प्रेमकुमार गौतम (.प्र.) : ‘वागर्थ’ जून-नवंबर 2021 अंक में प्रकाशित कुछ दिवंगत रचनाकारों की रचनाओं ने बरबस ध्यान खींच लिया| शरतचंद श्रीवास्तव की कविता ‘आधी रात’, सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव की कथा- ‘कीचड़’ बेहद मर्मस्पर्शी बन पड़ी है| मरहूम जहीर कुरेशी की कथा – ‘दर-ब-दर’ प्रवासी मजदूरों की व्यथा-कथा और विवशताओं को चश्मदीद सरीखा बयां करती है| इन दिवंगत रचनाकारों को बधाई नहीं दे सकता सो उम्दा-सच्ची रचनाओं के प्रति इन्हें मेरे श्रद्धासुमन समर्पित हैं| इसी अंक में नरेंद्र पुंडरीक, ब्रजनाथ श्रीवास्तव और जावेद असलम खान के अलावा जार्जियन इका की भावुक लंबी कविता – ‘खान मजदूर की पत्नी’ की व्यथा भी गांव-खेत किसान-मजदूरों के लिए जरूरी स्पेस बनाती है| सभी रचनाकारों को बधाई| हिंदी लोकवृत्त पर पूरे बीस पन्नों की बहस का औचित्य समझ नहीं आता, भारत पर इंडिया की लेबल बहसों से ढोना मुमकिन नहीं| खैर वागर्थ की पठनीयता व उम्दा रचनाएं अपनी जगह हैं| यही स्तर बनाए रखें|

भावना सिंह, हालिशहर : ‘वागर्थ’ दिसंबर-2021 अंक के बतरस में छपी कुसुम खेमानी जी की रचना ‘मारवाड़ी-राजबाड़ी ‘एक धनाढ्य परिवार का कड़वा सच सामने लाती है| केवल वर्णों में ही नहीं हर वर्ग में स्त्रियों को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है – ऋतु इसका ज्वलंत उदाहरण है| इस रचना को पढ़ते हुए राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश’ अनायास ही ज़ेहन में उछल-कूद करने लगता है-  नारी ही नारी के कष्टों का कारण है| एक तरफ इक्कीसवीं सदी का भारत चांद पर छुट्टी बिताने की बातें सोच रहा है, वहीं ऋतु जैसी पात्र को केवल अपनी पढ़ाई पूरी करने हेतु पूरे परिवार के तानों को सहना पड़ता है| नौबत यहाँ तक आ जाती है कि ऋतु अपनी लिखित परीक्षा में केवल इसलिए समय पर नहीं पहुँच पाती कि बड़ी जेठानी की सिल्वर वर्षगाँठ के कार्यक्रम की तैयारी करनी है, क्योंकि उस धनाढ्य परिवार के लिए पहली प्राथमिकता ऋतु द्वारा कार्यक्रम में भागीदारी है न कि उसकी परीक्षा| हम कितना भी आधुनिक होने का दावा कर लें या ये कहें कि अब हम पश्चिमी देशों के बराबर के प्रतियोगी हैं, पर हमारी मानसिकता वही की वही है| शायद हम निकलना ही न चाहते हों| 

इसी के तर्ज पर हुस्न तबस्सुम निहां की कहानी ‘अनबीता व्यतीत’ पढ़ने को मिली| यह कहानी भी साफ-साफ बताने की कोशिश करती है कि एक स्त्री की कोई महत्वाकांक्षा ही नहीं होती| उसे सृष्टि ने भेजा है केवल पति को परमेश्वर मानकर सेवा करने और बच्चे पैदा करने के लिए| अब आधुनिकता का चेहरा एक नए रूप में देखने को मिल रहा है| जिसमें कामकाजी लड़कियों का विवाह के प्रति मोहभंग है| अगर सतही तौर पर देखें तो ये बहुत ही फूहड़ संस्कृति का परिचायक होगा, पर गंभीरता से इस मसले पर नजर डाला जाए तो यह बात साफ-साफ समझ में आने लगेगी कि जिस तरह हमारी मां, चाची, मौसी ने तो जिंदगी निबाह ली, क्योंकि वे कम पढ़ी-लिखी  थीं, उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था, चाहे खुश होकर हो या दुखी होकर ही सही पर रहना पड़ेगा ससुराल में ही, क्योंकि विवाहोपरांत  मायके में लड़कियां मेहमान ही बन कर रह जातीं हैं| वहीं कामकाजी महिलाओं के समक्ष ये चुनौतियां नहीं हैं| वे इस लचर मानसिकता से पूरी तरह स्वतंत्र हैं| तभी तो शहरों में आजकल चाय की दुकान पर लड़के भले ही सिगरेट पीते न नजर आएं, पर लड़कियां सिगरेट पीती जरूर नजर आएंगीं| यह केवल उनका सिगरेट पीना नहीं है, बल्कि बार-बार वे खुद को भरोसा दिलाना चाहती हैं कि वे पुरुषवादी/लचर मानसिकता के जाल को तोड़ चुकी हैं|

के पी अनमोल : दिसंबर अंक में नर्मदेश्वर की ‘अज़ान’ बहुत अच्छी कहानी है| आधुनिक समय में कलाकारों की दयनीय स्थिति का मार्मिक चित्रण करती हुई| परिवेश को भी पूरी तरह जीवंतता से दर्शाया गया है| महत्वपूर्ण बात यह है कि रचनाकार ने कहानी में अज़ान के बोल भी बिलकुल दुरुस्तगी के साथ रखे हैं, इस एक्यूरेसी की उम्मीद कम ही होती है| यथार्थ को मार्मिकता से अभिव्यक्त करती कहानी के लिए साधुवाद|

कविता सिंह : दिसंबर अंक में चेतनादित्य आलोक की ‘हवा का मूल्य’ प्रकृति और स्वास्थ्य के महत्व को रेखांकित करती लघुकथा है, जो अंतिम वाक्य में मानवता के पेशे मेडिकल पर करारा तंज भी करती है!

राजा अवस्थी, कटनी: नवंबर अंक में मनीषा झा की तीनों कविताएं- सीख, नज़रिया और देवता बूढ़े नहीं होते वास्तविकता को उसके यथार्थ में अभिव्यक्त करती हैं| ‘सीख’ तो अद्भुत है, किंतु असीम, अछोर जकड़ बंदिशों से मुक्त हो पाना एक पिता के लिए कितना मुश्किल है! यह पिता के सिवा कोई और जान ही नहीं सकता| वह अकेली पुत्री के जीवन को नहीं देख पाता| उस परिदृश्य में पुत्री के साथ एक और बड़ा संसार देखता है वह| समस्या के मूल में यह एक बड़ा तथ्य है| बहुत सही लिखा है उन्होंने कि पिता परिवार ढूंढता है| वैसे इसके भी कई पहलू हैं| पुनः अच्छी कविताओं के लिए बधाई|

वन्या ठाकुर: आप चीजों को बहुत आसानी से समझाते हैं| जाति और लोक सौंदर्य वाली बात को आपने बहुत साफ संतुलित जगह पर रख दिया है, जबकि इस बारे में मैंने लोगों को अतिवादी ढंग से बात करते ही सुना है|

गोविंद पाल: शर्मीला जालान द्वारा लिखित  प्रबोध कुमार जी पर संस्मरण कथा बहुत अच्छी लगी| आपने बेबी पाल से संबोधन किया, जबकि बेबी अपना सरनेम में पाल लिखना पसंद नहीं करती है| ससुराल का सरनेम भले ही पाल रहा हो| बेबी हालदार प्रबोध कुमार जी को तातुश कहकर संबोधन करती थी| आपने एक वाक्य बांग्ला में लिखा है, जिसे सुधारना चाहूंगा कि ‘दिव्य हासते -हासते चले गेलो छेलेटी’, दरअसल सही ये होगा कि ‘दिब्बी हासते-हासते चले गेलो छेलेटी’, और बहुत सारी बातें हैं बेबी हालदार और प्रबोध कुमार जी को लेकर जो बेबी हालदार, जब मेरे घर आई थी, तो उनसे मैंने उनसे सुना था|

पुष्पांजलि दास:‘वागर्थ’ के जनवरी 2022 अंक में कवयित्री सरस्वती रमेश ने पिछली सदी में जन्मी बेटियों के दर्द और भावों को उजागर करने का सार्थक प्रयास, बेहद खूबसूरती से किया है|

श्याम मनोहर पाण्डेय:‘वागर्थ’ जनवरी-2022 के मल्टीमीडिया के अंतर्गत प्रसाद जी की कविताओं की प्रस्तुतियां गंभीर कर देती हैं, रुला देती हैं और फिर गुदगुदी कर देती हैं| अद्भुत एवं प्रिय कवि| अनुपम एवं आह्लादक संगीत, नृत्य तथा गायन| वागर्थ परिवार को हार्दिक बधाई एवं धन्यवाद|

नीरज नीर, राँची: जनवरी 2022 माह का ‘वागर्थ’ एक समृद्ध अंक है एवं अपनी सभी प्रकार की सामग्रियों के चलते बहुत ही उत्कृष्ट बन पड़ा है| इस अंक के संपादकीय में वर्तमान समय की हिंदी कविता की परिस्थितियों, उसके कारण एवं परिणाम की जो पड़ताल प्रस्तुत की है, वह अद्वितीय है| बिना किसी वैचारिक दबाव के लिखे इस विस्तृत संपादकीय में समकाल की कविता के सामने उपस्थित विभिन्न प्रकार की चुनौतियों, उसकी क्षमता एवं उसकी जिम्मेवारी का अत्यंत ही विश्लेषणात्मक विवरण दिया गया है|