वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

डाली पर खिले फूलों की सराहना कर देना और बात है, लेकिन फूलों की टहनियों और जड़ों तक से उनकी तफतीश कर गहराई तक उनका इतिहास भूगोल जान लेना और बात। हालांकि अपनी क्लासों को टघे खिला खिला कर ॠतु ऊपर चढ़ती गई थी पर ऊँची इमारत के लिए जिस गहरी नींव की, जिन अनुभवों की, ज़रूरत थी, वे ॠतु की इस छोटी-सी उम्र में कहाँ से आते? क्लास की लंबी-तड़ंगी लड़कियाँ उसकी दोनों चोटियाँ खींच-खींच कर यह कहती न अघाती थी कि ‘ऐे घुटंकी तू कॉलेज में आई कैसे?’ ऊपर से डबल मार इस बात की, कि यह कॉलेज उसी स्कूल का विस्तार था, जिसमें ॠतु बचपन से पढ़ी थी। इसलिए इन लड़कियों में से अधिकतर और सारा स्टाफ उसे पहचानता था। वे सब भी हैरान थे कि छठी कक्षा की इस लड़की की यह औकात कैसे हुई कि यह कॉलेज में पहुँच जाए। यह तो हुई ऊपरी मार, पर एक भीतरी मार यह भी थी कि कॉलेज की सारी कक्षाएँ अंग्रेजी माध्यम ही में रही थीं और जिनमें से भी एकाध तो ऐसी थीं जिनका लहज़ा पूरी तरह विदेशी था।

आज तक अपने आपको तीसमार खाँ समझनेवाली ऐसे मकड़जाल में फंस गई थी कि उसे कोई आगा-पीछा नहीं सूझ रहा था। अंत में उसने हमेशा की तरह अपनी कश्ती राम हवाले कर आँखें मूंद लीं और एक वही मंत्र जपने लगी जो उसकी दादी बात-बात में बोला करती थीं  ‘‘तुलसी भरोसे राम के, निर्भय होके सोच अनहोनी होनी नहीं, होनी हो सो होय।’’

सो साहब, ॠतु ने भी हमेशा की तरह बिना माथा लगाए अपनी जीवन नौका को हिचकोले खाने और तूफ़ान से लड़ने के लिए आँखें मूंदकर मझधार में डाल दी|

उस ज़माने में बी.ए. करने में चार साल लगते थे, पहले दो साल आई.ए. अर्थात इंटर के दो साल और थर्ड इयर एवं फोर्थ इयर अर्थात आप बैचलर ऑफ आट्‌र्स के डिग्री होल्डर यानी बी.ए. पास। शुरू के दो साल तो वही रंग ढंग रहे, अर्थात वही घोड़े वही मैदान। वहाँ छत थी यहाँ बड़े-बड़े पेड़ और हरा-भरा मैदान था| ॠतु जी कभी पेड़ों पर झूलती नज़र आती तो कभी छोटी लड़कियों  के साथ आँख मिचौली खेलती। उस बेपरवाह लड़की को ज़रा भी चिन्ता नहीं थी कि परीक्षा में क्या होगा? वह तो युधिष्ठिर और यक्ष के मध्य हुए प्रश्‍नों किम आश्‍चर्य मत परम् का मूर्त्तिमंत रूप थी। प्रश्‍न यक्ष का है युधिष्ठिर से। इस संसार में सबसे बड़ा आश्‍चर्य क्या है? उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा था- प्रत्येक क्षण लोग मर रहे हैं, पर उनके पास वाले लोग यह मानते हैं कि वे कभी नहीं मरेंगे|

कमोवेश यही हाल ॠतु रानी का भी था, उसे परीक्षा देनी होगी और वह भी सारे विषयों की अंग्रेजी में। यह प्रश्‍न न तो ॠतु अपने दिमाग में आने देती थी और यदि वह कभी कौंध भी जाते तो उन्हें परे खिसका कर कूदकड़े मारने लगती|

एक दिन तो ॠतु ने कॉलेज में ऐेसा हंगामा बरपाया कि ख़ून-ख़ून चीख़-चीख़ कर धरती आकाश एक कर दिया। स्वाभाविक था कि ख़ून के हवाले से हर कोई दहल जाता। देखते ही देखते दो सौ लड़कियाँ और कॉलेज के स्टाफ वहाँ आकर उस आवाज़ के सहारे कॉलेज के पेशाबघर में ठुँस गया। सबने हैरत से देखा कॉलेज की मोटी सुशीला दाई ने ॠतु का मुँह भींच रखा है और वह हरियाणवी लड़की पूरा ज़ोर लगाकर अपना मुँह छुड़ाने की कोशिश कर रही थी, पर उम्रदराज़ मोटी-तगड़ी सुशीला दाई को वह बारहसालिया छोकरी कैसे बार पाती। अंत में उसने बुद्धि लगाई और आँखों एवं हाथों के इशारे से वह कोना दिखा दिया जहाँ एक ख़ून में लिथड़ा भ्रूण पड़ा हुआ था।

अब तक प्रिंसिपल महोदया भी वहाँ आ गई थीं उन्होंने ॠतु को सुशीला की गिरफ़्त से छुड़वाया और आनन-फानन में सभी भीड़ को रफ़ा-दफ़ा कर, सुशीला को हिदायत दी कि वह अच्छी तरह सफ़ाई करवा कर ऑफिस में आकर उनसे मिले|

कॉलेज का ज़र्रा-ज़र्रा वापस चहकने लगा था लेकिन ॠतु के मन और आँखों का शोक जस का तस पत्थर की मूरत-सा अचल खड़ा था जिसे ॠतु किसी भी तरह हिला-डुला कर मन से निकाल नहीं पा रही थी, हक़ीक़त तो यह थी कि ॠतु के पूरे शरीर का सत्व निचुड़ सा गया था, न ही उसके हाथ-पैर उसके कहे में थे, और न ही उसका दिमाग़। दिमाग़ से एक डरावनी तस्वीर उस बच्चे की भेज रहा था, जो बाथरूम के कोने में पड़ा था। कभी उसका हाथ बाहर आ जाता तो कभी उसकी दाईं  टांग तो कभी बायीं टांग और ॠतु चौंक-चौंक कर सारी रात अपने बिस्तर पर इस डर से आँखें खोले बैठे रहती कि कहीं आँखें बंद करते ही उसे वे डरावने दृश्य दिखाई न देने लग जाए। झक मार कर कांता जी ने घर के फैमिली डॉक्टर को बुला भेजा। उन्होंने बताया कि इसके कच्चे दिमाग़ को इस घटना से बड़ा झटका लगा है, जिसे डाक्टरी भाषा में कहते हैं ‘ट्रॉमा’। अभी इसको एक सोने का कड़ा इंजेक्शन देकर देखते हैं यदि उससे भी इसे नींद नहीं आई या इसके सिर का भूत नहीं उतरा तो फिर किसी मनोवैज्ञानिक से सलाह करनी होगी।

करम ख़ुदा का कि उस नींद के कड़े इंजेक्शन से ॠतु तीन दिन तक सोती रही और एकदम तरोताज़ा होकर उठी। उस पर पिछली घटना की कोई छाया भी नहीं थी। ॠतु ने उठते ही नहा-धोकर अपनी किताबें बटोरी और कॉलेज का एक नोटिस पढ़ते ही धक् रह गई, चार दिन बाद ही उसके फाइनल इम्तहान थे, ऊपर से ग़रीबी में आटा गीला की तरह, पहला पेपर उसी अंग्रेज़ी वाली टीचर मिसेज बाउस का था, जिसका जर्मन-इंग्लिश लहज़े में पढ़ाया ‘फूटा आँक’ भी उसकी समझ में नहीं आता था|

ॠतु ने कांता देवी की बहुत चिरौरी की कि अभी तो वो छोटी है, अगले साल इम्तहान देगी, तो उसका वादा है वह बढ़िया नंबरों से पास होगी, पर क्लासें कूदाने में माहिर कांतादेवी ने उसकी एक न सुनी और उससे ज़बर्दस्ती परीक्षा दिलवा दी, इसका हश्र यह हुआ कि आज तक प्रथम आने वाली ॠतु ऐसी फ़िसली कि अंग्रेजी में फ़ेल हो गई, और उसे ‘कम्पार्टमेंटल’ मिल गया| अबकी बार उसने न केवल कांतादेवी बल्कि केदारनाथजी के दरबार में भी गुहार लगाई कि हमेशा के लिए रिपोर्ट कार्ड पर कम्पार्टमेंटल लिखा जाने से बेहतर है कि वह अबकी बार कम्पार्टमेंटल का इम्तहान न देकर अगले साल सारे पर्चे अच्छे नंबरों से पास कर ले। मन ही मन उसकी पीड़ा से सहमत होते हुए भी केदारनाथ जी को एक साल का लालच तो आ ही रहा था, इसलिए उन्होंने चुप रहकर मात्र इतना कहा ‘ॠतु बेटा, तुम्हारे लिए बढ़िया से बढ़िया अंग्रेज़ी की टीचर रख देंगे, तुम कोशिश तो करो।

ख़ैर साहब, ॠतु ने कम्पार्टमेंटल की परीक्षा अच्छे नम्बरों से पास कर ली और बी.ए. फर्स्ट-ईयर, आम भाषा में थर्ड ईयर में प्रवेश ले लिया|  धीरे-धीरे ॠतु अपने पुराने रंग में आने लगी और तेज़ी से क्लास में अच्छे नम्बर लाने लगी। थर्ड ईयर में आनर्स की परीक्षा में जब उसके सत्तर प्रतिशत नम्बर आए तो सबको अच्छा ज़रूर लगा पर किसी को भी इसमें किसी रक़म उपलब्धि का बोध नहीं हुआ, कारण कि सब तो यही माने बैठे थे कि दैव-कृपा से ही ॠतु इतने अच्छे नम्बर ले आती है, किसी को इसकी लवो-लेश भी परवाह नहीं थी कि वह इम्तिहान के पहले कितने मानसिक द्वन्द्वों से ग़ुजरती थी।

तभी ॠतु पर गाज़ गिरी और कांतादेवी ने केदरनाथ जी की सहमति से ॠतु का रिश्ता पक्का तय कर दिया| हालाँकि इसकी कई वजहें थीं। पहले कम उम्र के बावजूद ॠतु का शरीर से लम्बी-चौड़ी होना, इतना पढ़-लिख लेना, सुंदर होना, मॉं-बाप की प्रत्येक बात मानना आदि|

उसके यह कहने पर कि जब सेलेक्शन टेस्ट हो गए हैं, उसे कम से कम फाईनल तो देने दीजिए, ससुरालवालों ने कहा, शादी के बाद परीक्षा देना। इतना ही नहीं उन्होंने वादे किए कि वे ॠतु को आगे पढ़ने देंगे, ओढ़ना नहीं ओढ़ाएँगे आदि आदि। लेकिन उनलोगों ने सारे आचरण उन वादों के खिलाफ़ किए। पढ़ने देना तो दूर, यदि ॠतु घर के बरामदे से कॉलेज बस भी देखती तो सास चिल्लाती : इसी के जान पड़ी है, कॉलेज में।

हक़ीक़त तो यह थी कि उस घर में पढ़ाई के प्रति कोई आस्था नहीं थी। स्त्रियाँ तो दरकिनार थी हीं, पुरुष तक मुश्किल से बी.ए. पास थे, ऐसे में ॠतु की पढ़ाई किसी को कैसे सुहाती।

प्रभु कृपा से ॠतु ने सबसे उपहार में पुस्तकें ले ली थीं अब वह सारे दिन का धंधा कूट कर रात को घंटों जागती और वे सब किताबें पढ़ती रहती।

वह जीते जी अंधकार के ऐसे कूप में फेंक दी गई थी कि जहाँ उसका एकमात्र पतवार किताबें ही थीं। यह परिवार ॠतु के मायके से उलट एकदम दक़ियानूसी परिवार था, और जो ढोंग तो रईसी के करता था पर अंदर से खाली था।

कहते हैं न कि भोले का राम रखवारा। ॠतु अपने मीठे स्वभाव, दाता भाव और अहर्निश खटने के कारण उस बड़े संयुक्त परिवार में युवा पीढ़ी की चहेती बन गई थी, जब उसकी बड़ी ननद का विवाह समाज सुधारक सीतारामजी सेकसरिया के यहाँ हुआ तो उनके परिवार में भी आशा की कुछ किरणें चमकीं। सर्वप्रथम तो उस ननद को विवाह के बाद भी पढ़ाया जा रहा था। जब उसे पता चला कि यह चार वर्ष वाले बी.ए. का अंतिम वर्ष है तो वह अपने भाई के गले लटक गई और पढ़ने में माहिर ॠतु ने आनन-फ़ानन में बी.ए. की परीक्षा दे दी। आश्‍चर्यजनक ढंग से उसके अंग्रेजी में रिकार्ड मार्क्स आए, लेकिन महापुराणपंथी ससुराल वालों ने वापस ॠतु की पढ़ाई का पटाक्षेप यह कह कर कर दिया कि ढेरों, ननदों, देवरों की शादियाँ हैं, उनमें लगो और किताबों को तिालंजलि दो।

धंधा कूटने में एक नंबर ऋतु सुबह छह बजे से रात के दस बजे तक अपने दोनों छोटे बच्चों और पति को पूरी तरह भुलाकर मात्र अपनी सास के अनुसार चौका चूल्हा सम्हालने में लग गई। अब बीस-पच्चीस लोगों का तो रोजमर्रा का खाना, दूध, चाय आदि ऊपर से मेहमान और घर की बेटियों का सपरिवार अत्यधिक आगमन, ऐसे में ऋतु को सांस तक लेने की फुर्सत नहीं थी। वह अल्ल सुबह दौड़ती भागती सी नहा-धोकर सास की हाजिरी में खड़ी हो जाती और फिर सारा दिन उसे काम में लगाए रखती, यहाँ तक कि उसके बच्चों को ही यदि बुखार भी हो जाता तो वह भी पुराने नौकर और राम भरोसे ही रहते।

बड़ी ऋतु ने उसे कई बार आगाह भी किया पर इस ऋतु ने अपनी झक के आगे कभी किसी की सुनी ही नहीं तो अब क्या सुनती?

इसी प्रकार दिन बीते जा रहे थे। ऋतु को बस एक ही सुकून था कि वह रात ग्यारह बजे से सुबह तीन बजे तक किताबें पढ़ती रहती थी। मां, बड़ी बहनें, भाभी, सभी के पास उसकी एक ही फरमाइश रहती थी, मुझे गहना, कपड़ा नहीं किताबी दीजिए।

तभी एक दिन ऋतु को याद आया कि सास ने कहा था कि पहले सबकी शादियों में लगो फिर और कुछ सोचना। अब सबके शादी ब्याह हो चुके थे इसलिए ऋतु ने हिम्मत कर सास के आगे विनती भरे स्वर में कहा, “अब तो सब की शादियां हो चुकी हैं, क्या मैं एम. ए. की पढ़ाई शुरू कर दूं।”

अब तक ऋतु ने अपने हाड़ घिसघिस कर सास के मन में हल्का सा कोमल कोना पा लिया था और ऊपर से उसके बाद आई नई बहू के तो मिजाज ही निराले थे इसलिए सासु जी ने मुंह सुजाए हुए  ‘हां’ भर दी। सास की अनुमति मिलते ही ऋतु इतनी खुश हुई जैसे उसने एम.ए. पास ही कर लिया हो।

उस समय के उसके ससुराल के संयुक्त परिवार में घर की बहुएँ ऐडमिशन फार्म भरने नहीं जाती थीं। ढेरों ऑफिस के लोगों में से कोई भी एक जाकर फार्म भर आता। ऋतु ने सोच-समझकर ऑफिस के तिवारी जी को ‘एडमिशन फॉर्म’ लाने भेजा और वह महाशय एक महीना अठारह दिन बाद होने वाली एम. ए. की परीक्षा का  एडमिट कार्ड ले आए।

ऋतु उसे हाथ में पकड़े हुए हैरान थी कि यह घटा कैसे तो तिवारी जी कहने लगे कि आपको तो सब वहां जानते थे इसलिए उन्होंने हमें तुरंत ही ‘एडमिट कार्ड’ दे दिया।

ऋतु को काटो तो खून नहीं, बी.ए. और एम.ए. के बीच ढेरों वर्षों का अंतराल था और जब उसने पुरानी एम ए का कोर्स देखा था तभी उसके पसीने छूट गए थे, वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे? (जारी)