ए क़ाज़ी ए वक़्तइसबार दग़ा न करनामेरे क़ातिल को तुमफिर से रिहा न करनामोजिज़ा है कि ज़िंदा हूं मैंपर हक़ को मार दिया है उसनेये जो घाव हैं मेरे ज़िस्म परइनसे गहरा वार किया है उसनेदिन दहाड़े ख़ंजर चलाकरकानून को दुत्कार दिया है उसनेआंखों देखा, झूठ बताकरअदालत को बाज़ार किया है...
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