प्रस्तुति : संजय जायसवाल

कवि और समीक्षक। विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में सहायक प्रोफेसर।

 

फणीश्वरनाथ रेणु आंचलिक उपन्यास और नई कहानी दौर के विशिष्ट कथाकार हैं। वे हिंदी के पहले कहानीकार हैं, जो ग्रामीण क्षेत्रों में विज्ञान और टेक्नोलॉजी के प्रवेश का चित्र खींचते हैं। वे आधुनिकताबोध और तकनीक को सामाजिक पिछड़ेपन से मुक्ति का माध्यम बनाते हैं। यह एक यथार्थ है कि जब अति पिछड़े क्षेत्र में विज्ञान और टेक्नोलॉजी का प्रवेश होता है, तब उन क्षेत्रों में पुराने विश्वासों के कारण विरोध होता है। रेणु इस सामाजिक जड़ता, अज्ञानता तथा सामंती मानसिकता को चिह्नित कर लेते हैं। रेणु अपनी कहानियों में नए यथार्थ को प्राथमिकता देते हुए परंपरागत पिछड़ेपन के चिह्नों का विरोध करते हैं। उन्होंने ‘ठुमरी’, ‘अगिनखोर’, ‘रसप्रिया’, आदिम रात्रि की महक’, ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’, ‘पहलवान की ढोलक’ आदि कहानियों में समकालीन यथार्थ को एक कलात्मक ऊँचाई प्रदान की है। उन्होंने ग्रामीण जीवन की भाषा, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार और जीवन-अनुभवों को नए शिल्प से जोड़कर संवेदनात्मक विस्तार ही नहीं दिया, विवेकपरकता का भी महत्व स्थापित किया।

रेणु ने भारतीय समाज को तीन सरणियों में रखकर देखा है- ग्राम समाज, नागरिक समाज और राजनीतिक समाज। उनकी रुचि राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर जो मानवीय है, सुंदर है लोकतांत्रिक है, उसके प्रति है। वे हिंदी के एक ‘एक्टिविस्ट लेखक’ के तौर पर भी उभरते हैं। जिस तरह प्रेमचंद के यहां भारत के आमजन को लेकर गहरी संवेदना है, वैसी ही रेणु के यहां भी है।

एक बार कथाकार सुवास कुमार रेणु से मिलने उनके गांव जाते हैं। बातचीत के दौरान रेणु कहते हैं- ‘धान की इतनी अच्छी फसल, जितनी अच्छी इस साल है, हो तो खेती करने में कविता करने का आनंद है। खेती और कविता में जरा भी फर्क नहीं लगता। मेरे विचार से तो अभी एक बीघा खेत में खेती कर लेना पांच लेख और पांच कहानियाँ लिखने से ज्यादा फायदेमंद है।’ (रेणु रचनावली, भाग 4)। यह माटी से जुड़े होने का बयान है। यह प्रतिबद्धता है। किसान जीवन के सुख-दुख से जुड़ा। उनके ऐसे विचारों से लगता है कि प्रेमचंद की तरह रेणु का आनंद जन जीवन के आनंद से जुड़ा है।

रेणु वर्तमान यथार्थ के साथ जातीय स्मृतियों और परंपराओं का संस्कार लेकर चलते हैं। वे प्रेमचंद की तरह सांप्रदायिक सद्भाव बचाकर रखना चाहते हैं। आज के नेता सत्ता के लोभ में नैतिक रूप से विपन्न हैं। इसलिए पूंजी के बल पर धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के आधार पर लोगों को बांटने के अलावा सत्ता तक पहुंचने का रास्ता उन्हें नहीं मिलता।

रेणु की किसानों के प्रति अंतरंगता उन्हें बड़े मनवाले एक्टिविस्ट लेखक के रूप में परिपक्वता प्रदान करती है। रेणु अपनी जीवन यात्रा में गांवों के न जाने कितने नर-नारियों से मिलते हैं। उनसे मिली सहृदयता और प्रेम से वह खुद को समृद्ध करते हैं। इस यात्रा में कई बार उन्हें स्वार्थी, लोभी, पतित लोग भी मिलते हैं। आज कृषकों का जीवन और संघर्ष फिर एजेंडे पर है। वैश्वीकरण के दौर में उनका जीवन नई चुनौतियों के सामने है। ऐसी स्थिति में रेणु पर चर्चा का एक खास महत्व है। यह चर्चा हमारी राष्ट्रीय भावना को भय और घृणा से मुक्त करने की दिशा की ओर ले जाती है। रेणु ने अपने जीवन में स्वतंत्रता को देश की जनता के मुक्ति-आख्यान के रूप में रचना चाहा था। वह चुनौती एक बार फिर हमारे सामने है।

रेणु की सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता जीवन के अंतिम दिनों तक बनी हुई थी। वे बीमारी की हालत में भी देश की दशा से चिंतित थे। वे आपातकाल के नाम पर सरकार द्वारा दबाई जा रही गरीबी और भुखमरी की आवाज को बर्बर और अलोकतांत्रिक मानते थे। आज कितने लेखक हैं जो लेखन और सामाजिक जीवन में रेणु की तरह सक्रिय हैं और खुलकर सवाल पूछ सकते हैं? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो राष्ट्रीय निर्माण की असमाप्त परियोजना के साथ खड़े हैं। रेणु सच में ऐसे मनई और निडर लेखक थे जिन्होंने पूरा जीवन ‘सबार ऊपरे मानुष सत्य’ को अपना मार्ग बनाया था।

‘वागर्थ’ के इस अंक में उन पर परिचर्चा में भाग ले रहे हैं – भारत यायावर, रविभूषण, अवधेश प्रधान, भगवानदास मोरवाल, अजय तिवारी, ओमप्रकाश पांडेय।

इस परिचर्चा में विष्णु नागर ने स्वतंत्र रूप से अपने विचार भेजे हैं। आभार।

सवाल :

 (1) नई कहानी आंदोलन और ‘नया यथार्थ‘ के दौर में रेणु के कथा-साहित्य की विशिष्टता को आप कैसे रेखांकित करेंगे, और कौन-सी चीजें आज ज्यादा अर्थपूर्ण हैं?

(2) रेणु ने ‘मैला आँचल’ में जातिवाद के संकट को किस तरह रेखांकित किया? क्या इस उपन्यास को सभ्यतागत ट्रेजेडी के आख्यान के रूप में देखा जा सकता है?

(3) रेणु की कहानियों के लालित्यपूर्ण संवेदना के बारे में आपके क्या विचार हैं?

(4) रेणु के सामाजिक सक्रियतावाद को आप कैसे देखते हैं? लेखकों के बीच ऐसी सक्रियता का नए युग में क्यों क्षरण होता गया?

 (5) क्या स्थानीयता-विमर्श के समकालीन उपन्यास रेणु की परंपरा के विकास हैं?

भारत यायावर

निबंधकार और कवि। महावीर प्रसाद द्विवेदी और फणीश्वरनाथ रेणु की रचनावलियों का संपादन।

शब्दों से खेलना और अनोखे अंदाज में प्रस्तुत करना कोई रेणु से सीखे

(1) 1951 में प्रकाशित ‘दूसरा सप्तक’ की भूमिका में अज्ञेय ने उस दौर की कविता को प्रयोगवादी न कह कर नई कविता कहने पर जोर दिया था और आलोचकों ने छठे दशक की कविता को ‘नई कविता’ नाम से अभिहित कर दिया। उसी तर्ज पर हिंदी कहानी के तीन स्तंभ मोहन राकेश, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर ने ‘नई कहानी’ आंदोलन का नारा दिया। इस तथाकथित नई कहानी की कुंडली बनाने का काम आलोचकों में नामवर सिंह ने किया, जिनकी पुस्तक ‘कहानी : नई कहानी’ इसका दस्तावेज है। तब फणीश्वरनाथ रेणु अपने ही ढंग की कहानियाँ लिख रहे थे, लेकिन उनकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया। उनकी ओर पूरे हिंदी साहित्य का ध्यान तब गया जब उनके दोनों प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आँचल’ और ‘परती-परिकथा’ छठे दशक की सबसे बड़ी रचनात्मक उपलब्धियों के रूप में सामने आईं। इन दोनों उपन्यासों के अंतराल में रेणु की एक ही कहानी ‘रसप्रिया’ ‘निकष’ पत्रिका में 1955 में छपी। ‘परती-परिकथा’ (1957) के लेखन के बाद रेणु ने आठ कहानियाँ लिखीं, जो 1958 की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपीं। ‘लालपान की बेगम’ कहानी पत्रिका में, ‘सिरपंचमी का सगुन’ कल्पना पत्रिका में, ‘तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम’ अपरंपरा में, ‘पंचलाइट’ सुप्रभात में और ‘ठेस’ नामक कहानी ‘कृति’ पत्रिका में छपी। इन छह कहानियों के साथ तीन अन्य कहानियों को मिलाकर उनका पहला कहानी-संग्रह ‘ठुमरी’ 1959 में राजकमल प्रकाशन से छपा। लेकिन रेणु की कहानियों को उस दौर में घनघोर उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। इसका कारण था आलोचकों के बने-बनाए सांचे में वे फिट नहीं होती थीं। साठ के बाद तो ‘नई कहानी’ की मृत्यु की घोषणा कर दी गई और कहानी और कविता में तरह-तरह के वाद और आंदोलन चलाए गए। लेकिन रेणु इन आंदोलनों से परे रह कर कहानियाँ लिखते रहे। उनकी कहानियों पर विधिवत चर्चा कभी नहीं हो पाई।

लेकिन रेणु की कहानियां बनी-बनाई परिपाटी से हट कर कुछ नए जीवन यथार्थ को अपनी तरह से उठा रही थीं। हर कहानी में जीवन के नए संदर्भ थे। उनकी कहानियाँ ऐसे बेजुबान, बेसहारे, असहनीय पीड़ा में जीते मनुष्यों की भाव-संवेदना को उजागर कर रही थीं, जिनकी ओर अधिकांश लेखक देख नहीं पा रहे थे।

रेणु को पसंद करनेवाले बहुतायत में थे, किंतु उनकी चर्चा धीमी आवाज में की जाती थी। इस तरह उनकी कहानियों पर उपेक्षा का भाव बना रहा। कुछ लोगों ने तो निर्मल वर्मा की कहानियों की भाव-संवेदना के साथ उन्हें बैठाने का कार्य किया। अब देखें कि अस्तित्ववाद का प्रभाव नई कहानी के हर पैरोकार कथाकार में है और ‘परिंदे’ का अकेलापन रेणु की किसी कहानी से मेल खाता है? रेणु लोकधर्मी कथाकार थे। जन-संवेदना से आबद्ध इस लेख में कोई ऐसी विशेषता नहीं थी जो किसी आंदोलन में समाहित हो सके, इसीलिए साहित्यिक समाज में उनके मूल्यांकन का काम ठीक से नहीं हो पाया। लेकिन वाद की कथा-पीढ़ी ने प्रेमचंद के बाद रेणु को ही सबसे अधिक अपना रोल-मॉडल बनाया, इससे उनकी प्रासंगिकता बनी रही।

रेणु की कहानियाँ अपने समकालीन कथाकारों की कहानियों से शिल्प-संरचना के स्तर पर ही बिलकुल अलग तरह की नहीं हैं, अपितु विषय-वस्तु के स्तर पर भी नए आस्वाद की हैं। संवेदन के स्तर पर तो वे आज के मानस को भी प्रभावित करती हैं। उनमें कला और साहित्य के अनेक रूप-बंधों के अनुपम प्रयोग हैं।

(2) ‘मैला आँचल’ समाज की अनेक समस्याओं को उठाता है, जिसमें जातिवाद भी एक है। ग्रामीण समाज में जातिवादी चेतना ने जिस विषाक्त वातावरण का निर्माण किया है, रेणु उसे निरंतर तोड़ने की कोशिश करते हैं। उसके लिए वे एक ऐसे केंद्रीय पात्र की संरचना करते हैं, जिसकी कोई जाति नहीं है। डॉ. प्रशांत के कथन में रेणु का रचनाकार मन ही बोलता है। रेणु यह भी बताते हैं कि नारी-पुरुष संबंध में या प्रेम-संबंध में यह जातिवादी अवधारणा सबसे पहले टूटती है? ‘मैला आँचल’ में एक गीत रेणु के स्वयं का बनाया हुआ है- ‘अरे ओ बुड़बक बभना, चुम्मा लेवे में जात नहीं जाय रे!’ बिलकुल, चुम्मा लेने में जाति का लोप हो जाता है। लेकिन फिर वही जातिवाद सिर उठाकर नाग की तरह फुँफकारता है। बालदेव और कालीचरण यादव हैं। बिहार में यादव एक दबंग जाति रही है, लेकिन ये दोनों पात्र जातिवादी अस्मिता को प्रेम के क्षणों में भूल जाते हैं। तहसीलदार साहब की सभी चालाकी और तिकड़मबाजी अपनी बेटी के कुँवारेपन में गर्भवती हो जाने पर गायब हो जाती है और वे अनाम जाति के प्रशांत से अपनी बेटी की शादी कर झूठी उदारता का परिचय देते हैं। इस तरह रेणु कथा के अनेक प्रसंगों के द्वारा जातिवादी संकीर्ण चेतना को तोड़ते हैं।

रेणु का मानना था कि हिंदी प्रदेशों में जातिवादी चेतना ने न सिर्फ इन्हें पिछड़ा बनाकर रखा है, अपितु गरीबी का भी मुख्य कारण यही है। राजनीतिक पार्टियों में भी इसका पूरा प्रभाव था। ‘मैला आँचल’ में एक जगह बावनदास कहता है कि सभी कांग्रेसियों को अपनी-अपनी टोपियों पर अपनी जाति का नाम लिखवा लेना चाहिए ताकि पता चल सके कि कौन जाति का कांग्रेसी है! तात्पर्य यह कि उस समय की सबसे प्रबल पार्टी कांग्रेस में हर जाति की एक लॉबी होती थी।

(3) रेणु की कथा-रचनाओं में लालित्य है, क्योंकि उनके रचाव में कविता, चित्रकला और संगीत के कई उपकरणों का जगह-जगह कलात्मक संयोजन है। इसके कारण उनकी कलात्मक संवेदना का गहरा प्रभाव व्यंजित होता है। उनकी कथा-कृतियों में दृश्यों का समायोजन नाटकीय भंगिमा के साथ उपस्थित होता है। वे एक ही दृश्य में अनेक तरह की भाव-व्यंजना की प्रस्तुति करते हैं।

कभी तनावपूर्ण वातावरण की समाप्ति निर्मल हास्य में होती है, कभी कोई हास्यास्पद प्रसंग कारुणिक दृश्य में रूपांतरित हो जाता है। उनके कथा-साहित्य में ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ की कला सबसे प्रभावशाली रूप में व्यंजित होती है। दूसरी बात यह कि वे बतरस के माहिर हैं। उन्हें शब्दों से खेलना और उन्हें अपरूप कर अनोखे अंदाज में प्रस्तुत करना आता है। उदाहरण के तौर पर वे ‘मैला आँचल’ की पहली पंक्ति में ‘गिरफ्तार’ को ‘गिरफ्फ’ कर देते हैं। ‘पंच’ तत्सम शब्द है और ‘लाइट’ अंग्रेजी का शब्द। दोनों को मिलाकर ‘पंचलाइट’ पेट्रोमेक्स के लिए लोक-जीवन से खोजकर लाते हैं। ‘तीसरी कसम’ में एक शब्द है ‘फेनूगिलासी’। यह शब्द अंग्रेजी शब्द ग्रामोफोन का लोकभाषा में रूपांतरण है। ग्रामो से गिलास बन गया और फोन से फेनू। फिर उलट कर यह लोक-जीवन में प्रयुक्त हो गया। शब्दों का यह संचरण एक आश्चर्यजनक रूप में बदल जाना कथा-रस का अनोखा संचार करता है। वर्तमान पीढ़ी के कथाकारों में कुसुम खेमानी के कथा-साहित्य में ऐसी ही मिठास और रस का संचार होता है।

(4) रेणु बहुत कम उम्र से ही तरह-तरह के आंदोलन में भाग लेते रहे। स्वाधीनता संघर्ष से लेकर जन-आंदोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रहती थी। नेपाली क्रांति से लेकर चौहत्तर के आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भागीदारी थी। प्राकृतिक आपदाओं में भी वे पीड़ित मनुष्यों की सेवा करते थे। यही कारण था कि उनका व्यापक जन-समुदाय से जुड़ाव था और अनुभव-संपदा विशाल थी। इस चेतना ने उन्हें सामान्य मनुष्य से जोड़े रखा। उनका आंदोलनकारी रूप सत्ता की साधना के लिए नहीं था, बल्कि उसने उन्हें संघर्ष के रास्ते पर चलना सिखाया। यही कारण है कि उनका रचनाकार इतना परिपक्व है। ऐकांतिक जीवन जीने वाला लेखक ‘अंतिम अरण्य’ लिख सकता है, ‘मैला आँचल’ नहीं।

पहले भी इस तरह के लेखक कम थे। आज तो ऐसे लेखक विरल हैं। आज तो तरह-तरह के विमर्श हो रहे हैं। भला विमर्श से कभी अच्छा रचनात्मक लेखन हो सकता है?

(5) स्थानिकता तो हर रचना की होती है। एक कमरे या परिवार को लेकर लिखी गई रचना में भी स्थानिकता होगी। अंचल क्या है? परिवेश ही तो है! स्थान, काल और परिवेश तो हर रचना में, किसी-न-किसी रूप में हर यथार्थवादी रचना में होता ही है। मूल बात है लेखक का चीजों का देखना। वह देखकर क्या खोजता है और स्थापित करता है? साहित्य में उस दृष्टि का महत्व है।

रेणु का देखना बिलकुल अपनी तरह का है और वे इस प्रक्रिया में बहुत कुछ नया खोजकर लाते हैं। ऐसे-ऐसे पात्र, जीवन-स्थितियां और शब्द जो साहित्य में पहली बार अपनी जगह बना रहे थे। रेणु की आंचलिकता में भी आधुनिकता बोध है। जागरण का छंद है। राष्ट्रीय पतन पर उनका पात्र बावनदास एक वाक्य दोहराता है- ‘भारतमाता जार-जार रो रही है।’ भूख, गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, सांप्रदायिकता राष्ट्रीय प्रश्न हैं, जो उनकी आंचलिकता में समाहित हैं। इसीलिए वे स्थानिक होते हुए भी राष्ट्रीय हैं।

यशवंत नगर, हजारीबाग, झारखंड-825301 मो. 6207264847

रवि भूषण

वरिष्ठ आलोचक और टिप्पणीकार।

रेणु को कथागायक कहना चाहिए

(1) पचास के दशक के मध्य में ‘नई कविता आंदोलन’ के बाद ‘नई कहानी आंदोलन’ खड़ा किया गया था। कमलेश्वर, मोहन राकेश और राजेंद्र यादव की मित्रत्रयी इस आंदोलन के सर्वेसर्वा थे। विजयमोहन सिंह ने इनके द्वारा ‘ऊंट और गधे की शादी में एक दूसरे के गीत गाने’ की बात कही है। इन्हें ‘नई कहानी के उतावले स्वयंसेवक’ कहा है। नई कहानी के आलोचक के रूप में नामवर सिंह उपस्थित हुए। ‘कहानी’ पत्रिका में प्रकाशित अपने चार लेखों और ‘नई कहानी’ पत्रिका के अपने स्तंभ ‘हाशिए पर’ में उन्होंने नई कहानी का एक समरूप स्थिर कर, पहले की कहानियों से इन कहानियों का अंतर स्पष्ट किया। ‘नई कहानी’ के दौर में लगभग पैंतीस कहानीकार कहानियाँ लिख रहे थे। कोई एक स्वर इन कहानियों का नहीं था। एक साथ कई प्रवृत्तियाँ थीं। नए विषय के साथ नया कथा-शिल्प था।

नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा के कहानी संग्रह ‘परिंदे’ की समीक्षा कर परिंदे कहानी को पहली नई कहानी कहा। उस समय अमरकांत, भीष्म साहनी, मार्कण्डेय, शेखर जोशी की तरह रेणु भी अधिक चर्चा में नहीं थे। नगर कथा और ग्राम कथा का एक विभाजन भी किया गया, पर मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंह की कहानियों से रेणु की कहानियाँ एकदम भिन्न थीं। कथाभूमि कथा-संसार, कथा-परिवेश, कथा-शिल्प सब एकदम भिन्न थे।

‘नए यथार्थ’ के दौर में रेणु का कथा-साहित्य जिस यथार्थ को उद्घाटित कर रहा था, उस पर उस समय अन्य कथाकारों ने दृष्टि नहीं डाली थी। पचास का दशक नए यथार्थ का दशक भी था। नेहरू भारत को ‘आधुनिक’ बनाने में लगे थे। रेणु कहीं से भी आधुनिकता की चमक-धमक से प्रभावित नहीं थे। वे बदलते समय को पूरी गहराई से देख-समझ रहे थे। एक जमाने की विदाई और एक युग का शुभागमन उनके सामने था। उन्होंने कई स्थलों पर ‘जा रे जमाना’ कहा है।

रेणु की मौलिकता और विशिष्टता की पहचान ‘मैला आँचल’ के अलावा पचास के दशक में कम हुई। रेणु के कथा साहित्य की प्रमुख विशिष्टता उनकी भाषा है। कथा-विषय समय के बदलाव के कारण भिन्न है, पर उन्होंने ग्रामीण परिवेश को उसकी संपूर्णता से साकार किया। परिवेश पर ऐसा ध्यान उस समय अन्य कथाकारों का नहीं था। आज भी नहीं है। रेणु संपूर्णता एवं ईमानदारी से परिवेश को जीने के पक्ष में थे। साहित्यकारों से उनकी ऐसी ही अपेक्षा भी थी। ‘साहित्यकार को चाहिए कि वह अपने परिवेश को संपूर्णता और ईमानदारी से जिये। वह अपने परिवेश से हार्दिक प्रेम रखे, क्योंकि इसी के द्वारा वह अपनी जरूरत के मुताबिक खाद प्राप्त करता है… सूक्ष्मता से देखना और पहचानना साहित्यकार का कर्तव्य है। परिवेश से ऐसे ही सूक्ष्म लगाव का संबंध साहित्य से अपेक्षित है।’ गांव रेणु के यहाँ समग्रता में है। उन्होंने कथा-कहन और लेखन की एक नई शैली विकसित की। उनकी विशिष्टता विषय को उसकी समग्रता-संपूर्णता में एक नए कथा-शिल्प के साथ प्रस्तुत करने में है। रेणु किसी भी पारंपरिक कथा-मार्ग का अनुसारण नहीं करते। उन्होंने एक नया कथा-मार्ग निर्मित किया। वे संभवतः विश्व के अकेले कहानीकार हैं, जिन्होंने अपने को ‘कथा-गायक’ कहा है। संगीत-पक्ष उनके यहाँ प्रमुख है।

(2) पहली बार रेणु ने जाति के प्रश्न को केंद्र में रखा है। ‘मैला आंचल’ का मेरीगंज ‘एक बड़ा गांव है, बारहों बरन के लोग रहते हैं’। गांवों में भिन्न-भिन्न जातियों का रहना नई बात नहीं है, पर जाति के आधार पर एक गांव में अलग-अलग टोलों के विभाजन की ओर रेणु ही ध्यान दिलाते हैं। मेरीगंज में गुअर टोली, राजपूत टोली, कायस्थ टोली, ततमा टोली, यादव टोली, दुसाध टोली आदि है। गांवों में ‘अगड़ी जातियों’ का वर्चस्व है। ‘पंचलाइट’ कहानी में ब्राह्मण टोली और राजपूत टोली के लोगों के ‘रिमार्क्स’ पर ध्यान देना चाहिए। श्रेष्ठता-बोध का जातिगत आधार समाज में व्याप्त है, जिसकी रेणु आलोचना करते हैं। जाति वास्तविकता है। श्यामाचरण दुबे और अन्य समाजशास्त्री जब रेणु के कथा-साहित्य पर विचार करते हैं, तो उसके पीछे यह ‘जातिवाद का संकट’ भी है। जातिवाद के संकट को हम रेणु के यहाँ एक राष्ट्रीय संकट के रूप में देख सकते हैं। स्वतंत्र भारत में यह जातिवाद घटने के बजाय बढ़ा। राजनीति में यह ‘महारोग’ बना। ‘मैला आंचल’ में बावन दास सोचते हैं कि अब लोगों को अपनी-अपनी टोपी पर भूमिहार, राजपूत, कायस्थ, यादव, हरिजन आदि लिखवा लेना चाहिए, जिससे यह समझा जा सके कि कौन किस पार्टी में है? रेणु का ध्यान जाति के भीतर की उपजाति पर भी है। ‘मैला आंचल’ में तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद जगरू से पूछते हैं- ‘तुम लोग कौन ततमा हो? मगहिया हो न?… मगहिया चाल-चलन भूल गए। अब तिरहतिया और मगहिया एक हो गए हो। लेकिन संथालों में भी कमार हैं, मांझी हैं, वे लोग अपने को यहाँ के कमार और मांझी में कभी खपा सके।’ विश्वनाथ प्रसाद इस विभाजन को और बढ़ावा देते हैं। उनके दरवाजे पर बैठी पंचायत में नाई और रजक टोले के लोगों से एक-एक आदमी को ऊँचे सफरे (दरी) पर बैठने को चुन लेने को कहा जाता है। रेणु ने राजनीति में जाति की महामारी फैलती देखी थी। ‘मैला आंचल’ उपन्यास के अंत में बालदेव सोचते हैं-‘वह पुरैनियाँ जाएगा वहीं से चम्मन पट्टी चला जाएगा। वह अब अपने गांव में रहेगा, अपने समाज में, अपनी जाति में रहेगा। जाति बहुत बड़ी चीज है। जाति की बात ऐसी है कि सभी बड़े-बड़े लीडर अपनी-अपनी जाति की पार्टी में हैं। यह तो राजनीति है।’ रेणु के यहाँ जातिवाद के संकट को समाप्त करनेवाली शक्तियां न के बराबर हैं। वे जाति के यथार्थ का चित्र प्रस्तुत करते हैं। बड़ी बात यह है कि उनके पहले इस संकट को प्रमुख रूप से हिंदी के किसी अन्य कथाकार ने रेखांकित नहीं किया था। समाजशास्त्री श्रीनिवास और अन्य समाजशास्त्रियों का जाति-अध्ययन प्रमुखतः पचास के दशक से आरंभ हुआ, रेणु ने भी लगभग उसी समय इसपर ध्यान दिया।

‘मैला आंचल’ उपन्यास को ‘सभ्यतागत ट्रेजेडी का आख्यान कहना अधिक संगत नहीं है। उपन्यास में ‘साम्राज्य-लोभी शासकों की संगीनों के साये में वैज्ञानिकों के बल की खोज’ का उल्लेख है। औद्योगिक एवं पूंजीवादी सभ्यता के पक्ष में रेणु नहीं हैं, पर उपन्यास उस सभ्यता का ‘आख्यान’ नहीं है। रेणु को मिट्टी और मनुष्य से गहरी मुहब्बत है। वे विकास की उस अवधारणा से असहमत हैं, जिसमें मिट्टी और मनुष्य का सम्मान नहीं है। वे हिंसा से जर्जर प्रकृति को रोते देखते हैं। पाश्चात्य एवं औद्योगिक सभ्यता के पक्ष में रेणु नहीं हैं। ‘मैला आंचल’ में इसके संकेत हैं, उल्लेख भी हैं, पर इसे ‘सभ्यतागत ट्रेजेडी का आख्यान’ नहीं कहा जा सकता।

(3) रेणु की कहानियों की लालित्यपूर्ण संवेदना का संबंध ध्वनियों और गंधों से है। उनके यहाँ ध्वनि-संसार और गंधमय परिवेश है। अपने पहले कहानी-संग्रह ‘ठुमरी’ की भूमिका ‘स्वरलिपि’ में उन्होंने अपने को ‘ठुमरी का कथा गायक’ कहा है। वे संगीतधर्मी कथाकार हैं। कहानियों में वहाँ संगीत कई रूपों-धुनों में है। लगभग पचास वाद्य-यंत्र उनकी रचनाओं में हैं। उनकी भाषा ‘काव्यात्मक’ न होकर ‘गीतात्मक’ है। उनके पहले किसी कथाकार के यहां इतनी अधिक संख्या में पाठकों ने गीत नहीं सुने। भाषा का यह लालित्य जीवन के लालित्य से जुड़ा है। इस लालित्य का गीत-संगीत से रिश्ता है।

रेणु ने एक जगह लिखा है कि प्रत्येक गांव में एक से ज्यादा सार्वजनिक या व्यक्तिगत मृदंग अवश्य रहता था। इस लालित्य का संबंध लोक से है। लोक संगीतमय था। रेणु का रचना-संसार संगीतमय है। उनकी गीतात्मकता विद्यापति और चंडीदास के साथ-साथ बिरहा, कजरी, चैता आदि लोकगीतों से निर्मित है। लोक-जीवन, लोक-गीत, लोक- संस्कृति, लोकनृत्य, लोकवाद्य, लोकभाषा सबसे जुड़कर उनका रचना-संसार अन्य कथाकारों के रचना-संसार से एकदम अलग और विशिष्ट है। इन सबसे कहानी कहने की एक नई पद्धति, जिसे रेणु-पद्धिति भी कह सकते हैं, उनके यहां है। उनकी कहानियाँ दृश्य-श्रव्य प्रभाव उत्पन्न करती हैं। वे हमें एक-दूसरे भाव-लोक में ले जाती हैं, जिसका इस लोक से सीधा-संबंध है। आज के संवेदनहीन समय में रेणु की कहानियों का यह पक्ष बार-बार रेखांकित किया जाना चाहिए।

(4) हिंदी कथाकारों में रेणु की सामाजिक सक्रियता अज्ञेय और यशपाल से बड़ी है। वे छात्र जीवन से ही इस ओर मुड़े। राजनीति से रेणु ने अपने जीवन का आरंभ किया था। राजनीति उनके लिए ‘दाल-भात की तरह’ रही। उनके परिवार में पहले से राजनीतिक चेतना थी। उनके पिता कांग्रेस के सदस्य थे और घर में कई तरह की पत्रिकाएं आती थीं। रेणु की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता में परिवार की भी भूमिका है। छात्र-जीवन में वे आंदोलन से जुड़े। उनके घर की दो बार तलाशी ली गई थी। परिवार में ‘हिंदू पंच’ का बलिदान अंक, ‘चांद’, का फांसी अंक और सुंदरलाल की पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ होने के कारण तलाशी ली गई थी। बाल-मानस के निर्माण में इस घटना की एक बड़ी भूमिका थी। बनारस में पढ़ते हुए वे सोनपुर के ‘समर स्कूल ऑफ पालिटिक्स’ में 1938 में शामिल हुए थे। बाद में जेल भी गए।

रेणु की साहित्यिक सक्रियता से सामाजिक सक्रियता कम नहीं थी। वे समाजवाद और सोशलिस्ट पार्टी के प्रति आस्थावान थे। देश के पहले आम चुनाव से पूर्व ही उन्होंने अपने को पार्टी के लिए अनुपयुक्त समझा और राजनीतिक दल की सक्रिय सदस्यता से अलग हुए। उनकी मानसिकता किसानों-मजदूरों की थी। वे उनके आंदोलनों के साथ थे। एक लेखक के लिए सामाजिक रूप से सक्रिय होना आज अधिक आवश्यक है। इसके लिए किसी राजनीतिक दल का सदस्य और कार्यकर्ता होना आवश्यक नहीं है।

रेणु के बाद उनके जैसा सामाजिक राष्ट्रीयतावादी लेखक और कोई नहीं हुआ। रेणु 1952 तक सक्रिय राजनीति में थे। सक्रिय राजनीति से अलग होने के बाद भी उन्होंने राजनीति से संन्यास नहीं लिया। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में वे सक्रिय हुए, ‘पद्मश्री’ की उपाधि लौटाई। नए युग में, विशेषतः पिछले चालीस वर्ष में लेखकों की सामाजिक सक्रियता में काफी कमी आई है। इसकी एक मुख्य वजह आंदोलनों का अभाव भी है। पिछले कुछ वर्षों में सत्ता और शासक-वर्ग द्वारा भय की जो संस्कृति विकसित की गई है, वह भी एक वजह है। सामाजिक सक्रियता के अभाव के पीछे एक सुविधा-संपन्न और सुरक्षित जीवन जीना भी एक प्रमुख कारण है। ‘रिस्क’ लेने की क्षमता बहुत कम लेखकों में है। लेखन में भी वह धार कम है, जो पहले होती थी।

(5) हिंदी में फिलहाल तीन विमर्श प्रमुख हैं-दलित, स्त्री और आदिवासी। ‘स्थानीयता-विमर्श’ जैसा कुछ नहीं है। अगर स्थानीयता-विमर्श को एक क्षेत्र और भू-भाग के रूप में ही देखें, तो मुझे रेणु की परंपरा का विकास दिखाई नहीं देता। रेणु का गांवों से जैसा जीवंत संबंध था, अब बहुत कम हिंदी कथाकारों का है। रेणु के गांव बदल चुके हैं। ध्वनियां मिट रही हैं। गंधमय संसार कहीं नहीं रहा। स्थान-विशेष के सवाल अब केवल स्थान-विशेष के सवाल नहीं हैं। समकालीन उपन्यासों की कथाभूमि व्यापक है। जिधर कथाकारों का ध्यान पहले नहीं था, उधर समकालीन कथाकारों ने ध्यान दिया है। कथा-संसार व्यापक है, पर समग्रता में देखने की दृष्टि कम है। रेणु की परंपरा को स्थूल अर्थ में कुछ कथाकारों के साथ जोड़ा जा सकता है, पर उसका विकास नहीं माना जा सकता। आज का यथार्थ रेणु के समय के यथार्थ से कहीं अधिक भयावह है। रेणु ने परिवेश से जिस गहरे लगाव की बात कही है, वैसा लगाव न उनके समय के सभी कथाकारों में था, न आज के कथाकारों में है। कथा विषय का अपना महत्व है, पर कथा शिल्प भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। रेणु अपने कथा-शिल्प और कथा रंग के कारण विशेष महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने एक नए काव्य रस से हिंदी के कथा संसार को समृद्ध किया।

204, रामेश्वरम साउथ ऑफिस पाड़ा, डोरंडा, रांची-834002 (झारखंड) मो.9431103960

अवधेश प्रधान

वरिष्ठ लेखक और आलोचक।

रेणु की कला गद्य में कविता के लच्छे गूंथती चलती है

 (1) रेणु की कथा-भूमि इतनी विशिष्ट है कि नई कहानी आंदोलन और नया यथार्थ की परिभाषा में अँट नहीं पाती। वह निर्मल वर्मा की कथा-भूमि से अलग ही नहीं, उलट है। नई कहानी के केंद्र में निर्मल वर्मा थे और नामवर सिंह ने तो यहां तक दावा किया था कि ‘कौन जाने’, वे डी. एच. लारेंस और फ्रांज़ काफ़्का की तरह ‘इन तथाकथित सामाजिक’ कहानीकारों से ज्यादा सामाजिक और बुनियादी रूप में अपने युग के सच्चे प्रवक्ता प्रमाणित हों’। आगे चलकर ‘अकहानी’ को भी प्रथम मंत्रदान निर्मल वर्मा ने ही दिया, ‘कहानी की मृत्यु से बात शुरू करनी चाहिए।’ रेणु का विश्वास जीवन और समाज में था इसलिए उन्हें एक दिन नगर के नुक्कड़ पर ‘अकहानी का सुपात्र’ मिल गया और उससे बातें करते-करते उन्हें दृढ़ विश्वास हो गया कि ‘जब तक छोटे लाल जैसे सुपात्र जीवित रहेंगे, कहानी मर कर भी जी जाया करेगी।’ उन्होंने चालू फैशन और फार्मूलों से अलग अपनी चिर परिचित जनपद की धरती को अपनी रचना की भूमि बना लिया और अपनी कला और कलम के जोर से पाठकों का ध्यान गांव की ओर खींच लिया। रेणु के कथा-चित्र और चरित्र गांव की माटी से ही उगते हैं जैसे धान के पौधे। उनकी कथावस्तु, परिवेश, पात्र, बोली-बानी, हँसी-मजाक, लाग-डांट – सारी की सारी निर्माण सामग्री वहीं से ली गई हैं, जैसे वहां की झोपड़ियां वहीं के फूस, खर-पात और मिट्टी-गोबर से बनी हैं। अपने जनपद की धरती, लोकजीवन और लोक संस्कृति से गहरा लगाव – यह पहला गुण है, जिसे रेणु आनेवाली साहित्यिक नस्लों के लिए विरासत के बतौर सौंप गए हैं। मनुष्य और प्रकृति का अभिन्न संबंध, उसकी आवश्यकता की अचूक पहचान और चिंता – रेणु के कथा साहित्य की यह विशेषता किसी भी समय की तुलना में आज अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास और तमाम किस्म की बुराइयों के बावजूद ग्रामांचल ही भारतीय जीवन का हृदय है, वह हर तरह की राजनीतिक चिंताओं, विचारधाराओं, गतिविधियों, आंदोलनों, सरकारी परियोजनाओं और विकास की योजनाओं की कसौटी है, वह मरती और मुरझाती हुई भाषा और कला में नई जान और नई ताकत डालने वाली प्राणवायु है, वह जीवंत और प्राणवंत भाषा और कला को निरंतर पोषण देती रहने वाली कामधेनु है- यह संदेश, यह सिखावन उनके साहित्य के पृष्ठों से निकलकर हमारे कानों तक आता सुनाई देता है। अपनी धरती और अपने लोगों से मिलकर एक रूप हो जाने का एक नाम है फणीश्वर नाथ रेणु! नागार्जुन उन्हें ठीक ही ‘दरदी किसान’ कहा करते थे।

(2) रेणु ने ‘मैला आंचल’ में पूर्णिया जिले के ग्रामांचल का जो चित्र अंकित किया उसमें ‘फूल भी हैं, शूल भी; धूल भी है, गुलाब भी; कीचड़ भी है, चंदन भी; सुंदरता भी है, कुरूपता भी।’ मेरीगंज में राजपूतों और कायस्थों में पुश्तैनी मनमुटाव और झगड़े होते रहते हैं, अल्पसंख्यक ब्राह्मण ‘तीसरी शक्ति’ का कर्तव्य पूरा करते हैं, यादवों ने जनेऊ पहनना शुरू किया है, लेकिन राजपूत उन्हें क्षत्रिय नहीं मानते। पोलिया, तंत्रिमा, गहलोत, कुरमी, धानुक, कुशवाहा, रैदास – सभी जातियों के अपने टोले हैं, अपनी जाति-पंचायतें हैं। ये पंचायतें जाति-बिरादरी की मर्यादा भंग करने पर जुर्माना लगाती हैं, हुक्का बंद करती या खोलती हैं। कबीर मठ के महंत ने भोज दिया तो ब्राह्मणों ने सबके साथ बैठकर खाने से इनकार कर दिया, राजपूतों ने यादवों के साथ एक पंगत में खाने से मना कर दिया। गांव में पहले कांग्रेस का प्रचार हुआ, फिर सोशलिस्ट पार्टी का – मुख्यतः यादवों को और अन्य पिछड़ी जातियों को केंद्र करके। काली टोपीवाले स्वयं सेवकदल (यानी आर. एस. एस.) ने राजपूतों को केंद्र करके हिंदू एकता का प्रचार किया।

जिला कांग्रेस के सभापति पद के चुनाव में एक ओर राजपूत उम्मीदवार है तो दूसरी ओर भूमिहार। कटिहार कॉटन मिल वाले सेठ जी भूमिहार पार्टी में हैं तो फारबिसगंज जूट मिल वाले राजपूत पार्टी में। गांधी जी का निष्ठावान कार्यकर्ता बावन दास सोचता है, ‘अब लोगों को चाहिए कि अपनी अपनी टोपी पर लिखवा लें – भूमिहार, राजपूत, कायस्थ, यादव, हरिजन!…. कौन काजकर्ता किस पार्टी का है, समझ में नहीं आता।’ बावनदास इसे ‘पटनियाँ रोग’ कहता है यानी पटना से, यानी ऊपर से आया हुआ राजनीतिक रोग। सुराज के बाद उसने लक्ष्य किया कि अब यह रोग ‘और धूमधाम से फैलेगा। भूमिहार, राजपूत, कैथ, जादव, हरिजन सब लड़ रहे हैं। अगले चुनाव में तिगुना मेले चुने जाएंगे। किसका आदमी ज्यादे चुना जाए, इसी की लड़ाई है। यदि राजपूत पार्टी के लोग ज्यादा आए तो सबसे बड़ा मंत्री भी राजपूत होगा।’ राजनीति कहां तो जातियों को खत्म करती, जातियों ने राजनीति को भीतर से तोड़ दिया। सब पार्टियां पैसे वालों की मुट्ठी में हैं, और भीतर से जात-पांत में बंटी हुई। इसलिए बावनदास कहता है, ‘सब पाटी समान।’

बावन दास ने अपने राजनीतिक साथी बालदेव को याद दिलाया कि विलायती कपड़े की पिकेटिंग करते समय जिस सागरमल मारवाड़ी ने वालंटियरों को पीटा था, वह आज नरपत नगर थाना कांग्रेस का सभापति है। जुआ कंपनी वाला दुलार चंद कापरा, जो नेपाली लड़कियों को भगा कर लाते समय जोगबनी में पकड़ा गया था, वह आज कटहा थाना का सेक्रेटरी है, ‘भारतमाता और भी, जार-बेजार रो रही हैं।’ गांधी जी की हत्या और अंत्येष्टि के बाद तमाम नेता और कार्यकर्ता अनेक औपचारिक कार्यक्रमों में मशगूल हैं और बावनदास गांधी जी की चिट्ठियों का बस्ता बालदेव को सौंपकर हिंदुस्तान-पाकिस्तान की सीमा पर चोर बाजारी का सुराग पाकर कलीमुद्दीनपुर पहुंच जाता है। चोर बाजारी के खिलाफ इस सत्याग्रह में एक ओर है गांधी जी का सत्यनिष्ठ कार्यकर्ता बावनदास और दूसरी ओर हैं दुलारचंद कापरा-कटहा कांग्रेस का सेक्रेटरी, सप्लाई इंस्पेक्टर, हवलदार और सिपाही। पचास रेलगाड़ियां, एक बावनदास के ऊपर से गुजर जाती हैं। लाश नागर नदी के पार पाकिस्तान में फेंक दी जाती है। सवेरे पाकिस्तान पुलिस लाश को उठाकर नदी में डाल देती है और झोले को सांहुड़ के पेड़ की डाली पर फेंक देती है।

रेणु जी लिखते हैं, ‘बावन ने दो आजाद देशों की – हिंदुस्तान और पाकिस्तान की – ईमानदारी को, इंसानियत को, बस दो डेग में ही नाप लिया।’ जैसे गांधी जी की हत्या के बाद उनकी पूजा होने लगी उसी तरह सांहुड़ की डाली में लोग अपनी मन्नत पूरी करने के लिए चिथड़े बांधकर ‘चेथरिया पीर’ की पूजा करने लगे। मैनेजर पांडे ने बहुत सही लिखा है, ‘क्या बावनदास की इस परिणति में स्वाधीन भारत में गांधी की दुर्गति का प्रतिबिंबन नहीं है?’ तमाम देशभक्तों ने मिलकर आजादी की लड़ाई में जिस सभ्यता का सपना अपने बलिदान से सींचा था उसकी यह ट्रैजिक परिणति है। जीवनभर गांधी जी का झंडा ढोने के बाद अंत में बालदेव ने मेरीगंज छोड़कर अपने गांव चंदनपट्टी में जाकर जाति की राजनीति करने का निर्णय लिया। ‘जाति बहुत बड़ी चीज है …सभी बड़े-बड़े लीडर अपनी-अपनी जाति की पार्टी में हैं।’ उलटा हृदय परिवर्तन।

(3)  रेणु की कहानी-कला गद्य में कविता के लच्छे गूंथती चलती है। कहानी के पात्रों के साथ-साथ सघन इंद्रियबोध का- गंध और स्पर्श का, शब्द (संगीत) और रस (स्वाद) का, रूप और रंग का संसार चलता है। ‘तीसरी कसम’ कहानी की शुरुआत ही स्पर्श के जादू से होती है, ‘हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है। स्पर्श के साथ गंध- आज रह-रह कर उसकी गाड़ी में चंपा का फूल महक उठता है।’ अनदेखी औरत की आवाज हिरामन को कैसी लगी, ‘बच्चों की बोली जैसी महीन, फेनू गिलासी बोली।’ हीराबाई दही-चूड़ा खा रही है, ‘लाल होठों पर गोरस का परस!…. पहाड़ी तोते को दूध-भात खाते देखा है?’ आसिन-कातिक के भोर में, ‘नदी के किनारे धनखेतों से फूले हुए धान के पौधों की पवनिया गंध आती है।’

एकबार हिरामन ने सरकस वालों की बाघ गाड़ी में बैलों को जोत दिया था, ‘उस बार महीनों तक उसकी देह से बघाइन गंध नहीं गई।’ उसी तरह ‘एक आदिम रात्रि की महक’ में करमा को ‘गांव की पहली गंध’ महसूस होती है, सरसतिया के ‘झबरे केश, बेनहाई हुई देह के गंध करमा के प्राण में समा गई।’ ‘करमा एक गंध के समुद्र में डूबा हुआ है।’ ‘लाल पान की बेगम’ में गौने की साड़ी से एक खास किस्म की गंध निकलती है।

सचमुच, रेणु की घ्राणेंद्रिय अत्यंत तीव्र है और उतनी ही तीव्र है उनकी श्रुति-संवेदना। वह एक-एक पशु-पक्षी की ध्वनि का चित्र अंकित करते चलते हैं। उनकी भाषा समूची प्रकृति की लय पकड़ने और उसे हू-ब-हू दोहराने में सक्षम है। एक-एक बाजे के बोल निकालना तो उनके बाएं हाथ का खेल है।‘रस प्रिया’ तो एक लोक कलाकार के ही प्रेम की वेदना से निकला कथा-संगीत है।

‘तीसरी कसम’ में महुआ घटवारिन का गीत ही भर नहीं गुंथा है, पूरी कहानी पाठक के मन पर एक मार्मिक लोकगीत की गूंज जैसा प्रभाव छोड़ती है। गांव के लोग चाहे जितने अभाव में हों, कष्ट में हों, किसी मौसम में गाना नहीं छोड़ते, लेकिन गांव की कहानियां लिखने वाले कथाकारों में किसी ने गीतों का उतना और वैसा प्रयोग और उपयोग नहीं किया जितना और जैसा रेणु ने किया। लेकिन नामवर सिंह की पसंद को क्या कहिएगा कि उन्हें नए बिंब, विकसित ऐंद्रिय बोध और मार्मिक और सजीव वातावरण के लिए केवल निर्मल वर्मा की कहानियां सबसे अधिक प्रभावशाली लगती हैं, इतना ही नहीं- संगीत की जैसी सूक्ष्म संवेदना निर्मल ने व्यंजित की है, वह नई कहानी की बहुत बड़ी उपलब्धि है। पियानो के पश्चिमी संगीत और महुआ घटवारिन या बिदापत या विदेसिया के लोक संगीत में बहुत फर्क है।

रेणु के पात्र इतने सरल हैं कि पेड़ों-पौधों और पशुओं-पक्षियों से ऐसे बात करते हैं जैसे उनके भाई-बंद या संगी-साथी हों। हिरामन अपने बैलों से बात करता है। हीराबाई ने भी इसे लक्ष्य किया, उसने गाड़ी से उतरकर कंपनी में जाते समय उसके बैलों को संबोधित करके कहा अच्छा, मैं चली भैयन! और मजे की बात यह है कि बैलों ने भैया शब्द पर कान हिलाए। बैल हिरामन की एक-एक बात समझते हैं। अपने पालतू पशुओं से किसान परिवार का यह आत्मीय रिश्ता इससे पहले केवल प्रेमचंद के यहां देखने को मिलता है।

रेणु की कथा-भाषा का भी अपना सौंदर्य है- अपना कमाया हुआ सादगी का सौंदर्य, जिसके जादुई स्पर्श से जनपद की माटी, मानुष, वनस्पति, ताल-पोखर, जीव-जंतु, चिरई-चुनमुन सब बोलने लगते हैं। आधुनिक हिंदी में मैथिली और भोजपुरी की ऐसी बघार कि कानपुर की हीराबाई को भी उसका रस लेने में बाधा नहीं आती।

गंवई किस्म की हास्य-रसिकता रेणु की व्यंजना में नमक का स्वाद देती है। भदेस से भदेस गाली भी रेणु बड़ी सफाई से समझा ले जाते हैं और जायका खराब नहीं होता, जैसे ‘नैना जोगिन’ में। ‘पुरानी कहानी : नया पाठ’ में प्रलयकारी बाढ़ भी खाऊ नेताओं के लिए एक सुअवसर बन जाती है। उसका व्यंग्य पढ़कर पी. साईनाथ की ‘एवरी बॉडी लव्स ए गुड ड्राउट’ किताब याद आती है। ‘आत्मसाक्षी’ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के फलस्वरूप गनपत जैसे स्थानीय कार्यकर्ता का जो दारुण मोह भंग होता है वह अन्यत्र देखने में नहीं आता। गनपत को लगता है कि आज चांद सूरज में भी दरार पड़ गई है। दुनिया की हर चीज आज दो भागों में बंटी हुई सी लगती है।

(4) आजादी की लड़ाई के दौरान तमाम नए-पुराने लेखक, राजनीति से जुड़े, लड़ाई में शामिल हुए, जेल गए जैसे- मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन आदि। कुछ क्रांतिकारी दल या कम्युनिस्ट पार्टी या किसान आंदोलन से जुड़े, जैसे अज्ञेय, यशपाल, राहुल सांकृत्यायन, नरेंद्र शर्मा, नागार्जुन, शमशेर आदि। रेणु बेनीपुरी जी की तरह सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े। 1942 में एक सक्रिय राजनीतिक सिपाही की भूमिका में रहे। 1950 में नेपाली जनता के पक्ष में राणाशाही के दमन-उत्पीड़न के विरुद्ध जो क्रांति छिड़ी उसमें उन्होंने सक्रिय योगदान ही नहीं किया, बाद में उसका जीवंत चित्रण ‘नेपाली क्रांति कथा’ में किया।

जीवन के अंतिम वर्षों में इंदिरा गांधी की निरंकुशता के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जो आंदोलन हुआ, उसमें नागार्जुन के साथ शरीक होकर आंदोलन को प्रेरणा और नैतिक बल प्रदान किया, पुलिस का दमन झेला और जेल भी गए। सत्ता के कठोर दमन-उत्पीड़न के विरोध में पद्मश्री की उपाधि लौटा दी। आजादी की लड़ाई के बाद इमरजेंसी-विरोधी आंदोलन ही है जिसमें लेखक शामिल हुए। फिर 1990 के दशक से जो राम मंदिर को केंद्र करके हिंदू सांप्रदायिक उभार शुरू हुआ तो प्रलेस, जलेस, जसम, सहमत, संस्कृति-संगम आदि संगठनों के बैनर के नीचे तमाम प्रगतिशील, जनवादी और देशभक्त लेखक-पत्रकार बुद्धिजीवी गोष्ठी, धरना, यात्रा, मानव शृंखला, नुक्कड़ नाटक, प्रदर्शन, वक्तव्य, पर्चा, पोस्टर आदि के द्वारा विरोध में धर्मनिरपेक्षता की, सर्व धर्म-सम भाव की, या गंगा-जमुनी साझा संस्कृति की आवाज बुलंद करते रहे।

आजादी की लड़ाई या संपूर्ण क्रांति जैसे किसी व्यापक आंदोलन की लहर फिर नहीं उठी जिसमें लेखक शामिल होते। जन-राजनीतिक पार्टियों की भी आंदोलन-धर्मिता या जन-राजनीतिक संस्कृति छीजती गई है। कुछ कार्यक्रम यदा-कदा होते हैं, लेकिन उनमें भी गर्मजोशी के बजाय औपचारिकता अधिक होती है। राजनीति के साथ-साथ साहित्य में भी दीवानगी लुप्तप्राय है, उसकी जगह कैरियरवाद हावी है। नंदीग्राम को लेकर जैसे महाश्वेता देवी जैसी साहित्यिक और प्रमुख सांस्कृतिक हस्तियां बंगाल में मुखर हुईं, उसी प्रकार गुजरात नरसंहार को लेकर नामवर सिंह, भीष्म साहनी आदि के नेतृत्व में लेखक और बुद्धिजीवी तत्कालीन प्रधानमंत्री से मिले। नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे के बाद जब प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या हुई तो उसके विरुद्ध साहित्यकारों में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई, विरोध में अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश ने साहित्य अकादमी द्वारा प्रदत्त सम्मान तत्काल लौटा दिया, फिर तो इसका सिलसिला ही चल पड़ा। अलबत्ता, नामवर सिंह ने जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्थापित साहित्य अकादमी की स्वायत्तता का वास्ता देकर लेखकों द्वारा सम्मान वापसी की हवा निकाल दी।

आदमी के पास बुद्धि हो तो सही को गलत और गलत को सही साबित कर सकता है। यह कैसी विडंबना है कि अशोक वाजपेयी तो लेखकों के सत्ता-विरोधी विक्षोभ की अगली कतार में हों और नामवर सिंह अकेले विरोध में। पर्यावरण के मोर्चे पर अनुपम मिश्र ने अपना पूरा जीवन ही निछावर कर दिया। नागार्जुन और रेणु की परंपरा आगे बढ़ी है।

(5) स्थानीयता-विमर्श के समकालीन उपन्यासों के केंद्र में भले किसी अंचल-विशेष के लोकजीवन का चित्रण हो, लेकिन वे रेणु की परंपरा के विकास नहीं हैं। रणेंद्र के ‘ग्लोबल गांव के देवता’ और ‘गायब होता देश’ और महुआ माजी के ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ का संदर्भ नया ही नहीं, बिलकुल भिन्न है। रेणु के गांव चाहे जितने पिछड़े हों, लेकिन वे ‘अदृश्य’ नहीं हुए थे, लेकिन भूमंडलीकरण और नई आर्थिक नीति के तहत ग्लोबल गांव के देवताओं ने जो विकास का अंधाधुंध बुलडोजर चलाया उसमें गांव के गांव, इलाके के इलाके देश से गायब हो गए। विकास के लिए कृतसंकल्प सत्ता तंत्र की दृष्टि में आदिवासी बिलकुल अदृश्य हो गए। विकास की चिंता में वह कहीं हैं ही नहीं। मामला केवल आर्थिक भ्रष्टाचार, माफिया तंत्र और लूट-मार का या मानवाधिकार का ही नहीं रह गया। फुटकल समस्याओं के बजाय जीवन मात्र का, अस्तित्व मात्र का संकट उपस्थित हो गया।

झारखंड में जमशेदपुर के निकट जादूगोड़ा में 1961 में यूरेनियम का खनन शुरू हुआ और अयस्क से यूरेनियम अलग करने की प्रक्रिया में अपशिष्ट पदार्थों से जो प्रदूषण उत्पन्न हुआ उससे 15 गांवों के 30 हजार आदिवासी ढेर सारी अनजानी बीमारियों की चपेट में आ गए। पीढ़ी दर पीढ़ी, नस्ल दर नस्ल, बच्चों से लेकर बूढ़े तक रेडियोधर्मी विकिरण के शिकार हो गए। महुआ माजी ने अपने उपन्यास (2012) में रेडियो विकिरण से पहले और बाद के आदिवासी जीवन को आमने-सामने रखकर न केवल जादूगोड़ा या मरंग गोड़ा की भयावह नियति से साक्षात्कार कराया, बल्कि उसे वैश्विक विकास के मॉडल से जोड़कर विश्व मानवता के ही भावी विनाश का आभास कराया। इस तरह यह उपन्यास एक अंचल के आईने में वैश्विक विकास के मॉडल की ही पैशाचिक परिणति को प्रतिबिंबित करता है। ऐसे नए उपन्यासों की कथा-भूमि एक अंचल तक सीमित हो सकती है, लेकिन उनका परिप्रेक्ष्य बहुत व्यापक है। राकेश कुमार सिंह, मधुकर सिंह, संजीव के उपन्यास महाश्वेता की परंपरा से तो जुड़ते हैं, लेकिन रेणु की परंपरा से नहीं। एक अंतर यह जरूर है कि महाश्वेता सामाजिक सक्रियता के मोर्चे पर भी युद्धरत थीं। उन्होंने शबरों की रोजमर्रा की लड़ाई में अपने को झोंक दिया था। महाश्वेता के कथासंसार में उनका ज्वलंत अनुभव भी शामिल है। हिंदी के उपन्यास ज्यादातर अध्ययन, सर्वेक्षण और शोध पर आधारित हैं।

हिंदी विभाग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस-221005 मो.8400925082

भगवानदास मोरवाल

प्रसिद्ध कथाकार। अद्यतन उपन्यास ‘शकुंतिका’।

स्थानीयता रेणु की सबसे बड़ी ताकत है

 (1) सबसे पहले हमें नई कहानी आंदोलन की प्रवृत्तियों और इसके प्रवर्तकों की लोकचेतना और उनके सामाजिक बोध को समझना ज़रूरी है। हम यह जानते हैं कि इस आंदोलन से जुड़े लेखकों का संबंध कमोबेश शहरी सवर्ण जातियों के मध्यवर्गीय परिवारों से रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो इनके लेखन के केंद्र में मध्यवर्गीय लोक-संस्कार और लोक-आचार की चिंताएं और सरोकार रहे हैं। भारतीय समाज के मूल चरित्र से उनका संबंध नहीं रहा, जैसा आजादी के बाद होने वाले बदलावों और नए यथार्थ से होना चाहिए। यह आंदोलन शुरू हुआ 1950 में। यह वह दौर था जब देश नया-नया आजाद हुआ था यानी इसे हम स्वातंत्रोत्तर काल भी कह सकते हैं। यह वह दौर था जब आजादी मिलने के बाद हमारी युवा पीढ़ी की आंखों में एक नए समाज के निर्माण और अपनी आकांक्षाओं के पूरे होने की ललक पल्लवित हो रही थी। नई कहानी आंदोलन इसी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाले कथाकारों द्वारा चलाया गया था। मगर दुर्भाग्य से ये समूची युवा पीढ़ी के बजाय केवल मध्यवर्गीय समाज के प्रतिनिधि बन कर रह गए। संघर्ष के मायने इनके लिए लेखन में सिर्फ कैरियर बनाना रह गया। जबकि उस दौर के युवाओं का सबसे बड़ा संघर्ष जीवन-जगत की मूलभूत जरूरतों को पूरा करना था, जो आज भी है। बाद में यही दौर मोहभंग का दौर बन गया।

अगर हम इस आंदोलन की कहानियों पर नजर डालें तो एक बात बहुत साफ दिखाई देती है, और वह यह कि यह वास्तव में नई नहीं आधी कहानी का आंदोलन था। आधी इस मायने में कि इन कहानियों के केंद्र में इस देश का गांव-देहात, उनकी आकांक्षाएं-अपेक्षाएं पूरी तरह नदारद थीं। इन कहानियों के मानव-मूल्य उन मानव-मूल्यों से मेल नहीं खाते, जिसकी एक लेखक से अपेक्षा की जाती है। जबकि दूसरी तरफ फणीश्वर नाथ रेणु जैसा कथाकार भी था, जिसकी कहानियों में गांव-देहात की गंध को महसूस किया जा सकता है। जातीय और वर्ग-संघर्ष के स्वर साफ सुनाई दे रहे थे। एक तरह से रेणु की कहानियों और उनके उपन्यासों को हम नए यथार्थ के दौर की शुरुआत मान सकते हैं। रेणु ने बहुत साफ-साफ भारतीय ग्रामीण जीवन की उन विडंबनाओं और कटु सत्य से पाठक को परिचित कराया, जिसका हमें इंतज़ार था। आज मौजूदा हिंदी कथा साहित्य जिस तरह नए यथार्थ के धरातल पर फल-फूल रही है, यह रेणु के कथा साहित्य की विशिष्टता की ही देन है।

(2) बिलकुल सही है। रेणु ने ‘मैला आँचल’ में जिस जातिवादी संकट को रेखांकित किया है, वह दुर्भाग्य से इस देश की वर्णवादी सोच को प्रतिपादित करता है। जिस तरह जाति टोलों, जैसे राजपूत टोली, कायस्थ टोली, यादव टोली का उल्लेख रेणु ने आज से सात दशक पहले के मेरीगंज जैसे कस्बे के रूप में किया था, वही आज इक्कीसवीं सदी में भी मौजूद हैं। जातिगत उपनिवेश के रूप में ऐसे टोले-मोहल्ले पूरे भारत में दिखाई दे जाएंगे। दरअसल सामंतवाद, जातिगत अस्मिता-बोध इधर हिंदी पट्टी में और गहरा हुआ है। बल्कि कहना होगा कि यह जातिगत-बोध अब संप्रदाय और समुदाय के शिक्षित वर्ग में ज्यादा नजर आने लगा है। मेरीगंज अपने आपमें कोई गांव-कस्बा नहीं है, बल्कि यह भारतीय ग्रामीण समाज का वह यथार्थवादी रूपक है, जो आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी हमें दिखाई देता है।

नि:संदेह ‘मैला आँचल’ सभ्यतागत त्रासदी के साथ-साथ स्थानीय सभ्यताओं के टकराव का आख्यान भी है। यह उपन्यास भारतीय उपमहाद्वीप के समाजशास्त्र और उसके बदलते स्वरूपों को समझने का एक आधुनिक साहित्यिक सर्वेक्षण भी है। ‘मैला आँचल’ महज एक आंचलिक उपन्यास भर नहीं है, बल्कि यह उस भारत की भी दारुण कथा है, जिसका गरीब-गुरबा समुदाय पहले बेहतर भविष्य का सपना लिए अपनी जड़ों से उखड़ कर शहरों की तरफ आता है, और अचानक किसी संक्रमण के भय से फिर से अपनी जड़ों की तरफ़ लौटने की कोशिश करता है। मगर तब तक देर हो चुकी होती है और उन्हें सैंकड़ों मील पैदल चलकर भूखे-प्यासे रहना पड़ता है। बढ़ते पूंजीवाद और बाजारवाद की चपेट में आया शोषित-वर्ग आज भी वहीं खड़ा नजर आता है, जहां वह आजादी के आसपास था।           

(3) अगर मैं रेणु की कहानियों की लालित्यपूर्ण संवेदना की बात कहूँ, तो यह संवेदना इतनी बारीक और महीन है कि कई बार कहानी समाप्त करने के बाद पाठक अवाक रह जाता है। उस दौर में कोई लेखक ग्रामीण समाज में टूटते जीवन-मूल्यों को इतनी बारीकी के साथ बुन सकता है, आज आप उसकी आसानी से कल्पना नही कर सकते। ‘संवदिया’ का हरगोबिन बड़ी हवेली की विधवा बड़ी बहुरिया के मायके से लौट कर जब वह बड़ी बहुरिया के पैरों में लिपट कर गुहार करता है कि तुम गांव छोड़ कर मत जाओ। मैं तुम्हारा बेटा। तुम मेरी माँ, सारे गांव की माँ, पढ़कर द्रवित कर देती है यह कहानी। ऐसी मार्मिक कहानी सालों में एकाध ही लिखी जाती है। लोक-भाषा और लोकानुभवों की बुनियाद पर खड़ी रेणु की ज्यादातर कहानियाँ उसी नए यथार्थ की कहानियाँ हैं, जिस यथार्थ और मनोभूमि को नई कहानी आंदोलन छू भी नहीं पाया था। कहना चाहिए कि रेणु की कहानियाँ संवेदना के स्तर पर एक नए सौंदर्यशास्त्र का निर्माण करती हैं। इनकी कहानियाँ भले एक अंचल या जनपद के लोक-जीवन पर लिखी कहानियाँ लग सकती हैं, मगर सचाई यह है कि गहरी मानवीय संवेदनाओं और बदलते सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ ये पूरे भारतीय लोक-जीवन की संवेदनाओं का मार्मिक आख्यान हैं।

 (4) मुझे लगता है कि रेणु की सबसे बड़ी ताकत उनकी सामाजिक सक्रियता रही है। बिना इस सक्रियता के आप साहित्य के समाजशास्त्र को नहीं समझ सकते, बल्कि मैं तो कहूंगा कि सिर्फ सामाजिक सक्रियता ही नहीं, उनकी राजनीतिक सक्रियता भी उनकी बड़ी ताकत रही है। बिना राजनीतिक समझ और सक्रियता के कई बार आपको सत्ता के चरित्र को समझने में बड़ी मुश्किल पेश आती है। हम जानते हैं कि रेणु ने भारत छोड़ो आंदोलन और सोशलिस्ट पार्टी में सक्रिय रहने के अलावा नेपाली क्रांतिकारी आंदोलन में भी हिस्सा लिया। मेरा मानना है कि सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता ये दोनों तत्व एक लेखक की वैचारिक समझ को समृद्ध करते हैं। सामाजिक सक्रियता किसी भी लेखक को अपने लोक को समझने का सबसे बेहतर माध्यम है। यह सक्रियता प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में होती है। अगर हम रेणु के संपूर्ण लेखन पर नजर डालें, तो पता चलेगा कि उन्हें अपने समाज की कितनी बारीक समझ थी। दरअसल यही समझ किसी भी लेखक के लेखन को प्रामाणिक और विश्वसनीय बनाती है।

आपने पूछा कि जो सामाजिक सक्रियता रेणु के लेखन में नजर आती है, उसका नए युग में क्यों क्षरण होता है? इसका प्रमाण और जवाब आपको वर्तमान कथा-लेखन में मिल जाएगा। दरअसल, कथा-लेखन सिर्फ शिल्प और शब्दों की बाजीगरी का खेल नहीं है। कथा-लेखन आपकी जीवन-दृष्टि को भी व्यक्त करता है। सिर्फ कल्पना या शिल्प से कथा, कथा नहीं बनती है। कथा बनती है आपकी स्मृतियों और स्मृतियों के आधार पर की गई कल्पनाओं से। अगर आपके पास स्मृतियाँ हैं तो आप अपनी कल्पना-शक्ति से एक संवेदनशील कहानी बुन सकते हैं। हमारे जीवन के दुख-दैन्य, अभाव-अज्ञान, सामाजिक शोषण-कुचक्र, मानवीय पीड़ाओं और संघर्षों को एक लेखक तब तक नहीं समझ सकता, जब तक उसकी सामाजिक सक्रियता या भागीदारी नहीं होगी।      

 (5) स्थानीयता दरअसल है क्या? मेरी नजर में एक अंचल विशेष की सांस्कृतिक और जीवन- पद्धति या उसकी कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताएँ उसे स्थानीयता का दर्जा प्रदान करती हैं, जिसे दूसरे अर्थों में उसकी पहचान भी कहा जा सकता है। इसका मतलब यह नहीं है कि स्थानीयता अपने आपमें कोई दुर्गुण है, बल्कि यह स्थानीयता उसकी सबसे बड़ी ताकत भी है। यहाँ रेणु की स्थानीयता के अलग मायने हैं, तो राही मासूम रज़ा की स्थानीयता के अलग मायने हैं। एक स्थानीयता, दूसरी स्थानीयता का स्थानापन्न नहीं हो सकती। मगर दुर्भाग्य से स्थानीयता या कहिए आंचलिकता को हम एक रूढ़ि के रूप में इस्तेमाल करने लगे हैं। इसे ग्राम बनाम नगर, सभ्य बनाम असभ्य, क्षेत्रीयता बनाम स्थानीयता के सांस्कृतिक खांचों में बांट दिया गया है। मैं एक कथाकार होने के नाते इस बात को स्वीकारता हूँ कि समकालीन कथा-लेखन, विशेषकर उपन्यास को रेणु का ऋणी होना चाहिए, जिसने हिंदी कथा-लेखन के स्थानीय-बोध को पहचानने का आत्मविश्वास पैदा किया। अगर ऐसा नहीं होता, तो बिहार के पूर्णिया जिले के छोटे-से अंचल को केंद्र में रख कर लिखे गए ‘मैला आँचल’ की तरह, देश की राजधानी से सटे मेवात, जिसे काला पानी भी कहा जाता है, को केंद्र में रख कर लिखा गया उपन्यास ‘काला पहाड़’ भी आपके सामने नहीं होता। ऐसे उपन्यासों में ‘मैला आँचल’ की तरह आपको उनकी अपनी-अपनी दारुण कथाएं नजर आएंगी।

प्रेमचंद की सामाजिक यथार्थवादी परंपरा और विरासत को एक स्थानीयता-विमर्श को अपनी नई पहचान के साथ, रेणु ने  ‘मैला आँचल’ के रूप में आगे बढ़ाया था, उस विमर्श के काफ़िले में समकालीन उपन्यासों की एक बहुत बड़ी खेप शामिल हो गई है। इसलिए आप देख सकते हैं कि विभिन्न अंचलों और जनपदों के आख्यान उपन्यासों के रूप में हमारे सामने हैं। आज जितना दलित-विमर्श चर्चा के केंद्र में है, उतनी ही स्त्री-विमर्श पर चर्चा हो रही है। एक तरफ आदिवासी-विमर्श चर्चा में है, तो वहीं दूसरे विमर्श भी साहित्य की परिधि में आने को बेचैन हैं। यानी उपन्यास को जिस तरह सबसे लोकप्रिय और लोकतांत्रिक विधा कहा गया है, उसका विस्तार दिन-प्रतिदिन होता जा रहा है।

WZ-745G, दादा देव रोड, नज़दीक बाटा चौक, पालम, नई दिल्ली-110045 मो.9971817173

अजय तिवारी

प्रसिद्ध आलोचक। अद्यतन आलोचना पुस्तक ‘इतिहास की रणभूमि और साहित्य’।

हर कथानक सभ्यतागत त्रासदी का रूप ले लेता है

(1) फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्यिक आविर्भाव सन 1954 में अकस्मात एक चमत्कार की तरह हुआ था। उनका ‘मैला आँचल’ ग्राम जीवन की सरसता का वैभवपूर्ण चित्र उपस्थित करने के नाते सबके ध्यानाकर्षण का केंद्र बना। ‘गोदान’ में प्रेमचंद ने ग्रामजीवन के जिस रस का सम्मोहक चित्र उपस्थित किया था, उस कड़ी को नए धरातल पर रेणु ने अंकित किया। अंतर यह था कि प्रेमचंद का ‘गांव’ अपनी विशेषता लिए हुए भी भारत का कोई गांव हो सकता था, रेणु का ‘गांव’ एक विशेष अंचल का विशेष गांव था, जिसकी दूसरे क्षेत्रों से समानता कोई आवश्यक शर्त नहीं थी। फिर भी, उस समय तक भारत के शिक्षित मध्यवर्ग का – स्वयं लेखक समुदाय का – ग्रामजीवन से ऐसा अलगाव नहीं हुआ था जैसा आज है। इसलिए रेणु की रचना में प्रेमचंद की टूटी कड़ी की निरंतरता का आभास हुआ। इसने उनकी लोकप्रियता को असंदिग्ध बना दिया।

हिंदी में यह नई कविता और नई कहानी का दौर था। इसी दौर में रेणु की कहानियाँ भी सामने आईं। ‘तीसरी कसम’, ‘ठेस’, ‘पंचलाइट’ जैसी कहानियों ने उन्हें अनुपेक्षणीय बना दिया। फिर भी नई कहानी की किसी ‘त्रयी’ में उनका नाम नहीं लिया जाता था। उनकी कहानियाँ न मोहन राकेश-कमलेश्वर-राजेंद्र यादव की तरह कस्बाई समाज से महानगर में आ बसे (या आ फँसे) निम्नमध्यवर्गीय कुंठाओं को व्यक्त करती थीं, न उनमें भीष्म साहनी-अमरकांत-शेखर जोशी की प्रगतिशील चेतना ही व्यंजित होती थी। उन्हे ग्रामकथाकारों के साथ रखने के प्रयास हुए और रेणु-माार्कंडेय-शिवप्रसाद सिंह की त्रयी बनाई गई। लेकिन मार्कंडेय और शिवप्रसाद सिंह में आंचलिकता का वह वैभव नहीं था जो रेणु के सम्मोहन का आधार था। इस प्रकार, रेणु नई कहानी की मध्यवर्गीय दृष्टि और संवेदना से ही नहीं, ग्रामकथाकारों की अनुभव-न्यूनता से भी अलग थे। वे न सिर्फ गांवों से जुड़े थे और उसका प्रत्यक्ष-सजीव अनुभव रखते थे, बल्कि उनके कथानक में ग्रामजीवन से गहरी ममता भी व्यक्त होती थी, वहाँ के मनुष्यों से उन्हें प्रेम भी था। प्रेम इतना कि शहर से आनेवाली स्वार्थ, व्यक्तिवाद और व्यावसायिकता की जो प्रवृत्तियाँ गांव के पुराने सामुदायिक संबंधों में दरार डालती थीं, रेणु उनके प्रति अपने चित्रण में असहनशील होने से भी नहीं हिचकिचाते। 

नई कहानी अपने नव-महानगरीय बोध में अजनबीपन, कुंठा, अस्मिता की खोज जैसे मूल्यों को अभिव्यक्त करती थी। उसके सरोकार कस्बाई संबंधों की कसौटी पर नगरों-महानगरों के अलगाव को परखने का नतीजा थे। रेणु नगरों की अपेक्षा गांव की ओर गए। वहाँ भी संबंध टूट रहे थे, लेकिन इस टूटन को शहरी प्रभाव के रूप में देखना उस दौर के सहजबोध का ही विस्तार था। गांवों के जीवन से अनुराग और उसे तोड़नेवाली शक्तियों से चिढ़ रेणु की दृष्टि में साफ देखी जाती है। लेकिन कलाकार की इच्छा से न गांव के जीवन का बदलाव रुक सकता है, न व्यावसायिक शक्तियों का प्रवेश। इतिहास की गति निर्मम होती है। व्यावसायिकता पारंपरिक ग्रामजीवन की अबोधता को नष्ट करती है। रेणु के न चाहने पर भी वहाँ के सीधे-सादे मनुष्यों का जीवन दुर्दमनीय पीड़ाओं से भर जाता है। रेणु को इस जीवन से, उन मनुष्यों से गहरी ममता है। इसलिए उनमें गांव के टूटते हुए संबंधों को लेकर एक करुण विलाप मिलता है। यह विलाप भावुकतापूर्ण है। मिटते हुए जीवन से ममता अतीतराग का रूप लेकर प्रकट होती है। उनकी आंचलिकता की चित्रण-विधि पर ध्यान देते समय इस दृष्टि को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।

आंचलिकता की जिस प्रवृत्ति से रेणु का संबंध था, उसमें उनके सहधर्मी थे नागार्जुन और राही मासूम रज़ा। नागार्जुन की कथाभूमि रेणु की तरह मैथिल समाज थी, राही की कथाभूमि अवध का ग्रामांचल थी। नागार्जुन और राही भी ग्रामीण जीवन को ममता के साथ चित्रित करते हैं, लेकिन उनमें इतिहास-विरुद्ध भावुकता नहीं है। वे गांव के जीवन में हस्तक्षेप करनेवाली बाहरी शक्तियों के साथ-साथ वहाँ के जीवन के अपने अंतर्विरोधों को भी तटस्थ होकर देखते हैं। रेणु की तरह वे शहर बनाम गांव का खाका नहीं पेश करते। उनमें गांव के जीवन से प्रेम अतिरिक्त ममता का रूप नहीं लेता। इसलिए उनके यहाँ जीवन का प्रवाह अधिक मिलता है, रेणु की तरह तरलता और गीतात्मकता नहीं। आंचलिक जीवन के चित्रों में जैसी रसमयता रेणु में है, किसी और में नहीं। यह उनका वैशिष्ट्य है और सीमा भी। सीमा इसलिए कि जीवन के इस रस को खंडित करने के लिए वे व्यावसायिक नगरीय हस्तक्षेप को अक्षम्य मानते हैं। इसीलिए ग्रामजीवन की सरलता और अबोधता को भी अतिरंजित करते हैं। प्रेमचंद के गांव से रेणु के गांव की तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाएगा।

(2) ‘मैला आँचल’ रेणु का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। उनकी कला और दृष्टि की सभी विशेषताएं और सीमाएं यहां बहुत साफ-साफ दिखाई देती हैं। मेरीगंज इतना पारंपरिक गांव है कि वहाँ आजादी की लड़ाई नहीं, उसकी सिर्फ अफवाहें पहुंची थीं। इस गांव की संरचना जातियों पर आधारित है। साथ ही, वहाँ आदिवासी भी हैं। मेरीगंज में किसान हैं, मजदूर हैं, जमींदार हैं, अंधविश्वास है, ‘गरीबी और जहालत’ भी है। दूसरी तरफ ब्राह्मण हैं, कायस्थ हैं, क्षत्रिय हैं, यादव हैं; दलित भी हैं, जो अनेक श्रमिक जातियों में बंटे हैं। सब अलग-अलग टोले में रहते हैं। ऊंची जातियों के जमींदार अलग-अलग जाति के टोले को अपने शोषण का साधन बनाए हुए हैं। इसलिए जाति और वर्ग के संबंध उलझे हुए हैं। रेणु दोनों को साथ-साथ देखते हैं। वे न जातिवाद का समर्थन करते हैं, न वर्गीय शोषण का। सच तो यह है कि जातिगत उत्पीड़न और आर्थिक शोषण के कारण यह समाज मृतप्राय है। सदियों से इस स्थिति में रहने के नाते लोग इस स्थिति को अपनी नियति मानकर सहन करते हैं। इसलिए समाज एक है, जिसके आधार पर वह अपने रसस्रोत को बनाए हुए सदियों से चला आ रहा है। इस रसस्रोत की झलक उनके लोकगीतों में मिलती है। अपनी स्थिति और उच्च वर्गों के आडंबर के प्रति जागरूकता का अभाव नहीं है, यह ‘विदापति नाच’ और ‘विकटों’ से जहिर है। इस तरह, असंतोष और संघर्ष की सारी सामग्री मौजूद है। ज्यों ही वहाँ राजनीति का हस्तक्षेप होता है, सारे अंतर्विरोध उद्घाटित हो जाते हैं। आदिवासी, दलित और पिछड़े एक तरफ, जमींदार और उच्च वर्ण दूसरी तरफ, मेरीगंज में संघर्ष फूट पड़ता है। इस संघर्ष का नेतृत्व कालीचरण करता है जो यादव जाति का है। वह सोशलिस्ट पार्टी का कार्यकर्ता है। सोशलिस्ट पार्टी के नेता भी यादव हैं। लेकिन सवर्णों और जमींदारों के प्रत्याक्रमण के बाद ये नेता अपने ईमानदार कार्यकर्ता को दुत्कार देते हैं। संघर्ष कुचल दिया जाता है। इस तरह, न जातिवाद खत्म होता है, न आर्थिक शोषण। लेकिन स्वाधीन भारत में इन दोनों बीमारियों का समाधान इतिहास ने नहीं दिया तो लेखक अपनी कल्पना से उसे कैसे खत्म कर सकता है?

ऐतिहासिक संघर्ष और परिवर्तन का हर कथानक सभ्यतागत त्रासदी का रूप ले लेता है। ‘मैला आँचल’ इसका अपवाद नहीं है। इसीलिए वह स्वाधीन भारत का विश्वसनीय चित्र प्रस्तुत करता है। इस त्रासदी का एक पहलू है मेरीगंज के जीवन का छिन्न-भिन्न होना। समस्याएँ हल नहीं हुईं, जीवन तबाह हो गया। रेणु की चेतना में यह व्यथा जिस रूप में निहित है, उसका परिणाम यह है कि वे हस्तक्षेपकारी राजनीति को अभिशाप की तरह देखते हैं। समाधान वे भी करते हैं लेकिन राजनीतिक शक्तियों और जनता के संघर्षों द्वारा नहीं, जमींदार विश्वनाथ प्रसाद के हृदय परिवर्तन द्वारा। उनका यह दृष्टिकोण ‘परती परिकथा’ में और अधिक स्पष्ट तथा उद्धत हो गया है। इसलिए सभ्यतागत त्रासदी अपनी परिणति में स्वांग बन जाती है। प्रेमचंद की ‘रंगभूमि’ की तरह परिवर्तन की गति का तटस्थ चित्रण न होकर लेखक की भावना से रंजित वर्णन नैराश्यपूर्ण मनोभावना व्यक्त करता है। पुराना हर तरह से रक्षणीय है, नया हर तरह से अमानवीय है, यह भावुक नजरिया यथार्थ को दबा देता है और पूरी संवेदना मानो एक प्रकार के मरणराग की आवृत्ति लगने लगती है। रेणु की समर्थ कला उनकी भावुकता की बलि चढ़ जाती है।

(3) अपनी कहानियों में रेणु गांव के सीधे-सादे, भोले और परिश्रमी मनुष्यों के चरित्र अंकित करते हैं, वहाँ की प्रकृति और संस्कृति की छवियां प्रस्तुत करते हैं। यह सब जिस संश्लिष्ट और सृजनात्मक रूप में पाठक के सामने आता है, वह अत्यंत मोहक और ललित है। हिरामन या सिरचन जैसे चरित्र बिना उस समाज और जीवन में डूबे नहीं मिल सकते। गांव का जीवन, वहाँ के पेड़-पौधे और पशु-पक्षी, वहाँ की विशिष्ट लोकसंस्कृति, सब मिलकर ऐसा रसायन बनाते हैं कि रेणु अनुकरणीय, अद्वितीय प्रभाव छोड़ते हैं। उनकी रचना-शैली इस रसायन का सहज विस्तार है। लेकिन उसे अधिक आत्मीयतापूर्ण बनाता है उस जीवन से रेणु का ममत्व।

(4) रेणु की चेतना का विकास स्वाधीनता संघर्ष के दिनों में हुआ था। तब प्रत्येक बुद्धिजीवी के सामने महान सामाजिक लक्ष्य थे। रेणु स्वाधीनता के बाद इन लक्ष्यों के लिए सामाजिक-राजनीतिक मोर्चे पर सक्रिय हुए। ऐसे लेखकों में वे अकेले न थे। रामवृक्ष बेनीपुरी, नागार्जुन जैसे बहुत-से लेखक राजनीति में सक्रिय थे। अपने स्वप्नों को केवल उपन्यास-कहानी में साकार करने की जगह उनके लिए व्यावहारिक जीवन में संघर्ष करना प्रतिबद्धता को क्रियात्मक रूप देना है। रेणु लोहिया-जयप्रकाश की राजनीति से प्रेरित थे। वे कांग्रेस और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीति का चरित्र खूब समझते थे। वे उस राजनीति की पूंजीवादी और सांप्रदायिक अंतर्वस्तु को अस्वीकार करते थे। वामपंथ की काम्युनिस्ट राजनीति से भी उन्हें सहमति न थी।  उनके साहित्य में दृष्टिकोण की बहुत सी विशेषताएं और सीमाएं लोहियावादी नजरिए की देन हैं। पिछले पचीस-तीस वर्षों में पूंजीवाद के ‘उदार’ रूप का असर कुछ ऐसा फैला है कि साधारण लोग ही नहीं, बुद्धिजीवी भी सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों से उदासीन होते गए हैं। आत्मबद्धता इस नई पूंजीवादी संस्कृति की पहचान है। नतीजा, साहित्य से सामाजिक-राजनीतिक सरोकार घटे हैं, सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता में लेखकों की दिलचस्पी भी घटी है। इस नई पूंजीवादी अर्थनीति के परिणामस्वरूप जो नई अस्मितावादी राजनीति उभरी है, पिछले छह वर्षों में उसने असहमतियों के प्रति घोर अपमानजनक और दमनकारी रवैया अपनाया है। बहुमत की व्याख्या बहुसंख्यक के रूप में करना अस्मितावाद का विकृत रूप है और इस विकृति ने विवाद ही नहीं, संवाद की भाषा को भी जितना हिंसक, अशिष्ट और बहिष्कारी बना दिया है, उसे देखते हुए शरीफ लोग झंझट में पड़ने से बचते हैं। इस तरह, नए बाजारवाद के उपभोक्तावादी प्रलोभन और नई अस्मितावादी राजनीति के असहिष्णु तेवर ने मिलकर बुद्धिजीवियों में उदासीनता बहुत बढ़ा दी है। रेणु हों या बेनीपुरी और नागार्जुन, वे ऐसे में कीर्तिस्तंभ नजर आते हैं।

(5) इस समय ‘स्थानीयता विमर्श’ के अनेक रूप मिलते हैं। इस पर बात करने से पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि ‘स्थानीयता’ का विमर्श नहीं होता। विमर्श सत्ता के लिए होता है और वह उपेक्षित के रूप में अपनी पहचान बनाने पर बल देता है। इसपर विस्तृत चर्चा यहाँ संभव नहीं है। बहरहाल, स्थानीयता को विमर्श बनाने के लिए  अपनी विशिष्टता का आग्रह और अन्य स्थानीयताओं का बहिष्कार आवश्यक है। ऐसा किसी समकालीन उपन्यास में देखा नहीं जाता। रेणु की विशेषता यह थी कि उनका अंचल पूरे देश का प्रतीक था। वहाँ भारत की सभी प्रतिनिधि शक्तियां, संस्थाएं और वर्ग मिलते हैं। विभिन्न अंचलों को लेकर लिखे जा रहे समकालीन उपन्यासों में ऐसा प्रतिनिधि चित्रण प्रायः नहीं मिलता। इसलिए रेणु का महत्व अक्षुण्ण है।

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ओम प्रकाश पांडेय

लेखक, संस्कृतिकर्मी और ‘नया परिदृश्य’ के संपादक।

कहानियों के साधारण चरित्र भी  असाधारण छाप छोड़ते हैं 

रेणु की कहानियाँ अपनी बुनावट, प्रकृति, शिल्प और स्वाद में हिंदी कहानी की परंपरा में एक नई पहचान लेकर उपस्थित होती हैं। अंततः इनसे एक नई कथा-धारा का प्रारंभ होता है। उनकी कहानियां प्रेमचंद की जमीन पर होते हुए भी जितनी प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न हैं, उतनी ही अपने समकालीन कथाकारों की कहानियों से भी। कहानियों की परंपरा में रेणु की कहानियों में अंचलबोध उस मोड़ का रेखांकन करता है, जहाँ से कहानियां मध्यवर्गीय आभिजात्यवादी शहरीकरण से अलग आम जनजीवन के बीच आ गई हैं।

कथा साहित्य में प्रेमचंद की जिस परंपरा की चर्चा होती रही है, उसे रेणु ने अपने लेखन के आरंभिक दौर में ही भांप लिया था। प्रेमचंद की विरासत की चुनौती को यशपाल और रेणु दोनों ने स्वीकारा। यशपाल जहाँ शहरी मध्यवर्ग के हिमायती थे, वहीं रेणु प्रेमचंद के उस यथार्थ जीवन के पक्षधर थे जो भारतीय गांवों में बसता है। उनके पास प्रेमचंद की विरासत थी और वे अच्छी तरह जानते थे कि प्रेमचंद की परंपरा का मतलब प्रेमचंद को दुहराना नहीं है। इस गंभीर चुनौती को रेणु ने पूरी ताकत के साथ स्वीकारा। यही कारण है कि उनका संपूर्ण साहित्य प्रेमचंद की तरह ग्रामीण समाज के निम्नवर्ग पर केंद्रित होने के बावजूद प्रेमचंद का छाया-भास होने से बचता है।

रेणु की कहानियों को दो भागों में बांटा जा सकता है। एक वर्ग उन कहानियों का है जिनकी कथाभूमि ग्रामांचल है। दूसरे वर्ग में वे कहानियां समाहित की जा सकती हैं जो बंबई तथा पटना नगरों से जुड़ी हैं। उनकी प्रायः सभी चर्चित महत्वपूर्ण कहानियां- ‘तीसरी कसम’, ‘रसप्रिया’, ‘लालपान की बेगम’, ‘पंचलाइट’, ‘संवादिया’ आदि ग्रामांचल की हैं। ‘टेबुल’, ‘आजाद परिंदे’, ‘जलवा’, ‘लफड़ा’, ‘अगिनखोर’ आदि शहरी जीवन से जुड़ी कहानियां हैं। शहरी जीवन से जुड़ी कहानियों में वह सहजता नहीं मिलती जो रेणु की अपनी विशेष पहचान है। उनकी कहानियों में प्रकृति के साथ रागात्मक तादात्म्य के साथ गांवों की सांस्कृतिक छवि सबसे अधिक मुखर है। हर कहानी में एक लिरिक है, जिसमें दर्द और बेचैनी है। उसमें जीवन को समेटने की छटपटाहट है। कहानियों में आंचलिक अभिव्यक्ति एक महत्वपूर्ण पक्ष है। मुख्य बात है कि रेणु की सांस्कृतिक पकड़ कभी भंग नहीं होती। उनकी रचनाओं में धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद, रूढ़ि-आडंबर का एक्सपोजर स्वतः होता गया है।

फणीश्वरनाथ रेणु ने आंचलिक भूमि के स्वाभाविक सौंदर्य का अंकन करते हुए मानवीय संवेदना का रस संचार किया है और ऐसा करके उन्होंने पाठकों की एक बड़ी संख्या तैयार कर ली। उनकी कहानियों में मार्मिक और सजीव चित्र हैं।  रेणु कहते हैं, ‘मेरे साधारण पाठक मेरी स्पष्टवादिता तथा सपाटबयानी से सदा संतुष्ट हुए हैं और साहित्य के राजदार पंडित-कथाकार आलोचकों ने हमेशा नाराज होकर मुझे एक जीवन-दर्शनहीन, अपदार्थ, अप्रतिबद्ध, व्यर्थ, रोमांटिक प्राणी प्रमाणित किया है… सारे तालाब को गंदा करने वाला जीव। इसके बावजूद कभी मुझसे इससे ज्यादा नहीं बोला गया कि अपनी कहानियों में मैं अपने को ही ढूंढता फिरता हूँ। अपने को अर्थात आदमी को।’

रेणु की रचनाओं में गांवों के जीवन के साथ प्रकृति का चित्रण भी है। उनके पात्र अनेक सामाजिक विकृतियों तथा त्रासद स्थितियों से जुझते हुए अपनी मानवीय गरिमा बचाए रखते हैं। वे असहाय, गरीब, अनपढ़, पीड़ित और अंधविश्वासी हो सकते हैं, किंतु संवेदनशीलता के स्तर पर नगरों-महानगरों के तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले महापुरुषों से निश्चय ही श्रेष्ठ हैं।

रेणु की कहानियां पाठकों को तत्कालीन समाज की विसंगतियों से अवगत कराती हैं। वे किसानों की गरीबी, जनपद के लोगों की दुर्दशा, सामाजिक- आर्थिक वैषम्य, राष्ट्रीय राजनीति और उसका खोखलापन, कुर्सीपरस्ती, सामंती शोषण में चीखते-कराहते गांव, किसानों की विरान जिंदगी और उसी वीरानगी के मध्य हर्षोल्लास रेणु को बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता है।

रेणु की कहानियों का पाठक महसूस करता है कि हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जिसमें मनुष्य-विरोधी समाज-व्यवस्था है, उस व्यवस्था को बनाए रखनेवाली मूल्य-व्यवस्था है और उस मूल्य व्यवस्था से नियंत्रित मानवीय संबंधों का संसार है जो पीड़ित है। समाज अधिकाधिक अमानवीय होता जा रहा है। जहां मानवीय संबंध निरर्थक, राजनीतिक दावे और वादे झूठे साबित हो रहे हों वहाँ क्या कला और कलाकार का दायित्व मनुष्यता की रक्षा करना नहीं है? रेणु अपनी कहानियों को इंसानियत की तलाश का माध्यम बनाते हैं। उनकी कहानियां आस्था जगाती हैं तथा मनुष्य-विरोधी व्यवस्था के विरुद्ध उठ खड़े होने की प्रेरणा देती हैं।

रामचंद्र तिवारी ने लिखा है, ‘रेणु की कहानियों में मनुष्य अपने सहज रूप में अपनी अच्छाइयों-बुराइयों के साथ, अपनी कर्मठता, संघर्षशीलता तथा भावुकता, रसिकता, संवेदनशीलता तथा कठोरता-कोमलता के साथ उपस्थित है। इसलिए उनकी कहानियों में किसी धर्म, जाति, संप्रदाय, समाज, पार्टी, वर्ग या व्यक्ति के विरुद्ध घृणा, द्वेष नहीं मिलता है।’

यही कारण है कि रेणु कहानी में प्रचलित विशुद्धता की रक्षा की जगह लोकसंस्कृति के तत्वों की मदद से रचनाओं को अधिक प्रभावशाली बनाने की कोशिश करते हैं। उनकी कहानियों की संरचना ठुमरी-धर्मा है। उसमें मूल कथा के भीतर सहायक कथाएं हैं और कहीं एक प्रसंग के साथ दूसरे प्रसंग जुड़े हुए हैं।

रेणु की कहानियों में अनेक वर्गों के पात्र देखे जा सकते हैं। उनमें गांव के आम आदमी- बढ़ई, मिस्त्री, गाड़ीवान, पहलवान आदि हैं। गांव छोड़कर शहर जानेवाले युवक हैं। रेल के साधारण कर्मचारी हैं। चोर, डाकू, बदमाश, पुलिस, दरोगा हैं। योगी, संन्यासी, पंडा, पुरोहित हैं। नृत्य, संगीत, नौटंकी, लोकगीत, कथागीत, लोककथा, लोकनृत्य हैं, गीत गायक संस्कृति-कर्मी हैं तथा विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता तथा सरकारी कर्मचारी हैं। रेणु की मुख्य विशेषता है कि छोट-छोटे संदर्भों से जुड़कर क्षण भर के लिए कथा मंच पर आनेवाले उनके पात्र भी पाठक के मन पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं। इन पात्रों के साथ उनका पूरा परिवेश सामने आ जाता है। हर पात्र की बोली, रुचि, स्वभाव, चाल-ढाल, संस्कार, बात करने का लहजा, स्वर, भंगिमा, मुद्रा आदि को रेणु इस प्रकार मूर्त करते चलते हैं कि हम उन्हें बड़ी आसानी से एक-दूसरे से अलग कर सकते हैं।

रेणु की भाषा में अपूर्व काव्यमयता है। वे उस भाषा में बोलते हैं, जिसमें उनके गांव, उनके घर के लोग बोलते हैं। रेणु की भाषा में ग्रामीण संस्कृति की आत्मा बसी हुई है। स्थानीय भाषा को सहज तथा प्रभावशाली ढंग से प्रयोग के क्षेत्र में रेणु ने अपनी प्रखर प्रतिभा का परिचय दिया है। स्थानीय भाषा का उनका प्रयोग आंचलिक मानसिकता के प्रकाश में सहायक हुआ है। ठेठ देशीपन की भी विशिष्ट रंग-ढंग लिए अलग पहचान है। रेणु ने जिस हिंदी गद्य को रचा है उसमें पाठकीय संवेदना को झकझोर देने की असीम शक्ति है।

संपादक-नया परिदृय, गेट बाजार,(एन. जे. पी.), पो-भक्तिनगर, सिलीगुड़ी, पिन-734007 (पं. बंगाल) मो. 9434494430  ई-मेल : dromprakashpandey80@gmail.com

विष्णु नागर

वरिष्ठ हिंदी कवि, गद्यकार और ‘नवभारत टाइम्स’ सहित कई प्रमुख पत्रिकाओं में संपादकीय दायित्व का निर्वाह। हाल ही में रघुवीर सहाय पर एक पुस्तक प्रकाशित।

राजनीति के बगैर रेणु, रेणु न होते

‘राजनीति हमारे लिए दाल-भात की तरह है।’

‘मेरा लेखक मर चुका था। बिहार आंदोलन ने उसे पुनः जीवित कर दिया है।

अब मुझे लगने लगा है कि जिस समाज में मैं रह रहा हूँ, वह सुधर सकता है।’

हमारे दो बड़े लेखक-फणीश्वरनाथ रेणु और नागार्जुन- बिहार के मिथिलांचल से थे। इनका मिथिलांचली होना एक संयोग था, मगर असली समानता उन दोनों लेखकों की विचार और कर्म के स्तर पर सक्रिय राजनीतिक सक्रियता थी। शायद रेणु की सक्रियता ज्यादा थी। नागार्जुन यायावर थे, देशभर में घूमते रहते थे, मगर रेणु को आना-जाना सामान्य रूप से ही प्रिय था (याद करें ‘ऋणजल’ के वे अंश जब सूखे की कवरेज के लिए आए ‘दिनमान’ के संपादक अज्ञेय के साथ जाने को एक तरह से अपनी विवशता ही बताते हैं। हालांकि जीवन से उनका रागात्मक संबंध इतना है कि सूखे से उत्पन्न स्थिति पर वह जो रिपोर्ताज लिखते हैं, वह द्रवित करनेवाला है)। बिहार में रेणु की राजनीतिक सक्रियता में लगभग निरंतरता रही। दोनों लेखकों की राजनीतिक दिशाएं थोड़ी अलग थीं। रेणु विश्वासों से समाजवादी थे, नागार्जुन साम्यवादी। दोनों के मन में एक-दूसरे के प्रति गहरा सम्मान था। बिहार आंदोलन के समय दोनोंं साथ थे, बाद में नागार्जुन ने इस आंदोलन में संघ के कारण अपने को उससे अलग कर लिया था।

1952 तक रेणु सोशलिस्ट पार्टी में रहे। उन्होंने 1938 में पार्टी के सोनपुर में हुए ‘समर स्कूल आफ पालिटिक्स’ में डेढ़ महीने तक राजनीतिक प्रशिक्षण भी प्राप्त किया था। उस स्कूल के प्रिंसिपल जयप्रकाश नारायण थे। उस अवसर पर आचार्य नरेंद्र देव, अच्युत पटवर्द्धन आदि उस समय के बड़े समाजवादी नेता उद्बोधन देने आए थे। रेणु पर इसका अनुकूल प्रभाव पड़ा था। उस समय तो वह चाहकर भी  पार्टी में सम्मिलित नहीं हो सके थे, क्योंकि वह बनारस में पढ़ रहे थे। मगर रामकृष्ण बेनीपुरी  के संपादन में निकलनेवाले साप्ताहिक ‘जनता’ के कारण दूर रहकर भी इसमें ‘सम्मिलित होने जैसा लाभ’ उन्हें हुआ था।

बाद में वे अपने क्षेत्र में किसान मोर्चे पर डटे रहे। उन्होंने मिल मजदूरों की हड़ताल में नारे लगाए, भाषण दिए, तमाम ऐसे संघर्षों के बारे में पार्टी की साप्ताहिक पत्रिका ‘जनता’ में लिखा। उनके लेखन की तारीफ भी होती थी। ‘लोग पीठ ठोकते थे। कहते थे बहुत अच्छा लिख रहा है मगर जो मिलिटेंट वर्कर थे, वे कहते थे, ये सब कुछ ठीक लिखते हैं, पर्चा भी बढ़िया लिखते हैं। नेता आते हैं तो मानपत्र भी अच्छा लिखते हैं। बाढ़ और अकाल के समय रिपोर्ताज भी बढ़िया लिखते हैं। सब कुछ सही है मगर एक खामी है और खामी यह है कि बाढ़ और अकाल में काम करने के लिए जो लोग जाते हैं, नौजवानों का वह गिरोह जो नाव लेकर गांव-गांव पहुंचता है, रोटियां बांटता है, आपने तो उसे आदमी ही रखा। उसे पार्टी का आदमी होना चाहिए था और अपनी पार्टी का आदमी होना चाहिए था।’ रेणु को इन सब बातों से यह समझ  में आ गया, ‘पार्टी में हमारी नियति यही है कि हम राजनेताओं के भाषण लिखें और उसे किस पॉइंट में छापा जाए, कहां छापा जाए, किस तरह से छापा जाए, यह तय करेंं।’ इतना ही नहीं बल्कि बाद में तो उनकी नीयत पर भी संदेह किया जाने लगा।

अगर किसी नेता के बारे में बड़ी सुर्खी चली जाए, कंपोजिंग सेक्शन की वजह से या किसी और वजह से तथा दूसरे का नाम यदि छोटे में छप जाए तो उनकी नीयत पर संदेह किया जाता था। इससे उनका दिल दरका। उन्हें समझ में आने लगा था कि राजनीति में लेखक की स्थिति दूसरे दर्जे की ही होती है। वह पार्टी चाहे, सोशलिस्ट क्यों न हो। इनके सांस्कृतिक मोर्चे भी अर्थहीन होते हैं, इसलिए पार्टी में रहते हुए भी रेणु ने इस मोर्चे की घोषणाओं पर कभी यकीन नहीं किया। उन्हें यह भी समझ में आया कि हर पार्टी का अपना एक ‘तबेला’ है। पार्टी  अपने चारों तरफ दीवारें खींचकर अपने ‘कमअक्ल’ कामरेडों को बाहर के आकर्षण से बचाती है। दो ऐसे अनुभवों के बारे में रेणु ने लिखा भी है।

एम. एन. राय की विचारधारा के एक कलाकार से किसी ने उन्हें मिलते देख लिया तो अगले ही दिन पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने उन्हें बुलाकर एम.एन. राय के विरुद्ध भाषण पिला दिया। एक अच्छे मित्र और एक कम्युनिस्ट छात्र नेता से वह मिला करते थे तो एक बार स्वयं रामवृक्ष बेनीपुरी ने उन्हें समझाया कि क्यों उन्हें कम्युनिस्टों से बात नहीं करना चाहिए। एक वरिष्ठ लेखक के मुंह से ऐसी बातें सुनना रेणु के लिए निश्चित रूप से अधिक दुखदायी रहा होगा। उनके मोहभंग के कारणों में यह भी एक रहा होगा।

1952 में प्रथम आम चुनाव से पहले ही वे अपने को राजनीति के लिए अनुपयुक्त समझने लगे थे। वह समझ चुके थे कि दलगत राजनीति चाहती है कि बुद्धिजीवी अपनी बुद्धि गिरवी रख कर पार्टी के लिए काम करे, उसके आदेश मानें। वहां किसी व्यक्ति, किसी गुट का अपना आदमी होना आवश्यक है। उन्होंने राजनीति को तिलांजलि दे दी, मतलब पार्टी छोड़ दी लेकिन ‘जिन मूल्यों के लिए पार्टी में आया था, वे मूल्य मेरे साथ रहे।’

उन्हें इस बीच यह अहसास भी हुआ कि लेखन ही उनकी दुनिया हो सकती है। उन्हें किसी पत्रिका का चिकने कागज का एक टुकड़ा कहीं से मिला था। उसमें इस आशय का कुछ लिखा था कि जिसका साहित्य और राजनीति में समान रूप से दखल हो, दोनों ही क्षेत्र में काम करने की जिसकी क्षमता बराबर हो, अगर कभी उसे दो में से एक को चुनना हो तो साहित्य का चुनाव करनेवाला व्यक्ति बुद्धिमान होता है। इस सुभाषित ने उन्हें तत्काल दुविधा से निकाला और ‘बुद्धिमान’ होने के लिए प्रेरित किया। वह कहते हैं कि इसके बावजूद लेखन में वह  ‘राजनीतिज्ञ’ रहे। ‘दिनमान’ को दिए एक साक्षात्कार में भी उन्होंने कहा था कि वह सक्रिय राजनीति से भले अलग हो गए थे, मगर राजनीति से उन्होंने कभी संन्यास नहीं लिया था। ‘मैला आंचल’, ‘परती : परिकथा’, ‘दीर्घतपा’, ‘जुलूस’, ‘कितने चौराहे’ आदि उपन्यासों को वह इसका प्रमाण बताते हैं- ‘अपने क्षेत्र की राजनीति का सीधा असर मुझ पर अब तक पड़ता रहा है। गांव समाज में संग्रामी -सुराजी किसान का बेटा पहले हूँ- लेखक बाद में।’

उन्होंने साहित्य का रास्ता चुना था, मगर राजनीति में पैदा हुई घुटन उनके लेखक में भी घुटन पैदा करती थी- ‘यहां तक कि पागल हो जाने या आत्महत्या करने तक के खयाल आने लगते थे।’ बिहार आंदोलन से पहले वह देख रहे थे कि जिस प्रकार भ्रष्टाचार व्यक्ति और समाज के एक-एक अंग में घुन की तरह लग गया है तो मैं किसके लिए लिखता? बिहार आंदोलन उनके लिए ‘स्वच्छ हवा की एक खिड़की खोलनेवाला साबित हुआ। यह खिड़की न खुली होती’ तो मैं खुदकुशी कर लेता। यह आंदोलन तो जीने की एक चेष्टा है मगर आपातकाल ने फिर उन्हें बहुत गहरी घुटन दी। वह अपने आप से सवाल करने लगे थे- ‘क्या उन्होंने सैकड़ों-सैकड़ों पृष्ठों के ग्रंथ इसी दिन के लिए लिखे थे?’ ‘अब मुझसे अधिक बर्दाश्त नहीं होता है।’ ‘मेरी जीने की इच्छा खत्म हो गई है। अब मुझसे सहा नहीं जाता। मैं अपने हाथों अपना गला नहीं घोट सकता। मुझे ये लोग जेल क्यों नहीं ले जाते?’

राजनीतिक घुटन से उत्पन्न ऐसी वेदना हमारे कितने  हिंदी लेखकों में मिलती है? आज हम उससे भी भयानक स्थिति का सामना कर रहे हैं। ऐसी वेदना तो छोड़िए, बच-बच कर चलने और छुपने की होशियारी बहुत दीखती है।

बहरहाल रेणु की निराशा के चरम दिनों में जयप्रकाश नारायण मुशहरी में- जहाँ पर नक्सलवादियों का बड़ा जोर था- जम कर  बैठ गए। ‘और क्या किया, क्या नहीं किया उन्होंने (जेपी ने) कि सब नौजवान शांति सेना में भर्ती होने लगे।’ वहाँ से रेणु को जयप्रकाश नारायण ने चिट्ठी लिखी कि ‘मैला आँचल’ आज भी मैला है बल्कि पहले से ज्यादा मैला हो गया है और आपके जैसा लेखक चुप है। आप गांव में आइए। पहले तो रेणु को बड़ी हँसी आई- ‘यह आज मुसहरी गए हैं तो गांव की हालत देख रहे हैं, मैं वहां जन्मा हूँ, भोग रहा हूँ सब कुछ। हँसी तो आई थी लेकिन एक भरोसा भी जगा था कि कम से कम भूमिहीनों की अवस्था को इन्होंने गांव में पालथी लगा कर देखा तो है।’

रेणु की गहन जनप्रतिबद्धता का अनुमान उनकी मृत्यु के कुछ समय बाद नागार्जुन ने जो उनके बारे में कहा था, उससे होता है। नागार्जुन पटना के एक फुटपाथिया ढाबे में रोटी-सब्जी खा रहे थे। आलोचक गोपेश्वर सिंह को वह नजर आ गए। बातों-बातों में गोपेश्वर जी ने कहा कि बाबा, रेणु तो यहाँ रोटी नहीं खा सकते थे। नागार्जुन ने कहा कि हाँ, वह यहां रोटी नहीं खा सकते थे लेकिन इनके लिए वह गोली जरूर खा सकते थे।

रेणु की इस राजनीतिक प्रतिबद्धता की बात के बारे में लिखते हुए अगर उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की संक्षेप में बात न करें, तो अन्याय होगा। उनके पिता शिलानाथ मंडल स्वयं राजनीतिक-सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न व्यक्ति थे। वह कांग्रेस के सदस्य थे। उस जमाने में राजनीति कर्मी-आज से विपरीत-पढ़ने लिखने में भी काफी दिलचस्पी लेते थे। शिलानाथ मंडल अपने घर पुस्तकें और पत्रिकाएं मंगवाते थे। उनके यहां हिंदी और बांग्ला की पत्रिकाएं आती थीं। बचपन में रेणु जी की आंखों के सामने ‘चाँद’ के ऐतिहासिक फाँसी अंक, ‘हिंदू पंच’ के बलिदान अंक और पंडित सुंदरलाल की पुस्तक की जब्ती के लिए तलाशी दो बार हुई थी। एक बार तो रेणु घर में थे। सिपाही के सामने ही स्कूल जाने का बहाना बना कर अंग्रेजों को अखरनेवाली किताबें-पत्रिकाएँ लेकर घर से निकल गए थे। रेणु जी के अनुसार उनके पिता को मन ही मन ऐसी तलाशी होने पर गर्व होता था तो तलाशी से रेणु के अपने मन का भय भी जाता रहा।

एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि उनके घर में जो पुस्तकें थीं, उन्हें पढ़कर और कई पुस्तकों में लेनिन की तस्वीरें देखकर उनकी पार्टी की और उनकी कहानियां पढ़कर वह रोमांचित होते थे। इसलिए तब उनका एक संस्कार बना, जो किसान-मजदूरों की मानसिकता से जुड़ा रहा। वह यह भी मानते थे कि गांव के ये किसान-मजदूर ही मुझसे लिखवा जाते थे, ठीक उसी प्रकार जैसे भूख लगने पर आदमी एक्शन और तनाव दोनों महसूस करता है।

 

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