गुजराती की प्रसिद्ध कथाकार और कवयित्री।हिंदी में भी लेखन।कई कहानी संग्रह।एक कविता संग्रह ‘एकांतनो आवाज’।दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर।

घोड़ा

एक घोड़ा
रास्ता भटककर
दौड़ता-भागता आ पहुंचा है
शहर के चौराहे पर

कहते हैं
यह घोड़ा युगों से दौड़ रहा है
कहते हैं
इस बलवान घोड़े की लगाम
दुष्यंतपुत्र भरत ने पकड़ी थी कभी
यह घोड़ा वनवासी था
सो जाहिर सी बात है निरा सात्विक ही होगा!

फिर
काल अस्त हुआ
और हुआ अंधेरा घना
कई वनों को पार कर
जाने कितनी सदियों तक
दौड़ता रहा घोड़ा बेलगाम
उसकी पीठ पर पड़े कई हाथ अनजान
शक-हूण-तुर्की-मुगल-अंग्रेज
एक एक कर उधेड़ते रहे खाल
मगर तब भी उसने दौड़ना नहीं छोड़ा
उसकी आंखों ने किसी दुष्यंतपुत्र का
इंतजार नहीं छोड़ा
अब
वह घोड़ा चौराहे पर खड़ा है
और इस बार
एक हाथ उसके सिर पर
और दूसरा उसकी पूंछ पर है
दस उंगलियों की कोशिश है कि उसे
टोपी और तावीज पहना दिया जाए
दस उंगलियों की कोशिश है कि उसे
तिलक कर माला पहना दिया जाए
मगर घोड़ा तो घोड़ा था!
सिर पूंछ हिला हिलाकर करता रहा इनकार

फ़िर भी

तो तय रहा —
उसे तवारीखों में बांट दिया जाए
सवाल कई थे
घोड़े की हिनहिनाहट किस भाषा में होनी चाहिए
संस्कृत या उर्दू?
किसके सामने होना चाहिए उसे नतमस्तक?
सूर्य या चंद्र?
फिर उठ खड़ा हुआ एक और मसला
घोड़ा शुद्ध शाकाहार लेगा
मंत्रोच्चार करेगा
और गाय से दोस्ती भी करेगा
मगर मुसलमान हाथ से पला घोड़ा!
और फिर हर तीसरे दिन जब वह लौटेगा तो
प्रायश्चित और शुद्धिकरण का क्या!
सवाल बौद्धिकों की सोच से भी बड़ा था-
आखिर घोड़े का क्या किया जाए?

सोच रहे हैं लोग
हो रही है संसद में बहस
कई सत्र से

शहर के चौराहे पर पड़ा है घोड़ा!

तूफान

कभी तूफानों को ठहरते हुए देखा है तुमने?

इन दिनों
चक्रवाती तूफानों के सुनती हूँ नाम
ताऊते, लैला, मुरासु, गुल-आब, यास
किया जाता है हर तूफान का नामकरण
खाली कराए जाते हैं समुद्र तट
कुछ पेड़
कुछ खंभे
कुछ घर
कुछ लोगों को बहाएगा, गिराएगा, मिटाएगा
यह भीषण तूफान

सदियों से
मेरे भीतर ठहर-सा गया है एक तूफान
पेड़
खंभे
घर
लोग
कुछ भी तो नहीं उखड़ता
सिवा मेरे!
उखड़ चूकी हूँ मैं अपनी समूची जड़ से
खाली ही हैं मेरे अस्तित्व के तट
ठहर गई है बरसों से एक आधी-अधूरी लहर

इस तूफ़ान को
मौसम विभाग ने नहीं दिया कोई नाम
कौन जाकर बताए उनको
जहां स्थिरता होती है वहीं होता है भीषण चक्रवात
उफनाई हुई हैं
मेरे भीतर की नदियां
कोई तो खोल दो बंधों को!

कभी ठहरे हुए तूफानों को सुना है तुमने?

उस पुल से जब भी गुजरती हूँ मैं

पहले
जब भी नदी के उस पुल से गुजरती
जाने कितनी बातें जल से करती
कच्ची-कच्ची नौकरी की पक्की-पक्की मन्नतें मांगती
घर जल्दी पहुंचने की
और फिर से जल्दी इतवार लौटने की मिन्नतें करती
नदी के पानी में एक रुपये का सिक्का डाल
दर्शन के साथ साथ शिकायतें भी भरती

अब
जब भी गुजरती हूँ उस पुल से
सोचती हूँ
उन सिक्कों के साथ-साथ
उस जल-तल में
मेरी मां की अस्थियां भी होंगी इसी पानी में कहीं
देखती हूँ
जल पर तैरते हुए फूल
अब फूल कहां?
जंजीरें हैं लोहे की
बांध रखा है उसने मेरे अतीत और वर्तमान को
और पानी-पानी है मेरा भविष्य
लौट रही हूँ उस घर, जहाँ अब कोई घर नहीं है
घर, जो उन अस्थियों के साथ बह आया है यहीं

अब
पक्की-पक्की नौकरी है और कच्ची-कच्ची-सी मैं हूँ
मानो अभी इस पल
ढह जाऊंगी मैं
बह जाऊंगी मैं
किनारे की उस मिट्टी की तरह पानी में
फिर भी
अब कोई शिकायत नहीं
क्योंकि कोई रिश्ता नहीं
आस्था का कोई सिक्का नहीं
अब दर्शन के लिए उठते नहीं मेरे हाथ
‘नमामि नर्मदे’ रटते नहीं मेरे होंठ

फिर भी
जब भी गुजरती हूँ उस पुल से
लगता है
मां अपने अस्थिकंधों पर झुला रही है मुझे
मना रही है मुझे
दुलार रही है मुझे!

खेत

मेरी देह के खेत में
उग आती है भूख
वक्त-बेवक्त
मौसम बेमौसम!

खेत है
मिट्टी है
कुछ न कुछ तो उगेगा ही
चाहे कितना भी हो बंजर
या उसे कर दिया जाए बंजर
भूख की बारह आंखें
उठती हैं एक साथ उद्दंड आकाश की ओर
टोहती है उड़ते पक्षियों के पंख
ढूंढ़ती है उसकी रिक्तता में जल
और चौबीस हाथ हो उठते हैं
बादलों को चीरने के लिए अधीर

हां, अजीब तो है!
भूख की आंखें आकाश की ओर हैं
और पैर जमीन पर
फिर भी दौड़ती रहती हैं खेत में दिन-रात
भूख यहीं प्यास के बीज बोती है
अस्तित्व की प्यास
स्वीकार की प्यास
उड़ान की प्यास
और वे ही बीज
जब पौधे बन जाते हैं
तब लहराने लगते हैं
देह की आंखों में
झांकते हैं जल की आशा में
और तब खेत का मालिक
अपनी आंखों को घोषित कर देता है अंधा
रख आता है अपने हाथ
पाषाण युग की किसी गुफा में
और लौट आता है वह पाषाण बन
खेत की मिट्टी पर!

कभी नहीं दिया उसने
बीज के हिस्से का पानी
बीज के हिस्से की नरमी
बीज के हिस्से की सुनहरी गर्मी
खेत है अब निरा सूखा
बारिश होती नहीं
और मैं अपनी जड़ से उखड़ती भी तो नहीं!
मैं पराली भी तो नहीं जला सकती
क्योंकि देह ही जल जाएगा
तो कहां से उगेगी प्यास?

मैं जीवित रखूंगी अपनी प्यास
कोई कितना भी करता जाए मुझको बंजर!

यह किसका लड़का है?

यह किसका लड़का है
जो खानदानी घर में घुसकर
सभ्य जेहन को बना देता है असभ्य
किसी भी गांव की
किसी भी शहर की
किसी भी जाति—बिरादरी की
किसी भी उम्र की लड़की का हाथ पकड़कर
दिन के उजालों में सूरज के रथ में बैठ
या रात के अंधेरों में चांद की नाव में बैठ
ले जाता है कभी भी
कहीं भी –
जोहड़ के पास
कुएं के मुंडेर पर
सुनसान पगडंडी पर खेतों में
मेलों में बगीचों में नदी किनारे
थिएटर के एकांत कोनों में

बस,
बिखेरता रहता है दो लाल होते कानों में
गुलाबी-गुलाबी रंग
सूर्ख आंखों में उड़ेलता रहता है
इंद्रधनुष के रंग

यह किसका लड़का है
जो कमसिनों को उकसाता है
छज्जे से कूदने के लिए
रात के अंधेरे फलांगने के लिए
झूठ के समंदर तैरकर पार उतरने के लिए
छत पर चांद उतारने के लिए

यह किसका लड़का है
जो सिखाता है कच्ची आंखों में
किसी खास के लिए पक्का घर बनाना
बांध को झटके में तोड़ देना

यह लड़का
आदिम काल से
रात-दिन ऐसी हरकतें करता रहा है
कोई रोको इसे
कोई बांधो इसे
यह लड़का जिसका नाम ख़्वाब है
इसका पिता कौन है?

इस अपराधी को हाजिर किया जाए!

संपर्क :असिस्टेंट प्रो़फेसर, गुजराती डिपार्टमेंट, वीर नर्मद दक्षिण गुजरात यूनिवर्सिटी, उधना मग्दाल्ला रोड, सूरत३९५००७ (गुजरात) मो.९४०९५६५००५