वरिष्ठ कथाकार।बैंक की नौकरी से सेवानिवृत।दो कथा संग्रह प्रकाशित।

१९७२ का ठिठुरता दिन था।घने कोहरे से लिपटा हुआ था मिशन स्कूल।परिसर से सड़क तक रंगीन झंडियां लहरा रही थीं।हाई स्कूल का हॉल लोगों से भरा हुआ था।

कैसियो ट्यून के साथ स्टेज का पर्दा हटा।स्टेज के सेंटर में करुण खड़ा था।वह इंग्लिश में लेक्चर रट कर गया था।शेक्सपियर के जुलियस सीजर का।उसे कहना था कि वह ब्रुटस है।सीजर का सबसे प्रिय मित्र।मगर उसने ही उसे छुरा घोंप दिया, क्योंकि वह जनविरोधी था।

उसने प्रीस्ट्स, टीचर्स, प्रिंसिपल और जज का अभिवादन किया।फिर बोलना चालू किया।बोलते-बोलते जैसे जीभ तालू से सट गई।कंठ में शब्द अटक गए।ऐसा नर्वस हुआ कि लगा हॉल में बैठे लोग उठकर सिर पर छा गए।सारा रटा हुआ भूल गया।बोलने के बदले रो पड़ा।जज ने तत्काल उसे डिसक्वालिफाई कर दिया।

उसके टीचर मामा को ऐनुअल फंक्शन के अवार्ड्स की शॉपिंग करनी थी।उन्होंने उसे इसकी जिम्मेवारी दी थी।शॉपिंग के सामान मिलाते हुए मामा ने बताया था कि पार्कर पेन फर्स्ट आनेवाले को दिया जाएगा।

उसने अपने सिर पर हथेली मोड़कर ठोकर मारी… हुंह! फर्स्ट आएगा? गधा! मामा की तेल चंपी करना, अंग्रेजी उच्चारण, हाव-भाव सीखना …सब बेकार।पार्कर पेन न हुआ, कंटीले पेड़ पर कसैली मिठतुरुस जिलेबी हो गई! उछला।तोड़ा।छीला।और खा गए।

फिर आई वसंत पंचमी।हलवाई की कुरकुरी मीठी जिलेबी जैसी।मां शारदे की प्रतिमा मुहल्ले में रखी गई थी।हवन के धुएं के पास करुण मौन आंखें बंद किए बैठा था।लंबी नकली सफेद दाढ़ी मूंछ।श्रद्धालु मूर्ति के बाद उसे नमन कर जाते थे।वह सिहर जाता था। …इंग्लिश लेक्चर पर एक पेन ही मिलता न… यहां बिन बोले सैकड़ों पेन पा लेने का सुख मिल गया!!

एक दिन फुटबॉल खेलते – खेलते प्यास लगी।पानी पीने स्कूल के अहाते में गया।देखा, क्लास रूम में राजेश अकेला बैठा कुछ लिख रहा था। (आगे चलकर जो ख्यातिप्राप्त नाटककार बना।)

‘खेलने चलो।’

‘नहीं।मुझे लिखना है।’

‘क्या लिख रहे हो? दिखाओ।होमवर्क?’

फटाक! कॉपी बंद।डेस्क में ताला मार दिया।  ‘अच्छा, चलो खेलते हैं।’

सभी खेलने लगे।करुण लौटा।ताला तोड़ा।.. अरे! यह तो उपन्यास लिख रहा है! इससे दोस्ती करनी चाहिए।उससे पूछा, ‘यार! लिखते कैसे हो? इतनी बातें कहां से आती हैं?’

‘चारों तरफ देखने से।देखा था तुम्हें, स्टेज पर रोते हुए।ठीक से बोल लेते तो प्राइज मिल जाता।कोई बात नहीं।चलो जापानी फॉर्म में हम मिलकर ड्रामा करेंगे।’

१९७४ आते आते उन्होंने जापानी एग्रीकल्चरल फॉर्म में खुद लिखकर नाटक किया।खूब तालियां बजीं।बधाइयों का पुरस्कार मिला।इंटर करते समय उन्हें चेखव के गिरगिटका स्क्रिप्ट दिखा।तब नाटक बंद प्रेक्षागृह में होते थे।उन्होंने गिरगिटहॉल के बाहर मेनरोड के किनारे खुले आसमान के नीचे चौकी सजाकर किया।सड़क पर लोगों ने देखा, जाम लगा दिया! …यह बिहार का पहला नुक्कड़ नाटक है।पब्लिक की चीज, पब्लिक के बीच।क्या नाटक है! नेतापुलिस संबंध दिखाया है।

अनेक जगहों के बाद नवादा चौक पर वही नाटक वे कर रहे थे।थाना हवलदार भी देख रहा था।वह चिल्ला उठा, ‘बंद करो।बंद करो।’

उन्होंने दर्शकों से पूछा, ‘क्या नाटक रोक दें?’

‘नहीं।’ दर्शकों में से कुछ लोग शोर मचाते हुए, कुछ गंभीरता से समझाते हुए हवलदार को अलग ले गए।नाटक अंत तक हुआ।ऐसा उनके साथ बार-बार हुआ।

१९७८ में मधुकर सिंह का नाटक प्रकाशित हुआ – दुश्मन।कैसे नेता कुर्सी पाते ही बदल जाता है- थीम था।गंजेड़ियों-पत्तेबाजों को हटाकर रिहर्सल हुआ।पूर्वाभ्यास के आखिरी दिन करुण बीमार हो गया।फिर भी तपते बुखार-खांसी में उसने अस्सी साल के फिकिर दादा की भूमिका निभाई।दर्शकों ने पहली बार मुसहर टोली में, झोपड़ियों-सूअर के खोभाड़ के बीच नाटक का आनंद लिया।

उस रात।सूअर खेंखिया रहे थे।मुसहरटोली की झुग्गियों के बाहर-भीतर मुसहर नाटक देखने के बाद सोए हुए थे।कोई आया।हर पलानी में पर्चा फेंक अंधेरे में गायब हो गया।एक मुसहर ने करुण को पर्चा दिखाया।वह पर्चा लिए हर मित्र की चौखट पर साइकिल की घंटी टनटना आया।

ड्रामा के बाद स्पॉट पर पंफलेटिंग से सबों में सनसनी फैल गई थी।बिन आवाज के बारिश हो रही थी।लाइन कटी हुई थी।करुण के घर बारी-बारी ढेरों रंगकर्मी बटोरा गए।दालान में अंधेरा था।जमीन पर दवा की शीशी की ढिबरी भकभका रही थी।श्रीकांत पर सबकी आंखें टिकी हुई थीं। (जो आगे चलकर प्रसिद्ध पत्रकार/समाजशास्त्री बना।) दुबले श्रीकांत ने दमदार आवाज में पर्चा पढ़ा-

‘देशवासियो! हत्याएं, आत्महत्याएं, बेरोजगारी, महंगाई, असुरक्षा, राष्ट्रीय संसाधनों की लूट – इस व्यवस्था की उपलब्धि है।न्याय, लोकतंत्र, सामाजिक – आर्थिक समानता, धर्मनिरपेक्षता के लिए उठ खड़े हों।तभी बनेंगे – अंधेरे में रोशनी की लकीर।’

पर्चा फेंकने वाले के प्रति जिज्ञासा लिए करुण एक्जाम की तैयारी में मैथ जोड़-घटा रहा था।

‘खर्र’ की आवाज आई।दरवाजे की झिर्री से पर्चा गिरा।वह झटके से उठा।किंवाड़ खोल तेजी से बाहर आया।

‘आप कौन?’

‘क्रांतिकारी हैं।’

‘पर्चे क्यों फेंकते हैं?’

‘जनचेतना के लिए।’

करुण ने पर्चे को किताब में रखा।उनसे बतियाता संकरी गलियों को पार करता करमनटोला की चौड़ी चौकोर पथरीली सड़क पर चला आया।वहां उनकी छोटी-सी दुकान थी- बैट्री की।दीवाल से सटाकर रखी बैट्रियों से तेजाब पानी की गंध भभक रही थी।अलमारी खोलकर उन्होंने उसे राहुल सांकृत्यायन, भगतसिंह और अंबेडकर की किताबें दीं।

दूसरे दिन करुण और श्रीकांत उनसे एक गड्डी पर्चे ले आए।उसी दिन उन्होंने हर मुहल्ला, हर दुकान-मकान में पर्चे गिरा दिए।ऐसा करते वक्त रोमांचक थ्रिल हुआ।जागती आंखों में सुखद सपना सुगबुगाया …हम क्रांतिकारी हैं।जल्द ही क्रांति होगी।व्यवस्था जनपक्षीय हो जाएगी।

करुण के पास एक पुराना स्टेंसिल प्रिंटर था।रात में जब मांबाबू जी, भाईबहन सो जाते, वह उठता।स्टेंसिल पेपर काटता।प्रिंटर पर इंक लगाता।सुबह होने तक पचास पर्चे छाप लेता।स्टेशन, स्कूल, कॉलेज, बाजार की दीवारों पर मैदे की लेई से पर्चे सट जाते।चायपान की गुमटी पर लोग बतियाते, लिखा हैसांप्रदायिकता कारपोरेट पूंजी से बंधी है।

‘इसीलिए तो ये जाति धर्म के ठेकेदार हमारी असली समस्याओं से मुकर रहे हैं।’

‘पता नहीं कब हम गरीबों को शिक्षा, रोजगार और जमीन मिलेगी!’

‘दाल-रोटी-दवा मिल जाए -यही बहुत है।’

‘देखें अगला पर्चा कब सटाता है।’

इन्हीं विचारों का उन्होंने वॉल – राइटिंग किया।तीन मित्र मिलते।एक ब्रश भिंगोकर लिखता जाता।दूसरा गेर का डब्बा पकड़ता।तीसरा चौकीदारी करता।

अक्सर वे घर से साइकिल निकालते।कस्बे के छोर पर नान्हटोली या पड़ोसी गांव के गरीबों के यहां जाते।उनके साथ चाराकल से गाय-गोरु का गवध काटते।मक्का भून कर खाते।उनसे बातें होतीं- ‘कितनी मजदूरी है? गैरमजरूआ जमीन कहां है? कब्जा किसका है? बबुआन का व्यवहार कैसा है?’ ये ही विषय बनते उनके नाटक का।आरा का कोई टोला, चौराहा नहीं बचा, जहां उन्होंने मंचन नहीं किया।फिर वे गांवों की ओर मुड़े।

भोजपुर के उत्तरी हिस्से में बहती गंगा के कगार पर बसा एक गांव है।वहां उनकी टीम बस अड्डे पर उतरी।सामने राइफलधारी सामंतों की जमात खड़ी दिखी।

‘आ गया सब।’

‘आक्थूः!!’

‘गाएगा सब? नचनिया बजनिया है।नाच दिखाएगा।बाजा बजाएगा।’

‘हेंः! सहर में नाटक करते करते अब गांव आ गए!’

‘आज नान्हटोली में नाटक है।आक्थूः!’

‘परेवा का पूत जाएगा नाटक देखने।’

‘नाटक नहीं, गांव को लौंडा नाच चाहिए।सारे गांव में भोंपा से कहा गया है- आज मसहूर लौंडा नाच है, बबुआन टोला पर।मजगर डांस का रस लेने आएं।बहुत बड़ा स्टेज बना है।विशाल पंडाल लगा है।’

‘देखते हैं, कैसे होता है इस्सब का नाटक।आक्थूः!’

करुण के सिर से पैर तक पसीना छूट गया।थरथराते हुए उसने मित्रों से कहा, ‘हमारे नाटक को डिस्टर्ब करने की साजिश है।’

‘है तो है।हमलोग आज नहीं, कल नाटक करेंगे।’

‘और हमारे लिए स्टेज बंध चुका है सो?’

‘माइक पर दर्शकों को बुलाया जा रहा है।सौ डेढ़ सौ लोग जुट गए हैं।’

‘शुरू किया जाय जनगीत-

दिन दुपहरिया में

धूप कड़कड़िया में

मेहनत करेला किसान

खाए के ना रहे के ठेकान।’

गीत सुनकर दर्शकों में बातें होने लगीं, ‘अरे, ये तो हमलोगों की बातें हैं।हमारे गीत हैं।’

दर्शकों की प्रतिक्रिया सुन श्रीकांत ने माइक संभाला, ‘इन गीतों से बेहतर गानों का कार्यक्रम होगा कल।नाटक कल होगा।ऐसा नाटक जिसमें समाज की तस्वीर होगी।लौंडा नाच की अश्लीलता नहीं होगी।आप घर जाएं।टोलामुहल्ला में हर किसी को कल के कार्यक्रम के बारे में बताएं।उन्हें नाटक देखने के लिए बुलाएं।

दूसरे दिन भोर में वे बाजार जा रहे थे।रास्ते में बबुआनों का गिरोह मिल गया।

‘ई सब नाटक करने नहीं आया है।रांड़-रेयान का आंख खोलने आया है।’

‘आंए? हमारे खिलाफ भड़काने आया है?’

‘तब तो ई सबका नाटक बवाल मचा देगा!’

‘नाटक होने ही नहीं देंगे।’

‘आज स्टेज पर गोली चलेगी।’

करुण बुरी तरह घबरा गया।शहरी दोस्तों के साथ सहमे पांव वह अपने पड़ाव पर वापस आया।आयोजकों को बताया तो वे बोले, ‘मत डरिए।जो गोली चली तो आप से पहले हमारी छाती आगे रहेगी।’

स्टेज आम के पेड़ों के बीच बना था।स्टेज और दर्शकों के चारों तरफ पचासों लोग भाला – गंड़ांसा लिए चक्कर लगा रहे थे।उधर सामंती झुंड सड़क पर बैठा था।उन्होंने खुफिया छोड़ रखे थे, जो उनके कानों में फुसफुसा रहे थे, ‘बड़ी तैयारी किया है सब।’ दूसरी ओर हमारे आयोजकों के जासूस थे।वे उन्हें बता रहे थे, ‘गुंडे कोई भी प्लान बनाएं, हमें खबर हो जाएगी।कलाकार बाहर बिलकुल न जाएं।सावधान रहें।’

silhouettes of concert crowd in front of bright stage lights

नाटक शुरू हुआ।हजारों की भीड़ हो गई थी।कोसों पैदल चलकर आए बूढ़े, बच्चे, औरतें, युवक ध्यान से नाटक देखने लगे।एक दृश्य में पटाखे फूटे।पटाखे की आवाज सुनते ही गुंडे खड़े हो गए।उन्होंने भगदड़ मचानी चाही।लेकिन दर्शकों के बड़े हिस्से ने सबको शांत किया।नाटक खत्म होने के बाद विजय भाव करुण के मन में हिलोरें मारने लगा।सोते समय उसने खिड़की से बाहर झांका- पहरा अभी भी दिया जा रहा था।वह अनजानी आशंका में देर रात करवटें बदलता रहा।.. कहां तो नाम-शोहरत कमाने निकला था! यहां जान आफत में है।इस जोखिम से बेहतर है- घर की सुरक्षित दीवारों के बीच खाना-पीना, करियर बनाना।

सुबह सैकड़ों ग्रामीण उन्हें बस पर चढ़ाने गए।वहां से वे दूसरे गांव गए… फिर तीसरे गांव।उनके आने की खबर उनसे पहले पहुंच जाती।घंटों पहले दर्शक आने लगते।नाटक हो जाने पर किसान सभा के नेता भूमि आंदोलन, शिक्षा, रोजगार पर गंभीर भाषण देते।हफ्ता भर तेजी से बीत गया।वे आरा लौटे।

पहली बार वे किसानों के बीच रहे।हफ्ता भर में उनके भीतर कुछ बदल गया।शाम हुई।वे नवादा जुटे।चौक पर एक कपड़े की दुकान थी।ऊपर सीढ़ी घर था।छत पर चटाई बिछाकर वे बैठे।राजेश ‘मानसरोवर का हंस’ के पन्ने पलट रहा था,  प्रेमचंद की कहानियों को नाटक बनाएंगे।

चुक्का मुक्का बैठा श्रीकांत स्वयं की संपादित पत्रिका ‘विवेक’ को चटाई पर रखते हुए बोला, ‘क्यों न गोर्की के ‘मां’ का रूपांतरण करें?’

‘करेंगे।’ राजेश ने कहा, ‘फिलहाल हाशमी, गुरुशरण सिंह, शिवराम, रमेश उपाध्याय की एकांकियां ठीक रहेंगी।’

करुण चुप न रह सका, ‘जो भी करेंगे।कंपोजिशन पर फोकस रखेंगे।कहीं स्टेज है, कहीं स्ट्रीट।दोनों की तैयारी चाहिए।’

तभी मित्र नवेंदु तीन बहनों के साथ सीढ़ियां चढ़ता ऊपर आया, ‘हां भाई! बहनें आईं हैं।इन्हें गीत, नाटक सिखाओ।’

‘वाह! बहुत अच्छा! पहले राखी बांधी।रोटी भात खिलाई।अब जनगीत गाएंगीं।नुक्कड़ पर भी।’

‘नुक्कड़ नाटक की बात पर याद आया- वह लड़का।नुक्कड़ नाटक करते-करते सत्ता की पूंछ पकड़ लिया।पूरा ग्रुप एन जी ओ में घुस गया।अब जन समस्या को छोड़ रुपये पीट रहा है।परिवार नियोजन, एड्स, पर्यावरण, स्वच्छता पर काम करता है।’

‘शोहरत – दौलत की ललक में चांदी का जूता सिर पर खा लिया।’

‘सबक है।धार बनाए रखने के लिए विचार – संगठन ठोस चाहिए।’

‘अब टीम बननी है।नाम होगा – युवा नीति।राइटर डाइरेक्टर राजेश है ही।सचिव नवेंदु होगा।सामने होटल के पीछे एक कोठरी खाली है।मालिक अपना आदमी है।किराया नहीं लगेगा।वहीं ऑफिस होगा।’

इधर ऑफिस बना, उधर नवेंदु, श्रीकांत ने जर्नलिज्म में छलांग लगाई।वे रविवारमें लिखते लिखते जनमतनिकालने लगे।नाट्यदौरों में वे झोलाबैग के साथ जनमतके बंडल्स लादे रहते।कभी नाव पर चढ़ते, कभी बसट्रेन पर।कभी अंधेरी रात में अनजानी दलदली राहों को पार करते।कभी रेगिस्तान की बालू भरी आंधी से गुजरते।कभी दहकते लाल कोयले की खदान से।कभी ऊंचे पहाड़ों से।कभी बीहड़ जंगल से।

उनका दायरा बढ़ा।जगह-जगह जनपक्षीय नाट्यकर्मियों का समुदाय उभरने लगा।देश भर से उन्हें बुलाया जाने लगा।जब बुलावा किसान सभा का आया तो वे उत्साहित हो गए।

लाखों किसान आए थे।उनके बीच उन्होंने नाटक किया।प्रस्तुति के दरम्यान रह-रह कर वे चिल्ल देते, अब तक जो खून न खौला, खून नहीं वह पानी है।एक साथ तेज आवाज, तालियों की गड़गड़ाहट से करुण के रोंगटे खड़े हो गए।अगले पल वह ठंडा पड़ गया।.. अरे, इतनी पुलिस! मैदान के चारों ओर! सबको जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया जाएगा।डर से वह कांप गया।.. नः ..अब नहीं करेंगे नाटक।

वह भागा।घर में जा छुपा।दोस्त आए।बार-बार उसके दरवाजे की कुंडी बजाए।

‘क्या यार! हमारे साथ तू पूरा सुरक्षित है।चल -चल।चलेगा नहीं?’

‘नाः।नहीं जाना मुझे।’

‘अगला प्रोग्राम कैसे होगा?’

‘जैसे भी हो।मेरा रोल दूसरे से करा लो।मेरी तबीयत ठीक नहीं है।’

‘बगैर रिहर्सल के?’

‘प्रॉम्पटिंग कर लेना।’

विंग्स से प्रॉम्पटिंग करके नाटक हुआ।करुण को घमंड था कि उसके बिना नहीं होगा।वह नहीं तो सूरज नहीं उगेगा।पृथ्वी नहीं घूमेगी।न कौआ बोलेगा, न भोर होगी।उसने खुद को थप्पड़ मारा- भगोड़ा! डरपोक! कायर!! नहीं।ऐसा नहीं है।

फिर से काम करते समय आयोजक यात्रा-भत्ता देने लगे तो उसके भीतर का उथलपुथल कुछ थमा।उन पैसों से (आने-जाने की व्यवस्था के बाद) किताबें, संगीत के साज, कॉस्ट्यूम, मेकअप के सामान खरीदे जाते।पैसों का एक अंश किसी सदस्य की बीमारी या आकस्मिक स्थिति के लिए रखा जाता था।

इस बीच करुण और राजेश ने इंटर कर लिया।इंजीनियरिंग के कंपटिशन में बैठे।राजेश ’७८ में इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग पढ़ने भागलपुर चला गया।करुण के अभिभावक इंजीनियरिंग कॉलेज का एडमिशन और ऐनुअल फीस भरने में अक्षम थे।वह जैन कॉलेज, आरा से स्नातक करने लगा।उसका लंगोटिया यार अलग हो गया।वहां वह ‘दिशा’ के बैनर से काम जारी रखा, यहां करुण ‘युवा नीति’ से।

एक बार वह एक गांव में नाटक करने जा रहा था।झोले में स्क्रिप्ट के साथ गमछा रख रहा था।तब मां ने अंडरवियर गंजी देते हुए टोका था, ‘जा रहा है.. समंदर पार कमाई करने? क्या लाएगा? नाम नहीं, पैसे चाहिए पेट भरने को।घर की रसोई तो देख।कनस्तर में आटा चावल है? कब तू कमा कर लाएगा? ये टाइम पास छोड़।’

वह चुप।निरुत्तर।घर से निकला।रास्ते भर जेहन में मां छाई रही।उसने दोस्तों को मां की बातें बताईं।मंच पर अभिनय करते समय दर्शकों के बीच मां की सूरत कौंध जाती थी।तालियां बजीं।सैकड़ों रुपये पुरस्कार मिले।उसे लोभ ने घेरा ..कुछ नोट दबा लूं ..नोट पाकर मां हरिया जाएगी।..नहीं।इनपर सबों का हक है।

उस दिन शो खत्म हो चुका था।लोग घर लौट रहे थे।आर्टिस्ट पानी तेल से चेहरा पोंछ रहे थे।करुण प्रॉपर्टीज बक्से में रख रहा था।दर्शक दीर्घा का तंबू खोला जा रहा था।तंबू के बाहर एक खोमचा वाला खड़ा था।उसने अपने कुर्ते का छोर पकड़ा।खोमचे की आधी मूंगफली कुर्ते में उलट लिया।करुण के पास आया।

‘लीजिए।हमारी ओर से।इहे हमारी रोजी रोटी है।नाटक में जैसा सूदखोर बने थे आप, ठीक वैसा ही है हमारे गांव में।’

करुण ने कांपते हाथों से लिया। ‘यह चिनियाबदाम नहीं है, हमारे लिए बहुत बड़ा इनाम है।बहुमूल्य!’

आयोजक ने करुण का कंधा थपथपाया, ‘यह है हम गंवारों की समझ।हमारा प्यार।यही नहीं, घर जाइए।हमारी तरफ से छोटी-सी भेंट, आपके लिए एक और पारितोषिक आपका इंतजार करता मिलेगा।

‘क्या?’

‘घर जाकर देखिएगा।’

वह घर पहुंचा।देखा, दालान में एक बोरा गेहूं रखा था।बोरे को सहलाती मुस्कराती मां बताई,  तुम्हारे साथी आए थे।यह दे गए।कहा – ‘हमारे लिए है।पैसा पूछा तो कहा कुछ नहीं, और चले गए।’

गांव वाले उन्हें सिर माथे रखते हैं।ग्राम यात्राओं में यह अनुभूति और गहरी होती गई।गांव जाने पर उनके ठहरनेखाने की व्यवस्था पहले से कर दी जाती थी।एक गांव में एक विधवा बुढ़िया रहती थी।उसने कहीं उनका नाटक देखा था।उसने उस रात खाने का बीड़ा उठाया था।फुरसत होते होते अंधेरा हो गया।नौ बजे वे उस विधवा बुढ़िया के यहां गए।

फूस मिट्टी से बनी झोपड़ी के चारों ओर बांस की चांचर थी।आंगन में पेट्रोमैक्स धुआं रहा था।गोबर से लिपे आंगन में बोरों पर वे बैठे।पत्तल बिछा।कुल्हड़ में पानी ढालने के बाद पत्तल पर दाल-भात, कद्दू की सब्जी परोसी गई।सबसे पहले करुण ने कौर मुंह में डाला, ‘उंह! दाल में नमक ज्यादा है।’

‘हूं।बहुत ज्यादा है।’

‘मुझसे तो खाया नहीं जाएगा।’

‘दाल में थोड़ा पानी डाल लो।सब्जी में भात सानो और खाओ।’

‘जानते हैं? दिन में सत्तर साल की बूढ़ी माई ने लकड़ी-कुन्नी झोंककर एकंछिया चूल्हे पर भात और घिया की तरकारी ठीक बना पाई होगी।बेचारी को रतौंधी है।सांझ से कुछ नहीं दिखता।दाल में अनझटके नून पड़ गया होगा।’

‘कोई भात न छोड़े।’

‘भूखे रहे तो उसे दुख होगा।’

कोई बेमन आधापेट, कोई भरपेट खाया।पानी पिया।विदा होने लगे तो बूढ़ी माई रो पड़ी, ‘नहीं।हम गरीब विधवा अकेली नहीं है।गांव-जवार है यहां।हमारा अंगना सूना नहीं है।आप सबने हमारा बनाया खाना खाया।हम नन्हजात धन्य हो गए!’

गांव ही नहीं, १९८१ आते-आते शहरों के मिलों, रेलवे, बिजली यूनियनों से निमंत्रण आने लगे।हर गतिविधि की रिपोर्ट पेपर-मैगजीन में छपती थी।एक पेपर और एक किताब लिए श्रीकांत करुण के सामने पलंग पर बैठा था।

पेपर में लेख है।आरा रंगमंच के सौ साल।हमारे नाटकों की लंबी चर्चा है।यह है- बिहार दर्पण।राज्य के चुनिंदा रंगकर्मियों में नाम है।

‘हंह नाम! क्यों प्रोडक्शन के पहले खुफियों के जूतों की चरमराहट हमारे घरों के चारों तरफ सुनाई देती है? क्या हम क्रिमिनल हैं? क्यों पुलिस प्रशासन स्टेज पर मधुमक्खियों की तरह मंडराता है?’

‘और तो और।हम पर किसान नेताओं के साथ शांति भंग करने का मुकदमा लाद दिया गया!’

मुकदमे की तारीखों पर वे कोर्ट कंपाउंड में घुसते।स्टांप भेंडरों से दुआ सलाम होता।जो वकील, मुख्तार, ताईद लाश पर से कफन खींचने वाले कहलाते थे, वे ही उनकी आवभगत करते।बार – एसोसिएशन के अध्यक्ष ने बिना फीस उनका केस लिया था।

वे गर्मियों के दिन थे।कचहरी के इजलास के पास पसीने की सफेदी वाले काले कोटधारी मंडरा रहे थे।पेंडिंग केसों की फाइलों का अंबार जज की टेबल पर रखते हुए मुख्तार ने कहा था, ‘ऐसे केस ब्रिटिश टाइम में होते थे।एक तरफ रमता जी, बबन तिवारी जैसे नेताओं के साथ ये।दूसरी तरफ स्टेट।’

खिड़की से दिखते गुंबद की ओर इशारा करते हुए श्रीकांत ने कहा, ‘ब्रिटिश टाइम! उस गुंबद पर ब्रिटिश टाइम में यूनियन जैक फहराता था।देश में पहली बार यहीं तिरंगा लहराया था।अंग्रेजी झंडा हटाकर तिरंगा टांगने वाले तीन दोस्त थे।अंग्रेजों ने तीनों के सिर काटकर महादेवा रोड के बुढ़वा मंदिर के फाटक पर टांग दिया था।जनता और सत्ता का अलग-अलग इनाम!!

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