युवा कथाकार और कवि।एक डायरी यादावरीऔर कविता संग्रह उम्मीदों के चिराग’, ‘रेगमालप्रकाशित।संप्रति राजस्थान में भारतीय प्रशासनिक सेवा में।

 

बीरबल चौक वाले रास्ते पर सड़क की मरम्मत का काम चल रहा था।इसलिए ट्रैफ़िक पुलिस ने यह रास्ता ‘वन वे’ कर रखा है।घंटाघर से वापस लौटने के लिए अब रामबाग होकर आना पड़ता था।हालांकि यह रास्ता ढाई-तीन किलोमीटर लंबा पड़ता है, मगर क्या किया जाए।वह इस रास्ते के चप्पे-चप्पे से वाकिफ था।राम गेट से निकलते ही बाघला आइस फैक्ट्री, उससे लगभग पांच सौ मीटर दूर विश्वकर्मा मंदिर, फिर मोड़ पर बिहाणी गर्ल्स कॉलेज और फिर उससे थोड़ी दूर अग्रसेन भवन।नीरव को लगता कि वह आंखें बंद करके भी इस रास्ते से आ-जा सकता है।वैसे ऐसा होगा भी क्यों नहीं, सात साल का समय कोई कम तो नहीं होता है।सात साल तक वे लोग अग्रसेन भवन के पास मकान किराए पर लेकर रहे थे।

गाड़ी चलाते हुए अतीत छिटक-छिटक कर उसके सामने आ रहा था।अभी छह महीने पहले ही तो उन्होंने मकान बदला था।नव्या के न चाहने के बावजूद।नव्या तो आज तक नहीं भूल पाई है अग्रसेन भवन के पास वाले घर को।असल में नीरव की ही जिद थी कि जब उन तीनों को रोज लाइन पार निकलना ही पड़ता है तो फिर वहीं घर क्यों नहीं ले लिया जाए।वक्त तो बचेगा ही, साथ ही साथ पैसों की भी बचत होगी।कहने को तो यह बात सही थी।एकदम व्यावहारिक।दिमाग से जो निकली थी बात।मगर दिमाग की सभी बातों को दिल भी मान ले, ऐसा जरूरी तो नहीं।इसे भी दिल ने नहीं माना।नीरव ने इस बाबत नव्या को अनगिनत बार समझाया।मोबाइल में कैलकुलेटर से जोड़कर घर बदलने के फायदों को आंकड़ों में बदलकर दिखाया।इतनी समझाइश से नव्या ने मौन धार लिया।नव्या की चुप्पी को उसकी सहमति मानते हुए नीरव ने तीन-चार दिन भाग-दौड़ करके लाजपत नगर में नया मकान ढूंढ लिया।सुविधाओं के लिहाज से एक तो पुराने घर से कई गुना अच्छा था और ऊपर से किराया भी एक हजार कम।

नव्या को नया मकान दिखाते हुए नीरव ने उसकी तारीफों के पुल बांध दिए, ‘तुमको उस कबूतरखाने में सफाई के लिए कितना खटना पड़ता था।देखना, यह छोटा-सा घर पलक झपकते ही साफ हो जाएगा।’

‘सात साल मजे से गुजारकर अब तुमको वह घर कबूतरखाना लगने लग गया है?’ नव्या की आवाज में क्षोभ था।

‘न तो पार्किंग की जगह है और न ही गार्डन।और तो और, छत इतनी नीची कि प्राइवेसी रख पाना भी मुश्किल।अब ऐसी इमारत में वक्त गुजारने को एडजस्टमेंट नहीं कहा जाएगा तो भला  क्या कहा जाए।’ नीरव ने एक साथ कई तर्क ढूंढ निकाले।

नया मकान दिखाकर वापस लौटते ही नीरव ने नव्या की राय पूछी।उसने न तो इंकार किया और न ही कोई उत्साह दिखाया।केवल एक मशीन की तरह सब कुछ करती रही।सप्ताह भर में सामान बांध कर वे लोग लाजपत नगर वाले नए मकान में आ गए।जो छोड़ा था वह घर था और जहां पहुंचे थे वह अभी एक मकान था बस।पुराने घर को छोड़ते वक्त सबसे पहली प्रतिक्रिया पम्मी की आई।

‘मुझे नहीं जाना नए घर।मुझे यहीं रहना है।’  वह चिल्लाने लगी।

‘वहां चलकर तो देखो बेटा।तुमको बहुत अच्छा लगेगा।’ नीरव ने समझाना चाहा।

‘मगर मेरे सभी दोस्त तो यहीं हैं न।हम यहां क्यों नहीं रह सकते?’ पम्मी ने प्रतिवाद किया।

नीरव ने जैसे-तैसे पम्मी को समझा दिया।महीने भर में ऊपरी तौर पर सब कुछ रूटीन में आ गया।समय की बचत होने लगी।मगर नीरव इस बात को समझता था कि नव्या का मन अभी तक नई जगह पर लग नहीं पा रहा है।उसकी नींद न जाने कहां खो गई है।देर रात तक करवटें बदलती रहती है।पहले तो उसको तड़के आवाज लगाकर उठाना पड़ता था मगर इन दिनों तो नीरव से कहीं पहले जग जाती है।

उसके जेहन में उस दिन की एक रील-सी चलने लगी, जब अनायास ही एक दिन भोर में नव्या ने उसे बताया था कि कई रात पहले सपने में उसे उनका पुराना घर दिखाई दिया।

‘किसका घर? कौन-सा घर? तुम भी न नव्या, कैसी बातें करती हो।किराए के घर के साथ कैसा लगाव।’ नीरव ने समझाने के लहजे में कहा।

‘घर तो घर होता है ना! किराए का हो चाहे अपना।हमारे जीवन की कितनी अनमोल यादें जुड़ी हुई हैं उस घर से।’ नव्या ठंडे स्वर में बोली।

नीरव के तर्क नव्या की सोच को नहीं बदल पाए तब उसने नव्या को डॉक्टर से मिलने के लिए कहा।नव्या ने तीखी नजरों के साथ पलटकर पूछा, ‘क्या मैं आपको बीमार दिखती हूँ?’

जब भी पुराने घर की बात चलती नव्या चुप्पी धार लेती और शून्य में ताकने लगती।ऐसा लगता था कि जैसे पुराने घर में उसका कुछ छूट गया हो।क्या छूट गया है, यह कोई नहीं जानता था।शायद नव्या भी नहीं।एक रात नव्या का चेहरा अपनी हथेलियों में भरकर नीरव ने पूछा, ‘क्या तुमको नए घर में अच्छा नहीं लग रहा।’

नव्या जवाब के रूप में एक फीकी हँसी हँस दी।नीरव ने सवाल दोहराया भी, मगर नव्या ने एक शब्द भी मुंह से नहीं निकाला।यही वजह थी कि कुछ समय बाद थकहारकर नीरव ने पुराने घर से जुड़ी तमाम बातों पर विराम ही लगा दिया।वह भूलकर भी पुराने घर की बात नहीं छेड़ता था।

नीरव ने खुद को समझा लिया था कि बीतते वक्त के साथ सब कुछ ठीक हो जाएगा।अक्सर हम जहां रहते हैं, देर-सवेर उस जगह से लगाव हो ही जाता है।सालों तक रहने से आदमी उस जगह का इतना आदी हो जाता है कि मामूली-सा बदलाव भी उसे असहज बना देता है।नीरव की इसी ऊहापोह को जानकर उसके दोस्त करण ने एक नया ही दर्शन दिया था, ‘ऐसी भावुकता आम तौर पर औरतों में ज्यादा होती है।बुरा मत मानना, भले ही नव्या भाभी बहुत पढ़ी-लिखी हैं, एक फाइनेंस कंपनी में काम करती हैं, मगर आखिर हैं तो औरत ही।’ नीरव को करण की बात में दम लगा, हालांकि उसने कहा कुछ भी नहीं।

घर बदलने के बाद एक बार भी वापस उधर जाना नहीं हुआ।पुराने घर के पड़ोसी गट्टाणी जी की वैवाहिक वर्षगांठ का दावतनामा आया था तब नीरव ने जान-बूझकर नव्या को नहीं बताया।कहीं उधर जाने से नव्या फिर से अपसेट न हो जाए, यही सोचकर उसने बात को टालना ठीक समझा।मगर उसकी योजना कहां कामयाब हो पाई?  गट्टाणी जी की मैरिज पार्टी में तो वे लोग नहीं गए, मगर पुराने घर वाली गली में चार मकान छोड़कर रहने वाले व्यास साहब की मैडम तो अपने बेटे के जनेऊ के कार्यक्रम का बुलावा देने उनके नए घर ही आ पहुंची।उस दिन इतवार था।व्यास मैडम को देखकर नीरव का माथा ठनक गया।उसने तो अग्रसेन नगर में किसी को भी अपना नया पता तक नहीं दिया ताकि कोई संपर्क नहीं रहे।ऐसा करना नव्या को नए माहौल में अभ्यस्त करने के लिए पहली आवश्यक शर्त थी ताकि वह पुराने घर की यादों से बाहर निकले।

नव्या व्यास मैडम के घर जाने के लिए बहुत इच्छुक थी मगर नीरव ने जानबूझकर उस दिन माउंट आबू जाने का प्रोग्राम बना लिया।अमूमन नव्या के लाख कहने पर भी घूमने के लिए वक्त नहीं निकालने वाले नीरव के इस घूमने वाले विचार से नव्या को अचंभा भी हुआ मगर नीरव ने इस भ्रमण यात्रा को पम्मी के अगले महीने आने वाले बर्थ डेका अग्रिम उपहार बताकर बात को घुमा दिया।

गाड़ी चलाते हुए नीरव अतीत में गड्ड-मड्ड होते हुए सोच रहा था कि मरम्मत कार्य चलने की वजह से ‘वन-वे’ हो जाने के कारण अब उसे रोजाना अग्रसेन नगर मतलब उसके पुराने घर की तरफ से होकर निकलना पड़ रहा है।हालांकि उसने यह बात नव्या को नहीं बताई।आम तौर पर इस इलाके से गुजरते हुए वह गाड़ी की रफ्तार बढ़ा देता।रास्ते में कोई परिचित चेहरा दिखाई दे जाता तो उससे बचने की ही कोशिश करता।पूरे रास्ते स्मृति-चित्र आते रहते।

हमेशा की तरह आज भी वह रामगेट से निकलकर विश्वकर्मा मंदिर के सामने से होता हुआ अग्रसेन भवन की तरफ बढ़ रहा था।अतीत में गोते लगाता हुआ।रोज-रोज स्मृति की गलियों में घूमने का असर यह हुआ कि आज अतीत का पक्षी अपने लंबे-चौड़े पंख फैला कर धरती पर उतर ही आया।उसके पंखों की छाया से चारों तरफ धुंधलका पसर गया।दीवार का कैलेंडर फड़-फड़ाकर कई साल पीछे लौट गया।नीरव की गाड़ी भी उसके काबू में नहीं रही।पता ही नहीं लगा कि कब वह अपने पुराने घर की चौखट पर पहुंचा और कब अपनी चिर-परिचित शैली में दो बार कम अंतराल पर डोरबेल बजाकर दरवाजा खुलने का इंतजार करने लगा।कुछ भी पता नहीं चला।यह तो दरवाजा खुलते ही नव्या की जगह एक अजनबी जनाना चेहरे की प्रश्नाकुल निगाहों की चुभन से उसकी तंद्रा टूटी।

नीरव सकपका गया।

‘माफ करें जी, मैं गलती से घर…।’ टूटे-फूटे शब्दों से उसका वाक्य पूरा तो हो गया, मगर ‘किसका घर’ वाला सवाल यथावत रह गया।

 

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