1969 में जन्म। बहुचर्चित कवि और लेखिका। घर निकासी’, ‘पानी का स्वाद’, ‘अंतिम पंक्ति में’, ‘कवि ने कहा’ (चुनी हुई कविताएं), ‘खिड़की खुलने के बाद’  आदि कविता संग्रह। कविता और उपन्यास के अलावा उन्होंने बच्चों के लिए नाटक और कई टेलीफिल्मों के लिए पटकथा-लेखन भी किया। एक उपन्यास एक कस्बे के नोट्सभी प्रकाशित।

लेखन के लिए नीलेश रघुवंशी को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1997), आर्य स्मृति साहित्य सम्मान सहित कई पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं। फिलहाल दूरदर्शन केन्द्र, भोपाल में कार्यरत।

बहन की आंखों में

बहन की आंखों में बरहमेश दुख रहता है
रोती है तो दुख झलकता है
खुश होती है तो झिलमिलाता है दुख
क्यों है बहन की आंखों में इतना दुख?

कहती है
मेरे दुख से दूर ही रहना
नहीं तो वो तुझसे भी चेंट जाएगा
लिपट जाएगा तेरी गर्दन से काले नाग की तरह
इस चील गाड़ी को मेरे साथ ही रहने दे

कराहते नहीं, हँसते हुए बोलती है
इतना बड़ा जिगरा नहीं है मेरा
जिन आंखों में काजल लगाया मैंने
देख सकूं उनमें दुख को

बहन मेरी आंखों में दुख नहीं देख सकती
मैं हूँ कि जाने कब से
देख रही हूँ बहन को दुख में रहते।

एक दिन लौटूंगी

उन सबसे मिलना चाहती थी
बसे हुए थे जो मन में गहरे तक
लेकिन नहीं मिली,
नहीं मिली कि ‘अच्छा, अलविदा’
कहना नहीं चाहती थी
इस उम्मीद में शहर छोड़कर आई हूँ
लौटूंगी एक दिन

जब अचानक से मुझे देखकर
वे कुछ कहने-कहने को होंगे
तब तपाक से कहूंगी
मैं तो यहीं थी
तुम ही नहीं दिखे कई दिनों से
वे अकबकाएंगे और मुस्कराकर कहेंगे
‘अरे, मैं ही उलझा हुआ था या
किसी काम से बाहर गया था
प्रत्युत्तर में
मुस्कराती झेंप को और गाढ़ा कर दूंगी

बरगद के पेड़ के नीचे
हम सब ढेर सारी बातें करेंगे
शाखों से लटकती जटाएं
हँसते हुए हमें गले लगा लेंगी
पत्ते हमारे हाथों में आते ही बन जाएंगे दोनें
जिनमें हम
‘खाऊ गली’ की आलू की कचौरी और जलेबी खाएंगे
साबूदाने की खिचड़ी भी खाएंगे
चाय की केतली से उठती भाप और
कुल्हड़नुमा कप हमारी राह तका करेंगे

वे जिनसे मिले बिना शहर छोड़ आई
बरगद की तरह फैलते ही जा रहे हैं मेरे भीतर
हम कहीं भी रहें कितने ही दूर रहें
एक दिन हमें मिल ही जाना है
इसी आस में लौटूंगी एक दिन।

इतना अच्छा

एक दिन स्वप्न में
लोगों ने कहा मुझसे
तुम कितनी अच्छी हो।

भोर के देखे सपने अकसर सच होते हैं

जब उन्होंने कहा
तुम कितनी अच्छी हो
कहते, उनके चेहरे मुस्कराने लगे

मैंने नींद में करवट बदली और
शब्दों के पीछे के उनके भावों को पकड़ते सोचा

किसी को भी इतना अच्छा क्यों होना चाहिए
कि उसे ऐसे अच्छे लगने के सपने आने लगें।

गमला

मेरे पास गमला है
मिट्टी है, खाद है, पानी है
बस, नहीं है तो एक पौधा
बीज भी नहीं है मेरे पास

खाली गमले में रोज पानी डालती हूँ
करती हूँ गड़ाई-खुड़ाई
फैलने नहीं देती खरपतवार को

प्रतीक्षा में हूँ
कोई चिड़िया कहीं से आ जाए
गमले पर बैठ जाए
खिड़की से दबे पांव चिड़िया को चुगते
बीज को गमले में पड़ते देखूंगी
सांस बहुत धीमे लूंगी
कहीं चिड़िया उड़ न जाए और
गमले में बीज पड़ते-पड़ते रह न जाए
मैं खुद ब खुद उगने और बढ़ने की प्रतीक्षा में हूँ।

हाइवे पर लांग ड्राइव

एक बार में
पूरा का पूरा कुछ नहीं दिखता
कितना अच्छा हो
दिख जाए सारा का सारा
एक बार में

एक ही रास्ते पर जाती हूँ बार-बार
दिखता है हर बार छूट गया कुछ
कितने रास्ते, कितने राहगीर, कितने मोड़
कितनी पुलिया, कितने पेड़ और कोण
जाने कैसे रह जाते हैं आंख में आने से
दिखता है पहले तो बड़ा-बड़ा सब कुछ
सिमटता जाता है फिर सब कुछ धीरे-धीरे
दिखती है
एक पतली-सी लकीर की तरह सिर्फ सड़क
सिकुड़ती जाती हैं आंखें, झपकती नहीं पलकें
वाइड एंगल से नैरो एंगल में आना
कितना दुखदायी और घातक है

सांप की तरह सरसराती गाड़ियां
निकल जाती हैं कितना आगे
तुम भी
मुझे छोड़कर निकल गए कितना आगे
पीठ फेर लेती हूँ यादों में भी
तुमने मुझे ऐसे छोड़ा
जैसे बाढ़ में उफनते नाले को पार करते
एक चप्पल साथ छोड़ते बह गई थी
घुटनों तक पानी में डूबी
एक चप्पल को छाती से चिपकाए
दूसरी चप्पल के लिए कितना रोई थी, मैं

जब भी लांग ड्राइव पर जाती हूँ
वाइड एंगल से नैरो एंगल में आती हूँ कि
आ जाती है तुम्हारी याद।

खेल और युद्ध

खेल को खेल की तरह खेलो
खेल को युद्ध में मत बदलो

खेल की आड़ में युद्ध-युद्ध खेलोगे
तो मैदान नहीं बचेंगे फिर

बिना खेल के मैदान के
पहचाने जाएंगे हम ऐसे देश के रूप में
जो युद्ध को एक खेल समझता है
और इस तरह खेल की आड़ में
देश को युद्ध की आग में झोंकता है।

 

21वीं सदी कविता से संवाद के अंतर्गत विशेष कवि नीलेश रघुवंशी की रचनाप्रक्रिया पर आशीष मिश्र ‘स्त्री कविता का भूगोल’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

संपर्क: ए. 40 , आकृति गार्डन्स, नेहरू नगर भोपाल म. प्र. / मो. 9826701393 neeleshraghuwanshi67@gmail.com