शंभुनाथ

साहित्य का जन्म असहमति से हुआ है।इसका प्रमाण है ‘रामायण’ में बहेलिया द्वारा मिथुनरत नर क्रौंच को मार गिराने के प्रतिवाद में वाल्मीकि के कंठ से फूटा पहला श्लोक, ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः…’।यह भी गौर करने की चीज है कि कवि वाल्मीकि का अयोध्या के राजदरबार से कोई संबंध न था, तभी वे राज्यादेश से जंगल में अकेली छोड़ दी गई गर्भवती सीता को शरण दे पाए थे।कहना न होगा कि सत्य हर जगह से थक-हारकर अंततः साहित्य में आश्रय लेता है।

असहमति की शुरुआत मानवता की यात्रा के साथ हुई थी।आज यह लोकतंत्र की बनावट का एक जरूरी हिस्सा है।हम अपने हजारों साल के इतिहास से ऐसी घटनाओं और व्यक्तित्वों के बारे में ज्यादा जानते हैं, जिनका संबंध किसी न किसी असंतोष, असहमति और प्रतिवाद से रहा है।धर्म असहमति से जन्मे, सभ्यताएं असहमति में बनीं और दुनिया की महान साहित्यिक कृतियां असहमति की देन हैं।वेदांत के रचनाकार  और बुद्ध, रामानुज, गोरखनाथ, रामानंद, वल्लभ, कबीर, गांधी, प्रेमचंद जैसे व्यक्ति असहमति की भूमि पर खड़े होकर ही कुछ मूल्यवान दे सके थे।भारत का संविधान सामंती-औपनिवेशिक धारणाओं से असहमति की बुनियाद पर निर्मित हुआ और इसके भीतर से लोगों ने नए भारत का स्वप्न देखा।समाज में असहमति का होना और उसे पनपने का अवसर मिलना लोकतंत्र ही नहीं, खुद समाज की जीवंतता का चिह्न है।

साहित्यकार की श्रेष्ठता इसमें है कि वह हजम न किया जा सके

असहमतियां मनुष्य की स्मृतियों, आशाओं और कल्पनाओं में हमेशा मौजूद रही हैं।असहमतियां हैं तो सत्ता-व्यवस्था से सच के लिए टकराव है।असहमतियां हैं तो हमारे पास ऊंचे आदर्शों को रूपायित करने की आकांक्षा है।असहमतियां हैं तो विविधता की ताकत है।असहमतियां हैं तो स्वतंत्रता का अहसास है।असहमतियां हैं तो हमारे मनुष्य होने का एक अर्थ है।

प्राचीन कहावत है, ‘वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’, अर्थात विचारों की टकराहट से ही सत्य का बोध होता है।एक समय ग्रीक दार्शनिक सुकरात ने स्वीकृत धारणाओं का विरोध किया था और उन्हें सत्य कहने के कारण जहर पीना पड़ा था।उनका समस्त चिंतन संवाद में है।ग्रीक साहित्य की तरह वैदिक साहित्य में भी संवाद का महत्व है।इसमें ईश्वरवादी दर्शनों के समानांतर अनीश्वरवादी दर्शन  हैं।बुद्ध अपना उपदेश देने से पहले कई दार्शनिकों से संवाद कर चुके थे और उनसे असहमत थे।गांधी असहमतियों को सुलझाने के लिए रामास्वामी नायकर सहित कई विरोधी मत वालों से जा-जाकर मिले।वे भारत को जोड़ने का काम कर रहे थे।प्रगतिशील आंदोलन और आपातकाल के दौर में संवाद से ही नए पुल बने थे।

२००१ के वर्ष को संयुक्त राष्ट्र ने खतरे भांपकर सभ्यताओं के संवादका वर्ष घोषित किया था।संवाद सभ्यता का चिह्न है, लेकिन संवाद तभी संभव है जब बोलने वालों के पास सुनने की क्षमता हो।कहना न होगा कि संवाद ही किसी समाज को जीवंत और गतिशील बनाकर रखते हैं।

इधर गैर-जरूरी आरोप-प्रत्यारोप के बीच न सिर्फ संवाद की जगह सिकुड़ गई है, बल्कि असहमत व्यक्ति को शत्रु के रूप में देखा जाता है।विभीषण राम का भक्त था और रावण से असहमत था, लेकिन रावण की लंका में एलानिया रहता था।विदुर कौरवों के  साथ रहते हुए भी उनके गलत विचारों से खुलकर असहमत होते थे और उनका आदर था।धृतराष्ट्र का एक बेटा युयुत्सु अपने भाइयों से अलग मत रखते हुए पांडव पक्ष से लड़ा।यह प्राचीन महाकाव्यों की बात हुई।

लोक भाषाओं को चुनने वाले भक्त कवि भी अपने समय की धार्मिक व्यवस्था से कई मुद्दों पर असहमत थे।वे बाह्याडंबर और भेदभाव के विरोधी थे।वे खुलकर बोले और सुने गए।१९वीं सदी के नवजागरणकालीन व्यक्तित्व सामाजिक कुप्रथाओं के अलावा अपनी सीमा में उपनिवेशवाद से भी लड़े।वे खुलकर बहस करते थे, तर्क करते थे।जिस देश में असहमति की ऐसी दीर्घ परंपरा है, वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति के प्रति आदर और संवाद का अभाव चिंताजनक है।

भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ के केंद्र में रस है, आनंद है।इसमें एक रोचक मामला है कि ग्रंथ के आखिरी हिस्से में ॠषि-मुनि कलाकारों को इसलिए शाप देते हैं कि उन्होंने नाटक खेलकर उनके पाखंडों को उजागर किया है, उनपर व्यंग्य किया है।अतः जाओ, तुम्हें सवर्ण समाज से बाहर किया जाता है! इसलिए नाट्यशास्त्र पंचम वेद है, शूद्रों का वेद है।कलाकार या लेखक की श्रेष्ठता इसमें है कि वह हजम नहीं किया जा सके, भले बहिष्कृत हो जाए, जैसा प्राचीन युग में नाट्यकर्मियों के साथ घटित हुआ।

आमराय के युग में असहमति

पिछली सदी की ‘वाशिंगटन आमराय’ के बाद अब सबकुछ आमराय से हो रहा है।निजीकरण का जगमग विस्तार आमराय से हो रहा है।विषमता आमराय से बढ़ रही है।छोटे व्यापारी आमराय से उजड़ रहे हैं।दुकानें आमराय से उदास हैं।नौकरी करनेवालों के अधिकार आमराय से सिकुड़ते जा रहे हैं।महंगाई आमराय से बढ़ रही है।हर जगह आमराय से लूट है और आमराय से मार है।आमराय के जमाने में असहमति के भविष्य पर सोचने की जरूरत है, क्योंकि इसपर समाज का भविष्य निर्भर करता है।

वैश्वीकरण की जान है आमराय तो लोकतंत्र की जान है असहमति।दोनों के बीच सामंजस्य कठिन है।एक ओर बाजार अर्थव्यवस्था में ‘स्पीड’ लाना, दूसरी तरफ विषमता और वंचना के शिकार बेहाल लोगों को संभालना-यह नदी के दो किनारों पर एकसाथ चलना है जो सिर्फ कोई तिलिस्म खड़ा करके ही संभव है।

वह तिलिस्म है हर मुद्दे को एक ऐसे कार्निवाल में बदल देना जिसमें रंग, संगीत, छवियां, प्रोपेगंडा, बैनर-कटआउट के अलावा अंतहीन निजी आरोप-प्रत्यारोप हों।लोकतंत्र ऐसी पवित्र मूर्ति हो, जिसे आप छू नहीं सकते।इस तिलिस्म में सारी चीजें तेलुगु फिल्मी गाने ‘नाटु नाटु’ जैसी हो जाती हैं।उनमें भारत की सांस्कृतिक-बौद्धिक परंपराएं खो जाती हैं।हम सब देखते हुए अंधे होते हैं।बहुत कुछ तो देख ही नहीं पाते।यह बदली हुई दुनिया एक ऐसा तिलिस्म है, जो प्राचीन अतीत और अत्याधुनिक मुक्त बाजार दोनों  के द्वारा मिलकर रचा जा रहा है।

प्रबंधकों का लोकतंत्र

फूकोयामा, हटिंग्टन जैसे पश्चिमी विद्वान पिछली सदी में घोषित कर रहे थे कि ‘इतिहास का अंत’ हो गया है, असहमतियों को पराजित किया जा चुका है और संपूर्ण विश्व व्यवस्था अब अमेरिकी मॉडल के उदारवादी लोकतंत्र की ओर बढ़ रही है।ये बातें झूठ निकलीं।खुद अमेरिका ने अपना पुराना मॉडल तोड़ दिया।दुनिया में इतिहास के अंध-पाठ तैयार होने लगे।असहमतियों के सैकड़ों आत्ममग्न द्वीप बन गए।समाज में उदारवाद की जगह पूरी ताकत से संरक्षणवाद का उदय हुआ।१९वीं-२०वीं सदी में पेंडोरा बाक्स में जो रूढ़िवाद बंद किया गया था, ढक्कन खुलते ही सब एक झंझावात की तरह चारों तरफ छा गया।अतीत की ‘बुराइयां’ गाने लगीं- ‘नाटु नाटु’!

बहुराष्ट्रीय कंपनियों की छाया में उदारवादी लोकतंत्र का अर्थ है प्रबंधकों का लोकतंत्र।राजनीति के नेता राजनीतिक प्रबंधक होते गए।उनकी मुट्ठी में अर्थव्यवस्था की जगह अब मुख्यतः संस्कृति है।राजनीति का अर्थ पूरी तरह बदल गया।इस समय सांस्कृतिक राजनीति की प्रधानता है।जनता का लोकतंत्र अब किसी के स्वप्न का हिस्सा नहीं है, इसपर चर्चा बंद हो गई है।

राजनीति के लोग बाजार-अर्थव्यवस्था तथा आम नागरिकों के बीच मध्यस्थता का काम करने लगे हैं।ये बाजार अर्थव्यवस्था के प्रति नरम हैं और नागरिकों पर शासन के लिए चतुर।इन्हें भौतिक ताकत चाहिए और बहुत-सी तिलस्मी छवियां चाहिए, अन्यथा प्रबंधन का एक खास रूप असंतोष प्रबंधन मुश्किल है।सवाल है, क्या अब कुछ भी प्रबंधन के बाहर है?

आज जैसी दशा है, वाम और दक्षिण का भेद नहीं बचा है, क्योंकि बुनियादी मुद्दों पर आमराय कायम है।अब एक ही मिठाई कई रंगों में है, आप जो चुन लें।विडंबना यह है कि किसी को नई उदारवादी अर्थव्यवस्था भा नहीं रही है, फिर भी सभी को इसी में जीना पड़ रहा है।पब्लिक प्रमथ्यु और सिसिफस की तरह किसी ‘अपराध’ का दंड भोगने के लिए जैसे अभिशप्त है! क्या वैश्वीकरण और खासकर निजीकरण वस्तुतः एक दंड है?

नई दशाओं में अति-व्यावहारिक होकर सोचा जाता है।इसलिए अच्छाई-बुराई, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित को पुनर्परिभाषित कर लिया गया है।अब कुछ भी ‘ब्लैक एंड ह्वाइट’ नहीं है।इस समय ‘राष्ट्र’ धृतराष्ट्र है और जनता गांधारी।सवाल है, यह स्थिति कब तक चलेगी, राजनीति का पुनर्मानवीयकरण कैसे होगा और नेता कब सुधरेंगे।अपने को अतीत के संकुचित चरित्र से मुक्त करके सुधारना शर्म की बात नहीं है, बल्कि अब तक न सुधर पाना शर्म की बात है।

इसपर विचार करने की जरूरत है कि भारतीय समाज बनते-बनते क्यों खोने लगा।यह कैसी अति-राजनीति आ गई, जिसमें सवाल करने के लिए स्पेस नहीं है।अब पहले की तरह दीर्घ समय तक आंदोलन नहीं चल पा रहे हैं, बिखर जा रहे हैं।देश में सामान्य मुद्दे नहीं बन पा रहे हैं।सभी को बड़ी शक्तियों द्वारा निर्मित ‘आमराय’ में शामिल होना है।आज की राजनीति में विचारधारा, नैतिकता, पारदर्शिता, अहिंसा जैसी चीजों का महत्व नहीं है।यह ‘परिवर्तन’ की जगह ‘प्रबंधन’ की राजनीति है, जिसमें समाज का जाति, धर्म, लिंग, प्रांतीयता आदि के आधार पर विभाजन का प्रबंध भी शामिल है।इस राजनीति में मनुष्य कहीं नहीं है- सिर्फ हिंदू-मुसलमान, ब्राह्मण-पिछड़े-दलित, बंगाली-मराठी-बिहारी आदि हैं और बाजार के बाहर कहीं ‘कॉमन प्लेस’ नहीं है!

सत्ता के बदलते चेहरे

२०वीं सदी में दमन के विरुद्ध जो मुखर होते थे, उन्हें देश का शत्रु (जर्मनी) या जनता का शत्रु (रूस और चीन) कह दिया जाता था।२१वीं सदी की दुनिया में ‘हम-वे’ के विभाजन हैं और ‘देश के शत्रु’ के मुहावरे को नया रूप मिला है।

एक शेर हिरण से कहता है, ‘यदि तुम मेरा भोजन हो तो मैं करुणा कहां से लाऊं, क्योंकि यह मेरे लिए भुखमरी होगी।२१वीं सदी करुणा के युग से प्रस्थान है।यह सरवाइवल ऑफ द फिटेस्टके नजारों से भरी है।अब पता नहीं कब तक हर बड़ी मछली अपने से छोटी मछली को खाती रहेगी।इस दौर तक सत्ता में बारीबारी से आकर सभी अपना पूरा परिचय दे चुके हैं! आमलोगों के विश्वास में दरारें पड़ चुकी हैं।इनके लिए यह भीषण असहायता का दौर है।

आज की सत्ता के अपने कुछ खास लक्षण हैं जो हर उस व्यक्ति में मिलेंगे जो सत्ता के किसी छोटे या बड़े पायदान पर खड़ा है।पहला लक्षण है, आज की सत्ता को स्वाधीन चिंतन पसंद नहीं है, उसे पिछलग्गू चाहिए।इसलिए वफादारी और योग्यता में वफादारी को प्रधानता दी जाती है, बल्कि उसे जो वफादारों में सबसे बड़ा पिछलग्गू है।अब होड़ दूसरे से अधिक पिछलग्गू बनने के लिए है।दूसरा लक्षण है, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जातिवाद को प्रधानता देना।तीसरा लक्षण है, कथन में उदारता-आचरण में अनुदारता।चौथा लक्षण है, अपने से कमजोर को लूटो।विचित्र है कि हर वह व्यक्ति जो अपने से कमजोर को लूट रहा है, वह अपने से शक्तिशाली द्वारा लूटा भी जा रहा है।पाचवां लक्षण है समावेशी होने की जगह सुविधानुसार एक न एक घृणा को जीवित रखना।छठा लक्षण है, हरेक को पहले से ज्यादा सत्ता चाहिए, अधिक सत्ता-अधिक अन्याय!

सातवां लक्षण है, सत्ता का स्रोत अब ज्ञान को नहीं, धनबल और बाहुबल को समझा जाता है। ‘नालेज इज पॉवर’ अतीत की चीज है।अब है ‘पावर इज नालेज’! इसके लिए नई टेक्नोलॉजी का भरपूर उपयोग करके ‘अज्ञानता का निर्माण’ किया जाता है।इस परिदृश्य में ‘आर्ट’ की जगह ‘आर्टिफिसियल’ मूल्यवान हो जाता है, कला का अपहरण हो जाता है।

मानवतावाद अब तक का सबसे बड़ा प्रतिरोध है

दुनिया में विडंबनाओं के बीच भी असहमतियां दर्ज हुई हैं, प्रतिवाद हुए हैं।वैश्वीकरण के कुछ समय के अनंतर ही जब लगने लगा कि यह इच्छित फल नहीं दे रहा है तथा मुक्त बाजार व्यवस्था में बड़ी वित्तीय पूंजी, संचार क्रांति और ग्लैमर की ताकत से स्वेच्छाचरिता पनप रही है, ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ जैसे कुछ संगठन बने।सिएटल (१९९९) से प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हुआ।ऐसे प्रदर्शनों में ‘असहमति का विश्व’ सामने आया और सवाल उठे, लेकिन सबकुछ बिखर गया।कुछ सालों के बाद सभी एकाकी होते गए।ऐसे में सवाल है, क्या विकल्प देने वाली ताकतें भी गुपचुप ‘आमराय’ में शामिल हो गई हैं?

१९६० और ७० के दशक की असहमति की आधुनिकतावादी आवाजों को छोड़ भी दें तो हाल तक ‘बुराई’ बुराई की तरह दिखती थी, ‘संकीर्णता’ संकीर्णता लगती थी।किसी अपरिचित की पीड़ा देखकर अक्सर आदमी सहयोग के लिए दौड़ पड़ता था।वह जाति-धर्म-पार्टी नहीं देखता था।कहा जा सकता है कि मानवतावाद सामाजिक  भेदभावों, अन्यायों और क्रूरताओं का अब तक का सबसे बड़ा प्रतिरोध रहा है।निश्चय ही उसके फल पूरी तरह नष्ट नहीं हुए हैं।

मानवतावाद की प्रेरणाओं ने विभिन्न दर्शनों और सिद्धांतों की छाया में दुनिया को बदलने का काफी काम किया।उसने हमेशा असहमतियों और प्रतिवादों को एक बड़ी जमीन दी।उसने बताया कि कहां बिलकुल सहन नहीं करना है और कहां सहिष्णुता जरूरी है।वह सदियों से इन्सान कोे घृणा की जगह प्रेम करना सिखाता रहा।लेकिन प्रतिगामिता के उत्तर-आधुनिक औजारों ने मानवतावाद के टुकड़े-टुकड़े कर दिए, इसका दुनिया के सभी राष्ट्रों पर असर पड़ा।

२१वीं सदी में यह अहसास कराने की कोशिश की जा रही है कि सभी लोग सत्ता और सुविधाओं के एक न एक पायदान पर खड़े हैं।सभी सीढ़ी से स्वतः ऊपर उठते जाएंगे।कोई नहीं बताता कि कैसे उठते जाएंगे, यदि कृत्रिम मेधा और नई तकनीक से यह स्वयंसक्रिय व्यवस्था कामगारों को छांटती जाएगी? फिर भी लोगों को तरह-तरह से स्वतंत्रता और मुक्ति का अहसास कराया जा रहा है, जबकि मुक्त तो बाजार है! जैसे भी हो खूब कमाओ, दिन-रात कलह में लिप्त रहो, लूट-मार को प्रोत्साहन दो, पर गाते रहो- ‘दिल भी क्या है, जान भी देंगे/ ऐ वतन तेरे लिए!’

कभी-कभी आसन्न खतरे को देखकर लेखकों की असहमति शब्दों के बीच मौन में या ‘बिटविन द लाइंस’ व्यक्त हुई हैं।ऐसा भी हुआ है कि किसी मुद्दे पर कोई बांध टूटा है और पानी दहाड़ मार कर फैला है।बर्लिन की दीवार ऐसे ही टूटी थी (१९८९)।इधर २०१० से २०१३ के बीच अरब स्प्रिंग घटित हुआ तथा मध्य-पूर्व में भी आग दिखाई पड़ी।चीन में असंतोष की लहरें उठीं।मलाला यूसुफजई और ग्रेता थुनवर्ग की इच्छाशक्ति के भी उदाहरण हैं।इंग्लैंड में नई आवाज उठी।श्रीलंका में निर्भय जनता राष्ट्रपति भवन के भीतर घुस गई।ईरान की युवतियां हिजाब के विरोध में सड़कों पर गईं।दिल्ली एकबार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर, फिर निर्भया कांड के समय आलोड़ित हुई।किसानों ने आंदोलन चलाया और अपनी कई बातें मनवाईं।

दुनिया की असहमतियों और प्रतिवादों की एक लंबी सूची है।इनकी सामान्य खूबी है कि ये किसी देश के एक स्थान पर घटित होते हैं तो दूसरे स्थानों पर लोग महज दर्शक होते हैं।सोए जगते हैं तो जगे सो जाते हैं।अब असहमति में दीर्घजीविता नहीं है

हाथी डूब रहा है पूंछ की चिंता

क्या धीरे-धीरे असहमति अब एलीट बौद्धिक विलास में और प्रतिवाद ‘कर्मकांड’ में सीमित हो गए हैं? असहमति के चरित्र में पिछले कुछ दशकों से एक फर्क आया है।इधर की ज्यादातर असहमतियां सामाजिक विभाजन के उद्देश्यों से हैं।इसके लिए अतीत की बुरी घटनाओं की यादें उकसाई  जाती हैं।जिस देश के लोगों में भविष्य कल्पना की शक्ति खत्म होने लगती है, वहां अंतर्द्वंद्वों से भरा अतीत चढ़ाई कर देता है।

इधर पुराने जमाने में किसी मंदिर को तोड़ने की  घटना उठाकर या रामचरितमानस की ढोल गंवार शूद्र पशु नारीजैसी पंक्तियां उठाकर या दक्षिण भारत में बेवजह हिंदी का सवाल उठाकर उत्तेजनात्मक असहमतियां व्यक्त की जाती हैं।जो लोग ऐसे सवाल उठाते हैं, उनमें बड़े सामाजिक सुधार की आवाज उठाने और आर्थिक मुद्दों पर लड़ने का साहस कभी नहीं देखा जाता।

क्या कबीर को हम इसलिए छोड़ दें कि उन्होंने ‘नारी की झाईं पड़त अंधा होत भुजंग’ कहा था? क्या गांधी को इसलिए त्याग दें कि उन्होंने एक समय वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थन किया था?

भक्त कवियों में निश्चय ही कमियां हैं, पर उन सभी के कुछ अवदान भी हैं।उन्हें ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में पढ़े बिना ठीक से समझा नहीं जा सकता।उनपर उच्छेदवादी दृष्टि से प्रहार करने वाले इस तेवर में होते हैं, मानो उनकी अपनी सोच में कोई अंतर्विरोध, ढुलमुलपन और कमी न हो, वे परिपूर्ण हों।मुझे लगता है कि सृजनात्मकता में आत्मतृप्ति दीमक है।

१९वीं -२०वीं सदी में भारतीयता का निर्माण अतीत के मिथ्या अंतर्द्वंद्वों से असहमत होकर किया जा रहा था।घटना यह है कि औपनिवेशिक कारीगरी की वजह से अंतर्द्वंद्व मिट नहीं पाए।भारत आज भी अतीत के मिथ्या अंतर्द्वंद्वों को ढोते हुए ही आधुनिकीकरण और वैश्वीकरण की ओर बढ़ रहा है।हमारी चिंता का विषय यह होना चाहिए कि धार्मिक कट्टरवाद और मुक्त बाजार व्यवस्था मिलकर जाति व्यवस्था, पुरुषसत्ता तथा अन्य कूपंडूकताओं का संरक्षण किस तरह कर रहे हैं।जबकि असहमतियों के सिकुड़े होने, व्यक्ति-केंद्रित होने और कई बार हास्यास्पद होने की वजहों से यही उभर कर आता है कि अनगिनत बुद्धिजीवियों को पूंछ को लेकर गहरी चिंता है, हाथी भले पानी में डूब रहा हो!

असहमति को तोड़ने के नए उपाय

असहमति का अर्थ उसके उद्देश्य की व्यापकता पर निर्भर है, उसमें अंतर्निहित तर्क की दार्शनिक शक्ति पर भी।इसलिए हर सत्ता असहमति को कमजोर करने के लिए इसके उद्देश्य की व्यापकता और बुद्धिपरकता को मिटाने का प्रयास करती है।वह असहमति को प्रलोभन देकर निगल जाती है या उसकी रीढ़ तोड़ देती है।इसका एक उदाहरण हाल के कुछ लिट फेस्ट हैं, जिनकी तरफ लेखक बेतहाशा दौड़ गए और उन्हें आईना दिखा दिया गया।

पिछले दशकों में असहमति के संसार पर बड़ी वित्तीय पूंजी, नई तकनीक और राजनीति का व्यापक प्रभाव पड़ा है।इस वजह से तत्काल संतुष्टि के लिए अल्पकालिक सोच ही प्रधान हो गई है,  लंबी मियाद के संघर्ष पीछे छूट गए हैं।अब सभी को तत्काल सफलता चाहिए, तत्काल फायदा चाहिए।किसी का सही होना आज उतना जरूरी नहीं है, जितना मीडिया के बल पर अपने सही होने का प्रचार करके लोगों के मन में बैठा देना।

असंतोष प्रबंधन के लिए आम लोगों को थोड़ी खैरात, कुछ सांस्कृतिक चिह्न, कुछ दिवालियां और कुछ चमकदार आश्वासन अब काफी माने जा रहे हैं।बीच-बीच में पर्यावरण सजगता, जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे भी महत्वपूर्ण घोषित कर दिए जाते हैं।इस तरह सबकुछ जल्दी और सस्ते में होता गया है।

नए युग में मीडिया पर नियंत्रण करने के अलावा असंतोष-प्रबंधन के ऐसे तरीके अपना लिए गए हैं कि असहमति या प्रतिवाद की ज्यादा परवाह करना जरूरी नहीं रह गया है।एक खास शिक्षित तबके के लिए यही संदेश है, अपनी असहमति को लेकर टि्वटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर बैठ जाओ और तनाव ढीला कर लो! हालांकि ये नए ई-मंच कई बार आंदोलन शुरू करने और उसे व्यापक बनाने में सहायक हुए हैं और सदुपयोग हो तो आगे भी हो सकते हैं।

वैश्वीकरण के नए जमाने में इसपर खासतौर से ध्यान दिया जा रहा है कि जहां भी विपत्ति और पीड़ा मुखर होती दिखे, तुरंत असंतोष-प्रबंधन की मशीनरी का इस्तेमाल करो।असहमति को तोड़ो।समाज की वंचित श्रेणियों को विपदजनक बनने से रोकने के लिए दो काम किए जाते हैं-(१) सामान्य मानवीय पीड़ा के बीच सामुदायिक दीवारें खड़ी करना और (२) सुख और प्रतिष्ठा की सीढ़ियों का जाल बिछाना ताकि लोग जिस पायदान पर हैं उससे ऊपर चढ़ने के बारे में सोचें,  बाकी चीजें भूल जाएं।वे अपना होना सीखें, ‘दूसरों’ के दुख-कष्ट की तरफ न देखें।

पहले की बौद्धिक असहमतियां और विद्रोहों के दौर में कोई पूर्व-निर्धारित रास्ता नहीं था, उद्देश्य ही राह थे।अब ऐतिहासिक निर्धारणवाद की जगह जातिवादी, धार्मिक, स्थानीय और अन्य कई तरह के ‘निर्धारणवाद’ तैयार हैं।असहमति और प्रतिवाद के पाठ मिथ्या चेतना से निकल रहे हैं और विभाजनकारी सिद्धांतों द्वारा निर्धारित हो रहे हैं। ‘आमराय’ वालों को बड़ी सफलता मिली है, क्योंकि बाजार एक है, पर असहमति विभक्त है।

क्या असहमति का कोई भविष्य है

असहमत होना एक भिन्न तर्क रखने के साथ एक बड़ा ‘विजन’ सामने लाना भी है।यह आलोचनात्मक लटके-झटके दिखाना नहीं है और न कोई घिसापिटा रिकार्ड बजाना या घटिया शैली में आरोप-प्रत्यारोप लगाना है।असहमति का अर्थ इसपर निर्भर करता है कि यह  किसके हित में कितने अर्थपूर्ण सोच-विचार के साथ है।असहमति और बुद्धिपरकता के बीच संबंध असहमति को निर्माणात्मक ही नहीं बनाता, तथ्यपूर्ण और स्वीकार्य भी बनाता है।कहने की जरूरत है कि तेजी से बदलते इस युग में असहमति के पुराने रूप नहीं चल सकते।उनकी सीमाएं सामने आ चुकी हैं, खासकर अस्मिता की राजनीति की सीमाएं।कई बार असहमति उपद्रव और हिंसा की शक्ल में होती है, जो मानवीय विफलता का चिह्न है।

असहमति एक जड़ और अपरिवर्तनशील दशा नहीं है।हम पिछली सदी में पाते हैं कि वह न सिर्फ एक तर्कआधारित सोच रही है, बल्कि रचनात्मक सामाजिक कार्यों से भी जुड़ी रही है।हर मेधावान चिंतक, सुधारक और नेता ने बदलते समय की जरूरतों के अनुसार अपनी असहमतियों का विस्तार किया है।

रवींद्रनाथ, गांधी, अंबेडकर, प्रेमचंद, निराला, महादेवी वर्मा जैसे लोग आज के बुद्धिजीवियों की तरह एकसुरा नहीं थे।वे पहले जैसे थे, बाद में बिलकुल वैसे ही न थे।वे अपने को बदलते और विकसित करते थे।इसके विवरणों में न जाकर यह कहना जरूरी है कि उनमें नए यथार्थों के सामने खड़ा होने का साहस था।वे सीमित स्वार्थ से जकड़े नहीं थे और निर्भय होकर नई दिशा चुनते थे।

हमारे समय की बहुत-सी असहमतियां और प्रतिवाद कर्मकांड की तरह हैं।वे प्रभावहीन हैं।प्रभावकारी असहमति के लिए ऐतिहासिक जागरूकता का होना जरूरी है, लेकिन वर्तमान में इसकी जगह हैं इतिहास के अंध-पाठ, इतिहास की तोड़फोड़ और अतीत की सकारात्मक स्मृतियों की जगह नकारात्मक स्मृतियों को उकसाने के खेल।

खासकर हिंदी क्षेत्र के लोगों में आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति बहुत कम है।इसलिए एकसुरापन है।कई बार ये असहमतियां भीतर ही भीतर आमराय में शामिल नजर आती हैं।यदि ‘विजन’ में व्यापकता न हो तो असहमति टर्र-टर्र या हुआँ-हुआँ से भिन्न नहीं होती।

यह भी देखा जा सकता है कि कई असहमतियों को सही नेतृत्व नहीं मिल रहा है।नेतृत्व का अभाव एक बड़ी समस्या है।आज काफी लोग एक अनोखे अनुभव से गुजर रहे हैं, अपनी असहमति के साथ अकेला रह जाने या प्रतिनिधित्व-विहीन हो जाने के अनुभव से।खासकर जो जाति-धर्म-स्थानीयतावाद से ऊपर उठे हुए लोग हैं, जिन्होंने जाति तोड़कर अंतरजातीय या अंतरधार्मिक परिवार बनाए हैं और जो अपने को उदार देशप्रेमी नागरिक समझते हैं, उनकी दशा आमतौर पर ऐसी ही है।

आम असहमति की जरूरत

असहमति का खंड-खंड होना, उसका एक बंद जगह होना २१वीं सदी की एक बड़ी ट्रैजडी है।इसलिए यह समझना जरूरी हो गया है कि असहमति का भविष्य केवल आम असहमति में है-असहमतियों के बीच पुल में है।इस दौर में सबसे बड़ा सवाल यह है कि  आम असहमति तक पहुंचने के लिए सभी स्तरों पर संवाद को कैसे विस्तार दिया जाए, असहमति के अपने पुराने रूपों का कैसे अतिक्रमण किया जाए।इसपर सोचने की जरूरत है कि अतीतवाद और विभाजनकारी औपनिवेशिक बौद्धिकता में फँसे बिना हम सांस्कृतिक उन्मूलन की दशाओं से कैसे बाहर निकलें, ‘आत्म’ और ‘पर’ की खाई को पाटकर कैसे ‘अ-पर’ का निर्माण करें।यह सवाल जितना साहित्य का है, ज्ञान की दुनिया का है, कलाओं का है, उतना ही राजनीति का भी है।

यह अविश्वासों और संदेहों से भरा समय है।इसलिए कुछ लोग देश की विविधता को शक्ति की जगह एक असामान्य चीज के रूप में देखते है।कई बुद्धिजीवी पोस्ट-कोलोनियल के नाम पर वस्तुतः कोलोनियल सिद्धांतों को ढो रहे हैं।निश्चय ही सामने उपस्थित चुनौतियों का सामना प्राक-औपनिवेशिक दशा या हजार-पंद्रह सौ साल पहले की मानसिक दशाओं में लौटकर नहीं किया जा सकता।हमने पिछले सैकड़ों साल के संघर्षों के बीच से बहुत कुछ नया रचा है जिसे ध्वस्त किया जा रहा है, पर हम उसे खोना नहीं चाहते।हालांकि चिंता होती है कि खासकर पिछली दो सदियों के महान व्यक्तित्वों के आदर्शों की जगह अब हमारे पास बस उनके नाम पर दी जा रही कुछ सरकारी छुट्टियां बची हैं!

फिर भी यदि इतिहास अनंत है तो अभी कई नई घटनाएं सामने आएंगी।आम लोगों के असंतोष और विवशता का अंततः एक समाधान सामने आएगा, क्योंकि लोगों के पास हजारों साल के अनुभव से विकसित ‘कॉमन सेंस’ है।मुझे लगता है कि आम लोगों के पास उनकी सबसे बड़ी ताकत उनका कॉमन सेंस है।यह भले फिलहाल तोड़-फोड़ वाले विचारों और छवियों से घिरा हुआ है, लेकिन इसमें जाति-धर्म-स्थानीयता आदि के कृत्रिम विभाजनों के पार देखने की शक्ति है।

एक समय भक्त कवि पढ़ेलिखे न होने के बावजूद कॉमन सेंस से ही समझ सके थे कि क्या सच है और क्या पाखंड है।प्रेमचंद के अनपढ़ चरित्र सूरदास (रंगभूमि), धनियागोबर (गोदान), बच्चा हामिद (ईदगाह) कॉमन सेंस से ही समझते हैं कि सच, उचित और न्यायपूर्ण क्या है।उनपर अतीत और पश्चिम का बोझ नहीं था।

यह भी कहना चाहिए कि मनुष्य का कॉमन सेंस उसकी सद्बुद्धि, सदभावना और सकारात्मक स्मृतियों का ऐसा रूप है जो कभी मिटाया नहीं जा सकता।२१वीं सदी का उन्नत कॉमन सेंस ही देश में कामन प्लेस को बचाकर रखेगा।

साहित्य आलोचनात्मक अंतर्द़ृष्टि देता है

साहित्य सदियों से घृणा, हिंसा और दमन के समानांतर मानव की निश्छल आवाज रहा है।दुनिया के दूसरे देशों में यह है और भारत में सब कूड़ा-करकट है, यह माना नहीं जा सकता।साहित्य हमारी अंतरात्मा का रक्षक ही नहीं, निर्माता भी है।भूल-भटक जाने पर हम साहित्य में ही अपने को खोज पाते हैं और जीवन के सौंदर्य को पहचानते हैं।इसने हमेशा वह दिखाया जो सत्ता के अंतर्जाल में फँसे रहकर और एक ‘स्थान’ में सीमाबद्ध होने पर नहीं दिख सकता।

साहित्य का सांस्कृतिक के साथ-साथ राजनीतिक महत्व भी है।राजनीति अब तक साहित्य के साथ क्या करती रही है, यह स्पष्ट है।हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण यह है  कि साहित्य राजनीति को किस तरह ले।यह सत्ता, इतिहास, सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व, प्रतिरोध आदि प्रश्नों को कैसे देखे।साहित्य निश्चय ही राजनीति की छाया नहीं है।

साहित्य निजी महत्वाकांक्षाओं की सीढ़ी, उपभोक्ता वस्तु या साहित्य उत्सवों के आभूषण से अलग चीज है।इसमें ऐसा बहुत कुछ होता है जो रोज के अनुभवों को समझने के लिए एक आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि देता है, हमारी संवेदना का विस्तार करता है और हमारी ‘इंटीग्रिटी’ को बचाता है।

भारत की आवाज वह है जो उसकी व्यापक सामाजिक अंतरात्मा की भाषा में है।निश्चय ही यह वैश्वीकरण का युग है, लेकिन इसका सामना हमें अतीत के औजारों की जगह भविष्य के औजारों से करना होगा।अतीत की टॉपिंग वाला आधुनिक पिज्जा देकर किसी को ज्यादा समय तक भूलभुलैए में नहीं रखा जा सकता।