आप्रवासी स्त्री कथाकारों ने विस्थापन, अपने नए परिवेश और हिंदी कहानी में योगदान पर पहली बार विस्तृत चर्चा की भारतीय भाषा परिषद के विश्व हिंदी संवाद-2 में। प्रसिद्ध कथाकार मधु कांकरिया ने कहा, ‘70 के दशक में तेजस्वी स्त्री कथाकारों की पहली पीढ़ी आई थी। उन्होंने पूछा था- हमारी स्त्री के रूप में पहचान क्या है? उन्होंने अपनी छेनी-हथौड़ी से अपने ताजमहल गढ़े थे। उनके अधिकारों की लड़ाई 21 वीं सदी में भी जारी है। देश-विदेश की स्त्री कथाकारों ने हिंदी कहानी में व्यापक संदर्भ उठाए हैं। यूके की शैल अग्रवाल ने कहा कि कहानी मेरी प्रिय विधा है, क्योंकि इसमें लेखक पीछे छिप कर सच कह सकता है। कैनेडा की कथाकार और इस संवाद की संचालक हंसा दीप ने कहा, ‘कथाकार विरोधाभासों और अंतर्विरोधों के बीच से समाज के यथार्थ को व्यक्त करता है। आप्रवासी स्त्री कथाकारों को अपने जीवन में कम संघर्ष नहीं करना पड़ा है। इन कथाकारों की खूबी है स्त्री चेतना।’ सुधा ओम ढींगरा अस्वस्थतावश अपनी शुभकामनाएं ही भेज सकीं।

संयुक्त अरब अमीरात की पूर्णिमा बर्मन ने कई आप्रवासी कथाकारों की चर्चा करते हुए कहा, ‘आप्रवासी कथाकार के लिए भारतीयता और वैश्विकता का सामंजस्य जरूरी होता है। यूके की कथाकार कादंबरी मेहरा ने कहा कि आप्रवासी महिला कथाकारों में स्त्री अस्मिता का स्वर प्रधान रहा है। उन्होंने सुषम बेदी, उषा राजे सक्सेना आदि के लेखन पर विचार किया। अमृतसर की मधु संधु ने आप्रवास की कहानियों पर चर्चा की। अमेरिका की अनिल प्रभा कुमार ने विस्तार से बाताया कि हम भारतीय और अमेरिकी संस्कृतियों के बीच आवाजाही से जुड़े लेखक हैं। स्त्री कथाकार मुख्य रूप से चरित्रों के अंतर्मन को देखती रही है। भारत को लेकर नॉस्टेल्जिया संभव है, लेकिन नए परिवेश में हमारी कई पुरानी धारणाएं टूटी हैं। पहले हमारा भूगोल बदला था, पर अब संवेदना के स्तर पर भी आप्रवासी बना दिए गए हैं। हमारी कहानियां संवेदना के स्तर पर घायल होते चरित्रों की कहानियां हैं।

परिषद की अध्यक्ष डॉ. कुसुम खेमानी ने उषा प्रियंवदा, शिवानी आदि की चर्चा करते हुए कहा कि परिषद के आंगन में दुनिया के विभिन्न देशों के कथाकार उपस्थित हैं, यह हमारे लिए गौरव की बात है। श्री केयुर मजमुदार ने सभा की शुरुआत की तथा प्रो.संजय जायसवाल ने विषय प्रस्तुति की।