संपादकीय मई-2023 : आत्मनिरीक्षण का जोखिम

संपादकीय मई-2023 : आत्मनिरीक्षण का जोखिम

शंभुनाथ कई बार मनुष्य के पास सिर्फ एक उपाय होता है, ‘जो घटित हो रहा है उसे चुपचाप जियो’।यह अंधेरे का फोटो खींचने से अलग हो सकता है, यदि हमारे सामने यह सवाल हो- ‘फिर भी यह जीवन अपना है, तो इसका क्या अर्थ है?’ इस प्रश्न का संबंध सबसे पहले आत्मनिरीक्षण से है।भारतीय समाज...
संपादकीय अप्रैल-2023 : आलोचनात्मक सोच का संकट

संपादकीय अप्रैल-2023 : आलोचनात्मक सोच का संकट

शंभुनाथ आलोचनात्मक ढंग से देखने या रचनात्मक होने का क्या अर्थ है, यह साहित्य ही नहीं, जीवन का भी प्रश्न है।२१वीं सदी की वास्तविकता यह है कि आलोचनात्मक दृष्टि संकुचित हो गई है और रचना से ज्यादा उत्पादन का महत्व है।समाज में बाजार एक सर्वभक्षी डायनासोर के रूप में घुसा...
संपादकीय मार्च-2023 : असहमति का भविष्य आम असहमति में है

संपादकीय मार्च-2023 : असहमति का भविष्य आम असहमति में है

शंभुनाथ साहित्य का जन्म असहमति से हुआ है।इसका प्रमाण है ‘रामायण’ में बहेलिया द्वारा मिथुनरत नर क्रौंच को मार गिराने के प्रतिवाद में वाल्मीकि के कंठ से फूटा पहला श्लोक, ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः…’।यह भी गौर करने की चीज है कि कवि वाल्मीकि का अयोध्या के राजदरबार...
संपादकीय फरवरी-2023 : विमर्शों को जोड़ने का अर्थ

संपादकीय फरवरी-2023 : विमर्शों को जोड़ने का अर्थ

शंभुनाथ दलित विमर्श दलित चेतना की एक मंजिल है, अंतिम मंजिल नहीं।इसी तरह स्त्रीवाद स्त्री चेतना की एक मंजिल है, अंतिम ठिकाना नहीं।१९८० के दशक से स्त्री विमर्श और दलित विमर्श शुरू हुए थे।इसमें राजेंद्र यादव और उनके ‘हंस’ (१९८६) की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।उन्होंने नई...
संपादकीय जनवरी-2023 : संस्कृतियां साहित्य के कारण ही जीवित रहती हैं

संपादकीय जनवरी-2023 : संस्कृतियां साहित्य के कारण ही जीवित रहती हैं

शंभुनाथ साहित्य हमेशा सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों का मामला है।आज समाज में साहित्य की जरूरत कितनी महसूस की जाती है, शिक्षित लोगों के जीवन में साहित्यिक कृतियों का कितना स्थान है और साहित्य के नाम पर जो कुछ घटित हो रहा है, वह कितना साहित्य है- ये चुनौतीपूर्ण प्रश्न हैं।कहीं...