वरिष्ठ लेखिका
‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।
देखते ही देखते ॠतु टग् टग् करती हुई पाँच तल्ले वाली कोठरी (छोटा कमरा) में जा पहुँची। जहाँ औरों की कोठरियों में भारी भरकम कपड़े आदि भरे थे वहीं ॠतु की कोठरी में कई एक रैक्स किताबों से भरे थे, जो उसने दीर्घ समय तक माँ, दीदी, बड़े भाई, बड़ी भाभी आदि से उपहार स्वरूप बटोरी थी। वे सैंकड़ों किताबें बहुत ही करीने से रखी हुई थीं और वे सब ॠतु के मन प्राणों में बसी हुई थीं। आश्चर्यजनक ढंग से ॠतु को अधिकांश किताबें याद थीं। ॠतु इतनी कोमलता और प्यार से उन्हें सहला रही थी जैसे नई-नई माँ अपने सतमासिए बच्चे को आहिस्ता से उठा कर पपोलती है।
ॠतु लम्बे समय तक इसी भाव दुनिया में खोई हुई थी कि चौके (रसोईघर) से आते नौकरों के शोरगुल ने उसे जगा कर आज की हक़ीक़त से रू-ब-रू करवा दिया। वह ‘हड़क’ कर झटके से उठी और किताबों को तरतीब से रखकर उनमें से सिर्फ वे किताबें छाँट कर नीचे ले आई जो तत्काल उसके काम में आनेवाली थीं। ॠतु को इस बात का ज्ञान था कि वह जो कुछ लिख लेती है वह उसके दिमाग़ में सर्वदा के लिए उकेरा जाता है।
ॠतु ने सर्वप्रथम परीक्षा के हिसाब से सोलह प्रश्न-पत्रों के अलग-अलग खाते बनाए, फिर उनमें से संदर्भ और व्याख्यावाले हिस्सों को अलग किया। उसने निर्णय किया कि वह, वे पर्चे, जिन्हें वह आज तक के अपने संचित ज्ञान से लिख सकती थी उनके लिए वह कोई भी तैयारी नहीं करेगी। ॠतु जिस तरह अपने पर्चों को अलग-अलग खातों में बाँट रही थी, उस तैयारी की वैज्ञानिकता देख सब हैरत में थे। कहाँ तो कूदकड़े मारती मस्त ॠतु और कहाँ इस तरह खाते तैयार करती धीर गंभीर ॠतु, ऐसा लग रहा था मानों ये दो भिन्न चरित्र हैं जो दक्षिण और उत्तरी ध्रुव से आए हैं। ॠतु के सौभाग्य से दूसरे दिन ही भाषा विज्ञान वाले प्रोफेसर साहब आ गए। उनको देखकर ॠतु ऐसी हरी हो गई मानों अचानक उसके मरुस्थली जीवन में बसन्त और पावस ॠतु एक साथ आ गई हो और यह ख़ुशी बिना बात नहीं थी। दरअस्ल श्रीवास्तव जी सरीखे निष्कपट, सागर से गहरे, बादल से दाता ऐसे अलभ्य प्राणी थे जैसा शायद इस धरती पर कोई दूसरा नहीं था। ये उक्तियाँ ॠतु भावुकता के वशीभूत होकर नहीं सोच रही थी, बल्कि यह उसके ही नहीं अनेकों के अनुभवों से उपजे विचार थे और इसका सत्यापन हाथों हाथ हो गया।
‘सर’ (श्रीवास्तव जी) ने सुबह ग्यारह बजे से पढ़ाना शुरू कर दिया था और पढ़ाने में वे ऐसा डूबे कि कब शाम झुक आई इसका अंदाज़ भी उन लोगों को नहीं लगा।
विचित्र प्राणी थे वे सर भी! चाय कॉफी तो दूर उन्होंने एक गिलास पानी तक नहीं पिया और एक लय में पढ़ाते रहे। उनकी लगन देखकर ॠतु तो ऐसी गदगद थी कि उसके कदम ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसे लगा अनायास हुई यह अहेतु कृपा उसके सारे जन्मों का संचित पुण्य था, क्योंकि उनके आज के अवदान से ही उसे विश्वास हो गया था कि वह कम से कम फेल तो नहीं होगी।
सर, आते ही बोलना शुरू कर देते थे जिसे ॠतु फटाफट अपनी तेज़ लेखनी से लिख लेती थी। उन दोनों का उत्साह देखकर यह निर्णय करना मुश्किल था कि गुरु त्वरित गति से बोलते थे या शिष्य त्वरित गति से लिखता था। जैसे चातक स्वाति नक्षत्र के लिए बेचैन रहता है, कुछ कुछ वैसी ही स्थिति ॠतु की भी थी और फिर यदि बादल सरीखे श्रीवास्तव सर हों तो फिर बात ही क्या थी। वे पूरी तरह से एक-दूसरे के पूरक थे। इन लोगों ने अपनी तेज़ रफ्तार से पन्द्रह दिनों में छांटे हुए प्रश्नों में से पचास प्रतिशत के नोट्स बना लिए, तो क्या यह सम्पूर्ण कोर्स महीने भर में पूरा हो जाएग? क्या यह कोई दिवास्वप्न है? लगता है, ॠतु की इस सोच ने यात्रा कर श्रीवास्तव सर को यह बात कह दी, क्योंकि श्रीवास्तव सर ने दूसरे दिन आते ही कहा, ‘‘ॠतु जी पहले हम आज तक का पढ़ा हुआ दोहराएँगे।’’ यह सुनते ही ॠतु की साँस तो ऊपर की ऊपर, नीचे की नीचे रह गई।
ॠतु में एक भारी दुर्गुण था कि उसे दोहराने के नाम से ही बुख़ार चढ़ जाता था। तभी ॠतु के उर्वर दिमाग़ में एक बिजली सी कौंधी, उसे लगा हो न हो श्रीवास्तव सर उसे काव्यशास्त्र भी पढ़ा सकते हैं, क्योंकि उसने उन्हें अक़्सर लायब्रेरी में मोटे-मोटे ग्रंथों में उलझे देखा था, अब वे भारी-भरकम ग्रंथ उपन्यास, कहानी तो हो नहीं सकते और ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा कि सर उसे लालची और मूर्ख समझेंगे, पर यदि वह नाखून बराबर भी सेंध लगा पाई तो उस कल्याण का परिमाण कितना बड़ा होगा, क्या कोई इसका अनुमान भी कर सकता है? फिर हाल में ही उसे शास्त्री सर ने यूनिवर्सिटी में कक्षाओं में बैठने की अनुमति भी दिला दी, जिससे उसके ऐसे पंख उगे मानो वह कक्षाएँ और यूनिवर्सिटी ही क्या पूरा आकाश माप लेगी। उसने टालमटोल कर दोहरानेवाली बात इधर-उधर कर दी और श्रीवास्तव सर से तय कर लिया कि वे यूनिवर्सिटी के बाद सीधे घर आ जाएँगे और फिर जम कर पढ़ाई करेंगे। यूनिवर्सिटी में ॠतु एम.ए.फर्स्ट और सेकेंड की पहली दो कक्षाएँ डॉ.झा के काव्यशास्त्र की और उसके बाद की दो कक्षाएँ श्रीवास्तव सर के भाषा विज्ञान की, और दो शास्त्री जी की पूरे मनोयोग से, मन प्राण देकर सुनती और लिखती जाती थी। उसकी एकाग्रता देखकर उसकी सहपाठिनें उसे छेड़ती भी थीं कि तुम जब कक्षाओं में बैठती हो तो ‘स्टोनडेफ़’ हो जाती हो?
ॠतु उनके उलाहनों और तानों को कोई तवज्जह नहीं देती थी, क्योंकि उसका स्वभाव था बिना दाएँ-बाएँ देखे और मुड़े नाक की सीध में चलने का और उसने अपने इस स्वभाव को अपना धर्म बना लिया था। दिन पंख लगाकर उड़ रहे थे, ॠतु ने अपने एक-एक मिनट का हिसाब लगा रखा था कि तभी इस ॠतु देवी ने एक अजूबा घटा दिया। उसने एक ऐसा कांड किया कि उसके पति समेत सर्वशुभचिंतक सकते में आ गए।
हुआ यह कि एक रविवार की सुबह-सकारे ॠतु जी नहा-धोकर सादी वेशभूषा में पतिदेव के समक्ष प्रस्तुत हुईं और बोलीं, ‘‘अभी प्रख्यात लेखक श्री मणिशंकर मुखर्जी आएँगे और मुझे लेकर विश्वप्रसिद्ध निर्देशक श्री सत्यजित राय के यहाँ जाएंगे। उसके पतिदेव आँखें फाड़े उसे देखे जा रहे थे और वह उल्लसित मुद्रा में चहकती हुई लगातार बोले जा रही थी। उस लम्बी-चौड़ी वार्ता का सारांश यह था कि सत्यजित राय ‘जन-अरण्य’ उपन्यास पर फ़िल्म बनाना चाहते हैं और उनकी इच्छा है कि ॠतु उस किताब का शीघ्रातिशीघ्र हिन्दी में अनुवाद कर दे। यह बताते हुए ॠतु के तो पैर ही ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे जबकि उसके पतिदेव को चारों ओर से वे सोलह पर्चे फड़फड़ाते हुए दिख रहे थे, जिनसे एक महीना बाद ही ॠतु का पाला पड़ने वाला था।
सत्यजित राय के जन-अरण्य के लिए ॠतु के पतिदेव बहुत ही मिठास और संवेदनात्मक तरी़के से ॠतु को समझाने का प्रयास कर रहे थे और ॠतु जी अपनी बाल सुलभ ज़िद में उसे अनसुना किए जा रही थी। अपने सारे साम, दाम, दंड, भेद आजमा कर वे बेचारे हार मान गए और अंत में दोनों में तय हुआ कि ॠतु उन्हें पूछे बिना सत्यजित राय को हाँ नहीं कहेगी।
लेकिन ये तो वही महारानी ॠतुरानी थी जो बचपन में मामा के यहाँ आई हुई सुचित्रा सेन के पीछे-पीछे सम्मोहित सी जाकर उसकी गाड़ी में बैठने चली थी, और जब मामी ने हाथ पकड़कर उसे खींचा तब जाकर उसकी तन्द्रा भंग हुई थी। अब भला उसके सपनों के राजा सत्यजित राय के पूछने पर उसकी गरदन ना में कैसे हिलती, वह तो बिना पलक झपकाए टकटकी बाँध कर उन्हें देखे ही जा रही थी और नेपथ्य में उसके दिमाग़ में ‘पथेर पाँचाली’, जो उसके जीवन की पहली फ़िल्म थी से लेकर उनकी जो भी फ़िल्में उसने देखी थीं वे सब एक के बाद एक रीलों में चल रही थीं।
‘शंकर दा’ को आश्चर्य भी हो रहा था कि आज ॠतु जैसी वाचाल और जिज्ञासु लड़की इतनी चुप कैसे है, इसलिए उन्होंने उससे कहा भी कुछ पूछना है तो पूछ लो, के उत्तर में भी उसने सिर्फ ‘ना’ में गरदन हिला दी। शंकर दा से सारी बातें हो जाने पर जब सत्यजित राय ने उसकी ओर देख कर कहा ‘‘तब ठीक है’ तो भी ॠतु जी ने केवल जोरो से ‘हाँ’ में गर्दन हिला दी।
सत्यजित राय के सम्मोहन में ज़ोरो से ‘हाँ’ में हिली हुई गरदन घर आते-आते स्थिर हो गई और ॠतु ने सोचना शुरू किया अब इस बेव़कूफ़ी की काट क्या हो? क्योंकि दो बड़े सत्य ध्रुवतारे की तरह उसकी आँखों के आगे आकर स्थिर खड़े हो गए थे। पहला सोलह पर्चों वाली एम.ए. की परीक्षा जिसके होने में अब मात्र पैंतीस दिन बाक़ी थे, दूसरा एक सौ नौ पन्ने का बांग्ला में लिखा ‘जन-अरण्य’ उपन्यास, जिसका तर्जुमा महारानी जी को इसी समयावधि में करना था पर ज़िद्दी ठूंठ ॠतु ने आज तक कभी हार मानी थी कि वह आज मानती? उसने सबसे पहले ‘मौसमी मन्ना’ को फ़ोन किया कि तुम घर आ जाओ। ॠतु ने मौसमी को वर्ष भर बी.ए.में निःशुल्क हिंदी पढ़ाई थी और अब वह बाक़ायदा स्कूल में बांग्ला पढ़ा रही थी, दो नम्बर पर उसने आशुलिपिक श्रीवास्तव जी को घर पर आने को कहा, श्रीवास्तव जी अच्छे आशुलिपिक थे और छुट्टा काम किया करते थे।
यह सब साज-सज्जा करने के बाद वह सीधे अपनी पढ़ाई की मेज़ पर पहुंची और उसने उस बरामदे में मेज के पास तीन लोगों के बैठने की जगह बना ली। एम.ए. के नोट्स वाले लम्बे-चौड़े खातों में से ही एक दो खाते उसने वहाँ रख लिए।
रविवार होने के कारण यूनिवर्सिटी तो जाना नहीं था इसलिए वह मौसमी मन्ना और श्रीवास्तव जी को लेकर मेज़ के सामने कुर्सी पर बैठ गई, बैठते ही उसने दो-तीन कलमों में स्याही भरी और कलमें श्रीवास्तव जी के सामने रख दी। उसने मौसमी से कहा वह उपन्यास से बांग्ला में साधारण स्पीड में पढ़ती जाए और ॠतु उसका हिन्दी में धाराप्रवाह अनुवाद करती जाएगी जिसे श्रीवास्तव जी हाथों हाथ हिन्दी में लिखते जाएँगे। कुछ ही देर में ॠतु की रेलगाड़ी स्टेशन छोड़कर चल पड़ी। अच्छी तरह से बांग्ला और हिन्दी जानने के कारण जैसे ही ॠतु के बाएँ कान में उपन्यास का अंश जाता वह श्रीवास्तव जी की अनुपस्थिति में अपने दाहिने हाथ से उसे हिन्दी में लिखती जाती। ॠतु की सर्वदिक् गति देख कर उसके दोनों सहायक हर वक्त अटेंशन मुद्रा में रहते क्योंकि उनके रहते भी जब ॠतु दोनों काम तेज़ी से कर लेती तो उनलोगों को लगता जैसे वे लोग अयोग्य हैं और उनकी विशेषता को ॠतु ने चुनौती दे दी है। कहा जा सकता है कि वहाँ अनकही एक प्रकार की होड़ चल रही थी। अब तीन-तीन उत्साहितों की इस होड़ का परिणाम तो बढ़िया होना ही था।
ॠतु ने मौसमी और श्रीवास्तव जी को देर रात तक काम करने के लिए तैयार कर लिया था। अब होता यह था कि जैसे ही ‘सर’ जाते वे दोनों आकर वहाँ बैठ जाते और उपन्यास का काम शुरू हो जाता।
आज की ॠतु यह सोच कर हैरान थी कि छोटी उम्र में भी ॠतु कितनी झक्की और ज़िद्दी थी, हालांकि वह इसे अपना निर्भय होना मानती थी। अब इसे ॠतु की ज़िद कहा जाए या साहसी होना, ‘जन-अरण्य’ उपन्यास आनन- फ़ानन में पूरा हो गया। दरअसल ॠतु एक पुरानी दार्शनिक उक्ति को अपने जीवन का धर्म मानती थी, वह थी कि यदि ‘एक मनुष्य अपना सर्वस्व उलीच कर कोई काम करने में जुट जाए तो सारी कायनात उसकी मदद के लिए आ खड़ी होती है। यदि ये बातें सही नहीं होतीं तो ‘काक के भाग कहा कहिए हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी’ कवि की कल्पना में कैसे आता?
भाग्य देखिए इन देवीजी के कि परिवार के एक आत्मीय बड़े साहित्यकार श्री अशोक जी सेकसरिया ने उसकी प्रूफ रीडिंग का ज़िम्मा ले लिया। सौभाग्य से उसी समय पतिदेव दिल्ली जा रहे थे, वे स्वयं उसकी पांडुलिपि लेकर दिल्ली गए और उन्होंने राजकमल की मालकिन श्रीमती शीला सन्धु से बातचीत कर वह पांडुलिपि उन्हें दे दी।
शीला सन्धु जी की तत्परता सर्वविदित थी, उन्होंने अत्यन्त अल्पसमय में पुस्तक छापकर भेज दी। ॠतु चेष्टा करके वह किताब लेकर स्वयं श्री सत्यजित राय के पास जा सकती थी, पर उसे इस प्रकार का दिखावा बिलकुल पसन्द नहीं था इसलिए उसने वह किताब श्री मणिशंकर मुखर्जी को भिजवा दी।
ॠतु ने जन-अरण्य के अनुवाद हेतु जो समय की चोरी एम.ए.पाठ्यक्रम से की थी उसका हर्जाना उसने अपने समय से काटकर इस तरह भरा कि वह रात को तीन बजे सोती और सुबह साढ़े पाँच बजे उठ जाती। पतिदेव द्वारा दी गई गुडाकेश उपाधि को उसने सत्य सिद्ध कर दिया था।
देवरानी-जेठानियों ने उसकी राह में इतने रोड़े बिछा दिए जो अवर्णनीय है। मसलन ॠतु यूनिवर्सिटी जाने के लिए नीचे उतरती तो पता चलता फलाँ ‘जेठानी जी’ गाड़ी ले गई हैं। बड़े घर की बहू का रास्ते में पैदल जाना वर्जित था, इसलिए ॠतु किताबों का थैला लटका कर अपने चेहरे को पल्लू से ढँके मुर्दाघर के रास्ते से यूनिवर्सिटी जाती। उसके पुराने नौकर-दाई को वे लड़-लड़ा कर निकाल देतीं, ताकि ॠतु पढ़ने न जा सके। पर जिसने यह सोच लिया हो कि उसे बाएँ, दाएँ, पीछे कहीं नहीं देखना है, उसे अपने बच्चों के बुख़ार की और उनके भूखे रहने की भी क्या परवाह होती।
परीक्षा को अब आठ दिन ही बचे हैं यह सोचकर ॠतु ने नोट्स बनाने बंद कर दिए हैं। अब उसने छांटे हुए प्रश्नों के सामने एकदम संक्षिप्त अर्थात आठ-दस लाइनों में उनके उत्तर लिख लिए। उन फुलस्केच पन्नों पर उसने लिखा प्रश्न-पत्र नम्बर एक और इसी तरह बाक़ी के पन्द्रह पर्चे भी उसने नम्बरों के हिसाब से बांट लिए, ताकि परीक्षा वाले दिन वह पूरे मनोयोग से उन्हें एकबार अपनी नज़रों से निकाल लेगी। दरअसल नज़रों से क्या निकाल लेगी वह जानती थी अपनी आँखों में फ़िट उस स्मरणशक्ति वाले कैमरे का बटन दबा कर वह उसका पूरा प्रतिबिम्ब अपने दिमाग़ में छाप लेगी।
(जारी)
संपर्क सूत्र : 3 लाउडन स्ट्रीट, कोलकता-700017
एक परिश्रमी,कर्मठ नारी की कहानी जिसने असंभव को संभव कर दिखाया।
बहुत ही बारीकी से क्रमबद्ध ढंग से चित्रण करते हुए कहानी आगे बढ़ती है, पाठकों के समक्ष चलचित्र की भांति।
सजीव ! जीवंत ! मानो लेखिका की स्वयं की अभिव्यक्ति हो।
भावपक्ष के समान कला पक्ष उत्तम कोटि का है।