शंभुनाथ

आधुनिक युग में खूब अंग्रेजी पढ़ लेने के बावजूद गांधी ने कहा था, ‘मैं हिंदू पहले हूँ…’ वे तर्क के युग में आस्था की शक्ति को समझते थे, क्योंकि कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ भारतीयों के पास तर्क की जगह आस्था की शक्ति ज्यादा थी। यह ‘पर्वतों को हिला’ सकती थी और आजादी की लड़ाई में इस शक्ति की जरूरत थी। नवजागरण भी धर्म के बाहर नहीं निकल पाया था। आथिर्क रूप से अविकसित और अल्पशिक्षित लोगों से संवाद  के लिए तर्क के अलावा आस्था की राह भी काम की थी। इसलिए गांधी ने एक बड़े उद्देश्य से धर्म, आध्यात्मिक शक्ति, ईश्वर में विश्वास, राम राज्य, प्राकृतिक चिकित्सा, प्रार्थना, उपवास जैसे धार्मिक मुहावरों को बड़े पैमाने पर चुना। उनके जीवन से इतना स्पष्ट हो जाता है कि वे हिंदू होते हुए भी धार्मिक कर्मकांडी न थे और न उनका विश्वास मूतिर्पूजा में था।

गांधी बुद्धिवादी थे। इसका यह अर्थ नहीं है कि उनकी धार्मिकता मुखौटा थी। वस्तुतः उन्होंने धर्म के अर्थ को अतीत के कुओं से बाहर निकाला था और धार्मिक होने को एक बृहत्तर अर्थ से जोड़ा था। उन्होंने कभी नहीं कहा कि वे धर्मनिरपेक्ष हैं, क्योंकि उनकी नजर में धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब था मूल्य निरपेक्ष होना। गांधी किस तरह के धार्मिक थे, यह समझना हो तो सबसे पहले देखना होगा कि उनकी नजर में हिंदू धर्म और आमतौर पर धर्म का क्या अर्थ है। उनकी समझ यह है कि आमतौर पर जो धर्म है, वही हिंदू धर्म है। उन्होंने कहा है, ‘धर्मों से मेरा आशय हिंदू धर्म से नहीं है, यद्यपि मैं इसे सभी धर्मों से अधिक आदर देता हूँ, बल्कि वह धर्म है जो हिंदुत्व से भी परे है… जो सभी धर्मों का मूल है और जो हमारे स्रष्टा से हमारा साक्षात कराता है।’ (महात्मा गांधी के विचार, राव और प्रभु) गांधी का हिंदू पहले होना और अपने आशय को विस्तृत करते हुए अपने धर्म को सभी धर्मों के सार से, ‘फंडामेंटल्स’ से जोड़ना वस्तुतः धार्मिक ढांचे में अपने मन के विस्तार का आह्वान था। उनके धार्मिक होने का अर्थ प्रेम, अहिंसा, त्याग, ईमानदारी, स्वच्छता जैसे गुणों से संपन्न होना था।

21वीं सदी में धर्म का अर्थ तेजी से बदला है। गांधी के धर्म में सद्गुणों, मानवाधिकार और स्वाधीनता की चेतना थी तो इन दिनों धर्म में राजनीतिक हिंसा चरम मूल्य है। जिस हिंदू धर्म में असहमति और विविधता सदियों से महत्वपूर्ण मूल्य रहे हैं, उसे धार्मिक विद्वेष और ध्रुवीकरण का राजनीतिक औजार बनाना एक बड़ी मानवीय क्षति है। यह एक सभ्यतागत क्षति है। अब धर्म नहीं, धार्मिक पहचान मुख्य मुद्दा है।

गांधी ने धर्म का एक बड़ा अर्थ दिया था, ‘मैं चाहूंगा कि विभिन्न धर्मों के माननेवाले लोगकेवल भारत नहीं, बल्कि दुनिया भर के लोग एकदूसरे के संपर्क में आकर बेहतर मनुष्य बनें। धर्म एक दूसरे को पृथक करने के लिए नहीं है, एकदूसरे को जोड़ने के लिए है।मैं अधिकतम सहिष्णुता का हिमायती हूँ।

गांधी कभी नहीं कहते थे कि दूसरे धर्मों में सत्य नहीं है और हिंदू धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। हिंदू धर्म की परंपराओं की विलक्षणता है कि ईश्वर की उपासना के सभी मार्गों को समान रूप से सत्य माना गया है। अतीत के हिंदू-जैन संघर्ष, शैव-वैष्णव संघर्ष तथा कट्टरवादियों के समानांतर ‘जितने मत-उतने पथ’ का धार्मिक उदारवाद ही हिंदू धर्म का सत्य रहा है। सभी महान धर्मोंपदेशकों और भक्त कवियों ने ‘बेहतर मनुष्य’ बनने की राहों को ही धर्म माना और भेदभाव से मुक्त प्रेम का संदेश दिया।

गांधी की धर्म की धारणा में 19वीं सदी के सुधारवाद की छाप है, ‘मैं नहीं मानता कि वेद ही दिव्य हैं। मेरी मान्यता है कि बाइबिल, कुरान और जेंदअवेस्ता भी वेदों के समान ईश्वरीय प्रेरणा से प्रकट हुए हैं। हिंदू धर्मग्रंथों में मेरे विश्वास का तात्पर्य यह नहीं है कि मैं एक-एक शब्द और श्लोक को दैवी प्रेरणा से उद्भूत मानता हूँ।… मैं ऐसी किसी भी व्याख्या को मानने से इंकार करता हूँ जो तर्क या नैतिक दृष्टि के प्रतिकूल हो।’ (वही)। गांधी रूढ़िपूजक नहीं थे, वे रूढ़िपूजक होने और धार्मिक होने में फर्क करते थे।

गांधी यह भी कहते हैं, ‘मैं ईश्वर को साकार नहीं मानता। ईश्वर एक विचार है, स्वयं नियम है।… ईश्वर हमारी तरह देहधारी नहीं है। …ईश्वर ने मनुष्य को अपने जैसा बनाया था। यह हमारा दुर्भाग्य है कि मनुष्य ने ईश्वर को अपने जैसा बनाने का प्रयास किया।… मैं उस महान शक्ति को अल्लाह या खुदा या ईश्वर के नाम से नहीं बल्कि सत्य के नाम से पुकारता हूँ। सत्य ही ईश्वर है।’ (वही)। इस बिंदु पर गांधी का ईश्वर सभी धर्मों में है तथा मनुष्य की उच्चता, श्रेष्ठता और मानवजाति की महान एकता में सन्निहित है। ऐसे विचारों से गांधी की धर्म, ईश्वर और सत्य के बारे में धारणा के खुलेपन का बोध होता है।

गांधी के धर्म-संबंधी विचारों का कोई अच्छा अध्ययन सामने नहीं आया है। गांधी हिंदू धर्म से अधिक ‘धर्म’ पर जोर देते हैं, निश्चय ही धार्मिक स्वाधीनता पर भी। हिंदू धर्म की विलक्षणता यह है कि इसके कुछ अन्य धर्मों, जैसे- ईसाई और इस्लाम धर्मों की तरह कोई एक धर्मग्रंथ नहीं है। गांधी के चिंतन पर वेदांत और बुद्ध का गहरा प्रभाव पड़ा था, लेकिन उन्होंने जिस ग्रंथ पर बाकायदा लिखा , वह ‘गीता’ है। तिलक के ‘गीता रहस्य’ के समानांतर उनकी ‘गीता माता’- एक अद्भुत रचना है। यह यरवदा जेल में लिखी गई थी।

गांधी ने भारत के अतीत को राष्ट्रीय बुद्धिवाद की आंख से देखा था। उन्होंने गीता से निःस्वार्थ कर्म का संदेश ग्रहण किया और हिंदू धर्म की एक बुराई भाग्यवाद का विरोध किया। उन्होंने साफ कहा किगीता का सारा संदेश शुरू के तीन अध्याय में आ गया है, बाकी के अध्यायों में दुहराव है।

उन्होंने ‘गीता’ का सार अपने शब्दों में बताया, ‘सच्चा कुरुक्षेत्र हमारा शरीर है। यही कुरुक्षेत्र भी है और धर्मक्षेत्र भी। इस क्षेत्र में कुछ न कुछ लड़ाई नित्य चलती रहती है और ऐसी अधिकांश लड़ाइयां मेरा-तेरा को लेकर होती हैं। वे अपने-पराए के भेदभाव से पैदा होती हैं। इसलिए मेरे-तेरे का भेद भूलना चाहिए या यों कहिए कि राग-द्वेष को तजना चाहिए। गीता और सभी धर्मग्रंथ पुकार-पुकार कर यही कहते हैं।’ (वही)। यह गीता की सही समझ है।

गांधी राम के बारे में कहते हैं, ‘हम जिस राम के गुण गाते हैं, वे वाल्मीकि के राम नहीं, तुलसी रामायण के राम भी नहीं हैं। हालांकि तुलसीदास की रामायण मुझे अत्यंत प्रिय है और उसे मैं अद्वितीय ग्रंथ मानता हूँ तथा एक बार पढ़ना शुरू करने पर कभी उकताता नहीं। तो भी हम आज तुलसी के राम का स्मरण करने वाले नहीं हैं और न गिरिधर दास के राम को। तब फिर कालिदास और भवभूति के राम का तो कहना ही क्या। भवभूति के ‘उत्तररामचरित’ में बहुत सौंदर्य है, किंतु हममें वे राम नहीं हैं। मैं असह्य वेदना से पीड़ित व्यक्ति से कहता हूँ कि राम का नाम लो। अगर नींद नहीं आती है तो भी कहता हूँ कि राम का नाम लो। हम किसी देहधारी राम की पूजा नहीं करते हैं। हम तो अपने निरंजन-निराकार राम को पूजते हैं। हम उसके पास सीधे नहीं पहुँच सकते। इसलिए जिनमें ईश्वर की मूर्तिमंत कल्पना की गई है, उन भजनों को गाते हैं।… मेरा राम मुझे तारेगा, आपको नहीं। आपका राम आपको तारेगा, मुझे नहीं। हम सब तुलसीदास के समान सुंदर काव्य नहीं लिख सकते, किंतु जीवन में ईश्वर को उतार कर उसे काव्यमय बना सकते हैं। (हिंदू धर्म क्या है)। तुलसीदास ने भी कहा था, ‘ब्रह्म राम तें नाम बड़’। यहां तो कई लोग तुलसी से भी बड़े रामभक्त बने हुए हैं।

गांधी दूसरों की तरह ईश्वर तक पहुंचने, ईश्वर से मिलने की बात नहीं करते। वे ‘मनुष्य जीवन में ईश्वर को उतारने’ की बात करते हैं, अर्थात मनुष्य में ईश्वरता के प्रस्फुटन की, श्रेष्ठ गुणों की प्रतिष्ठा की। आज के समय की विडंबना है कि धार्मिक पूजा-अनुष्ठान होते हैं सिर्फ भय या लोभ से।

धर्म आत्मोपलब्धि का विषय है। इस अर्थ में यह निजी मामला है। गांधी धर्म को मंदिरगिरजामस्जिद, पंडितोंमौलवियों आदि के हाथों में सौंपना नहीं चाहते थे। वे हिंदू धर्म की दूसरी बड़ी बुराई बाह्य कर्मकांड के विरोधी थे। गांधी प्रार्थना में विश्वास करते थे। वे रघुपति राघव राजा राम में अल्लाह और ईश्वर दोनों को देखते थे। गांधी आजकल की तरह मंदिरमंदिर घूम कर अपने धार्मिक होने का सबूत पेश नहीं कर रहे थे और न इफ्तार पाटिर्यों में जाते थे।

गांधी ने अपने विचारों को अपने जीवन में पूरी तरह उतारा था। यह भी उल्लेखनीय है कि धर्म की अपनी विशिष्ट धारणा और कल्पना के आगे उन्होंने दूसरों की आस्था को कभी तुच्छ नहीं ठहराया। वे अपने धर्म और राम का मंत्र आम लोगों को पकड़ा कर भी यह कहना नहीं भूलते, ‘मैं मूर्ति पूजा को पाप नहीं मानता।’ यह भी देखना होगा कि उनकी बुद्धिपरकता उनमें अहमन्यता पैदा नहीं करती, उन्हें सभी धार्मिक आस्थाओं और पद्धतियों का सम्मान करना सिखाती है। वे वृक्ष पूजा को संपूर्ण वनस्पति जाति के प्रति आदर का प्रतीक मानते थे। वे सभी धार्मिक रीतियों के प्रति आदर व्यक्त करते थे, ‘मैं यह मानता हूँ कि परमात्मा अपने आपको इस विश्व में असंख्य रूपों में प्रकट करता है। उसका प्रत्येक रूप मेरे लिए सहज प्रणम्य है।’

हम सोच सकते हैं कि गांधी जब कहते थे, ‘मैं धर्म के बिना एक पल नहीं रह सकता’, तो उनका आशय किस धर्म से था। वह वस्तुतः कह रहे थे कि वे मूल्यविहीन होकर नहीं रह सकते। देखा जा सकता है कि धर्म के शोर के बीच सबसे बड़ा संकट खुद धर्म पर उपस्थित होता है।

कोई देश सिर्फ धर्म से नहीं चलता, एक व्यापक संस्कृति भी चाहिए। सांस्कृतिक पतन होता जाए और धर्म उन्नत हो, यह संभव नहीं है। गांधी एक मिली-जुली संवादप्रिय संस्कृति चाहते थे, ‘भारतीय संस्कृति उन विभिन्न संस्कृतियों का संश्लेषण है जो इस देश में रच-बस गई हैं। भारतीय सभ्यता भिन्न-भिन्न धर्मों का प्रतिनिधित्व करनेवाली और अपने-अपने भौगोलिक परिवेश और पर्यावरणों से प्रभावित संस्कृतियों का संगम है। यह न पूरी तरह हिंदू है, न इस्लामी और न कोई अन्य। यह इन सबका मिला-जुला रूप है और मूलतः पूर्वी है। हमारे युग की भारतीय संस्कृति अभी निर्माणाधीन है।’ (वही)

भारत के लोग गहरी धार्मिक वृत्ति के हैं और जहां दो या दो से अधिक धर्म प्रभावशाली हों, वहाँ धार्मिक दिखने की होड़ ज्यादा होती है। गांधी धर्म को बुद्धि से जोड़ना चाहते थे। इसलिए स्वाभाविक है कि वे धर्मांधता और सांप्रदायिकता का विरोध करते हैं।

उन्होंने कहा था, ‘हिंदू सोचते हैं कि मुसलमानों से लड़कर वे हिंदू धर्म का भला कर रहे हैं। मुसलमान सोचते हैं कि हिंदुओं से लड़कर वे इस्लाम का भला कर रहे हैं। वस्तुतः ऐसे लोग अपनी आस्था को मिटा रहे हैं।’ (द वे ऑफ कम्यूनल हार्मोनी)। यदि कोई धार्मिक आस्था, सत्य और उच्च गुणों की ओर न ले जाए तो यह आस्था नहीं है।

आज जब हर तरफ सिर्फ सौदागर हैं, गांधी की एक बात याद आती है, ‘मैं अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र में भेद नहीं करता।’ (महात्मा गांधी के विचार)। वे अपने विचारों को आगे बढ़ाते हैं, ‘वह अर्थशास्त्र जो नैतिक और भावनात्मक दृष्टिकोणों की अनदेखी करता है, मोम की मूर्ति के समान है।’ (वही)। गांधी बेईमानी को हिंसा मानते थे। वे इस अर्थव्यवस्था को हिंसक कहते थे जो अनैतिकता, विषमता और बेरोजगारी को बढ़ावा देती है।

हम देख सकते हैं कि गांधी को नकारने की एक पुरानी प्रवृत्ति रही है। समझना होगा कि एलीट बुद्धिवादी सोच में अपनी जीवंत परंपराओं और महान व्यक्तित्वों के प्रति उच्छेदवादी रुख से देश अंततः खतरों से घिरा। गांधी को खलनायक बनाकर किसी को कोई फायदा नहीं हुआ। शायद ऐसे लोग यदि अपने को देश की उच्च परंपराओं से ‘कनेक्ट’ करके रखते और गांधी की शक्ति का इस्तेमाल करते तो कुछ भिन्न नतीजे हो सकते थे। कई तो गांधी को पाखंडी कहते-कहते खुद पाखंड के प्रतीक बन गए।

गांधी के जीवन से कोई उदाहरण नहीं है कि उन्होंने कभी धार्मिक पूजा-पाठ का दिखावा किया हो। उनके लिए अध्यात्म इंद्रियातीत ध्यान नहीं है, बल्कि महान भारतीय परंपराओं के भीतर से अपनी आत्मशक्ति की मूल्यपरक खोज है। गांधी का अध्यात्म आंख मूंदना नहीं है, आंख खोलना है। वह मूल्य-उन्मुख अध्यात्म है। यदि कोई दो घंटे के लिए धार्मिक या आध्यात्मिक है और बाकी समय हिंसा से भरा, लालची और बेईमान है तो वह न सच्चा धार्मिक है और न आध्यात्मिक। गांधी चाहते थे कि समाज के अंतिम आदमी में बोलने की शक्ति पैदा हो और इसके लिए उसका धर्म, चाहे वह जो हो, उसे आत्मशक्ति दे।