पुस्तकों के हिंदी में अनुवाद प्रकाशित होने का पता चलता है – भगवान बुद्ध (अनु. श्रीपाद जोशी), पार्श्वनाथ का चतुर्याम धर्म (अनु. वही) तथा भारतीय संस्कृति और अहिंसा (अनु. विश्वनाथ दामोदर)।

गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन से जुड़ने के बाद धर्मानंद अधिक से अधिक समाजसेवा और लोकहित के कार्यों में मन लगा रहे थे। अमेरिका के चार प्रवासों ने उनके भीतर वैचारिक उथलपुथल ला दी थी। कामगारों को अधिक से अधिक संगठित किया जाए -इस दिशा में वे आगे बढ़ रहे थे और समाजवादी चिंतन की ओर उनका झुकाव भी बढ़ रहा था। इस संबंध में सुधारक और सुबोधपत्रिका मराठी के इन दो पत्रों में वे बराबर लेख लिख रहे थे।

महाप्रस्थान

धर्मानंद जीवन भर कहीं टिक कर नहीं रह सके, पत्नी और बाकी संतानों के साथ वे कुछ समय टिकते, फिर यात्रा पर निकल पड़ते। कहीं न टिक पाने का एक कारण यह भी रहा कि धर्मानंद ने अपने निवास के लिए कोई मकान नहीं बनवाया, गांव में जो पैतृक निवास था, उसकी मिल्कियत भी वे अपने भाई के नाम कर चुके थे। मकान न बनवाने के पीछे अपरिग्रह का उनका आदर्श था। 1940 में उन्होंने बर्मा की चौथी और अंतिम यात्रा की।

धर्मानंद का मन था कि गोवा में अपने गांव में लड़कियों का एक विद्यालय खोलें, वे इसके लिए होने वाले खर्च का आधा हिस्सा देने को तैयार थे, पर समुचित व्यवस्था न हो पाने से उनकी इच्छा अधूरी रह गई। उनकी एक और इच्छा थी- एक बौद्धविहार बनवाने की। यह विहार उन्होंने मुंबई में परेल के उस इलाके में बनवाया, जहां मिलें थीं और मजदूरों की आवाजाही खूब थी। मजदूर वर्ग को आकर्षित करने के लिए विहार का नाम बहुजन विहार रखा गया।

पार्श्वनाथाचा चातुर्याम धर्म के प्रणयन के दौरान धर्मानंद जैन परंपरा में प्रतिपादित सल्लेखना की परंपरा को लेकर ऊहापोह कर रहे थे। उनका यह विचार पक्का होता जा रहा था कि रोगों से काया जर्जर हो जाए, और मृत्यु सामने आती दिखे, तो उसके स्वागत के लिए मनुष्य को आमरण उपवास अपना लेना चाहिए। इससे चिकित्सा पर होने वाला निरर्थक व्यय बचाया जा सकेगा।

धर्मानंद ने अहमदाबाद में वर्नाकुलर सोसायटी में पालि के मानद आचार्य का पद इस आशा से स्वीकार किया कि गुजरात इनके इच्छामरण के लिए अनुकूल रहेगा। इसके साथ वे चाहते थे कि उनका यह उपक्रम किसी भी तरह की सार्वजनिक चर्चा का विषय न बने।

धर्मानंद बुद्ध पर निरतंर लेखन, मनन और चिंतन तो करते आ ही रहे थे, अपने आचरण और अनुभूति में बुद्धमय भी होते जा रहे थे। उनके जीवनीकार सुक्थणकर ने उन्हें आधुनिक बुद्धघोष कहा है।

जीवन संघर्ष की जटिलताओं ने उनको अकाल प्रौढ़ बना दिया था। योगाभ्यास वे सदैव करते रहे। तेरह चौदह वर्ष की आयु से ही धर्मानंद को छाती में दर्द की शिकायत रहती थी। अतिसार और पेचिश की बीमारियों ने जीवन भर उनका पिंड न छोड़ा। मधुमेह ने भी उन्हें जकड़ लिया। इसके बाद खाज की बीमारी जो लगी, तो धीरे-धीरे असह्य होती चली गई। युक्ताहार विहार और योगसाधना के द्वारा धर्मानंद इन बीमारियों को पछाड़ते भी रहे, उनसे पस्त भी होते रहे।

घर में जो पढ़ने आता, उसे निःस्वार्थभाव से पढ़ाते रहते। लघुसिद्धांतकौमुदी से लेकर त्रिपिटक ग्रंथों तक का उनसे अध्ययन करने के लिए देश-विदेश के छात्र छात्राएं उनके पास आते।

शारीरिक पीड़ा बढ़ती जा रही थी। 1947 के साल में धर्मानंद ने अपना कर्तव्य निर्धारित कर लिया। इस बीच वे पुणे से मुंबई, बैंगलोर, साबरमती की यात्राएं करते रहे, काशी विद्यापीठ में आने के लिए आचार्य नरेंद्रदेव तथा श्रीप्रकाश जी उनसे आग्रह करते आ रहे थे। धर्मानंद ने अहमदाबाद की वर्नाकुलर सोसायटी की आनरेरी प्रोफेसरशिप स्वीकार कर ली थी। संस्कृत, प्राकृत आदि के अध्ययन-अनुसंधान के लिए व्यवस्था करनी थी। उन्होंने सल्लेखना के लिए मन बना लिया था, उसके लिए गुजरात उन्हें अनुकूल लग रहा था। काका साहेब कालेलकर उनके इस निश्चय को आत्महत्या बता कर उन्हें इसके लिए हतोत्साहित करने का प्रयास कर रहे थे। इस बीच धर्मानंद अपने एक निबंध में पार्श्वनाथ के जीवन का हवाला देकर व्यक्ति-स्वातंत्र्य के सिद्धांत का समर्थन करते हुए यह बात लिख चुके थे कि किसी असाध्य रोग से पीड़ित होने पर कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपना शरीर त्याग देना चाहे, तो उसे इसका अधिकार होना चाहिए। वे अपने इस मंतव्य का उदाहरण भी स्वयं प्रस्तुत करना चाहते थे। 1946 में उन्होंने मरणांतक सल्लेखना व्रत धारण किया, पर इसे परिणति तक नहीं ले जा सके। गोपनीय रखने का प्रयास करने पर भी गुजरात विद्यापीठ तथा साबरमती आश्रम के कार्यकर्ताओं तक यह बात पहुंच गई। गुजरात विद्यापीठ के मशरूवाला उनसे व्रत छोड़ने का आग्रह करने लगे, दूसरी ओर महात्मा गांधी ने उनके लिए इस प्रयास को रोक लेने का अनुरोध करते हुए तार भिजवाया। यह भी आग्रह किया कि वे सेवाग्राम जा कर रहें। महात्मा जी की आज्ञा को टालना धर्मानंद के लिए संभव न था।

बड़ी बेटी माणिक अपने घर-बार में रम गई थी, बेटे दामोदर (डी.डी. कोसंबी) अकादमिक जगत में प्रतिष्ठित हो चुके थे। धर्मानंद ने पत्नी को समझाबुझा कर बेटी के पास बेंगलोर भेज दिया और सेवाग्राम आ गए। सेवाग्राम जाते हुए एक दिन वर्धा में रुके थे। वर्धा में ठहरने की व्यवस्था कमलनयन बजाज ने की। बजाज जी ने इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि उन्होंने बापू की बात मान कर सल्लेखना का विचार छोड़ दिया है। इस पर धर्मानंद ने उनसे कहा- बापू का आदेश है। उपवास तो मैंने तोड़ दिया, परंतु इस शरीर में अब कुछ रहा नहीं है। पानी भी मुझको मुश्किल से पचता है। ऐसी परिस्थिति में देह को टिकाने के प्रयत्न में लोगों की सेवाओं का भार और अधिक शारीरिक यातना के अलावा विशेष लाभ नहीं होता है। फिर भी बापू का आदेश तो है न? मेरे लिए उतना ही सर्वस्व है और वही काफी। (सुक्थणकर द्वारा उद्धृत, पृ. 346)।

गांधी जी ने धर्मानंद सेवाग्राम जा कर रहने का आग्रह इसलिए किया था कि वहां आश्रम के लोग उनकी यथोचित सेवा करेंगे, उनका प्रायोपवेश का निश्चय टूट जाएगा। धर्मानंद यहां के लोगों के सेवाभाव और प्रेम से अभिभूत भी थे, और अपने निश्चय पर अटल भी। गांधी जी को उनके स्वास्थ्य की चिंता थी, और आश्रम के व्यवस्थापक बलवंत सिंह जी के पत्रों के द्वारा वे धर्मानंद के स्वास्थ्य के समाचार प्राप्त करते रहते थे।

सरस्वती मासिक में प्रकाशित अपने लेख में कमलनयन बजाज ने धर्मानंद से वर्धा और उसके बाद सेवाग्राम में हुई भेंट तथा वार्तालाप का कारुणिक वर्णन किया है। कमलनयन जी के बहुत समझाने बुझाने के बाद धर्मानंद ने उनसे कहा- मुझे मालूम है कि मेरे शरीर में कुछ रहा नहीं। बापू की सलाह से मैं यहां आया। आप सब लोगों का प्रेमभाजन और कृपापात्र मैं हूँ। फिर भी आश्रमवासियों की कहां तक सेवा का भार मैं उठाऊं? इसका विचार मुझको कष्ट देता है। (वही, पृ. 347) कमलनयन भावुक होकर उनसे सल्लेखना का विचार छोड़ देने का आग्रह करते रहे। धर्मानंद ने अंत में कहा- मैं नहीं चाहता कि कोई आश्रमवासी या तुम्हारे जैसा मित्र समझे कि धर्मानंद तो हठी था और हठ से मर गया। आप सब लोगों के बीच आकर सबका समाधान करा कर मुझे कुछ करना है, करूंगा। अन्यथा मेरी तपस्या में भी कुछ कमी है, ऐसा मैं समझूंगा।

धर्मानंद विनोबा, काका कालेलकर तथा अन्य आश्रमवासियों से बराबर सलाह मशविरा करते रहे और उन्हें अपने निश्चय का भरोसा दिलाते रहे।

वर्धा के सिविल सर्जन नर्मदाप्रसाद के सारे इलाज के बावजूद धर्मानंद की खाज की बीमारी कम नहीं हो रही थी। अंत में विनोबा के परामर्श से उन्होंने आमरण अनशन आरंभ कर दिया और गांधी जी ने भी उनके निश्चय को मान्यता दे दी।

आश्रमवासियों को स्पष्टीकरण देते हुए उन्होंने कहा- बापू जी ने मेरे ऊपर दया करने के लिए, मुझे उपवास से निवृत्त कराने के लिए तार दिया था। मैंने उनकी प्रेरणा से 23 सितंबर को अनशन छोड़ दिया और तब से आज तक काफी दुख पाया और अंत में फिर वही अनशन करना पड़ा। लेकिन इसमें बापू का तनिक भी दोष नहीं है, क्योंकि बापू जी ने यह सब दयाभाव से ही किया था। इसमें मुझे जरा भी दुख नहीं है, क्योंकि भगवान बुद्ध ने कहा है कि -खंती परमतपो तितिक्शा (तितिक्षारूपी क्षमा ही परम तप है।)

बापू जी की कृपा से मुझे तितिक्षा का अवसर मिला। इसमें मेरी कसौटी हो गई। मुझे जो खुजली आती है, उसे सहन करने में आनंद मानता हूँ। यह सब बापू जी की कृपा है। मेरी इस प्रकार की मृत्यु से बापू जी को आनंद मानना चाहिए, क्योंकि उनका एक भक्त इस कसौटी में से गुजर रहा है और शांतिपूर्वक प्रयत्न कर रहा है। अंत के क्षण तक क्या होगा- यह तो भगवान ही जाने। (सुक्थणकर द्वारा उद्धृत, पृ. 349)

बलवंत सिंह से धर्मानंद के विषय में समाचार पा कर बापू ने उन्हें उत्तर देते हुए धर्मानंद के लिए लिखा – ‘उनके आश्रम में रहने से आश्रम पवित्र होता है, इसमें मुझे कोई शक नहीं है।’ धर्मानंद के लिये अलग से भी पत्र उन्होंने साथ में भेजा।

चार मई 1947 से धर्मानंद ने आहार बिलकुल बंद कर दिया था। गांधी जी को सारी परिस्थिति की सूचना बराबर दी जाती रही थी। गांधी ने लिखा- कोसंबी जी कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकते हैं, तो भले पानी पर रहें। पानी न पी सकें, तो भले देह जाए। भीतरी शांति है, तो सब कुछ है। फिर भी जैसे विनोबा कहें, सो करो।

बलवंत सिंह इन दिनों बराबर उनके साथ रहे। धर्मानंद की स्थिति का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं- अपनी मृत्यु का दर्शन वे स्पष्ट रूप से वैसे ही कर रहे थे, जैसे कोई सामने खड़े हुए आदमी को देख सकता है।

आमरण अनशन के समय धर्मानंद अपनी साधना निरंतर करते रहे। साधना के समय के अनुभवों का वर्णन वे कभी कभी बलवंत सिंह के सामने करते। एक दिन उन्होंने कहा- आज जो इतनी शांति का अनुभव कर रहा हूँ, वह उस साधना का ही फल है। मनुष्य की परीक्षा मृत्यु के ही समय होती है। अगर उसकी कुछ भी साधना सफल होगी, तो उस समय उसके अवश्य ही काम आएगी और वह शांति का अनुभव करते करते शरीर छोड़ेगा।

बुद्ध के द्वारा प्रतिपादित आनापान साधना से धर्मानंद अपने शारीरिक कष्ट के अनुभव से  उबरने का यत्न करते रहे। इसमें सफलता भी मिली।

वे अपनी इच्छा बता चुके थे कि उनके अंतिम संस्कार में कम से कम खर्च किया जाए, तथा उनके शव को नए कपड़े से न ढका जाए, पुराने कपड़े का उपयोग किया जाए। यदि चिता पर जलाने में अधिक खर्चा हो, और दफनाने में कम, तो दफन किया जाए, पर यह सब महात्मा जी की सलाह से किया जाए।

कमलनयन बजाज बहुत आग्रह से धर्मानंद के मना करते रहने के बाववूद उन्हें एक हजार रुपया भेंट कर के गए थे। धर्मानंद ने इच्छा प्रकट की कि इस राशि का उपयोग श्रीलंका में पालि भाषा के अध्ययन अध्यापन के निमित्त किया जाए, या फिर महात्मा जी जैसा कहें वैसा किया जाए। गांधी जी को इन सारी स्थितियों से पत्र द्वारा अवगत कराया गया। गांधी जी ने बीस मई 1947 के अपने पत्र में बलवंत सिंह को लिखा-

कोसंबी जी आखिरकार निर्णय हम पर छोड़ते हैं, तो अग्निसंस्कार ही सबसे अच्छी क्रिया है। ….उसमें खर्च भी ज्यादा नहीं है, न होना चाहिए। दफन करने में भी शास्त्रीय तरीके से करें, तो काफी खर्च आता है। ….मेरी उनसे प्रार्थना है कि अब ऐसी बातों को भूल जाएं, और ध्यान लगा कर देह छूटना है, तो छूटे, रहना है, तो रहे। लेकिन बौद्ध धर्म सीखने का क्षेत्र लंका है- ऐसा मेरा दिल नहीं मानता। बौद्ध धर्म की ऊपरी बात जानने से रहस्य का ज्ञान होता नहीं है।

25 मई 1947 को धर्मानंद ने महात्मा जी को लंबा पत्र इसके उत्तर में भिजवाया था और उनके विचारों से सहमति प्रकट की थी।

24 जून, 1947 के दिन धर्मानंद  ने निर्वाण प्राप्त किया। उनके अंतिम दिन का वर्णन करते हुए बलवंत सिंह ने लिखा है- दो बजे थोड़ा सा पानी लिया, और मकान के सब दरवाजे खोलने के लिए कहा, मानो उनको ऐसा प्रतीत हो रहा हो कि कोई उनको लेने के लिए आया है, अथवा उनके जाने के लिए दरवाजे खोल देने चाहिए। इस प्रकार वे कभी दरवाजे नहीं खुलवाते थे। धीरे-धीरे शरीर शिथिल होता गया और ढाई बजे वे शांत हो गए। उनका अंत का सांस निकलने और सावधानी से बात करने के बीच में बेहोशी का अंतर दस मिनिट से ज्यादा नहीं रहा। …जितना भव्य कोसंबी जी का जीवन था, उतनी ही भव्य उनकी मृत्यु हुई।

आगे वे लिखते हैं- आश्रम के 11 साल के जीवन में कोसंबी जी की मृत्यु पहली मृत्यु थी। ऐसी आदर्श मृत्यु मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखी। वे रात को अपने पास सोने को मुझ से कभी नहीं कहते थे। लेकिन मृत्यु की पहली रात को मुझ से कहे लगे- ‘आज तुम मेरे पास ही सोओ। रात को बारह बजे जब चंद्र सिर पर आएगा, तब मेरी मृत्यु होना संभव है।’

24 जून 1947 के दिन धर्मानंद ने महासमाधि ली। सुक्थणकर लिखते हैं कि उनका शरीर हड्डियों का ढांचा भर रह गया था, पर उनके मुख पर एक अनोखी प्रसन्नता और मुस्कान थी। सेवाग्राम में एक पेड़ के नीचे उनका पार्थिव संस्कार किया गया।

उनकी अंतिम यात्रा में विनोबा, बलवंत सिंह जी, काका साहेब कालेलकर तथा आश्रम के अनेक लोग उपस्थित हुए।

मनुष्यों में बिरला ऐसा होता है जो अपनी मृत्यु को सामने आती देख कर हँस-हँस कर उसका स्वागत करता है, उसे गले लगाने के लिए तत्पर होता है। गांधी ऐसे ही मनुष्य थे। धर्मानंद ने आदर्श मृत्यु के उनके आदर्श को उनसे पहले ही चरितार्थ कर दिया। धर्मानंद कोसंबी की मृत्यु की तुलना हमारे इतिहास में या तो बुद्ध के महानिर्वाण से की जा सकती है, जिद्दू कृष्णमूर्ति के देहविसर्जन से या गांधी के अवसान से।

जिद्दू कृष्णमूर्ति की जीवनीकार पुल जयकर का कहना है कि उनकी मृत्यु अपने आप में विश्व के लिए एक संदेश है। धर्मानंद बुद्ध, जिद्दू कृष्णमूर्ति और गांधी की तरह मृत्यु को एक बलिदान बना देते हैं।

धर्मानंद कोसंबी और राहुल सांकृत्यायन अपनी जीवन यात्रा के अंतिम पड़ाव पर दो अलग ध्रुवों पर स्थित लगते हैं। राहुल जी की परिस्थितियां ऐसी रहीं कि वे मृत्यु का स्वागत करने के लिए न तो तत्पर हो सकते थे, न तैयारी कर सकते थे। धर्मानंद कोसंबी ने मृत्यु की अगवानी की, मृत्यु के आगमन को जीवन का एक अनुष्ठान बना दिया।

संदर्भ ग्रंथ-

1 धर्मानंद – आचार्य धर्मानंद कोसंबी यांचे आत्म चरित्र आणि चरित्र, ज.स. सुक्थणकर, प्र. उषा वाघ, सुगावा प्रकाशन, पुणे, द्वितीय सं. 2016 (धर्मानंद की मराठी आत्मकथा इक्थ्के पहले खंड में भी प्रकाशित है।)

2 धर्मानंद कोसंबी – दि एसेंशियल राइटिंग्स- सं. मीरा कोसंबी, परमानेंट ब्लॉक, रानीखेत, 2010

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