संपादकीय नवंबर-2023 : भारतीय ज्ञान परंपरा पर बहस

संपादकीय नवंबर-2023 : भारतीय ज्ञान परंपरा पर बहस

शंभुनाथ इस युग में किसी विचार की सचाई के लिए बौद्धिक शक्ति का होना पर्याप्त नहीं है। भौतिक शक्ति भी चाहिए, अर्थात भीड़ और पूंजी की शक्ति। सौ साल पहले लोग ज्ञानियों का अपार आदर करते थे और पांच सौ-हजार साल पहले वे ही समाज के आलोकस्तंभ थे। वर्तमान युग में ज्ञान की जगह...
संपादकीय अक्टूबर-2023 : अहिंसा के लिए कविता

संपादकीय अक्टूबर-2023 : अहिंसा के लिए कविता

शंभुनाथ अहिंसा का व्यापक अर्थ है। यह गांधी के दर्शन का संपूर्ण सार और भारत देश का बार-बार दबाया गया महाभाव है। अहिंसा की जो यात्रा बुद्ध से शुरू हुई थी, वह सभ्यता के वर्तमान शिखर पर गंभीर चुनौतियों से घिर गई है। इस बार संपादकीय की जगह अहिंसा के लिए प्रार्थना के रूप...
संपादकीय सितंबर-2023 : भाषा में अंधेरा

संपादकीय सितंबर-2023 : भाषा में अंधेरा

शंभुनाथ उपनिषद में भाषा को ‘मन की नहर’ कहा गया है। वह मानव चित्त का प्रतिबिंब होने के अलावा समूची सभ्यता का प्रतिबिंब है। हम जो बोलते हैं, उसमें इसकी झलक होती है कि समाज किस तरफ जा रहा है। खासकर  बहस की भाषा से सांस्कृतिक और राजनीतिक विकास की दिशा का बोध हो सकता है।...
संपादकीय अगस्त-2023 : स्वतंत्रता की जययात्रा

संपादकीय अगस्त-2023 : स्वतंत्रता की जययात्रा

शंभुनाथ अज्ञेय ने एक जगह लिखा है, ‘स्वाधीनता एक ऐसी चीज है जो निरंतर आविष्कार, शोध और संघर्ष मांगती है।’ इसका अर्थ है, स्वाधीनता की कोई आखिरी मंजिल नहीं है। भारत की स्वतंत्रता के 75 साल पर कई तरह से चर्चा हुई। इस दौर को अमृतकाल कहा गया और 15 अगस्त की महत्ता को खुलकर...
संपादकीय जुलाई-2023 : प्रेमचंद : भूलने से पहले

संपादकीय जुलाई-2023 : प्रेमचंद : भूलने से पहले

शंभुनाथ हमारा समय प्रेमचंद को भूलने के दौर में है। 1960-70 के दशक में आधुनिकतावादी उभार के समय प्रेमचंद को बैलगाड़ी के जमाने का कथाकार कहा जा रहा था। वे सामान्यतः याद नहीं किए जाते, क्योंकि लोगों की चेतना पर प्राचीन-नए दबाव बढ़ गए हैं। बहुत कौशल से अंधेरे में समा चुकी...